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इंटरव्यू

जिस दिन मैं धरती से जाऊं, मुझे कोई याद न करे

रामकृपाल सिंहहमारा हीरोरामकृपाल सिंह

मीडिया एक पब्लिक मीडियम है, यह सेल्फ एक्सप्रेसन का मंच नहीं : हर अखबार का स्वर्गवास 80 किमी पर हो जाता हैहमें जिस हाइवे पर चलना है वहां पांच ट्रक उलटे पड़े हैं :  बकरा काटने का काम पंडित जी करेंगे तो अपना गला काट लेंगे मैं कुछ नहीं हूं इसलिए पत्रकार हूं

रामकृपाल सिंह

रामकृपाल सिंहहमारा हीरोरामकृपाल सिंह

मीडिया एक पब्लिक मीडियम है, यह सेल्फ एक्सप्रेसन का मंच नहीं : हर अखबार का स्वर्गवास 80 किमी पर हो जाता हैहमें जिस हाइवे पर चलना है वहां पांच ट्रक उलटे पड़े हैं :  बकरा काटने का काम पंडित जी करेंगे तो अपना गला काट लेंगे मैं कुछ नहीं हूं इसलिए पत्रकार हूं


 गांव से शहर और पढ़ाई से पत्रकारिता की यात्रा के बारे में बताइए?

यशवंत और रामकृपाल–फैजाबाद के गौरा पलिवारी गांव में वर्ष 1953 में पैदा हुआ। 10वीं तक पढ़ाई गांव में की। 12वीं और बीएससी जौनपुर के टीडी कालेज से। बीएचयू से ला किया। पत्रकारिता में तो दुर्घटना से आया। इमरजेंसी का वक्त था। उन दिनों एक्टीविस्ट भी हुआ  करता था। जेपी मूवमेंट के साथ जुड़ा था। ला करने के बाद जुडीशियरी के एक्जाम की तैयारी भी कर रहा था। कहीं हास्टल हाथ से न निकल जाए इसके लिए बीएचयू का छात्र बने रहना जरूरी था। सो,  पत्रकारिता विभाग में एडमीशन के लिए फार्म भर दिया। और इसमें दाखिला भी हो गया। एक साल का डिप्लोमा कोर्स था। तब आज अखबार वाले चंद्रप्रकाश जी पढ़ाने आते थे। तब मैंने मार्क्स – गांधी को भी काफी पढ़ा था और देश-समाज के प्रति सजग रवैया रखता था। चंद्रप्रकाश जी ने मुझे आज अखबार, कानपुर के लिए चुना और वहां मैंने 16 मई 77 को ज्वाइन कर लिया। तो जुडीशियरी के एक्जाम की तैयारी व ला की डिग्री सब धरी की धरी रह गई और मैं अचानक पत्रकारिता में आ गया।

दिल्ली कैसे पहुंचे?

Ramkripal–उन्हीं दिनों, जब आज कानपुर में था,  टाइम्स आफ इंडिया ट्रेनिंग स्कूल का विज्ञापन निकला था। इसमें सेलेक्शन के लिए देश के चार हिस्सों में टेस्ट हुआ करते थे। इसमें मैंने भी भर दिया और सेलेक्ट हो गया। तब  नवभारत टाइम्स दिल्ली के संपादक अज्ञेय जी हुआ करते थे। उन्होंने मेरा इंटरव्यू लिया। इस तरह से मैं मार्च 78  में दिल्ली पहुंच गया। ट्रेनिंग के लिए मुझे नवभारत टाइम्स, मुंबई भेजा गया। वहां 81 से 83 तक रहा। नवभारत टाइम्स में फिर राजेंद्र माथुर जी आए। मुंबई के बाद मुझे व नकवी को लखनऊ भेज दिया गया। दो साल के लिए। तब नभाटा की लखनऊ यूनिट एक अलग कंपनी के बैनर तले संचालित होती थी। जनसेवक कार्यालय नामक कंपनी थी। हम लोग टाइम्स ग्रुप के थे,  सो एक तरह से डेपुटेशन पर वहां भेजा गया। लखनऊ मार्च 85 तक रहा। वो दौर था मिसेज गांधी की हत्या और जनरल इलेक्शन का। उन्हीं दिनों में एसपी ने रविवार छोड़ नभाटा ज्वाइन किया और उसी दिन मैंने नभाटा छोड़ रविवार में बतौर असिस्टेंट एडीटर ज्वाइन किया। इसके बाद चौथी दुनिया में गया। राजेंद्र माथुर और एसपी सिंह मुझे नवभारत टाइम्स, लखनऊ वापस ले आए, न्यूज एडीटर के रूप में। लखनऊ नभाटा से विष्णु खरे जब दिल्ली बुलाए गए तो मुझे लखनऊ में डिप्टी आरई बना दिया गया। वहां फरवरी 93 तक रहा। दिल्ली वापस लौटा तो नभाटा में विद्यानिवास जी संपादक होते थे। मैंने तब यहां सीनियर असिस्टेंट एडीटर के रूप में काम किया। बाली जी के जाने के बाद प्रमोट हुआ और प्रिंटलाइन में नाम जाने लगा था। यह क्रम 2004 तक चला।

टीवी में कैसे पहुंचे?

