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राहुल बारपुते की याद

[caption id="attachment_18083" align="alignleft" width="77"]किशन कालजयीकिशन कालजयी[/caption]यह मेरी सीमा हो सकती है, कि मौजूदा हिन्दी पत्रकारिता में मुझे कोई ऐसा नाम नहीं दिखता जिन्हें पत्रकारिता के प्रेरक-पुरुष के तौर पर चिन्हित किया जाए। मैंने प्रभाष जोशी के व्यक्तित्व से कुछ प्रेरक तत्व खोजने की कोशिश की; सती प्रथा पर उनके विचार और ब्राह्मण होने के उनके अहंकार ने मुझे ऐसा नहीं करने दिया।

किशन कालजयी

किशन कालजयी

किशन कालजयी

यह मेरी सीमा हो सकती है, कि मौजूदा हिन्दी पत्रकारिता में मुझे कोई ऐसा नाम नहीं दिखता जिन्हें पत्रकारिता के प्रेरक-पुरुष के तौर पर चिन्हित किया जाए। मैंने प्रभाष जोशी के व्यक्तित्व से कुछ प्रेरक तत्व खोजने की कोशिश की; सती प्रथा पर उनके विचार और ब्राह्मण होने के उनके अहंकार ने मुझे ऐसा नहीं करने दिया।

रघुवीर सहाय के संपादन में निकली ‘दिनमान’ सिर्फ एक पत्रिका नहीं बल्कि पत्रकारिता का एक स्कूल भी थी। मेरे जैसे कई लोग दिनमान के पत्र-स्तंभ ‘मत-सम्मत’ में चिट्ठियां लिखते-लिखते पत्रकार बन गए थे। थोड़ा बदले हुए समय में एस.पी (सुरेन्द्र प्रताप सिंह) ने भी ‘रविवार’ के माध्यम से हिन्दी पत्रकारिता को एक नयी शक्ल देने की कोशिश की थी। लेकिन, आज जो मैं कहना चाह रहा हूं, वह कहने के लिए मुझे राजेन्द्र माथुर के मार्फत राहुल बारपुते के पास जाना पड़ रहा है।

‘सपनों में बनता देश’ (सामयिक प्रकाशन) के एक लेख ‘हिन्दी पत्रकारिता संदर्भः राहुल बारपुते’ में राजेन्द्र माथुर ने लिखा है। ’… राहुल जी ने आठ साल से अपना वेतन डेढ़ सौ रुपये

राहुल बारपुते

राहुल बारपुते

प्रतिमाह तय कर रखा था, और उनका कहना था, कि इससे ज्यादा मैं लूंगा ही नहीं, क्योंकि यह मेरी जरूरतों के लिए पर्याप्त है। स्वैच्छिक गरीबी को वे अपनी संपादकीय प्रामाणिकता के लिए जरूरी मानते थे, और पांच सौ रुपये से ज्यादा पाने वालों को वे चोरों की श्रेणी में गिनते थे।…’ क्षमता के अनुसार काम, और आवश्यकता के अनुसार पारिश्रमिक’ यह सूत्र उन्हें जंचता था।‘

यह संदर्भ आज प्रासंगिक इसलिए है, कि मीडिया में जो अराजकता और कर्तव्यहीनता आयी है, उसका मुख्य कारण आर्थिक ही है। अखबार को विज्ञापन के लिए सच से समझौते करने पड़ते हैं, टीआरपी घटे नहीं इसके लिए चैनल पर कभी कोई तांत्रिक भभूत छींट रहा होता है तो कभी कोई संपेरा बीन बजा रहा होता है। जाहिर है यह सब करने में सत्य और न्याय का पक्ष तो छूटता ही है। मीडिया की अंदरूनी अराजकताओं और अनियमितताओं पर जो संपादक सवाल उठा सकता है, लाखों रुपये प्रतिमाह का वेतन देकर या तो उसे चुप करा दिया जाता है या बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। कर्मचारीनुमा पत्रकारों के पास तो शोषित होते हुए भी चुप रहने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। ऐसे में नजर जनप्रतिनिधियों पर जाती है, कि वे मीडिया के हालात पर कुछ सवाल उठाएं।

