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कहिन

दो अनब्याही माताओं के बहाने

अनुष्का शंकर और निरूपमा पाठक। दो महिलाएं। दोनों अनब्याही मां। दोनों के साथ अलग-अलग व्यवहार। अनुष्का शंकर ने पिछले दिनों ऐलान किया कि वह मां बनने वाली है। एम्स ने निरुपमा पाठक के बारे में बताया कि वह प्रिगनेंट थी।

<p style="text-align: justify;">अनुष्का शंकर और निरूपमा पाठक। दो महिलाएं। दोनों अनब्याही मां। दोनों के साथ अलग-अलग व्यवहार। अनुष्का शंकर ने पिछले दिनों ऐलान किया कि वह मां बनने वाली है। एम्स ने निरुपमा पाठक के बारे में बताया कि वह प्रिगनेंट थी।</p> <p>

अनुष्का शंकर और निरूपमा पाठक। दो महिलाएं। दोनों अनब्याही मां। दोनों के साथ अलग-अलग व्यवहार। अनुष्का शंकर ने पिछले दिनों ऐलान किया कि वह मां बनने वाली है। एम्स ने निरुपमा पाठक के बारे में बताया कि वह प्रिगनेंट थी।

एम्स ने निरुपमा के पोस्टर्माटम की जो रिपोर्ट प्रकाशित की, उसमें निरूपमा की मौत का कारण आत्महत्या करना बताया गया और यह भी कि वह प्रिगनेंट थी। अनुष्का खुलेआम खुशी से अपने प्रसव काल की घोषणा कर सकती है, करती है, दुनिया की वाहवाही और शुभकामनाएं भी उसके साथ होती है, अनुष्का का परिवार इस खुशी में उसके साथ कदम से कदम मिलाता है, लेकिन निरूपमा की पोस्टमार्टम रिपोर्ट उनके परिवार के दुख, अपमान और क्षोभ की वजह बन जाती है।

ये कैसी विडम्बना है कि एक ही समाज और संस्कृति से संबंध रखने वाली स्त्रियों के लिए रास्ते और समाज के कायदे अलग-अलग हैं. क्यों एक आम अनब्याही मां भी अनुष्का की तरह ही खुश होने का अधिकार नहीं पा सकती? क्या ये समाज का दोगलापन नहीं है कि एक अनब्याही मां अपनी इस स्थिति को खुशी से बयां कर सकती है और दूसरी उसी स्थिति के लिए आत्महत्या का रास्ता चुनती है। निरुपमा के कोख में भी जीवन का एक अंकुर फूट रहा था, लेकिन अपने गर्भ में पल रहे इस नन्हे जीव ने उसे अवसाद और निराशा से भर दिया।

अपने कानों में मां  सुनने का वह पवित्र और ईश्वरीय अहसास जिसका हर स्त्री अपने जीवन में बड़ी बेसब्री से इंतजार करती है, लेकिन क्यों यह अहसास भी निरुपमा के अंदर जीवन का मोह जगाने में असफल रहा। निरूपमा कोई अनपढ़ और असर्मथ लड़की नहीं थी, बल्कि वह तो अपने को सुधारों और नई सोच का पुरोधा समझने वाले मीडिया जगत का ही एक हिस्सा थी। उसमें इतनी काबिलियत थी कि वह ता-उम्र अपने पैरों पर खड़ी रह सके, लेकिन ऐसा क्या था कि इतनी समर्थ होते हुए भी वह ज़िन्दगी जीने की हिम्मत नहीं जुटा पाई।

