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आयोजन

नक्सलवाद पर खुलकर हुई बात

: दूसरी वर्षगांठ पर साधना न्यूज की पहल : रायपुर में जमा हुए नेता, पत्रकार व अधिकारी :  नक्सलवाद पर हर जगह तीखी बहस छिड़ी हुई है. हर कोई समस्या का हल तलाश रहा है.

<p style="text-align: justify;">: <strong>दूसरी वर्षगांठ पर साधना न्यूज की पहल : रायपुर में जमा हुए नेता, पत्रकार व अधिकारी </strong>:  नक्सलवाद पर हर जगह तीखी बहस छिड़ी हुई है. हर कोई समस्या का हल तलाश रहा है.</p>

: दूसरी वर्षगांठ पर साधना न्यूज की पहल : रायपुर में जमा हुए नेता, पत्रकार व अधिकारी :  नक्सलवाद पर हर जगह तीखी बहस छिड़ी हुई है. हर कोई समस्या का हल तलाश रहा है.

खासकर छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद के सभी आयामों पर बातचीत की शुरुआत हो गई है. लेकिन नक्सल समस्या का अभी तक कोई सार्थक हल मिलता नहीं दिख रहा. साधना न्यूज ने सामाजिक दायित्वों के प्रति गंभीरता जताते हुए छत्तीसगढ़ के ज्वलंत मुद्दे पर परिचर्चा का आयोजन किया. अपनी तरह की पहली राष्ट्रीय परिचर्चा में गृहमंत्री ननकीराम कंवर, लोक निर्माण मंत्री बृजमोहन अग्रवाल, राज्यसभा सांसद नंद कुमार साय सहित नक्सली मुद्दों पर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ शामिल हुए.

परिचर्चा में विशेषज्ञों के तौर पर बीएसएफ के पूर्व डीजी और नक्सल मामलों के विशेषज्ञ पद्मश्री प्रकाश सिंह, नक्सल मामलों के जानकार और प्रभात खबर के समूह संपादक हरिवंश, वर्तमान में नक्सली और केंद्र सरकार के बीच वार्ताकार की भूमिका निभा रहे सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश, आईबीएन 7 के प्रबंध संपादक आशुतोष, अमर उजाला के वरिष्ठ संपादक आनंद मोहन, इंडियन ब्रॉडकास्ट एसोसियशन के महासचिव एन.के. सिंह, भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली के प्रोफेसर आनंद प्रधान ने अपनी-अपनी बातों को रखा.

सभी ने एक स्वर में नक्सली हिंसा की जमकर भर्त्सना की. नक्सली विशेषज्ञों के मुताबिक किसी भी हिंसा का रास्ता गलत होता है और ऐसी किसी भी हिंसा का लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं. इसलिए नक्सलियों को वार्ता की मेज पर आना होगा. बातचीत ही नक्सली समस्या का हल है. सरकार की असफलता के कारण ही नक्सली समस्या ने इतना बड़ा विकराल रूप लिया है. लिहाजा इस मामले पर सरकार को गंभीरता से सोचने की जरूरत है.

नक्सलियों और सरकार के बीच शांति वार्ता की पहल में लगे सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश का कहना है कि सरकार से जुड़े कुछ लोग नहीं चाहते कि यह बातचीत सफल हो. वार्ता के प्रयास के बीच नक्सलियों के नेता आजाद की मुठभेड़ में हत्या कर दिए जाने से उनकी सारी मेहनत पर पानी फिर गया. नक्सल वार्ताकर स्वामी अग्निवेश ने नक्सलियों से बातचीत का समर्थन किया. उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार व नक्सली बातचीत करने के पक्ष में है. इसके लिए माहौल नहीं बन पा रहा है. दुनिया की हर समस्या बात से ही सुलझी है, गोली चलाने से किसी भी समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता है. इससे केवल हिंसा की प्रवृति बढ़ती है.

