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कलम के महानायक की याद

राजेंद्र माथुर: राजेंद्र माथुर की जयंती (7 अगस्त) पर खास : इकतीस मार्च 1991 की रात। मैंने नवभारत टाइम्स का प्रथम संस्करण छपने को भेजा ही था कि प्रधान संपादक राजेन्द्र माथुर जी का फोन आया। बोले, भोपाल जाना चाहोगे? मैं समझा नहीं। उन्होंने बात बढ़ाते हुए कहा, ‘‘नई दुनिया भोपाल में समाचार संपादक के तौर पर तुम्हें चाहता हूं। अच्छी पत्रकारिता करके दिखाओ। मैंने कहा, ‘जैसा आपका आदेश। लेकिन जाने से पहले मैं एक बार मिलना चाहूंगा।’ माथुर जी ने कहा ‘चिंता मत करो। चार अप्रैल को आगरा में शताब्दी पर मिलो। मैं खुद तुम्हें ज्वाइन कराने चलूंगा।’ अगले दिन मेरा इस्तीफा हो गया।

राजेंद्र माथुर

राजेंद्र माथुर: राजेंद्र माथुर की जयंती (7 अगस्त) पर खास : इकतीस मार्च 1991 की रात। मैंने नवभारत टाइम्स का प्रथम संस्करण छपने को भेजा ही था कि प्रधान संपादक राजेन्द्र माथुर जी का फोन आया। बोले, भोपाल जाना चाहोगे? मैं समझा नहीं। उन्होंने बात बढ़ाते हुए कहा, ‘‘नई दुनिया भोपाल में समाचार संपादक के तौर पर तुम्हें चाहता हूं। अच्छी पत्रकारिता करके दिखाओ। मैंने कहा, ‘जैसा आपका आदेश। लेकिन जाने से पहले मैं एक बार मिलना चाहूंगा।’ माथुर जी ने कहा ‘चिंता मत करो। चार अप्रैल को आगरा में शताब्दी पर मिलो। मैं खुद तुम्हें ज्वाइन कराने चलूंगा।’ अगले दिन मेरा इस्तीफा हो गया।

तीन अप्रैल की रात जयपुर से निकला। चार अप्रैल की सुबह शताब्दी एक्सप्रेस से हम लोग भोपाल आए। चार पॉंच घंटे उनसे पत्रकारिता पर गंभीर और सार्थक बातचीत होती रही। स्टेशन से सीधे नईदुनिया आए। उसी रात को उन्हें स्टेशन छोड़ने गया। ट्रेन लेट थी। उन्होंने सभी को लौटा दिया। मैं और वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश मेहता रेलवे स्टेशन पर उनके साथ दो घंटे रहे। इस दरम्यान भी निजी और कारोबारी जिंदगी पर अच्छी बातचीत होती रही। भारतीय हिंदी पत्रकारिता के महानायक से मेरी यह अंतिम मुलाकात थी। एक सप्ताह बाद वे उस सफर पर चले गए, जहां से लौट कर कोई नहीं आता।

आज सोचता हूं तो ताज्जुब होता है- देश के सबसे बड़े अखबार का प्रधान संपादक अपने मुख्य उप संपादक को एक प्रादेशिक संस्करण में ज्वाइन कराने खुद जाता है- इस चिंता के साथ कि आज पत्रकारिता के स्तर और मूल्यों में गिरावट हो रही है। इसे किसी भी तरीके से रोका जाना चाहिए। इस घटना को यहां याद करने का उद्देश्य संस्मरण मात्र नहीं है। माथुर जी के साथ करीब पंद्रह वर्षों का रिश्ता रहा। यादों का एक लंबा सिलसिला है। लेकिन निजी संस्मरण कई बार पढ़ने वालों को बोर करते हैं और आज राजेंद्र माथुर के जन्म दिन पर उन्हें मैं अलग ढंग से याद करना चाहता हूं।