–बीच में एक चीज तो बताना भूल गया था। वर्ष 2000 में मैंने आज तक जाने का मन बना लिया था और अपने यहां से इस्तीफा भी दे दिया था। आज तक में छह दिन काम भी किया। पर मेरे इस्तीफे को स्वीकारा नहीं गया और मुझे रोक लिया गया। तब नभाटा लौटना पड़ा था। आज तक में विधिवत रूप से अक्टूबर 2004 में ज्वाइन किया और टीवी टुडे ग्रुप के साथ मई 2007 तक रहा। यहां मैंने सीनियर ईपी के रूप में इनपुट हेड के बतौर काम देखता रहा।

मीडिया के प्रति आपकी इस वक्त क्या राय है?

–मैंने अपने करियर के 30 साल में से 24 साल देश के सबसे प्रोफेशनल आरगेनाइजेशन टाइम्स ग्रुप में गुजारे। यहां अपने संपादकों से और इस हाउस की नीतियों से जो कुछ सीखा उससे समझ में यही आता है कि मीडिया एक पब्लिक मीडियम है,  सेल्फ एक्सप्रेसन का मंच नहीं। करोड़ों का इनवेस्टमेंट होता है, मशीन लगती है, पेपर लगता है…तो इतना सारा खर्चा और मेहनत किसी इंडीविजुअल के लिए नहीं बल्कि पब्लिक के लिए किया जाता है। तो आप अगर मीडिया में हैं तो इसे पब्लिक मीडियम मानना चाहिए। अगर आपको सेल्फ एक्सप्रेसन का मंच चाहिए तो किताब लिखिए। उपन्यास लिखिए। फिर खुद को एक्सप्रेस करिए। रवींद्रनाथ टैगोर ने यही किया। उन्होंने अपनी रचनाओं में खुद को, खुद के विचार को अभिव्यक्त किया। लेकिन अगर मीडिया में हैं तो मीडिया जिनके लिए है उनकी भावनाओं का खयाल करना चाहिए। जिस संस्थान के पैसे से मीडियाकर्मी का परिवार चलता है उस परिवार में वो शख्स पचासों कंप्रोमाइज करता है। कभी पत्नी के लिए, कभी बेटा-बेटी के लिए। मैं खुद अपने परिवार की डिमांड के आगे 90 फीसदी कंप्रोमाइज कर लेता हूं। उनकी मान लेता हूं। इसी तरह हमें अपने आफिस में भी दूसरों की भावनाओं व  विचारों के लिए कंप्रोमाइज करना चाहिए। अड़े न रहना चाहिए। आफिस में लचीला होना चाहिए। आफिस से ही परिवार चलता है।

मीडिया में बदलाव के कई दौर आपने देखे हैं। कभी विचारों की जंग मीडिया में हुआ करती थी तो अब बाजारू होने की जंग है। इसे कैसे व्याख्यायित करेंगे?

