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माथुर साहब को पढ़कर एक पीढ़ी पली-बढ़ी है

[caption id="attachment_17827" align="alignleft" width="99"]राजेंद्र माथुरराजेंद्र माथुर[/caption]: राजेंद्र माथुर की जयंती (7 अगस्त) पर खास : रचना और संघर्ष का सफरनामा : राजेंद्र माथुर की पूरी जीवन यात्रा एक साधारण आम आदमी की कथा है। वे इतने साधारण हैं कि असाधारण लगने लगते हैं। उन्होंने जो कुछ पाया, एकाएक नहीं पाया। संघर्ष से पाया, नियमित लेखन से पाया, अपनी रचनाशीलता से पाया। इसी संघर्ष की वृत्ति ने उन्हें असाधारण पत्रकार और संपादक बना दिया। राजेंद्र माथुर का पत्रकारीय व्यक्तित्व इस बात से तय होता है कि उनके लेखन में विचारों की गहराई कितनी है।

राजेंद्र माथुर

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: राजेंद्र माथुर की जयंती (7 अगस्त) पर खास : रचना और संघर्ष का सफरनामा : राजेंद्र माथुर की पूरी जीवन यात्रा एक साधारण आम आदमी की कथा है। वे इतने साधारण हैं कि असाधारण लगने लगते हैं। उन्होंने जो कुछ पाया, एकाएक नहीं पाया। संघर्ष से पाया, नियमित लेखन से पाया, अपनी रचनाशीलता से पाया। इसी संघर्ष की वृत्ति ने उन्हें असाधारण पत्रकार और संपादक बना दिया। राजेंद्र माथुर का पत्रकारीय व्यक्तित्व इस बात से तय होता है कि उनके लेखन में विचारों की गहराई कितनी है।

साथ ही, अपने अखबार को उंचाइयों पर ले जाने का उनका संकल्प कितना गहरा है, हमारे समय के प्रश्नों के जबाव तलाशने और नए सवाल खड़े करने की कितनी प्रश्नाकुलता उनमें है। राजेंद्र माथुर का संपादकीय और पत्रकारीय व्यक्तित्व इस बात की गवाही है वे असहज प्रश्नों से मुंह नहीं चुराते बल्कि उनसे दो-दो हाथ करते हैं। वे सवालों से जूझते हैं और उनके सही एवं प्रासंगिक उत्तर तलाशने की कोशिश करते हैं। वे सही मायने में पत्रकारिता में विचारों के एक ऐसे प्रतीक पुरूष बनकर सामने आते है जिसने अपने लेखन के माध्यम से एक बौद्धिक उत्तेजना का सृजन किया। हिंदी को एक ऐसी भाषा और विराट अनुभव संसार दिया जिसकी प्रतीक्षा में वह सालों से खड़ी थी। इस मायने में राजेंद्र माथुर की उपस्थिति अपने समय में एक कद्दावर पत्रकार-संपादक की मौजूदगी है।

वरिष्ठ पत्रकार सूर्यकांत बाली के मुताबिक- “माथुर साहब जैसा बोलते थे वैसा ही लिखते थे। वे धाराप्रवाह, विचार-परिपूर्ण और रूपक-अलंकृत बोलते थे, तो धाराप्रवाह विचार-परिपूर्ण और रूपक-अलंकृत लिखते भी थे।” श्री बाली लिखते हैं कि “वह एक ऐसा संपादक हैं जिसके मन-समुद्र में विचारों की लहरें एक के बाद एक लगातार, अनवरत उठती हैं, कोई लहर किसी दूसरी लहर को नष्टकर आगे बढ़ने के अहंकार का शिकार नहीं है। और पूनम की कोई ऐसी भली रात हर महीने आती है जब ये लहरें किसी विराट-सर्वोच्च को छू लेने को बेताब हो उठती हैं।”