नक्सल समस्या पर लंबे समय तक काम कर चुके बीएसएफ के पूर्व डीजी प्रकाश सिंह शासन औऱ प्रशासन में बैठे लोगों पर आरोप लगाया है कि शासन औऱ प्रशासन की असफलता के कारण ही दशक हर दशक कोई समस्या हमारे सामने चुनौती के रूप में खड़ी रही..चाहे नार्थ-इस्ट का मामला हो..या साठ के दशक में उपजा नक्सली समस्या..प्लानिंग कमीशन को सौपे रिपोर्ट का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि जब सरकार नागा विद्रोहियों, उल्फा से बातचीत के तैयार है..तो नक्सलियों के साथ भी सार्थक बहस होनी चाहिए..लेकिन इसके लिए पहले सरकार को नक्सलियों पर हावी होना पड़ेगा..जब तक नक्सलियों पर सरकार होवी नहीं होगी.तब तक बातचीत भी कोई मायने नहीं रखेगा.

इंडियन ब्रोडकास्ट एसोसिएशन के महासचिव एनके सिंह ने कहा कि हमारे देश में विकास का गलत मॉडल चल रहा है. लगभग 84 करोड़ लोग 20 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से अपना गुजारा करते हैं, वहीं 25 हजार लोग ऐसे भी हैं जिनके पास 2 करोड़ की गाड़ियाँ हैं. इस तरह के असमान विकास से नक्सली समस्या पैदा होना लाजिमी है.

साहित्यकार रमेश नैयर ने कहा कि आदिवासी अंचलों का शोषण पहले पुलिस व फॉरेस्ट रेंजरों ने किया अब नक्सली उन्हें लूट रहे है. यह व्यवस्था बदलनी होगी. हमें विकास का कोई दूसरा उपाय ढूँढ़ने की जरूरत है. भारतीय जनसंचार संस्थान दिल्ली के प्रोफेसर आनंद प्रधान ने कहा कि हिंसा सिर्फ नक्सली हिंसा नहीं है, लोगों को उनके हक से, रोजी-रोटी से मरहूम रखना भी हिंसा है. इसे अब बदलने की आवश्यकता है. इस अवसर पर प्रभात खबर के समूह संपादक हरिवंश ने कहा कि नक्सली समस्या कोई आज की समस्या नहीं है. इस समस्या को खड़े करने में सरकार की असफलता सबसे प्रमुख मुद्दा है जिसके कारण इस समस्या ने विकराल रूप लिए हैं. हिंसा का रास्ता सदैव गलत है.

आईबीएन 7 के प्रबंध संपादक आशुतोष  ने कहा कि नक्सली समर्थक कभी किसी के हितैषी नहीं हो सकते. इतिहास गवाह है कि उन्होंने अपने परिवार के लोगों को ही नहीं बख्शा, तो देश का क्या भला करेंगे. समाज की सोच परिवर्तन में मीडिया की अहम भूमिका है.

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अमर उजाला के संपादक अरविंद मोहन ने कहा कि मीडिया से लोग काफी अपेक्षा रखते हैं, लेकिन नक्सली या सरकार मीडिया से दोहरा व्यवहार करते हैं. युद्ध क्षेत्र में सेना बल अपनी कस्टडी में पत्रकारों को लेकर जाते हैं. वे वही छपवाते हैं, जो चाहते हैं. उस पर कोई सवालिया निशान खड़ा नहीं करता, लेकिन यदि नक्सली पत्रकारों को अपने साथ ले जाते हैं और पत्रकार कुछ लिखता है तो उसके चरित्र एवं मंशा पर सवाल खड़े किए जाते हैं.

इतनी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि पत्रकार खुद जाकर सच जाने. पत्रकार पर आरोप लगाना बंद करना चाहिए. सभी ने एक स्वर में कहा कि शासन औऱ प्रशासन में बैठे लोगों का नाकारापन नक्सलियों के लिए किसी लाइसेंस से कम नहीं. ऐसे लोग दूसरों पर छीटाकशी कर अपना दामन बचाते रहते हैं और अपने दामन को पाक साफ बताते हैं.