कई बार पेशेवर साथियों से बहस होती है – आज के दौर की पत्रकारिता को लेकर। क्या प्रिंट और क्या टेलीविजन – दोंनों माध्यमों में मीडिया की गाड़ी पटरी से उतरी हुई है। वे कहते हैं- आज अगर राजेंद्र माथुर भी होते तो शायद कुछ नहीं कर पाते। मैं उनसे सहमत नहीं होता। जिन्होंने राजेंद्र माथुर के साथ काम किया हैं, उन्हें महसूस किया है, वे जानते हैं कि राजेद्र माथुर क्या थे. इतिहास बनाने वाले गांधी एक ही थे, नेहरु और इंदिरा एक ही थे, विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण भी एक ही थे। राजेंद्र माथुर की ताकत भी कुछ ऐसी ही थी। एक ऐसा विराट व्यक्तित्व, जिसकी मौजूदगी में देश की पत्रकारिता सुरक्षित महसूस कर सकती थी और लगातार अनेक पीढ़ियों की फसल पैदा कर सकती थी।

राजेंद्र माथुर की पत्रकारिता 1955 में शुरू हुई और 1991 तक चली। छत्तीस साल तक उनकी कलम आज़ाद भारत और दुनिया में हुए बदलावों का दस्तावेज थी। भारतीय इतिहास उनका विषय नहीं था, लेकिन इतिहास और अपने दौर की घटनाओं का जैसा विश्लेषण राजेंद्र माथुर ने किया वैसा विख्यात इतिहासकारों ने भी नहीं किया। विडंबना है कि आजाद भारत के बाद का इतिहास बहुत गंभीरता से नहीं लिखा गया। न ही हमारी शिक्षा प्रणाली ने उसकी मांग की। सतही तौर पर 1975 तक की घटनाओं का एक लेखा जोखा पाठ्यक्रमों में कहीं कहीं नज़र आता है और वह पढ़ना जरूरी भी नहीं है। इसके बाद का भारत हमारे पाठ्यक्रमों से नदारद है।

देश के बंटवारे से शुरुआत करें तो वास्तविक विभाजन – कथा किसने लिखी? रेडक्लिफ ने किस तरह देश को कपड़े की तरह चीर दिया इसकी अंतर कथा किस पाठ्यक्रम में है। कबाइली युद्ध, गॉंधी की हत्या, चीनी हमला, नेहरु का अवसान, शास्त्री और इंदिरा का उदय, विपक्षी आंदोलन, समाजवाद और दक्षिणपंथ का उपर – नीचे होता ग्राफ, पैंसठ में कच्छ में पाकिस्तान से युद्ध और उसके बाद पूर्ण – युद्ध, ताशकंद में परदे के पीछे की कहानी, पोखरण में परमाणु परीक्षण, बांग्लादेश की आजादी, आपातकाल, जनता पार्टी का धूमकेतु की तरह आना और जाना, इंदिरा गांधी का दोबारा उदय, अंतरिक्ष छलांग, आतंकवाद, एशियाड, संचार क्रांति, कम्प्युटर युग, राजीव का उदय, बोफोर्स कांड, भारतीय राजनीति में अस्थिरता का दौर और दुनिया में भारत का एक महाशक्ति की तरह उभरना – ये सब घटनाएं इतिहास के पाठ्यक्रमों में बारीक विश्लेषण के साथ नहीं हैं। लेकिन राजेंद्र माथुर इन विषयों पर अदभुत – लेखन कर गए हैं। क्या उनके लेखन को पढ़ने के लिए आज किसी के पास वक्त है? नई पीढी़ में राष्ट्रप्रेम और भारत को लेकर अटूट विश्वास नहीं होने पर हम उसे कोसते हैं। क्या हम खुद इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं? यदि इतिहास की इन घटनाओं को हमारे शिक्षातंत्र ने शामिल नहीं किया तो इन पर लिखे गए विवरण – विश्लेषण को अगली पीढी़ तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी हमारी ही है। इस नाते राजेंद्र माथुर को भूलना कम से कम मेरी नज़र में एक गंभीर अपराध है।

यह विडंबना है कि नियति ने राजेंद्र माथुर को हमसे तब छीना, जबकि हमें उनकी बहुत जरूरत थी। नौ अप्रैल 1991 को वे हमारे बीच से गए। उसके बाद एक के बाद एक महत्वपूर्ण बदलाव देश के जीवन में आए। राजीव गांधी की हत्या, पी.वी. नरसिंहराव का आना, आर्थिक उदारीकरण की फायदेमंद किंतु अनियंत्रित और अराजक नीतियां, हवाला कांड और इसके बाद कुछ साल के लिए भारतीय राजनीति में अस्थिरता का दौर। पांच साल तक देश की पहली गै़र कांग्रेसी सरकार, कारगिल-जंग, गंभीर होती कश्मीर समस्या, लालक़िले और संसद पर हमलों जैसी आतंकवादी वारदातों का सिलसिला, यूपीए का आना, महंगाई और नक्सलवाद जैसे विषयों पर राजेंद्र माथुर के विचार और दिशा बोध हमारे साथ नहीं है।