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Ramkripal–77 से पहले पत्रकारिता में लोहियावादियों और समाजवादियों का ही बोलबाला हुआ करता था। यही लोग भरे पड़े थे। वो चाहे रविवार हो या दिनमान हो या धर्मयुग। 77 में जनता पार्टी सरकार सत्ता में आई तो पत्रकारिता में दक्षिणपंथ के लोग भी आने लगे। इसका नतीजा हुआ कि मीडिया में वाम दक्षिण विचारों की लड़ाई होने लगी। यह दौर 89 तक चला। तब मैं लखनऊ में था। मार्केट इकानामी ने धीरे धीर पैर पसारने शुरू कर दिए थे। उपभोक्ता व व्यक्तिवादी संस्कृति बढ़ने लगी थी। उन दिनों मैंने महसूस कर लिया कि भाषणबाजी का जमाना लदने वाला है। ज्ञान देने की परंपरा अब नहीं चलेगी। तब मैंने एक अनूठा प्रयोग किया। लखनऊ में म्युनिसिपल कारपोरेशन के चुनाव 20 साल बाद हो रहे थे। मैंने इस चुनाव की खबरों को पहले पन्ने पर लीड बनाना शुरू किया। तब जबकि गोर्बाच्योव, सोवियत संघ और अमेरिका जैसे बड़े मामले पहले पन्ने की शोभा बढ़ाते थे,  इनके उपर मैंने लखनऊ के लोकल म्युनिसिपल कारपोरेशन के इलेक्शन को महत्व दिया। मीडिया से जुड़े कुछ लोगों ने इस पर नाक-भौं भी सिकोड़ा था। पर जनता ने इस प्रयोग को हाथों हाथ लिया। रीडरशिप में 66 फीसदी का इजाफा हुआ। दरअसल, हर अखबार का स्वर्गवास 80 किमी पर हो जाता है। 80 किमी के रेडियस में एक अखबार का विस्तार होता है। चार बजे पौ फटने पर अखबार लादकर आप दो घंटे में कितने किलोमीटर दूर तक ले जा सकते हैं। ज्यादा से ज्यादा 80 किमी। और हर 80 किमी के बाद आपको उसी अखबार को दूसरा संस्करण पढ़ने को मिलेगा। तो अखबार कहने के लिए भले नेशनल हों लेकिन बिकते छोटे दायरे में है। तो इस छोटे दायरे की समस्याओं को जब वहीं के अखबार में प्रमुखता से जगह नहीं मिलेगी तो कहां मिलेगी। तभी तो टीओआई अपने दिल्ली संस्करण में दिल्ली में मानसून आने को लीड बनाता है। आप आस्थावान हों या नास्तिक, यह सिर्फ 15 मिनट के लिए होता है। उसके बाद हर आदमी काम पर होता है। उसकी दिक्कतें व समस्याएं एक सी होती हैं। तो इन समस्याओं से जुड़ने का दौर आ गया था। ये बात समझ गया था। वही बदलाव आज सभी अखबार स्वीकार चुके हैं। बाकी हिंदुस्तान में भविष्य बैलगाड़ी और एयर बस दोनों का है। कंबल और कूलर दोनों का मार्केट है। बस देखना ये है कि कौन सी चीज कहां बिकेगी। कंबल मद्रास में नहीं बिकेगा तो कूलर मनाली में नहीं बिक सकता। अखबार किसके लिए निकाल रहें हैं,  ये महत्वपूर्ण है।

आपने इतने प्रयोग किए पर नभाटा लखनऊ में नहीं चला। इसे बंद करना पड़ा, क्यों?

Ramkripal–आप बहुत ताकतवर हैं, आपके हाथ में एक मजबूत लाठी भी है। आपके सामने दस छोटे लोग हैं और उन सभी के हाथ में छोटी छोटी लाठियां हैं। कौन भारी पड़ेगा? 10 छोटे लोग छोटी लाठे वाले। नवभारत टाइम्स पूरे यूपी में सिंगल एडीशन निकलता था। वही अखबार इलाहाबाद भी जाता था और वही अखबार बनारस भी पहुंचता था। 12 पेजों में ही पूरे प्रदेश को कवर करना होता था। सामने मल्टी एडीशन वाले अखबार थे। तो इनका मुकाबला एक एडीशन वाला अखबार नहीं कर सकता था। वैसे भी हर जगह का अपना एक मिजाज होता है और उसके अनुरूप मीडिया भी होता है। अब अपने दिल्ली जैसे मेट्रो सिटी को लीजिए। यहां स्टेटलेस सिटीजन होते हैं। दिल्ली का अपना कोई आदमी नहीं। दिल्ली का अपना कोई फेस्टविल नहीं। दिल्ली का अपना कोई कल्चर नहीं। यहां के अखबारों में बगल के अलवर की बात नहीं होती,  जबकि न्यूयार्क डेटलाइन  की बड़ी बड़ी खबरें होती हैं। जैसे बंगाल में देखिए। कोलकाता में देखिए। वहां आपको बंगाली लोग मिलेंगे, बंगाली कल्चर मिलेगा, बंगाली फेस्टविल मिलेगा। और इसमें नान बेंगाली भी इंट्रेस्ट रखते हैं। तो हर जगह हर चीज नहीं बेची जा सकती।  

मीडिया में आपकी और नकवी जी की दोस्ती काफी चर्चित है। आप दोनों एक दूसरे के हमेशा काम आते रहे हैं। हमेशा एक साथ रहे। इस बारे में आपका क्या कहना है।

Ramkripal–दोस्त हैं तो दोस्ती होनी भी चाहिए। पर हम लोग सन 93 से 04 तक 11 साल अलग अलग भी रहें हैं। हां, ये सही है कि हम लोग अच्छे दोस्त हैं।