रायपुर से आर.के. गांधी की रिपोर्ट. आरके साधना न्यूज मप्र-छ.ग. न्यूज चैनल में सीनियर रिपोर्टर हैं. रायपुर में ही साधना न्यूज मप्र-छ.ग. में कार्यरत राजेश राज ने भी इस परिचर्चा पर एक रिपोर्ट दी है. राजेश की रिपोर्ट इस प्रकार है…

नक्सल हिंसा, लोकतंत्र और मीडिया

देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुकी नक्सली समस्या को लेकर साधना न्यूज चैनल ने एक राष्ट्रीय परिचर्चा आयोजित कराई। मौका था साधना न्यूज मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ के दूसरे वर्षगांठ का। छत्तीसगढ़ के ब्यूरो चीफ संजय शेखर ने परिचर्चा आयोजित कराई और एक ही मंच पर ऐसे ऐसे वक्ता बिठा दिए कि परिचर्चा दिलचस्प बन गई। किसी की नजर में नक्सलियों से बातचीत करना बेवकूफी है। उन्हें तो गोली के बदले गोली से ही जवाब दिया जाना चाहिए। तो कोई नक्सली हिंसा से इतर अधिकारियों, सरकारी तंत्र और नेताओं की हिंसा का सवाल खड़ा करने लगा। लेकिन खुद छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ने यह कहकर लोगों को सन्न कर दिया कि जब वे नक्सल प्रभावित क्षेत्र में दौरे पर जाते हैं, और अधिकारियों से पूछते हैं कि आखिर नक्सली जनअदालत में उन्हें सजा क्यों देते हैं? और सजा देते हैं तो आम जनता खुश क्यों होती है? इसका कोई जवाब उनके पास नहीं होता। राज्यसभा में बीजेपी के सांसद दो कदम आगे बढ़ गए। उन्होंने ताल ठोंक कर कहा, पुलिस के अत्याचार ने नक्सली समस्या पैदा की है। वे खुद अपनी ही सरकार के पुलिस अधिकारी को इसके लिए चेता भी चुके हैं।

नक्सलियों और सरकार के बीच वार्ताकार के रूप में पहल कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश के सनसनीखेज खुलासे ने श्रोताओं को स्तब्ध कर दिया। उन्होंने गृहमंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री से हुई मुलाकात का उल्लेख करते हुए कहा कि नक्सली नेता आजाद की हत्या साजिश है। नक्सली गृहमंत्री की पहल पर बातचीत की प्रक्रिया को लगभग अंतिम चरण पहुंचाने की स्थिति में थे। ऐन वक्त पर आजाद को मुठभेड़ की आड़ में मौत के घाट उतार दिया गया। परिचर्चा में प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर, प्रभात खबर के समूह संपादक हरिवंश, इंडियन ब्रॉडकास्ट एसोसिएशन के महासचिव एनके सिंह,  बीएसफ के पूर्व डीजी पद्मश्री प्रकाश सिंह, आईआईएमसी के प्रोफेसर आनंद प्रधान, अमर उजाला के संपादक अरविंद मोहन, समेत प्रदेश के लोकनिर्माण मंत्री बृजमोहन अग्रवाल शामिल थे। इस परिचर्चा को सुनने के लिए प्रदेशभर के प्रबुद्धजन बड़ी संख्या डटे रहे। 8 घंटे तक लोग अपनी कुर्सी से उठ नहीं सके। पहली बार लोगों को नक्सल मामलों पर इतनी सारगर्भित और गहरी बातें सुननी को मिली थीं।