कारोबारीकरण और बाजार के दबाव में मीडिया एक मंडी में तब्दील हो चुका है। किसी स्तर पर मुनाफा एक जरूरत हो सकता है, मगर यह सच है कि प्रिंट और टीवी मीडिया का सुचारु संचालन भी एक बड़ी़ पूंजी की मांग करता है। प्रबंधन के दबाव और रीढ़ विहीन संपादकीय नेतृत्व की शिक़ायत हम कर सकते हैं, लेकिन आज के हालात में हर उद्योग की तरह मीडिया को भी धन चाहिए। अनिवार्य खर्च बेतहाशा बढ़ा है और प्रतिद्वंद्विता के चलते मुनाफा सीमित हुआ है। जयपुर की एक गोष्ठी में राजेंद माथुर ने इसी विषय पर लंबा व्याख्यान दिया था। इसमें दबावों के बीच अपने सामाजिक और राष्ट्रीय सरोकारों के साथ पत्रकारिता करने के मंत्र उन्होंने बताए थे। यह एक ऐतिहासिक व्याख्यान था। उस पर चर्चा कभी बाद में।

आज राजेंद्र माथुर पचहत्तर साल के होते। बीते बीस वर्षों में हम जन्म दिन और पुण्यतिथि पर उन्हें याद तो करते हैं, लेकिन

राजेश बादल

राजेश बादल

उनके विचार और शब्द राष्ट्र संचालन की रीढ़ भी बन सकते हैं- यह कभी नहीं सोचते। जिन लोगों ने उनके साथ काम किया है, उनके दिलों में राजेंद्र माथुर हमेशा धड़कते रहेंगे। जरूरत है राजेंद्र माथुर को देश के दिल की धड़कन बनाने की।

लेखक राजेश बादल वरिष्ठ पत्रकार हैं. राजेंद्र माथुर के साथ काम कर चुके हैं. फिल्म, टीवी, प्रिंट, थिएटर आदि में कार्य का लंबा अनुभव.

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0 Comments

  1. s bharatiya

    August 6, 2010 at 2:11 pm

    BADAL JI, MATHUR JI KO YAD KAR ACHCHA KIYA. SACHMUCH VE KALAM KE DHANI THE. PAR AAJ HOTE TO UNAKE LIYE BHI AAJ MUSHKILEN PESH AATI. NOUKARI CHODANI PADATI. SP, MATHUR JI OUR PRABHASH JI BHI, BADE NASEEB VALE THEN KI UNHEN, ACHCHE MALIK MILE. UN LOGON KO PURI CHUT VA SUVIDHYEN DEE. BAVJOOD ISAKE SP NE RAVIWAR CHOD DIYA THA OUR NAVBHARAT TIMES BHI. AAJ VE HOTE TO VAHI KARATEN JO MALIKAN CHAHATEN. YA FIR KAHIN NAHIN HOTE. AAJ TO SAMPADAK NAM KI SANSTHA KO HI KHATAM KAR DIYA GAYA HAI. SABHI SAMJHOUTE KAR PARIVAR CHALA RAHE HAIN.
    PARIVAR CHALANA BHI KAM BADI CHUNOUTI NAHIN.
    FIR BHI ACHCHI PATRAKARITA KI BAAT HOGI TO INAKI TARAF DEKHANA HI HOGA.

  2. deepak baba

    August 7, 2010 at 5:04 pm

    बादल जी, मैं सर झुका – शत शत नमन करता हूँ उन महामना को…. परन्तु आपका आलेख पड़ता हूँ, तो समझ नहीं आत – नरसिम्हा (मनमोहन सिंह – वित्त मंत्रालय) सरकार की उन नित्तियों पर क्या लिखते…. अच्छा है. परमात्मा अच्छे लोगों को पहले बुला लेता है ताकि उनको ये दुर्दिन न देखने पड़ें. वो परमात्मा – जो हाज़िर है और नजीर है, से में विनती करता हूँ की युवा पीडी को उनसे प्रेरणा मिले ….

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