निरुपमा जैसी जाने कितनी लड़कियां इस मनोस्थिति और इस दौर से गुजरती होंगी और निश्चय ही उनके सामने आत्महत्या ही सबसे सरल विकल्प होता होगा, क्योंकि हमारे समाज ने इससे अच्छा विकल्प उनके लिए छोड़ा ही नहीं। यह वही समाज है जहां औरत को मां बनने का अधिकार तो दिया गया है, लेकिन केवल एक स्त्री और इंसान के रूप में नहीं किसी की पत्नी के रूप में। ऐसा समाज और देश जहां कि न्यायपालिका (लगभग एक महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने एक केस के संदर्भ में) निर्णय देती है कि किसी भी स्त्री को मां बनने का पूरा अधिकार है और उससे उसका ये अधिकार कोई नहीं छीन सकता। जो भी स्त्री को उसके इस अधिकार से वंचित करता है या उसका हनन करता है, उसका अपराध अक्षम्य श्रेणी में आता है।

लेकिन हमारा समाज ऐसा अक्षम्य अपराध बार-बार करता है, लेकिन दंड तो दूर, हममें से कोई प्रतिरोध करना तो दूर, चूं तक नहीं करता। परिणामस्वरूप आए दिन हजारों निरूपमायें आत्महत्या करने को मजबूर होती हैं, क्योंकि चहुंमुखी विकास और सभ्यता का दावा करने वाले हमारे समाज की सोच में कोई परिवर्तन नहीं आया है और ना ही आने की उम्मीद है। आज भी औरत उसके लिए इंसान नहीं बच्चा पैदा करने की एक मशीन है। सिर्फ और सिर्फ मां नहीं। इसके लिए जिम्मेदार है हमारा समाज और संस्कृति जिसके कुछ अनसुलझे और अनसमझे रीति-रिवाज और कायदे-कानून हम सदियों से ढोते चले आ रहे है।

यहां महाभारत की कुंती को बिनब्याही मां बनने पर कर्ण को त्यागना पड़ता है, लेकिन यहीं कुंती विवाह के बाद पांडु के संसर्ग के बिना ही किसी भी देवता के समागम से संतान पैदा करने का अधिकार पा लेती है। द्रौपदी पांच पतियों के साथ रह सकती है, लेकिन सीता को अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता है। राजे-महाराजे अपने हमाम की कई औरतों से संतानोत्पति कर सकते है, लेकिन कोई साम्राज्ञी किसी गैर से प्रेम संबंध बना ले तो उसे मौत के घाट उतार दिया जाता था। इतिहास गवाह है कि हमारा समाज सदियों से इसी लीक पर चल रहा है जहां कभी औरत को इंसान के तौर पर देखने की पंरपरा ही नहीं रही।

औरत का बिन ब्याही मां बनना घोर पाप है और वह व्याभिचार की सबसे बड़ी मूरत। किसी भी शारीरिक स्थिति  या मापदंडों से ये कैसे साबित होता है कि उसका व्यक्तित्व कलुषित है। अगर शारीरिक स्थिति ही किसी के व्यक्तित्व के चरित्र का आकलन करने का सटीक मापदंड है तो पुरुषों के परिपेक्ष्य में इसे क्यों नहीं लागू किया जाता। समाज में मां बनने का ये खूबसूरत अहसास और मोड़ किसी स्त्री के लिए तभी जायज है। जब कोई उस पर विवाह का ठप्पा लगा दे, अन्यथा अनब्याही मां समाज के लिए एक तुच्छ और पापी इंसान है, जो इस अपराध से तभी मुक्ति पा सकती है जब वह अपनी इहलीला समाप्त कर लें, क्योंकि वह केवल एक मां बन कर समाज में सिर उठा के नहीं जी सकती।

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अनब्याही औरत ही क्यों भूले से कभी कोई मां अपने बच्चे के लिए जी भी लेती है तो हमारी व्यवस्था उसकी संतान का जीना हराम कर देती है। अनब्याही मां की संतान से आदर और सम्मान के सभी अधिकार स्वतः छीन जाते है, क्योंकि वह केवल अपनी मां के नाम पर समाज में सम्मान नहीं पा सकता। हमारे समाज में अनब्याही मां आत्महत्या के अलावा किसी और रास्ते की तरफ नहीं जा सकती, लेकिन आज तक ऐसा एक भी मामला प्रकाश में नहीं आया, जब कोई अनब्याहा बाप  शर्मिंदा हो या उसने मौत को गले लगाया हो। यदि समाज और संस्कृति की नजर से विवाह से पहले स्त्री-पुरूष के लिए शारीरिक संबंध वर्जित है तो इसका दंड केवल औरत क्यों भुगते।