परिचर्चा का आगाज प्रदेश के ख्यातिलब्ध रमेश नैयर के आधार वक्तय से हुआ। श्री नैयर 55 सालों से छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता कर रहे हैं। उन्होंने अपने सामने नक्सली समस्या को पनपते और फलते फूलते देखा है। इसके लिए जमीन कैसे तैयार हुई? कैसे फॉरेस्ट रेंजरों और पुलिस का आतंक और विकास की उपेक्षा ने बस्तर को नक्सली गढ़ में तब्दील कर दिया। उन्होनें बहुत विस्तार से इन सारी परिस्थितियों को सामने रखा। उन्होंने बताया कि जब यह मध्य प्रदेश था, तब इस क्षेत्र की घोर उपेक्षा की गई। 70 के दशक में यहां के सबसे बड़े आदिवासी नेता प्रवीर भंजदेव की हत्या पुलिस द्वारा कर दी गई। क्योंकि प्रवीर भंजदेव बाहरी लोगो के आदिवासी जीवन में अनावश्यक हस्तक्षेत्र को पसंद नहीं करते थे। इस बात से खिन्न होकर तत्कालीन मुख्यमंत्री और वहां के एसपी ने उस आदिवासी नेता को मार डाला। उस क्षेत्र में विकास की कोई कोशिश नहीं की गई। और काकतीय विश्वविद्यालय के छात्र छात्राएं वहां पैदा हुए शून्य को भरने आने लगे। उन्होंने वहां नलकूप खोदे, स्वास्थ्य सेवा शुरू की। उनके बच्चों को शिक्षा देनी शुरू की। और इस तरह नक्सली जड़ पनपनी शुरू हुई। उन्होंने कहा, आज नक्सलियों में भी असामाजिक तत्व शामिल हो गए हैं। आदिवासी अब नक्सली के हाथों मर रहे हैं। सरकार अब नक्सली के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने की बात कर रही है। लेकिन आए दिन विरोधाभासी बयान और कदमों को देखकर यही लगता है कि कोशिश कम, राजनीतिक गोटी खेलना ज्यादा हो रहा है।

आदिवासी नेता और राज्यसभा में बीजेपी के सांसद नंदकुमार साय ने साफ तौर पर नक्सली समस्या के लिए पुलिस की ज्यादती को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने तो यहां तक कह डाला कि उन्होंने खुद एसपी, आईजी को कहा है कि पुलिस को आम जनता, आदिवासी को सताने से रोके, नहीं तो पुलिस वालों को भी पेड़ से उल्टा लटका दिया जाएगा। उन्होंने बताया कि जब वे लोकसभा के लिए चुने गए, तो उनके क्षेत्र के लोग नक्सलियों की समस्या को लेकर आए थे। तब उन्होंने दर्जनों ऐसे क्षेत्रों का दौरा किया था। सरगुजा क्षेत्र में आम जनता को संगठित कर नक्सलियों को खिलाफ मोर्चा खोला था। इसमें उन्हें काफी सफलता भी मिली थी। नक्सलियों के मूवमेंट की खबर उन्हें 10 घंटे पहले मिल जाया करती थी। वे अपने संगठन के जरिए नक्सलियों के खिलाफ काउंटर स्टेप उठाकर उनकी कोशिशों को विफल कर दिया करते थे। उन्होंने दावा किया कि उनकी कोशिश से एक वक्त सरगुजा में नक्सल समस्या करीब करीब खत्म हो गई। हालांकि उन्होंने माना कि अब वहां पहले जैसी स्थिति नहीं है।