ऐसे में कहा जा सकता है कि राजेंद्र माथुर के पत्रकारीय एवं संपादकीय व्यक्तित्व में एक बौद्धिक आर्कषण दिखता है। उनके लेखन में भारत जिज्ञासा, भारत अनुराग और भारत स्वप्न पूरी समग्रता में प्रकट होता है। वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र ने लिखा है कि “राजेंद्र माथुर हिंदी पत्रकारिता के उस संधिकाल में संपादक के रूप में सामने आए थे, जब हिंदी अखबार अपने पुरखों के पुण्य के संचित कोष को बढ़ा नहीं पा रहे थे। यह जमा पूंजी इतनी नहीं थी कि हिंदी की पत्र-पत्रिकाएं व्यावसायिकता की बढ़ती हुयी चुनौती को स्वीकार करते हुए इसे बाजार के दबाव से बचा सकें। राजेंद्र माथुर में बौद्धिकता और सच्चरित्रता का असाधारण संगम था, इसीलिए वे हिंदी पत्रकारिता में शिखर स्थान बना सके। वे असाधारण शैलीकार थे। अंग्रेजी साहित्य से प्रकाशित उनकी हिंदी लेखन शैली बिंब प्रधान थी। उनके मुहावरे अपने होते थे। उनमें अभिव्यंजना की अद्बुत शक्ति थी। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में वे शैलीकार के रूप में याद किए जाएंगें। ”

राजेंद्र माथुर एक श्रेष्ठ संपादक थे। उनकी उपस्थित ही नई दुनिया और नवभारत टाइम्स को एक ऐसा समाचार पत्र बनाने में सफल हुयी जिस पर हिंदी पत्रकारिता को नाज है। नवभारत टाइम्स में श्री माथुर के सहयोगी रहे श्री विष्णु खरे ने लिखा है कि- “राजेंद्र माथुर महान संपादक होने का अभिनय करने की कोई जरूरत महसूस नहीं करते थे। दरअसल, लिबास से लेकर बोलचाल तक उनकी कोई शैली या लहजा नहीं था वे अपने मामूलीकरण में विश्वास करते थे, वैशिष्ट्य में नहीं। उनकी संपादकी आदेशों या हुक्मों से नहीं, एक गुणात्मक तथा नैतिक विकिरण से चलती थी। वे एक आणविक ताप या विद्युत संयत्र की तरह बेहद चुपचाप काम करते थे, जो अपने प्रभाव से लगभग उदासीन रहता है। लेकिन वे बेहद परिश्रमी संपादक थे और शायद एक या दो उपसंपादकों की मदद से एक दस पेज का अखबार रोज निकाल सकते थे। वे अजातशत्रु और धर्मराज युधिष्ठिर जैसे थे लेकिन जरूरत पड़ने पर वज्र की तरह कठोर भी हो सकते थे।”

राजेंद्र माथुर का पत्रकारीय व्यक्तित्व बेहद प्रेरक था। आज की पत्रकारिता और मीडिया संस्थानों में घुस आई तमाम बुराईयों से उनका व्यक्तित्व बेहद अलग था। संपादक की जैसी शास्त्रीय परिभाषाएं बताई गयी हैं श्री माथुर उसमें फिट बैठते हैं। उनका व्यक्तित्व बौद्धिक उंचाइयां लिए हुए था। अपनी पत्रकारिता को कुछ पाने और लाभ लेने की सीढ़ी बनाना उन्हें नहीं आता था। उनके समकक्ष पत्रकारों की राय में वे जिस समय दिल्ली में नवभारत टाइम्स जैसे बड़े अखबार के संपादक थे तो वे सत्ता के लाभ उठा सकते थे। आज की पत्रकारिता में जिस तरह पत्रकार एवं संपादक सत्ता से लाभ लेकर मंत्री से लेकर राज्यसभा की सीटें ले रहे हैं, श्री माथुर भी ऐसे प्रलोभनों के पास जा सकते थे। किंतु उन्होंने तमाम चर्चाओं के बीच इससे खुद को बचाया। पत्रकार विष्णु खरे अपने लेख में इस बात की पुष्टि भी करते हैं। सही मायने में राजेंद्र माथुर एक ऐसे संपादक के रूप में सामने आते हैं जिसने अपने पत्रकारीय व्यक्तित्व को वह उंचाई दी जिसके लिए पीढ़ियां उन्हें याद कर रही हैं।