क्षणिक आवेश में, किसी के विश्वास पर या धोखे से समाज की इच्छा के विरूद्ध स्त्री-पुरूष में शारीरिक संबंध बनते है तो क्या स्त्री ही इसके लिए दोषी है, संबंध का सहोदर पुरूष क्यों साफ बेदाग बच निकलता है। इस बात का जवाब हमारे- तुम्हारे समाज के पास ना कभी था और ना ही होगा। हकीकत तो ये है कि बिनब्याही मां और एक स्त्री को प्रताड़ित करने का अधिकार गंवाना गवारा नहीं है,क्योंकि औरत को केवल मां के रूप में स्वीकार करने की उसकी हिम्मत ही नहीं है। यहां तो हालत ये है कि किसी अनब्याही मां  बलात्कार की शिकार युवती से विवाह या उसे अपनाने की बात तो दूर हम अपने भाई-बंधुओं के विवाह के लिए कुंवारी कन्या की तलाश में हाथ-पैर मारते फिरते हैं।

यहां भी इंसानियत पर शरीर की पवित्रता की मानसिकता हावी है। देखा जाए तो शरीर के अंदर ही इतनी गंदगी भरी है, जिसका हम रोजाना उत्सर्जन ना करे तो शऱीर सड़ जाए। पवित्रता तो आत्मा की, विचारों की, मन की महत्वपूर्ण है, लेकिन यहां तो सब-कुछ शरीर आधारित है। यहां समाज महिलाओं और युवतियों के लिए समाज सभी मापदंड शरीर से शुरू करता है और वहीं से खत्म। गोया  कि स्त्री का शरीर कोई मशीन हो, जो एक बार बिगड़ गई या जिसका प्रयोग बलपूर्वक किया गया हो या उसकी स्वेच्छा से, तो उसे कोई दूसरा लेने करने से भी परहेज करेगा।

ऐसा नहीं होता तो बलात्कार की शिकार कोई भी स्त्री शर्म महसूस नहीं करती, आत्महत्या की नहीं सोचती। जिस दिन समाज में इतनी शक्ति या हिम्मत आ जाएगी जब बलात्कार पीड़ित युवती बिना किसी हिचक और शर्म के उसका नाम समाज को बता सकेगी और बलात्कारी को इस कृत्य के लिए  उस युवती से बिना किसी रिश्ते में बंधे ताउम्र के लिए उसका हर खर्चा और जिम्मेदारी उठानी होगी। जब कोई अनब्याही मां उसे गर्भवती बनाने में सहायक पुरूष या साथी का नाम बिना झिझक खुलेआम बता पाएंगी और उस पुरूष के नाम के बिना ही अपने बच्चे के पालने-पोसने की आजादी हासिल कर पाएगी। तब शायद कोई निरूपमा आत्महत्या नहीं करेगी और ना ही कोई स्त्री बलात्कार का शिकार बनेगी।

लेखिक रचना वर्मा युवा व प्रतिभाशाली पत्रकार हैं.