सामाजिक कार्यकर्ता अग्निवेश ने नक्सलियों से बातचीत का पुरजोर समर्थन किया। उन्होंने कहा कि नक्सली बातचीत करने को तैयार हैं। वे भी मानते हैं कि बंदूक के बल पर सत्ता नहीं पाई जा सकती। न ही सत्ता बदली जा सकती है। पिछले दिनों में 5 मई को उन्होंने छत्तीसगढ़ में शांति यात्रा दल के साथ बस्तर की यात्रा की थी। इसमें देशभर के प्रख्यात गांधीवादी नेता शामिल थे। लेकिन उनकी यात्रा का प्रायोजित विरोध कराया गया। यशपाल जैसे वैज्ञानिकों को नक्सली का दलाल कहा गया। उनकी बसों की हवा निकाल दिए गए। पुलिस की मौजूदगी में राजनीतिक दलों के लोग प्रदर्शन करते रहे। फिर भी वे बस्तर पहुंचे। नक्सली नेता से मिले और गृहमंत्री पी चिदंबरम की शांति वार्ता की पेशकश को नक्सली तक पहुंचाया। खुद गृहमंत्री ने उनकी कोशिश की तारीफ की थी। नक्सली भी बातचीत को तैयार हो रहे थे। नक्सली नेता आजाद का सहमति पत्र उन्हें मिल चुका था। वे किसी तारीख को तय करने वाले थे, जिस दिन से वे युद्वविराम की घोषणा करते। उन्होंने तिहाड़ जेल में कोबड़ गांधी और रायपुर सेंट्रल जेल में नारायण सान्याल से बातचीत की थी। सभी बातचीत करने और बंदूक डालने को तैयार हैं। नक्सलियों की ओर से युद्वविराम की लगभग घोषणा होने वाली थी, तभी आजाद को मुठभेड़ के नाम पर मार डाला गया। मैं तो उस खबर से स्तब्ध रह गया। रातभर सो नहीं सका। लगा, कहीं न कहीं विश्वासघात किया गया है। उन्होंने इस पर गृहमंत्री पी चिदंबरम से भी मुलाकात कर जांच की मांग की। लेकिन वे मुकर गए। उन्होंने कह दिया, उन्हें कुछ नहीं पता। उन्होंने प्रधानमंत्री से मुलाकात की। प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया है, आजाद की हत्या की जांच कराई जाएगी। उन्होंने जोर देकर कहा कि इस समस्या का समाधान सिर्फ बातचीत से होसकती है। उन्होंने मीडया से भी अपील की कि वे सच को दिखाएं। सच बोलने की ताकत पैदा करें। आजाद की हत्या का सच भी सामने आना चाहिए।

अमर उजाला के वरिष्ठ संपादक अरविंद मोहन ने विषय नक्सल हिंसा, लोकतंत्र और मीडिया के मीडिया टॉपिक पर विशेष तौर से अपनी बात रखी। उन्होंने कहा, कि नक्सली मुद्दों पर राष्ट्रीय मीडिया में खबर कम आती है। इसकी वजह उस तक सीमित पहुंच है। नक्सली क्षेत्र में पुलिस जाने नहीं देती। दूसरी ओर नक्सलियों की मर्जी के खिलाफ एक कदम नहीं चला जा सकता। उन्होंने सवाल किया कि जब युद्ध क्षेत्र में सेना पत्रकारों को लेकर जाती है। अपनी निगरानी में रिपोर्टिंग कराते हैं। उस खबर पर कोई सवाल नहीं करता। लेकिन नक्सली किसी पत्रकार को साथ ले जाए और उसे देखकर कोई पत्रकार कुछ लिखे, तो सवाल खड़ा किया जाता है! मेधा पाटेकर के लेख पर हाय तौबा मचाने की बजाए उससे मिली जानकारी का उपयोग करना चाहिए। उसी लेख से यह पता चलता है कि आदिवासी के बीच हिंसा किस कदर पैठ चुकी है कि एक नक्सली युवती कहती है. मुझे मांस के उड़ते लोथड़े और खून देखना अच्छा लगता है। यह सरकार के लिए आंख खोलने वाली बात है। नक्स्ली भी सीखें कि वे आदिवासी को क्या सिखा रहे हैं।

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प्रभात खबर के समूह संपादक हरिवंश ने कहा कि नक्सली समस्या को सुलझाने में मीडिया को निर्णायक भूमिका अदा करेगा, ऐसा उन्हें नहीं लगता। इस समस्या का हल सिर्फ राजनीति पहल है। लेकिन अफसोस की बात है कि जयप्रकाश जी के बाद ऐसी कोई कोशिश अब तक किसी नेता ने नहीं की। जयप्रकाश जी के एक कार्यकर्ता को नक्सली ने पत्र लिखकर धमकी दी। वे नैनीताल से लौटकर बिहार के मुजफ्फरपुर के मुशहरी में कैंप लगाकर रहे। वे तीन महीने तक वहां रहे। स्कूल में रहे, खुले में रहे। लेकिन ऐसी कोशिश आज तक नहीं की गई। नक्सली समस्या इस कदर बढ़ चुकी है कि एक आह्वान पर सबकुछ ठप हो जाता है। ज्ञानेश्वरी हमले के बाद आज तक रेल परिचालन सामान्य नहीं हो पाया है। लेकिन राष्ट्रीय मीडिया में कुछ बात नहीं हो रही है। इसका एकमात्र हल राजनीति है।

