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मेरा नाम अमर उजाला में नहीं छपता!

राजीव लोचन शाहअखबारों को क्यों यह खामखयाली हो गई है कि वे किसी को भी आसमान पर चढ़ा सकते हैं या किसी का वजूद ही मिटा सकते हैं? बार-बार मीडिया की धोती खुलती है, मगर गलतफहमी अपनी जगह बरकरार है। वे पत्रकार, जिन्हें उनके मालिक कभी भी दफ्तर से उठा कर रद्दी की टोकरी में फेंक सकते हैं, अपने आप को खुदा से नीचे मानने को तैयार ही नहीं होते! उत्तराखंड में सबसे ज्यादा बिकने वाला दैनिक है, ‘अमर उजाला’। आज के बहुतेरे अखबारों की तरह इस अखबार में समाचार कम होते हैं, व्यक्तियों के नाम अधिक। उदाहरण के लिये यदि कोई गोष्ठी हो रही हो तो उसमें हुई चर्चा के केन्द्र में क्या था, यह तो खबर से नदारद होगा, अलबत्ता, एक-डेढ़ दर्जन लोगों के नाम अवश्य होंगे कि ये उस गोष्ठी में शामिल थे।

राजीव लोचन शाह

राजीव लोचन शाहअखबारों को क्यों यह खामखयाली हो गई है कि वे किसी को भी आसमान पर चढ़ा सकते हैं या किसी का वजूद ही मिटा सकते हैं? बार-बार मीडिया की धोती खुलती है, मगर गलतफहमी अपनी जगह बरकरार है। वे पत्रकार, जिन्हें उनके मालिक कभी भी दफ्तर से उठा कर रद्दी की टोकरी में फेंक सकते हैं, अपने आप को खुदा से नीचे मानने को तैयार ही नहीं होते! उत्तराखंड में सबसे ज्यादा बिकने वाला दैनिक है, ‘अमर उजाला’। आज के बहुतेरे अखबारों की तरह इस अखबार में समाचार कम होते हैं, व्यक्तियों के नाम अधिक। उदाहरण के लिये यदि कोई गोष्ठी हो रही हो तो उसमें हुई चर्चा के केन्द्र में क्या था, यह तो खबर से नदारद होगा, अलबत्ता, एक-डेढ़ दर्जन लोगों के नाम अवश्य होंगे कि ये उस गोष्ठी में शामिल थे।

छोटे-छोटे कस्बों में भी इस प्रवृत्ति के चलते अनेक फालतू लोग नेता का दर्जा पा चुके हैं। पता नहीं इससे अखबारों को क्या हासिल होता है मगर आप ‘अमर उजाला’ का हल्द्वानी संस्करण देखेंगे तो मेरी तमाम सक्रियता के बावजूद मेरा नाम आपको कहीं नहीं दिखाई देगा। ऐसा लगभग तीन साल से हो रहा है। सबसे मजेदार बात तो तब हुई कि अगस्त 2008 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के हुड़दंगी छात्रों द्वारा कुमाऊँ विश्वविद्यालय में तोड़फोड़ किये जाने के बाद मैं घटनास्थल पर उपवास में बैठ गया। मैं कुमाऊँ विश्वविद्यालय की कार्य परिषद् का सदस्य हूँ। मेरे साथ एक और सदस्य डॉ. सुरेश डालाकोटी भी बैठे। अगले दिन के अमर उजाला में छपा ‘डॉ. सुरेश डालाकोटी और बहादुर पाल (कार्य परिषद् के तीसरे सदस्य जो उस रोज हमारे आसपास भी नहीं फटके थे) ए.बी.वी.पी. की गुंडागर्दी के खिलाफ उपवास पर बैठे !!’ अगर किसी कार्यक्रम में दस लोगों के साथ मैं भी बैठा हूँ तो उन दस लोगों के नाम तो होंगे, लेकिन मेरा नाम नदारद होगा। किसी सभा की गोष्ठी की मैं सदारत करूँगा तो या तो वह खबर लापता हो जायेगी या अध्यक्ष का नाम उड़ जायेगा। कई बार परिचित यह मानने को ही तैयार नहीं होते कि मैं अमुक स्थान या गतिविधि में मौजूद था। यदि था तो फिर नाम नाम अखबार में क्यों नहीं है, जबकि इतने सारे लोगों के हैं?  अभी मई के महीने इस अखबार के फीचर एडिटर और बरेली संस्करण के सम्पादक गोविन्द सिंह नैनीताल आये थे और मिलने दफ्तर में चले आये तो मैंने हँसते हुए पूछा, ‘गोविन्द जी, आपके एडिट पेज के लिये कुछ भेजूँ क्या, या इम्बार्गो अभी लगा हुआ है?’ गोविन्द जी शालीनता से मुस्कराये और कह गये, ‘दिल्ली जाकर आपको फोन करूँगा।’ यानी ग्रुप एडिटर शशिशेखर से अभी क्लियरेंस नहीं मिला है।