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0 Comments

  1. rajnsih chauhan

    September 1, 2010 at 1:51 pm

    रचना जी आपने जो लिखा वो काफी हद तक सही है लेकिन इन सब बातो में आपने ये जिक्र नहीं किया की वो महिला या युवती खुदा क्या सोचती है जो अनब्याही माँ बनती हैं? निश्चित तौर पर भारतीय संस्कृति के हिसाब से ये काफी बड़ा कदम है लेकिन आपने निरुपमा और अनुष्का का जो उद्धरण दिया वहां दोनों व्यक्तित्व एक दुसरे के विपरित्त हैं| अनुष्का शंकर दुनिया भर के आगे खुलकर कबूल रही हैं की वो अनब्याही माँ बनना चाहती हैं..इससे साफ़ है की वो मानसिक रूप से इसके लिए पूरी तरह तैयार हैं और अपनी संतान की सभी जिम्मेदारी उठाने का माद्दा रखती हैं, वहीँ दूसरी तरफ निरुपमा पाठक जी गरभवती होने पर ऐसा कदम उठाती हैं| ऐसे में कोई भी समाज को दोषी कह सकता है लेकिन हकीकत ये है की एक समाज अनुष्का की सोच रखता है और एक समाज निरुपमा की, जो खुद इसे गलत मानता है| और उनके इस फैसले के लिए उन्हें समाज प्रेरित नहीं करता बल्कि वो खुद उस समाज का हिस्सा बनकर वैसा ही सोचते हुए ये कदम उठाते हैं|

  2. पंकज झा.

    September 1, 2010 at 2:05 pm

    किसी भी भविष्य का असमय समाप्त होना निश्चय ही वज्रपात सरीखा है. लेकिन रविशंकर और निरुपमा के परिवार को आप एक संस्कृति का नहीं कह सकती. शायद आपको पंडित रविशंकर के सम्बन्ध में भी पता ही होगा. तो उन्होंने अपने बच्चों को जो संस्कार दिए (मेरा मतलब अछे या बुरे से नहीं है ) उसका परिणाम कुवारी मां बनने पर खुशी मनाने के रूप में ही सामने आना है. लेकिन इसके उलट जिस कस्बाई संस्कृति से निरुपमा आयी थी उसमे यह इतना सहज नहीं था, और ना ही अनुष्का जैसे संस्कार ही उसे मिले रहे होंगे. अतः यह तुलना, तुकबंदी से अधिक कुछ नहीं है…धन्यवाद.

  3. MJ Qureshi

    September 1, 2010 at 2:53 pm

    रचना
    समस्या विकत है.हम जब तक दोहरी मानसिकता में जीते रहेंगे यह समस्या rahegi

  4. khabri

    September 1, 2010 at 3:00 pm

    नारी सशक्तिकरण की बात अभी बेमानी है। धन्‍य है वो मां बाप जो बेटी को स्‍वतंत्रता देते है अपनी इच्‍छा के अनुरूप जीवन जीने की, अपनी इच्‍छा के अनुरूप वर चुनने की।

  5. Avdhesh Dandotiya

    September 1, 2010 at 3:09 pm

    aapne jo lekh likha hai, kabile tareef hai
    nari ke dil ka dard har insaan ko samajhna chahiye

    lekh likhne ke liye dhero badhai

  6. chandra kumar gzp

    September 1, 2010 at 4:09 pm

    ftl csckch ls vkius lekt dks vkbZuk fn[kk;k gS og okdbZ esa dkfcys rkjhQ gSA ijUrq iq:”k iz/kku lekt esa bruh tYnh dksbZ ifjorZu vkus okyk ugh gSA blds fy, O;ogkfjd fl)kUr Hkh viukus gksxsA fy[kus i