गृहमंत्री ननकीराम कंवर ने माना कि नक्सली सम्स्या की शुरुआत राज्य की विफलता के कारण ही हुई। जो काम पुलिस को करना था, वह नहीं कर सकी। उन्होंने तो यहां तक कहा, कि जब भी मैं नक्सली क्षेत्र के दौरे पर जाता हूं तो यही पूछता हूं, आखिर नक्सली आपको दंडित क्यों करते हैं? क्यों उनकी नजरों में आपका काम जनविरोधी है? और जब वे दंडित करते हैं तो लोग खुश क्यों होते हैं? उन्होंने कहा कि नक्सली कभी आम लोगों के पक्ष में रहे होंगे। लेकिन अब नहीं है। अब आदिवासियों को डराते, धमकाते और उनका शोषण करते हैं। उनके इस कदम का जवाबद इसी अंदाज में ही देना होगा।

इंडियन ब्रॉडकास्ट एसोसिएशन के महासचिव और साधना न्यूज के सलाहकार संपादक एनके सिंह ने माना कि देश में समस्या कुछ दूसरी है। नक्सली समस्या तो उसका एक रूप है। देश में इतना असमान विकास हुआ है, जिसका कोई ओर छोर नहीं है। 25 से 30 करोड़ लोग हर रोज 20 रुपये से कम पर गुजारा कर रहे हैं। वहीं 25 हजार लोग 2 करोड़ की गाड़ियों में घूम रहे हैं। यहां से कम गरीबी और कम भुखमरी की हालत में अफ्रीकी देशों में आंदोलन हो चुका है। भारत में नहीं हो सका है तो यह भगवान का आशीर्वाद है। उन्होंने कहा कि मीडिया, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका पर सवाल खड़ा किया जाता है। वह जायज भी है। लेकिन अभी देश का यह मीडिया महज 15-16 साल का ही है। नियम, मापदंड तैयार होने हैं। इसकी प्रक्रिया चल भी रही है। लेकिन देश को पूरे मर्ज की दवा ढूंढ़नी पड़ेगी। नक्सल समस्या का सफाया कोई बड़ी बात नहीं है। सरकार दृढ हो जाए और मजबूत इच्छा शक्ति से अभियान चलाए तो यह थोड़े दिनों में ही खत्म हो जाएगी।

आईआईएमसी के प्रोफेसर आनंद प्रधान ने कहा कि हिंसा सिर्फ नक्सली हिंसा नहीं है। 30 करोड़ लोग भूखे पेट सो रहे हैं, वह भी हिंसा है। कॉलेज, विश्वविद्यालय जाने की उम्र वाले 88 प्रतिशत युवा इससे महरूम हो रहे हैं, वह भी हिंसा है। लोगों को उनका अधिकार नहीं मिल रहा, वह भी हिंसा है। हम लोकतंत्र में जीते हैं, इसलिए हमें सबकी बातें सुननी चाहिए। अगर जिस दिन दूसरों की बातें सुननी बंद की, उस दिन हिंसा शुरू हो जाएगी। उन्होंने कहा कि मीडिया को भी सच और झूठ में फर्क करना होगा। कई बार मीडिया कुछ सच को इसलिए नहीं दिखाना चाहता, कि उससे देश टूट जाएगा। लेकिन झूठ देश को तोड़ता है। उन्होंने इराक हमले का उदाहरण दिया। अमेरिकी मीडिया ने इराक हमले के लिए वातावरण तैयार किया। झूठ बोलता रहा कि इराक में जनसंहार के हथियार है। जबकि कई मीडिया वाले जानते थे कि ऐसा नहीं है। आखिर चार साल बाद, संपादकीय लिखकर उन्हें जनता से माफी मांगनी पड़ी।