विष्णु खरे उनके इन्हीं व्यक्तित्व की खूबियों को रेखांकित करते हुए कहते हैं- “राजेंद्र माथुर का जीवन और उनके कार्य एक खुली पुस्तक की तरह थे। कानाफूसी, चुगलखोरी, षडयंत्र, झूठ-फरेब, मक्कारी, उनके स्वभाव में थे ही नहीं। वे किसी चीज को गोपनीय रखना ही नहीं चाहते थे और अक्सर कई ऐसी सूचनाएं निहायत मामूली ढंग से देते थे, जिन पर दूसरे लोग कारोबार कर लेते हैं। इसलिए उनसे बातें करना बेहद असुविधाजनक स्थितियां पैदा कर देता, क्योंकि वे कभी भी किसी के द्वारा कही गयी बात को जगजाहिर कर देते थे और वह व्यक्ति अपना मुंह छिपाता फिरता था। उनकी स्मरण शक्ति अद्वितीय थी और भारतीय तथा विश्व राजनीति में सतही और चालू दिलचस्पी न रखने के बावजूद राष्ट्रीय व विदेशी घटनाक्रम तथा इतिहास में उनकी पैठ आश्चर्यजनक थी। एक सच्चे पत्रकार की तरह उनमें जमाने भर के विषयों के बारे में जानकारी थी और वे घंटों अपने प्रबुद्ध श्रोताओं को मंत्रमुग्ध रख सकते थे। नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बन जाने के बाद वे भविष्य में क्या बनेंगे इसको लेकर उनके मित्रों में दिलचस्प अटकलबाजियां होती थीं और बात राष्ट्रसंघ और मंत्रिमंडल तक पहुंचती थी। लेकिन अपने अंतिम दिनों में तक राजेंद्र माथुर एटीटर्स गिल्ड आफ इंडिया जैसी पेशेवर संस्था के काम में ही स्वयं को होमते रहे।”

उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी हिंदी पत्रकारिता को लेकर उनकी चिंताएं हैं। वे हिंदी पत्रकारिता के एक ऐसे संपादक थे जो लगातार यह सोचता रहा कि हिंदी पत्रकारिता का विचार दारिद्रय कैसे दूर किया जाए। कैसे हिंदी में एक संपूर्ण अखबार निकले और उसे व्यापक लोकस्वीकृति भी मिल सके। नवभारत टाइम्स के कार्यकारी संपादक रहे स्व. सुरेंद्र प्रताप सिंह ने उनकी इन चिंताओं को निकटता से देखा था और वे लिखते हैं- “माथुर साहब का गहन इतिहासबोध, शुद्ध श्रद्धा और उससे उत्पन्न गरिमामय अतीत की मरीचिका पर आधारित हिंदी पत्रकारिता की कमजोर आधारभूमि के बारे में उन्हें बार-बार सचेत करता रहता था। वे भूतकाल के वायवी स्वर्णिम अतीत में जीने वाले नहीं थे। वे स्वप्नदर्शी थे और अपने सपनों की उदात्तता के साथ उन्होंने कभी किसी प्रकार का समझौता नहीं किया। हिंदी पत्रकारिता का वर्तमान परिदृश्य उन्हें बार-बार विचलित तो कर देता था लेकिन एक कुशल अभियात्री की तरह उन्होंने अपने जहाज की दिशा को क्षणिक प्रलोभनों के लिए किसी अन्य रास्ते पर डालने के बारे में क्षणिक विचार भी नहीं किया।”

उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व की विशिष्टता यह भी है कि वे अंग्रेजी प्राध्यापक और विद्वान होने के बावजूद अपने लेखन की भाषा के नाते हिंदी को चुनते हैं। हिंदी उनकी सांसों में बसती है। हिंदी पत्रकारिता को नई जमीन तोड़ने के लिए प्रेरित करने और हिंदी लेखकों एवं पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी का निर्माण करने का काम श्री माथुर जीवन भर करते रहे। इंदौर से लेकर दिल्ली तक उनकी पूरी यात्रा में एक भारत प्रेम, भारत बोध और हिंदी प्रेम साफ नजर आता है। शायद इसी के चलते वे देश की पत्रकारिता को एक नई और सही दिशा देने में सफल रहे।

श्री मधुसूदन आनंद लिखते हैं- “माथुर साहब ने अंग्रेजी में एमए किया था और अंग्रेजी भाषा पर उनकी पकड़ अंग्रेजी पत्रकारों को भी विस्मय में डालती थी। लेकिन उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को चुना तो शायद इसलिए कि वे अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहते थे। अगर यह कहा जाए कि हिंदी पत्रकारों की एक पीढ़ी माथुर साहब को पढ़कर पली और बढ़ी है तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। उनके असामयिक निधन के बाद नवभारत टाइम्स को देश के दूर-दूर के इलाकों से हजारों पत्र प्राप्त हुए थे। ये वे पाठक थे जो उनके उत्कट राष्ट्र-प्रेम, समाज के प्रति उनके सरोकारों, इतिहास की अतल गहराइयों से अनमोल तथ्य ढूंढ कर लाने के उनके सार्मथ्य और शालीन भाषा में राजनेताओं की खिंचाई करने के उनके साहस पर मुग्ध थे। शब्दों का कारोबार करने वाले हमारे जैसे अनपढ़ों और बौद्धिक संस्कारहीनों के साथ तो नियति ने सचमुच अन्याय किया है। उनके लेखन से हम जैसे लोगों को एक दृष्टि तो मिलती ही थी, ज्ञान का वह विपुल भंडार भी कभी बातचीत से तो कभी उनके लेखन से टुकड़ों-टुकड़ों में मिल जाता था, जो प्रायः अंग्रेजी में ही उपलब्ध है और जिसे पढ़कर पचा लेना प्रायः कठिन होता है।”

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पत्रकारीय सहयोगियों और मित्रों की नजर से देखें तो राजेंद्र माथुर के पत्रकारीय व्यक्तित्व की कुछ खूबियां साफ नजर आती हैं। जैसे वे बेहद अध्ययनशील संपादक एवं पत्रकार हैं। उनका अध्ययन और विषयों के प्रति उनके ज्ञान की गहराई उन्हें अपने सहयोगियों के बीच अलग ही व्यक्तित्व दे देती है। दूसरे उनका लेखन भारतीयता और उसके मूल्यों को समर्पित है। तीसरा है उनके मन में किसी प्रकार की पदलाभ की कामना नहीं है। वे अपने काम के प्रति समर्पित हैं और किसी राजनीति का हिस्सा नहीं हैं। चौथा उनमें मानवीय गुण भरे हुए हैं जिसके चलते वे मानवीय कमजोरियों और पद के अहंकार के शिकार नहीं होते। इसके चलते एक बड़े अखबार के संपादक का पद, रूतबा और अहं उन्हें छू नहीं पाता। यह उनके व्यक्तित्व की एक बड़ी विशेषता है जिसे उनके सहयोगी रहे सूर्यकांत बाली कहते हैं- “हमारे प्रधान संपादक को को पांचवा कोई काम आता है, इसमें तो मुझे पूरा शक हैः बस सोचना, पढ़ना, बतियाना और लिखना, उनकी सारी दुनिया इन चार कामों में सिमट चुकी थी।”