  7. Rana Pawan

    September 1, 2010 at 4:53 pm

    bhut badiya likha h. apke vicharo ki daat deni hogi..kafi ache vichar hai

  8. Arvind Kumar

    September 1, 2010 at 5:13 pm

    Rachna verma ji ….aap khud mahila hain ? aap samaje main rahti hain ? sanskar honge aap mai? aapko ye atpata lag raha hoga…..manav main aur janwar main sirf itana antar hain ki hamne samaj ki parikalpna ki , samaj banaya .samaj matlab ek aisa niyam jise sabhi ko palan karna chahiye (jaroori naheen). samaj mein vaisya bhi hain wo bhi nature ke banaye huee karyon ko hi nispadan karti hain..kuch aur khas naheen….ye ek satya hai purush ho ya stri..sex ek aisi bhukh hai jiske nispadan ke liye samaj ne ek rasta bataya aur jiske palan karne se hamara jivan saral ho jata hai…balatkar ek aisi prakriya hai jise koyee, kisi bhi samaj main naheen roka ja saka hai na hi roka ja sakta hai….isame manusya ka dosh naheen ye prakriti ki den hai ….bas ham thode se asabhya huee ..samaj ki banai hui niyam ko bhul gaye aur ho gaya balatkar….isase jyada kuch naheen……shadi karne ke baad man ban jana samajik vyawastha hai na ki natural.
    haan lekin ham jis samaj main rahte hain usake niyamon ka palan ham kitna karte hain ye is baat per depend karta hai ki ham samaj ke prati kitne kitne jimmewar hain.live-in-relation , homo, lesbian…..ye sab aaj bhi hamare samaj main hain ..sadiyon se the ..aur rahenge……per ise samajik rup main ham bure karyon jaisa mante hain…..matlab ham mante hain……agar samaj ke banaye hue niyam ke prati jagruk hain to……aaj stri ye mahsus karti hai ki ki use aajadi ke naam per bina shadi kiye pregnent ho kar garv mahsus karna chahti hai …to isame kuch burai naheen hai ….purush samaj to kab se aisi ajadi ke intajaar main hai ….per ab to kanoon bho ho gaya hai ki ek patni ke rahte huee aap dusari shadi bhi naheen kar sakte…….
    aap india main hain to itani ajadi ki baat kar rahi hain …jarmani ki ek net friend(mahila) ne bataya ki wahan 60 % mahilayen aisi hi hain bina husband ke man….
    india main viv rechards ki kahani aap janti hongi….
    ek ladaki ke paida hone ke saath hi ye bhi pakka ho jata hai ki wo jab jawan hogi to kya hoga…..samaj ke ander ….log ladaki ki shadi ko ek yagya ka naam diya hai…ise aap dusare naam bhi de sakti hain….sex……bas dekhne ka najariya hai…..cheejen wahi hain……

  9. harendra

    September 1, 2010 at 6:03 pm

    gajab likha rachna ji. samaj ki doguli mansikta ka isse achchha varnan nahi ho sakta. lajavab…..

  10. xyz

    September 2, 2010 at 4:14 am

    Bilkul sahi kaha Rachna aap ne ! Shaabash ! carry on ! but in our home — who take important decisions ? Father or mother ? Even girls never give importance to their mother as much as they give for Father !
    lekin bina shaadi-byaah kiye , sex ya bachche paida karne ki waqaalat aap na karti to achcha lagta ! Ha ! kisi pidit mahila ke saath baadhyata ho jaaye to aap ka kahna bilkul jaayaz hai ! is baat se bhi ittefaaq rakhta hu ki har kisi ko apni marzi se jeene ka haq hai , Lihaaza aap ki SAMAANATA KA HAQ waali aawaaz dusari ladkiyaan bhi sune , yahi shubhkaana aur samarthan !
    Sabke ghar mein auratein aur ladkiyaan hain, par aawaaz kahin-kahin hi uthatee hai, APNE ADHIKAARON KE LIYE !
    kHAIR ! shuruwaat kahin se to huiee , achcha laga ki maamla ab sansad se nikal kar sadkon tak pahunch raha hai ! 50-50 na sahi par 33% reservation ke saath sansad mein 33-76 % ka ratio ban chuka hai , ab raha sadak ka maamla to ye sabke ghar ke saamne se guzarati hai !
    Par is desh mein do kaviyon ki samaanatar line humesha rahi hai aur dono ko behad pasand kiya jaata raha hai —-

    1) haaya re ablaa teri yahi kahani – aanchal mein hai dudh aur aankhon mein paani

    2) Bundele ke harbolon ke muh————- khub ladi mardaani, wo to jhaansi waali raani thi .