प्रदेश के कद्दावर नेता बृजमोहन अग्रवाल ने नक्सली के साथ मीडिया पर भी भड़ास निकाली। उन्होंने कहा कि आज प्रदेश में सरकार विकास करना चाहती है, तो नक्सली होने नहीं दे रहे? आखिर वे चाहते क्या है? आदिवासियों के लिए बात करते हैं तो उसके विकास के लिए बने स्कूल क्यों उड़ा दे रहे हैं? क्यों सड़के बनने नहीं दे रहे हैं? क्यों तेंदूपत्ता नहीं तोड़ने दे रहे हैं? और मीडिया भी नक्सली घटनाओं को महिमामंडित करता रहता है। इससे नक्सलियों का खौफ ही फैलता है। और उन्हीं को फायदा पहुंचता है। मीडिया को इससे बचना चाहिए।

बीएसएफ के पूर्व डीजी पद्मश्री प्रकाश सिंह ने इस समस्या पर बड़ी सारगर्भित बातें कहीं। उन्होंने पंजाब का आतंकवाद खत्म किया है। तराई का आतंकवाद कम किया। उत्तर पूर्व का चरमपंथ शुरू से देखा है। नक्सल मामलों पर भी शुरू से ही दखल रखी है। इस पर बनी कई कमेटियों के सदस्य और अध्यक्ष रहे हैं। उन्होंने कहा कि शुरू में कानू सान्याल, चारू मजुमदार जैसे नेताओं के लेख वाकई गहरे होते थे। उन्हें पढकर उन्हें भी लगता था, ये लोग गलत कहां है? लेकिन अब नक्सली आंदोलन वैसा नहीं रह गया। बातचीत के मसले पर उन्होंने कहा कि अभी वार्ता सफल नहीं हो सकती। पहले सरकार को उन क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करनी होगी, जहां नक्सलियों का एकक्षत्र राज चलता है। नक्सली अभी वार्ता का नाटक करना चाहते हैं? उन्होंने मीडिया की भूमिका पर भी तीखा प्रहार किया। आज मीडिया पैसा और रीडिरशिप के पीछे पागल हो गया है। नंगी औरतों की तस्वीर छापे जा रहे हैं। सेक्स बेचा जा रहा है। उन्होंने तो यहां तक कहा कि वे अपने वकील के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी में हैं। आखिर प्रेस की आजादी और अभिव्यक्ति की आजादी में फर्क तो होना ही चाहिए। राजनीति पार्टी भी भ्रष्ट हो चुकी हैं। संसद, विधानसभाओं में आधे से ज्यादा अपराधी पहुंच चुके हैं। कुछ दिख नहीं रहा, किससे उम्मीद करें? उन्होंने कहा कि एक तूफान आता साफ साफ दिख रहा है। लेकिन उसकी बहुत बड़ी कीमत हम सबको चुकानी होगी।