आप प्रिंट के थे, जब टीवी में गए तो कोई दिक्कत नहीं हुई, जैसा कि आजकल टीवी वाले प्रिंट वालों के लिए आशंका व्यक्त करते हैं।

— मेरा प्रोडक्शन से मतलब नहीं था। मैं इनपुट हेड था। खबरों का सेलेक्शन करना था। खबरों का जो आदमी होगा वह हर जगह काम कर लेगा। वो चाहे जो फार्मेट हो। अखबार, टीवी, रेडियो ये सब सूचना की भूख शांत करने वाले अलग अलग मीडिया माध्यम हैं। न्यूज मैनेजमेंट जो कर सकता है वो हर फार्मेट में काम का हो सकता है। मैं वैसे आज तक के लिए नहीं बल्कि टीवी टुडे नेटवर्क के इनहाउस न्यूज नेटवर्क टीवीटीएन का इंचार्ज हुआ करता था। एसाइनमेंट काम हुआ करता था। हम जो आज तक, हेडलाइन टुडे, तेज..सभी चैनलों के लिए खबरें, सूचनाएं देते थे।

त्रिवेणी ग्रुप के जिस चैनल वायस आफ इंडिया के आप ग्रुप एडीटर हैं,  उसके बारे में कई अफवाह है। जैसे, लेटलतीफ लांचिंग,  अंदरूनी दिक्कतों की वजह से लोगों का आना-जाना।

–थोड़ा अतीत में चलकर देखें। आज तक जैसे इस्टैबलिश ब्रांड को 24 घंटे का चैनल बनने में पूरे एक साल लगे। तब एसपी जैसा मजबूत आदमी इसे हेड कर रहे थे। यहां तो कुछ भी न था। बिल्डिंग का काम पिछले साल अगस्त सितंबर में हुआ। नेटवर्क बनाने में वक्त लगता है। हम लोगों ने शून्य से शुरू किया और लांच करने में साल भर नहीं लगा।  लोगों के आने जाने की बात पर मेरा कहना है कि हर संस्थान से 30 फीसदी मैनपावर हर साल इधर-उधर होता है। लोग तो वही हैं। इन्हीं में से लोगों को लेकर नए चैनल, नए मीडिया प्रोजेक्ट्स आ रहे हैं। सबसे स्ट्रांग ब्रांड माना जाता है आज तक और इसके 80 फीसदी लोग इधर उधर जा चुके हैं। जल्दी जल्दी तमाम चैनल आ रहे हैं तो चैनलों के लोग भी जल्दी जल्दी एक से दूसरे जगह आ जा रहे हैं। चाहें टीओआई हो या वीओआई, हर एक पर यह लागू होता है।

चैनलों में आगे बढ़ने की जो होड़ है,  उसमें वीआआई को किस तरह, किस दिशा में ले जाना चाहते हैं।

Ramkripal–कठिन राह है। जिस राह पर चैनल चल रहे हैं और हिंदी चैनलों का जो हाल है, उस राह पर हम नहीं जा रहे। उस खेल में हम नहीं जा रहे। हम खबरों पर लौट रहे हैं। यह सही है कि हिंदी चैनलों का फार्मेट गड़बड़ाया हुआ है। हमें जिस हाइवे पर चलना है वहां पांच ट्रक उलटे पड़े हैं। उनके साथ हम भी नहीं उलटेंगे। टीआरपी के लिए हम सब कुछ नहीं करेंगे। हम टीआरपी के लिए काम करेंगे पर हम तय करेंगे कि हम इससे नीचे नहीं जा सकते। ये मेरा व मेरे प्रबंधन का डिसीजन है। कामन मैन को जो लगता है कि ये गलत है तो हम वो नहीं करेंगे। टीआरपी के लिए हम सती प्रथा को जायज नहीं ठहराएंगे। बलात्कार को जायज नहीं ठहराएंगे। कर्मकांड को महिमामंडित नहीं करेंगे। जो समाज के लिए गलत और खतरनाक है उसे जबर्दस्ती इस्टबैलिश नहीं करेंगे। 

न्यूज चैनल खबर की बजाय वो चीजें दिखा रहे हैं जिससे दर्शक तात्कालिक तौर पर उससे जुड़ाव महसूस कर रहें हैं। इससे आप खुद को कैसे मुक्त रख पायेंगे?