श्री माथुर के व्यक्तित्व पर यह एक मुकम्मल टिप्पणी है जो बताती है कि वे किस तरह के पत्रकार संपादक थे। उनका पत्रकारीय व्यक्तित्व इसीलिए एक अलग किस्म की आभा के साथ समाने आता है। जिसमें एक बौद्धिक तेज और आर्कषण निरंतर दिखता है। जाहिर तौर पर ऐसे उदाहरण आने वाली पत्रकार पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक हो सकते हैं कि किस तरह उन्होंने अपने को तैयार किया। असहज और वैश्विक सवालों पर इतनी कम आयु में लेखन शुरू कर अपनी देशव्यापी पहचान बनाई। शायद इसीलिए देश के दो महत्वपूर्ण अखबारों नई दुनिया और नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक पद तक वे पहुंच पाए। यह यात्रा एक ऐसा सफर है जिसमें श्री माथुर ने जो रचा और लिखा वह आज भी पत्रकारिता की पूंजी और धरोहर है। पत्रकारिता का लेखन सामयिक होता है उसकी तात्कालिक पहचान होती है। श्री माथुर के पत्रकारीय लेखन के बहाने हर हम लगभग चार दशक की राजनीति, उसकी समस्याओं और चिंताओं से रूबरू होते हैं। यह एक दैनिक इतिहास की तरह का लेखन है जिससे हम अपने विगत में झांक सकते हैं और गलतियों से सबक लेकर नए रास्ते तलाश सकते हैं। उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे एक ऐसे लेखक संपादक के तौर पर सामने आते हैं जो पूर्णकालिक पत्रकार हैं। वे किसी साहित्य की परंपरा से आने वाले संपादक नहीं थे। सो उन्होंने हिंदी पत्रकारिता पर साहित्यकार संपादकों द्वारा दी गयी भाषा और उसके मुहावरों से अलग एक अलग पत्रकारीय भाषा का अनुभव हमें दिया।

हिंदी को संवाद को, संचार की, सूचना की भाषा बनाने में उनका योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। सही मायने में वे एक ऐसे संपादक और लेखक के रूप में सामने आते हैं जिसने बहुत से अनछुए विषयों को हिंदी के अनुभव के विषय बनाया जिनपर पहले अंग्रेजी के पत्रकारों का एकाधिकार माना जाता था। उन्होंने भावना से उपर विचार और बौद्धिकता को महत्व दिया। जिसके चलते हिंदी को एक नई भाषा, एक नया अनुभव और अभिव्यक्ति का एक नया संबल मिला। उनकी बौद्धिकता ने हिंदी पत्रकारिता को अंग्रेजी अखबारों के सामने सम्मान से खड़े होने लायक बनाया। इससे हिंदी पत्रकारिता एक आत्मविश्वास हासिल हुआ। उसे एक नई ऊर्जा मिली। आज हिंदी पत्रकारिता में जिस तरह बाजारवादी ताकतों का दबाव गहरा रहा है ऐसे

संजय द्विवेदी

संजय द्विवेदी

समय में राजेंद्र माथुर के बहाने हिंदी पत्रकारिता की पड़ताल एक आवश्यक विमर्श बन गयी है। शायद उनकी स्मृति के बहाने हम कुछ रास्ते निकाल पाएं जो हमें इस कठिन समय में लड़ने और मूल्यों के साथ काम करने का हौसला दे सके।

लेखक संजय द्विवेदी माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं.

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0 Comments

  1. Shishir Singh

    August 7, 2010 at 1:17 pm

    राजेन्द्र माथुर जी के व्यक्तित्व के बारे में पढ़कर अच्छा लगा सर।

  2. deepak baba

    August 7, 2010 at 4:55 pm

    और पूनम की कोई ऐसी भली रात हर महीने आती है जब ये लहरें किसी विराट-सर्वोच्च को छू लेने को बेताब हो उठती हैं।
    मैं कोम्पोज़र हूँ, में नहीं जानता की पत्कारिता क्या होती है, परन्तु जब माध्यमिक कक्षा में पड़ता था तो घर में नवभारत आता था… .. इनका नाम तब से जानता हूँ,
    और आज पढता हूँ तो उक्त पंक्तिया ठीक लगती हैं

  3. sushil yadav

    August 8, 2010 at 2:45 pm

    rajendra mathur ji ke bare main padhkar achha laga. itne bade vyaktitwa ke bare main padhen ko mila ye mera soubhagya hai

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