    AAP NE DUSRA ANDAAZ APNAAYA !
    Ummid ! ki aap ka andaaz ta-umra yu hi rahega , par samanata ke chakkar mein ati-waadita na ho jaaye to !
    Again ! SHAABASH !

  11. abhishek1502

    September 2, 2010 at 5:20 am

    bahut hi achcha mudda hai ye .
    hamare samaj ko nishchit hi vichar karna hoga

  12. xyz

    September 2, 2010 at 8:53 am

    Likha to bahut achcha hai ! khushi hui ki aurat ki aawaaz ab sansad ke baad sadak par bhi sunayee de rahi hai ! SAADHUWAAD ! par is baat ko aap saaf nahi kar pa rahi hain ki BINA SHAADI kiye aap sex aur parinaamswarup hone waale bachchon ki hausalaafazaayee kar raheen hain ya phir saman haq aur vichaardhaara ki waqaalat ?
    Aap ne kahin par bhi ye bayaan nahi kiya ki BHARATEEYA SAMAAJ ki purani parampara ( Shaadi ke baad shaaririk sambandh aur phir bachce) ka aadar hona chaaiye ! HA ! Main ap ke is nazariye se ittefaaq rakhta hun ki samaaj ka koi bhi ( nichlaa, madhyam ya uparee ) tabkaa ho , sabke liye JO GALAT HAI SO GALAT HAI waalaa niyam laagu kiya jaana chaaiye !
    Par Ghar-Ghar ki kahaani hai ki saare aham faisale BAAP leta hai, maa nahi ! BETI KI IZZAT AUR SHAADI jaise nirnayon mein to BAAP KA EKAADHIKAAR hota hai ! aur ghar-ghar ki patniyaan aur betiyaan bhi is baat ko khushi-khushi kubul karti hain !
    AAZAADI ki paribhaasha badi lambi hoti hai aur kai adhikaaron ki maang kar baithati hai ! in adhikaaron mein jaayaz haq ke saath -saath swachandata aur atikraman ka bhi , AKSAR, samavesh ho jaata hai !
    Fharq samajh mein nahi aaya ki aap kis tarah ki smaanata chaahti hain ?
    Qanoonan , aadmi aur aurat dono ko samaan haq milna chaiye , par Shaadi se pahle sex aur bachche ki waqaalat kyon ?
    KHAIR ! ACHCHA LIKHNE AUR AAP KE AAKRAAMAK RAWAIYE KE LIYE EK BAAR PHIR SE SAADHUWAAD !

  13. rajesh kumar

    September 2, 2010 at 9:42 am

    hii rachna.tumne bahot sahi likha hai.agar aap celebrities hain to aapke saare kam par wahwahi milti hai bt aam hokar aap kutch parmpara se hatkar karte hai to jillate sahna padta hai.waise main tumhen janta hun.main hindustan me gzbd me reporter hun

  14. niranjan kumar

    September 3, 2010 at 11:52 am

    do mahilayein dono doshi

    achha laga padhkar, lekin jab samaj ko disha nirdesh dene ki damkham rakhne vali mahila aatmhatya jaaisi kadam uthayegi to aam mahila kyon nahin karne ko sochegi, nirupma ko sach batane aur aapne marji se jeena chahiye tha.
    vahin anushka ke kadam se samaj mein galat sandesh jayega. vivah namak sanstha tutegi to mahilaon ki sthiti aur badtar hogi. aise bhi bhagwan ke baad celebreties ke sau khun maf mana jata hia.

  15. Navkant Thakur

    September 10, 2010 at 8:07 am

    bkten banana bhut aasan hai… khud par gujare to pata chalta hai… agar khud ki bina byahi bahan ya beti ghar aakar kahe ki wo pet se hai… maa banane wali hai… tab 99.9 sa bhi adhik logon ke dil par kya gujaregi…. ye sabko pata hai… kya ye sabhi galat hain?… soch kar dekhiye….?

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