मेरा ‘अमर उजाला’ के साथ बड़ा खट्टा-मीठा सम्बन्ध रहा है। उस वक्त इसके बरेली संस्करण में कुमाऊँ डेस्क देखने वाले सुनील शाह (अब ‘सहारा समय’ के देहरादून संस्करण में समाचार सम्पादक) की जिद के कारण मैंने 1986-87 में नैनीताल से संवादप्रेषण का काम किया। तब उनके पास नियमित संवाददाता नहीं होते थे। वे नाममात्र का पैसा देते थे। यह काम मैं अनिच्छापूर्वक ही कर रहा था और एक-दो साल से अधिक नहीं कर पाया। कुछ समय बाद सुनील शाह के स्थान पर आशीष अग्रवाल आ गये। मैं गाहे-बगाहे कुछ फीचर या टिप्पणियाँ भेज दिया करता था, जो छप भी जाती थीं। पैसा तो शायद ही कभी मिला होगा। एकाएक क्या हुआ कि ‘अमर उजाला’ से आज ही की तरह मेरा नाम गायब होने लगा। क्यों, मैं आज तक नहीं समझ पाया। गजब तो उत्तराखंड राज्य आन्दोलन में हुआ। कुमाऊँ की खबरें गढ़वाल में और गढ़वाल की खबरें कुमाऊँ के संस्करणों में न रखने की ‘अमर उजाला’ और ‘जागरण’ की प्रवृत्ति की तोड़ के रूप में हमने ‘नैनीताल समाचार’ का सांध्यकालीन ‘उत्तराखंड बुलेटिन’ का एक अभिनव प्रयोग किया। इस प्रयोग को जबर्दस्त लोकप्रियता मिली। रेडियो बुलेटिन की तर्ज पर समाचार सुनाये जाने के इस प्रयोग को कई जगह राज्य आन्दोलनकारियों ने दोहराया। उन दिनों उत्तराखंड आन्दोलन की खबरें लेने आ रहे देश-विदेश के सभी अखबारों के संवाददाताओं ने एक अदभुत आन्दोलनकारी कार्रवाही के रूप में इस बुलेटिन का जिक्र किया। लेकिन सितम्बर-अक्टूबर 1994 में 54 दिन चले इस बुलेटिन के बारे में उत्तराखंड में सबसे अधिक बिकने वाले ‘अमर उजाला’ ने एक शब्द नहीं लिखा।