Ramkripal–खबर क्या है?  सूचना। जिस इनफारमेशन में लोगों को चौंकाने की क्षमता होती है वही न्यूज है। और ये दो तरह की है। एक तात्कालिक और दूसरा लांग टर्म। सचिन सेंचुरी के लिए खेल रहे हैं। दर्शक मंत्रमुग्ध सा उन्हें देख रहा है। इसी बीच एक नंगी महिला मैदान में दौड़ पड़ती है। सचिन पल भर के लिए छूट जाते हैं और लोग नंगी महिला की तरफ देखने लगते हैं। लेकिन कितनी देर नंगी महिला को लोग देखते रहेंगे। कुछ देर बाद उन्हें फिर सचिन के सेंचुरी लगाने के प्रयास से खुद को जोड़ना होगा। तो एक क्षण के लिए वो नंगी महिला भले ही सबका ध्यान खींच ले पर वह लंबे समय तक ध्यान नहीं खींच सकती। प्रिंट ने तो इसे साबित भी किया है। मनोहर कहानियां जो क्राइम बेस्ड मैग्जीन,  सनसनीखेज, ध्यान खींचने वाली, मसालेदार….क्या हुआ। अब कहीं चर्चा होती है। हर एक दौर का अलग टेस्ट होता है। मेरे पास क्या क्या चीजें हैं। पाजिटिव और निगेटिव। दोनों बिक जाएगा। निगेटिव पर चलना आसान है। निगेटिव में मेहनत कम है। पाजिटिव अल्टरनेट में दिमाग लगाना पड़ेगा। हमें एज ए प्रिंसिपल तय करना होगा। टाइम्स नाऊ कैसे नंबर वन है? इसे सिर्फ अंग्रेजी वाले ही नहीं देखते। वैसे भी प्योर इंगलिश इज डाइंग लैंग्वेज इन मेट्रो। इसके 90 फीसदी दर्शकों को हिंदी समझ में आती है लेकिन उन्हें हिंदी में स्तरीय चीजें नहीं मिलतीं इसलिए वो यहां आते हैं। पाजिटिव विकल्प की तरफ जाना चाहिए।

आप खुद देखिए। जिन जिन लोगों ने नकारात्मक चीजें शुरू कीं,  उनका क्या हश्र हुआ। सबसे पहले एक चैनल ने तंत्र मंत्र व अंधविश्वास वाला प्रोग्राम शुरू किया। तब वो नंबर एक था और जब यह प्रोग्राम शुरू हुआ तो उसकी टीआरपी बढ़ी लेकिन अंततः कहां जाकर गिरा, आप सबको पता है। एक चैनल ने सनसनीखेज अपराध कथाएं दिखानी शुरू की। अंत में वो ओवरआल कितना नीचे जाकर गिरा। जो भी अच्छे चैनल रहे,  वो निगेटिव चीजें को और  ड्रामाई चीजों को जबरन दिखाने लगे और उनकी स्थिति खराब होती गईं। दो तरह के लोग होते हैं- इनहेरेंट और एक्वायर्ड। जो अच्छे थे और बुराई को एक्वायर करने लगे वो गिर पड़े। जो पैदाइशी बुरे थे वो उस राह पर चलते गए। जो अच्छे थे वो उसे कापी करने लगे। तो जब सब बुरे ही बुरे हो गए तो वो चैनल इसमें सबसे आगे निकला जो पैदाइशी बुरा था। सबको पता है कि सीमित संसाधनों के चलते न्यूज की जगह तमाशा व ड्रामा परोसने वाले चैनल की मजबूरी थी कि ये वो सब तमाशे करता जिससे वो संसाधनहीनता को ढंक सके। लेकिन संसाधनों वाले चैनल भी उसी के पीछे हो लिए। हमारे यहां कई आयोजनों में कसाई भी आता है और पंडित जी भी आते हैं। अब अगर बकरा काटने का काम मंत्र पढ़ने वाले को दे दें तो कैसे होगा। जिसका जो स्वभाव और काम है,  उसे करना चाहिए। तो चैनलों में कुछ का निगेटिव होना उनकी मजबूरी थी। इनकी देखादेखी कई ने निगेटिव होने का खुद चुनाव कर लिया।