संसद के पिछले सत्र में सांसदों ने अपने वेतन की बढ़ोतरी के लिए जिस तरीके से यह तर्क दिया कि उनका वेतन सचिव के वेतन से एक रुपया ज्यादा होना चाहिए और अधिकांश सांसदों की निर्लज्ज चुप्पी ने इसका समर्थन किया; यहां से भारत के संसदीय इतिहास का नया और अमर्यादित अध्याय शुरू होता है। भारतीय लोकतंत्र में सांसद की एक बड़ी गरिमा रही है, एक जनप्रतिनिधि के वेतन की तुलना नौकरशाह के वेतन से करना हास्यास्पद ही है। जिस देश की अस्सी प्रतिशत आबादी बीस रुपये रोज पर गुजारा करने के लिए विवश हो, उस देश की सर्वोच्च संसदीय संस्था के प्रतिनिधि रोजाना दो हजार रुपये वेतन (सौ गुना ज्यादा) पाकर भी समाजवादी और कम्युनिस्ट बने रह सकते हैं तो यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि अपने देश में सच्चा समाजवाद कब तक आएगा? ऐसे सांसदों से जो सत्ता, स्वार्थ और भोग के दायरे से बाहर निकल नहीं पाते उनसे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वे मीडिया को जनोन्मुख बनाने में कोई भूमिका अदा कर सकते हैं।

समाचार की दुनिया में पीटीआई (प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया) के वर्चस्व को समाप्त करने के उद्देश्य से जवाहर लाल नेहरू की पहल पर एक दूसरी समाचार एजेंसी यूएनआई (यूनाइटे़ड न्यूज ऑफ इंडिया) की स्थापना की गयी। आज वही यूएनआई दम तोड़ रही है। वे कौन लोग हैं जिन्होंने यूएनआई को कमजोर किया? इस एजेंसी के पास करोड़ों रुपये की सम्पत्ति है फिर भी यह बदहाल है, और इसके पत्रकारों और कर्मचारियों को महीनों वेतन नहीं मिलते। इस बदइन्तजामी के लिए प्रबंधन को क्यों नहीं दोषी ठहराया जाए? एक समय था जब एक समाचार एजेंसी के एकाधिकार को कम करने के लिए या स्वस्थ प्रतिद्वंद्विता के लिए दूसरी समाचार एजेंसी की स्थापना में प्रधानमंत्री पहल करते थे, और एक समय आज है जब एक स्थापित समाचार एजेंसी लड़खड़ा रही है या बीमार है तो उसकी सुध लेने वाला कोई मंत्री नहीं, यहां तक कि विद्वान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को भी इस समाचार एजेंसी के खत्म होने की परवाह नहीं है। दूसरी तरफ निजी मीडिया हाउस अरबों मुनाफा कमा रहे हैं।

क्या हम एक ऐसे कानून की अपेक्षा कर सकते हैं जो मीडिया घरानों की आय को नियंत्रित करे? एक निर्धारित सीमा से ऊपर की आय राष्ट्रीय कोष में जाने का प्रस्ताव हो। अगर ऐसा हो सका तो टीआरपी और विज्ञापन के लिए जो गलाकाट अराजक और अनियंत्रित प्रतियोगिता चलती है, वह थोड़ी संयमित और मर्यादित हो पाएगी। हो सकता है, यह कोरी कल्पना बन कर रह जाए। स्वार्थी और सुविधाभोगी सांसद शायद ऐसा कानून बनने नहीं दें। क्या मीडिया से भी हम इस तरह की आवाज की अपेक्षा इसलिए  नहीं करें कि अब वहां कोई राहुल बारपुते नहीं है?

लेखक किशन कालजयी वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका यह लिखा ‘सबलोग’ मैग्जीन के मुनादी नामक संपादकीय कालम में प्रकाशित हुआ है. ‘सबलोग’ मैग्जीन का ताजा अंक मीडिया पर केंद्रित है. आवरण कथा का शीर्षक है, ‘मीडिया के छल’. 20 रुपये की इस मैग्जीन के इस विशेषांक को आप 011-27891526 पर फोन कर मंगा सकते हैं.

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0 Comments

  1. Bhanupratapnarain Mishra

    September 14, 2010 at 10:10 am

    Kishan Ji you are right.But When Dynast rule directly or indirectly the like yes man not strong man. Gandhi Dynasty always like nominations in Congress Party. So Jesa desh ,,,Vesa Media. Now you heard in 2014 Our indian business top of the world. you know how he and his family top of the world. They purchase every government, Beaurecat and even our own media man. Anti Dyansty Front

  2. Rajesh Badal

    September 15, 2010 at 5:48 am

    I agree with Kishanji.
    In fact Rajendra Mathur, Prabhash joshi both were trained by Rahulji ( BABA).
    I have also worked with Baba for almost 5 years.He was a great leader and never used Car while he was one of the owner of Naidunia. I am working on my next documentary on Baba. Rajesh Badal

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