एक बार फिर सुनील शाह कुमाऊँ डेस्क पर वापस आये। मेरा नाम ‘अमर उजाला’ में छपने लगा। यही नहीं, मेरे ही आग्रह पर ‘फसक’ नाम का एक साप्ताहिक कॉलम मुझे लिखने को दे दिया गया। कुमाउनी भाषा के ‘फसक’ का अर्थ होता है ‘गप्प’। इस कॉलम माध्यम से मुझे हर सोमवार को एक तीखी टिप्पणी करने का मौका मिल जाता था। तभी एक घटना घटी। महर्षि महेश योगी ट्रस्ट वाले कुमाऊँ में कई स्थानों पर स्कूलों के लिये जमीनें खरीद रहे थे। उनमें से एक स्थान, सोनापानी, में कथित रूप से हरे पेड़ों का जमकर कटान हुआ। इस मुद्दे पर अपने आप को पर्यावरणविद् कहने वाले एक युवक ने महर्षि विद्यालय की नैनीताल शाखा की प्रधानाचार्य को ब्लैकमेल कर पैसे ऐंठने चाहे। वह दबाव बनाने के लिये बार-बार फोन कर ‘अमर उजाला’ के स्थानीय संवाददाता और नैनीताल के तत्कालीन जिलाधिकारी का नाम भी लेता था। मैंने, महर्षि  विद्यालय के वकील (जो हमारे मित्र थे) और पत्रकार महेश पांडे (अब देहरादून में ‘नई दुनिया’ के ब्यूरो चीफ) ने उक्त फर्जी पर्यावरणविद् को पैसे लेते हुए रंगे हाथों पुलिस के हाथों ट्रैप करवा दिया। उसे तीन सप्ताह जेल की सजा काटनी पड़ी। मुकदमा अभी भी चल रहा है। उस घटना के बाद महेश पांडे या मेरे खिलाफ कुछ करना संभव नहीं हो सका, लेकिन ‘अमर उजाला’ महर्षि के वकील के पीछे हाथ धोकर पड़ गया। मजेदार बात यह हुई कि उस बार जब अपने साप्ताहिक कॉलम में मैंने इस प्रकरण की सच्चाई बताने की कोशिश की तो उसका दो-तिहाई हिस्सा डेस्क पर बदल दिया गया। इस पर मेरी सुनील शाह से बहुत कहा-सुनी हुई कि यदि उन्हें मेरे स्तम्भ पर भरोसा नहीं था तो उसे पूरा ही रोक लेना चाहिये था। इस तरह मेरे सारे तथ्य बदलने का क्या मतलब था ? इस झड़प के बाद एक बार फिर ‘अमर उजाला’ में मेरे नाम पर पाबन्दी लग गई, जो तीन-चार साल चली।

इस बार तो इम्बार्गो के पीछे ठोस कारण है। यहाँ, हल्द्वानी संस्करण के सम्पादक आशीष बागची को मैंने किसी बात पर एक कड़ा पत्र लिख दिया। शायद नहीं लिखना चाहिये था। पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो उसकी भाषा भी अशिष्ट थी। गुस्से में ऐसे काम करने की मेरी आदत इतनी उम्र बीत जाने के बाद भी नहीं गई है। लेकिन क्या इससे किसी सम्पादक को यह अधिकार मिल जाता है, वह किसी व्यक्ति को अखबार के पन्नों से लापता करने जैसा कृत्य करे?  तो अब आप मुझे ‘अमर उजाला’ के पन्नों पर ढूँढे से भी नहीं पायेंगे। वर्ष 2007 से हमने प्रति वर्ष 18 सितम्बर को ‘नैनीताल स्वच्छता दिवस’ मनाने का अभियान शुरू किया है। मेरी इच्छा थी कि अखबार इस अभियान के प्रचार को भी ‘घूस को घूसा’ की तर्ज पर एक अभियान के रूप में लें, ताकि हम जन सामान्य की मानसिकता को बदलने के अपने प्रयास में कारगर हों। मैंने ‘अमर उजाला’ के बरेली संस्करण के सम्पादक और अपने कवि मित्र वीरेन डंगवाल से बात की और उन्होंने अखबार के मालिक राजुल माहेश्वरी से बात की कि यह प्रतिबन्ध कम से कम इस अभियान के लिये तो हटे। राजुल से मेरी भी दो बार टेलीफोन पर बात हुई। मगर उस अभियान को ‘अमर उजाला’ के पृष्ठों से गायब रहना था, रहा। अभी हाल ही में ‘अमर उजाला’ से अन्यत्र जा चुके एक पत्रकार मेरे कान में फूँक गये, ‘भाई साहब, बागची तो बैल है। उसे यह होश कहां कि आपकी बातों पर ध्यान दे। यह तो सोनापानी प्रकरण वाला वह पत्रकार है, जिसने आपके बागची को लिखे गये उस पत्र की प्रतिलिपि हासिल कर उसे ऊपर तक पहुँचा कर हरेक को आपके प्रति पूर्वाग्रही बना दिया है। गौर करें कि जब आप नैनीताल से बाहर कहीं होते हैं तो वहाँ से आपकी खबरें कैसे लग जाती हैं?’ बात में दम तो है।

कई बार मित्रों ने सुझाया कि यह तो हद है, प्रेस काउंसिल में जाओ, तो मैं ही टाल गया। अभी इतने सारे गम हैं जमाने में अपना नाम अखबार में छपवाने के सिवा भी!


लेखक राजीव लोचन साह से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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