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एक उदाहरण देना चाहूंगा। एक जमाना था जब दिल्ली में नभाटा को नंबर वन बनाने के लिए हम लोगों ने मजबूत कंटेंट देना शुरू किया और इससे एक दिन नंबर एक बन भी गए। हम लोगों ने अपने प्रोडक्ट को अपमार्केट किया। दूसरे की निगेटिविटी से घबराकर उसकी राह पर नहीं चले। पर टीवी में उलटा है। जो सबसे आगे था, सबसे तेज था उसने दूसरे की राह पकड़ ली। बकरा काटने का काम कसाई को करने दो, पंडी जी से नहीं कटेगा। पंडी जी अपना गला ही काट लेंगे। जिस चैनल के पास ओबी नहीं, फाइनेंस नहीं, उनकी मजबूरी थी ड्रामा तमाशा सनसनी दिखाने की। ये उनका कंपल्शन था। ये उनकी च्वायस थी।  बोतल का पानी पीते थे तो दूसरों का देखादेखी नल का पानी पी लिया और हो गए बीमार। भाई,  नल वाले तो यही पीते रहते हैं और उनकी बाडी ने उसके मुताबिक रेजिस्टेंस डेवलप कर लिया है। उनकी देखादेखी आपने बोतल छोड़कर नल का पानी पी लिया और बीमार पड़ गए। इनसे मत मुकाबला करो।

दो बच्चे हैं। एक पढ़ने में तेज है, 90 फीसदी से उपर नंबर लाता है। उससे उम्मीद आईएएस बनने की है। दूसरा किसी काम का नहीं है। अगर पहला वाला चोरी में पकड़ा जाएगा तो झटका लगेगा। दुख होगा। दूसरा वाला मारपीट करके आएगा तो महसूस होगा कि गनीमत है, इतना ही किया। कोई बदनाम राजनीतिक पार्टी है। उसका नेता घूस लेते पकड़ा जाए तो किसी को आश्चर्य न होगा। लेकिन एक राष्ट्रवादी पार्टी जो विचारों व नीतियों की बात करती है व उसकी छवि भी इसी तरह की है,  उसका बंदा घूस लेते पकड़ा जाएगा तो झटका लगेगा। आश्चर्य होगा।

चैनल वाले कहते हैं नंबर वन किसी कीमत पर। ये क्या मतलब। किसी कीमत पर?? एट एनी कास्ट??? ये क्या कह रहें हैं आप? ये वाक्य ही खतरनाक है। एक किताब है ह्यूमन फेट (मानव नियति) नाम से, आंद्रे मार्लो की। उसका सार है। फणीश्वरनाथ रेणु के मरने पर अज्ञेय ने भी यही कहा था, जीवन का मूल्य उसकी गरिमा में है,  उसकी सफलता में नहीं। तो पत्रकार के नाते नहीं, ह्यूमन बीइंग के नाते। हमें अपनी लिमिट तय करनी चाहिए।  कपड़ा अमेरिकी भी पहनते हैं और भारतीय भी। कपड़े के नीचे हर आदमी नंगा है। लेकिन भारतीयों ने तय किया हुआ है अपनी लिमिट। इसके नीचे नहीं आएंगे। अमेरिकियों ने अपनी लिमिट तय की हुई है।

पर अपनी लिमिट कोई कैसे तय कर सकता है जबकि सब चीजें बाजार तय करा रहीं हैं?

Ramkripal and Yashwant–आज के जमाने में निःस्वार्थ कुछ नहीं है। व्यक्ति मूलतः स्वार्थी है। इसे होना भी चाहिए। एक ही समय में इस देश में बाघ की पूजा होती है और बकरी रोज काटी जाती है। एक जो वायलेंट है, उसे पूजा जाता है दूसरा जो सीधा-साधा अहिंसक है उसे मार दिया जाता है। मुर्गे कटने के लिए ही होते हैं। टाइम ने बताया कि 21वीं सदी को दो चीजें के लिए याद किया जाएगा। लालच और लोकतंत्र। लालच नहीं होता तो तरक्की भी नहीं होती। होप फार बेटरमेंट। बाप सोचता है मेरा बेटा मुझसे आगे निकल जाए। उसकी पत्नी आगे निकल जाती है तो उसे तकलीफ होती है। दूसरे का बेटा आगे निकल जाए तो ईर्ष्या होती है। कौन चाहता है कि पड़ोसी का बेटा एसएसपी बने और मेरा बेटा उसका पीए। तो लालच जरूरी है। उसके बिना काम नहीं चलेगा। जो लोग कहते हैं कि हम मिशन पर निकले हुए हैं तो वो लोग झूठ बोल रहे हैं। मिशन के नाम पर कोई घर का जेवर बेचकर परिवार का खर्च नहीं चलाता। प्राफिट नहीं होता तो वेंचर नहीं होते। प्राफिट जैसी चीजें मोटिवेट करतीं हैं।