आईबीएन 7 के मैनेजिंग एडिटर को सबसे आखिरी में बोलने के लिए बुलाया गया। मंच संभाल रहे संचालनकर्ता ने कहा कि हमने अपना ग्लैमर अंत के लिए बचाए रखा था। उन्होंने जब बोलना शुरू किया तो सभी के माथे पर बल पड़ गए। सुबह से चल रही परिचर्चा का रुख बदल गया। उन्होंने प्रकाश जी के वक्तव्य पर ताबड़तोड़ प्रहार कर डाला। बकौल आशुतोष….  बहुत अफसोस की बात है कि अब तक के सारे वक्ताओं ने सीधे सीधे ये नहीं कहा कि नक्सली गलत हैं। उन्होंने कान सीधे नहीं पकड़कर उल्टा पकड़ने की कोशिश की है। आखिर किसका समर्थन कर रहे हैं? उस नक्सली का, जो भारत के संविधान, लोकतंत्र और समानता को कभी पसंद ही नहीं किया? रूस, और चीन में समानता के नाम पर लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। जिस विचारधारा में एक ने सोचा, और सबने सिर झुकाकर उसे माना? जो बिना पूछे, बिना परखे, पूंजीवादी होने के नाम पर लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं? आखिर क्या बात होगी उस नक्सलियों से? पंजाब के आतंकवादी, असम के आतंकवादी, कश्मीर के आतंकवादी के एजेंडे साफ थे। उन्हें अलग देश चाहिए था? क्या नक्सलियों को अपनी सत्ता सौंप देने पर चर्चा होगी? और प्रकाश जी के शब्दों में लोकतंत्र में अपनी व्यवस्था का इतना अभाव? आखिर क्यो? अगर है तो यह हमारी निजी समस्या है। हम 1948 की सोच से आगे बढ़ नहीं पा रहे हैं? हम गुलामी की मानसिकता से उबर नहीं पा रहे हैं? आज हमारे देश ने बहुत कुछ किया है। पूरी दुनिया की नजर हमारी ओर है। हमारी नई पीढ़ी की उर्जा और आत्मविश्वास है। हम कैसे पीछे हो सकते हैं? मीडिया अपनी भूमिका निभा रहा है। पहली बार हुआ कि मीडिया के सवाल पर देश के गृहमंत्री बदल गए। रूचिका का केस किसने उठाया? किसी राजनीतिक दल ने एक शब्द तक नहीं कहा था। यह मीडिया का आह्वान था और लोग सड़क पर उतरे थे। लोगों ने वह लड़ाई लड़ी थी। वह भी पहली बार बिना किसी राजनीतिक दल की मदद से।

आशुतोष के इतनी तीखे प्रहार ने पद्मश्री प्रकाश जी को भी विचलित कर दिया। वे फिर से बोलने आए, और कहा कि उनकी तड़प मीडिया से नहीं, लोकतंत्र की खामियों पर है। 60 साल गंवाए हैं हमने। अब तक हमारा देश महाशक्ति हो गया होता! लेकिन भूटान को छोड़ कोई पड़ोसी इज्जत तक नहीं देता। अपराधी सांसद, विधायक पर शर्म नहीं आनी चाहिए क्या? उनकी नजरों के सामने एक झंझावत आता दिख रहा है। लेकिन उसकी बड़ी कीमत चुकानी होगी। … लेकिन आशुतोष भी कहां चुप रहते। एक मिनट मांगकर वे फिर से मंच पर आ ही गए…! खैर, इस बहस में श्रोताओं को जमकर तालियां बजाने का मौका मिला। अंत में श्रोताओं को भी प्रश्न पूछने का मौका दिया गया। इस मौके पर राजधानी के एक पत्रकार ने पूछ ही लिया, आखिर छत्तीसगढ़ की समस्या को राष्ट्रीय मीडिया में कब जगह मिलेगी? और आशुतोष जी को बताना पड़ा कि क्यों दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद, की खबरें ही राष्ट्रीय खबरें क्यों बनती है। परिचर्चा खत्म हुई। 8 घंटे कैसे बीता, किसी को पता नहीं चला। श्रोताओं के चहरे बता रहे थे कि वे उबे तो बिल्कुल भी नहीं हैं। और यह भी कि ऐसी पहल का उन्हें इंतजार रहेगा………..

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0 Comments

  1. vaibhav shiv pandey

    July 27, 2010 at 2:45 pm

    GANDHI BHAIYA AUR RAJES BAHI AAP DONO KI HI RIPORT PADKAR , JO DUKH PARICHARCHA ME NAHI AA PANE KI HO RAHI THI USSE RAHAT MILI HAI. YE JANKAR ACHHA LAGA KI HAMARE DES KE PRABUDH CHHATTISGARH KI NAKSAL HINSA PAR KYA SOCHTE HAI . VAISE IS PURE RIPORT ME SABHI KE VICHARO KE BAD AAPKE SARANSH VICHAR AA JATE TO KAFI ACHHA HOTA. KAHIR SADHNA NESW EK BEHAD GAMBHIR VISHAY PAR RASHTRIY PARICHARCHA AAYOJIT KAR EK ACHCHHA PRAYAS KIYA HAI. SADHNA NEWS KE DO SAL PURE HONE PAR BADHAI .

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