भोपाल के पत्रकार शिव अनुराग पटैरया की स्वर्गीय राजेन्द्र माथुर पर केन्द्रित पुस्तक आई है. पुस्तक का प्रकाशन ‘प्रभात प्रकाशन’ नई दिल्ली ने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल की ‘पत्रकारिता के युग निर्माता’ श्रृंखला के तहत किया है. स्वर्गीय राजेन्द्र माथुर ने आजादी के बाद की हिन्दी पत्रकारिता को साहित्य और अनुवाद के आवरण से बाहर निकालकर आधुनिकता के युग में प्रवेश कराया.
राजेंद्र माथुर के पहले हिन्दी पत्रकारिता सीमित दायरे में चहलकदमी करती नजर आती थी. हिन्दी पत्रकारिता को दोयम दर्जे के हीनबोध से युक्त कराने का श्रेय उन्हीं को है. ऐसे में इस दिग्गज सम्पादक और स्तंभकार के विषय में लिखना और उसे 142 पृष्ठों में समेटना एक चुनौती था. राजेंद्र माथुर का लिखा उनकी मृत्यु के बाद बहुत रूपों में छपा है और उनके लिखे के तरह-तरह के संग्रह उपलब्ध है पर यह विचारणीय है कि राजेन्द्र माथुर के विषय में कम ही लिखा गया है. यही तथ्य उनको अपने समकालीनों से अलग पहचान देता है.
जो थोड़ा बहुत उनके बारे में लिखा गया, वह उनकी मृत्यु के तत्काल बाद उनके कुछ मित्रों और सहयोगियों ने लिखा था, जिसकी प्रकृति ओबेच्युरी की है. ऐसे चार लेख इस पुस्तक में संग्रहित है. संभवतः उन पर कम लिखे जाने के पीछे यह कारण है कि उन्होंने न तो चेले बनाये और न ही मैदान में पट्ठे ही उतारे, क्योंकि वे जिस आधुनिक बौद्धिकता से लवरेज थे उससे बराबरी की गुजाइंश तो थी लेकिन गुरूडम की नहीं. यही कारण हो सकता है कि एक अलग चमक और कद के बावजूद उनका महिमा मंडन नहीं हुआ. इसे राजेन्द्र माथुर के गुण के रूप में ही देखा जाना चाहिए.
राजेन्द्र माथुर की मृत्यु के लगभग 20 साल बाद यह पहला प्रकाशन है कि जिससे उन्हें एक अलग ही नजरिए से देखने की कोशिश की गई है. लेखक शिव अनुराग पटैरया ने अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत नईदुनिया, इंदौर में माथुर साहब की निगरानी में ही की थी. श्री पटैरया पर स्वर्गीय माथुर का असर इस मोनोग्राफ में इस रूप में दिखता है कि राजेन्द्र माथुर के व्यक्तिगत जीवन और व्यक्तित्व पर केवल 10 पन्ने हैं, शेष में उनके लेखन के विविध आयाम हैं, विश्लेषण हैं और उनके चुनिन्दा पांच आलेख हैं. लेखक ने पचपन पृष्ठों में राजेन्द्र माथुर के लेखन की व्यापकता और गहनता को आंकने की कोशिश की है. राजेंद्र माथुर के लेखन का विश्लेषण करते हुए श्री पटैरया ने उनके विभिन्न आलेखों से छोटे-छोटे टुकड़े उठाए है जिससे माथुर साहब की लेखन शैली और विषयों के व्यापक दायरे से पाठक सहजता से परिचित होता है.