लेनिन एक बार एक जुलूस का नेतृत्व कर रहे थे। बहुत भीड़ थी। उनसे पूछा गया कि ये जो लोग हैं वे क्या सभी सोशलिस्ट हैं। उन्होंने कहा कि इनमें से 99 फीसदी अपारचुनिस्ट हैं। अवसरवादी हैं। इनके अपने सपने हैं जो पूरे नहीं हो रहे। किसी के पास मकान का सपना है। किसी के पास कर राहत का सपना है। किसी के पास कर्ज मुक्ति का सपना है। किसी के पास तन ढकने के लिए कपड़े मिलने का सपना है। तो ये सपने इकट्ठे होकर एक जुलूस का शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। थिंक फार बेटर। अच्छे के लिए सोचो। पर कितना प्राफिट कमाएंगे, यह एक सवाल है। मोरारजी कहते थे कि डकैती डालकर हास्पिटल नहीं बनाया जाता।  कुछ एक्सेप्टेड नार्म्स हैं। नियम कानून के तहत कमाने के बहुत मौके हैं। स्वस्थ कंपटीशन के सहारे कमाया जा सकता है। अगल बगल 10 दुकानें एक ही चीज की होती हैं और सभी एमआरपी पर सामान बेचकर प्राफिट कमा लेते हैं। मीडिया में हैं। न्यूज में हैं। चौथे स्तंभ हैं। थोड़ी सी सोशल रिस्पांसबिलिटी की जरूरत है। जितना हम अपने परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी मानते हैं। बेटा स्कूल से घर लौटता है तो हम उसकी सुरक्षा के लिए चिंतित होते हैं। इतनी ही चिंता देश व समाज के लिए भी होनी चाहिए। ये न्यूनतम चिंता है। बेटे की सुरक्षा के लिए हम समाज से अपेक्षा करते हैं। सड़क पर चलने वाले से अपेक्षा करते हैं। तो इतनी ही अपेक्षा हमसे भी समाज की है, ये चीज समझना चाहिए। जितना चाहते हैं हम समाज से उतना समाज से सरोकार होना चाहिए। पेशेवर व प्रोफेशनल अंदाज भी यही कहता है। आईपीसी है। इंडियन पेनल कोड। आप कहें कि मैं इसे बाहर तो मानूंगा पर चैनल में नहीं मानूंगा। ये क्या बात है। बेसिक ला है कि एवरीबडी इज इन्नोसेंट अनलेस प्रूव गिल्टी। आप जुडिशियरी नहीं हैं कि आप किसी को दोषी तय कर दें। पत्रकार को जज के अधिकार की एक्सट्रा कांसटीट्यूशनल राइट नहीं एक्वायर करनी चाहिए।

जीवन में सबसे ज्यादा किनसे प्रभावित रहे?

Ramkripal–पर्सनल लिहाज से कहूं तो अज्ञेय से मैं बहुत प्रभावित हूं। इसलिए नहीं कि मैं गांव का आदमी था और उन्होंने मुझे चुना। मैं उन्हें पढ़ता रहा हूं। अज्ञेय के दो रूप नहीं थे। वो आदमी जो चीज लिखता था उसी तरह की जिंदगी भी जीता था। जैसे थे वैसे ही रहे। जो लिखा वो जिंदगी थी। अपने अधिकारों को लेकर बहुत पजेसिव थे। अपनी निजता से कोई समझौता नहीं किया। बेहद स्वाभिमानी थे। बाकी प्रोफेशनल लिहाज से मैं राजेंद्र माथुर जी से मैंने काफी कुछ सीखा। संपादकीय और न्यूज के बारे में माथुर जी से सीखने को मिला। मैं टाइम्स हाउस से बेहद प्रभावित रहा। इनसे मैंने न्यूज मैनेजमेंट सीखा। एक संपादक, एक पत्रकार में मैनेजमेंट के गुण कैसे व कितने हों,  इसको लेकर आइडियोलाजिकल समझ टाइम्स हाउस से मिली। राजेंद्र माथुर गुरु की तरह रहे तो एसपी सिंह ने कानफिडेंस और जोखिम लेने का माद्दा पैदा किया।

आप अपने अंदर क्या अच्छाई और बुराई देखते हैं?

–(हंसते हुए…) अच्छाई तो एक भी नहीं दिखती मुझे। टोटली इनकंप्लीट परसन हूं। चूंकि मैं कुछ नहीं हूं इसलिए पत्रकार हूं। अच्छा इंजीनियर नहीं बन सका, अच्छा डाक्टर नहीं बन सका, अच्छा वकील नहीं बन सका तो मजबूरी में पत्रकार बन गया। इस समाज में अच्छा प्रोफेशनल नहीं बन सकता था इसलिए जर्नलिस्ट बन गया।

आप पर क्षत्रियवादी होने का आरोप भी लगाते हैं लोग।

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–पता नहीं। मेरा तो एक ही दोस्त है, वो नकवी हैं। एक और जिगरी यार है जो गुजराती हैं, अशोक ठक्कर। पत्रकारिता के जो मेरे दोस्त हैं वो शैलेश, आलोक वर्मा है जिनसे सुख दुख बतिया लेता हूं। जब तक मैं रविवार में रहा और नभाटा में रहा अपने नाम के आगे सरनेम कभी नहीं लगाया। कभी सिंह नहीं लिखा। धुर मार्क्सिस्ट रहा। समय के साथ बदलाव आए लेकिन मार्क्स मेरे लिए पूज्य हैं। यहां वीओआई में जिनको मैं मुख्य पदों पर ले आया वे अनूप सिन्हा हैं, आलोक वर्मा हैं, किशोर मालवीय हैं जो अब जा चुके हैं। तो मैं नहीं समझता कि क्षत्रियवादी होने का आरोप कैसे लग रहा है। ये दुष्प्रचार ही है।

पत्रकारिता में आप आगे खुद को किस रूप में देखते हैं?

–58 की उम्र के बाद पत्रकारिता में नहीं रहूंगा। सर्विस नहीं करना चाहूंगा, पेशे को इंज्वाय करना चाहूंगा।

कोई सपना, ख्वाब जो अब भी अधूरा है?

–है। एक अच्छा एकेडमिशीयन बनने की इच्छा थी। किसी सब्जेक्ट का प्रोफेसर बनकर किसी यूनिवर्सिटी कैंपस में जिंदगी काटने का सपना था। एक भौतिकविद बनना चाहता था। दुनिया के सबसे बड़े फिलासफर भौतिकविद ही हुए हैं। सबसे बड़ा दार्शनिक कोई विज्ञानी ही होता रहा है… न्यूटन, आइंस्टीन…..। जो विज्ञान को नहीं जान सकता वो सृष्ठि को नहीं जान सकता। किसी एक चीज में इनडेप्थ नालेज रखने की इच्छा थी। रोमिला थापर, इरफान हबीब, नुरुल हसन, राम विलास शर्मा, डा. नामवर सिंह। इनमें से कोई एक होना चाहता था।

अपने अनुभवों व अपने जीवन पर भविष्य में कोई संस्मरण या कुछ लिखने की योजना है।

Ramkripal–अपना लिखा मैं कभी कुछ नहीं रखता और न ही अपने पर कुछ लिखने की इच्छा है। मैं अपने को इस लायक मानता ही नहीं कि खुद पर कुछ लिख सकूं। वैसे भी याददाश्त से ज्यादा दुख देने वाली दूसरी चीज कोई नहीं है। भगवत शरण उपाध्याय ने कहा है- अतीत की विशेषता इसी में है कि वो वर्तमान को जन्म दे और नष्ट हो जाए।  जो चीजें मेरी हैं वो निजी हैं, उसे किसी से शेयर नहीं कर सकता। जो निजी नहीं है वो दूसरे के किसी काम लायक हो,  यह मैं मानता नहीं। तो फिर संस्मरण लिखने का औचित्य क्या। मेरी एक ही चाहत है कि जिस दिन मैं धरती से जाऊं, मुझे कोई याद न करे। बालीवुड में एक हीरो थे राजकुमार। उन्होंने अपनी जिंदगी अस्टाइल से जी। मरने के बारे में जिंदा रहते वक्त परिजनों से कह दिया था, जब मेरी डेथ हो तो इसकी सूचना किसी को देने की जरूरत नहीं। मेरी बाडी फौरन नष्ट करा  दी जाए। उनके परिजनों ने ऐसा किया भी।

शुक्रिया, आपने इतना समय दिया।

–आप लोगों का धन्यवाद। मुझे इस लायक समझा। 


((इंटरव्यू पर अपनी राय रामकृपाल तक सीधे उनकी मेल आईडी [email protected] पर मेल कर पहुंचा सकते हैं। भड़ास4मीडिया तक अपनी बात [email protected] पर मेल कर भेज सकते हैं।))

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0 Comments

  1. rajkumar sahu

    November 15, 2010 at 2:28 pm

    Har vyakti me chhapas man hota hai. akhbar aur chanel me kaun nahin dikhan chahta, tarike alag-alag ho sakte hain. ye bhi sahi hai ki adhiktar patrakaron ki jindgi bhar ki kamaai sirf chaar linon me khatam ho jati hai, nidhan kalam me chhapne ke liye, iske baad sab bhul jaate hain, lekin adhikansh vyaktiyon ke man me hotw hai ki marne ke baad unhen desh aur samaaj yaad kare.

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