स्टील अथारिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (सेल) के पूर्व चेयरमैन डॉ. प्रभुलाल अग्रवाल की हालिया रिलीज किताब ‘जर्नी ऑफ ए स्टील मैन’ इन दिनों चर्चा में है। ‘सेल’ की तमाम इकाइयों में इस किताब का अंग्रेजी संस्करण पहुंच चुका है। सेल के अफसर उस दौर के इस्पात जगत से जुड़े षडयंत्रों और दूसरे किस्सों को उत्सुकता के साथ पढ़ रहे हैं। डॉ. अग्रवाल की इस किताब का हिंदी संस्करण अगले माह आ रहा है। इन दिनों उदयपुर में रह रहे डॉ. अग्रवाल ने फोन पर बताया कि किताब में उन्होंने वही सब कुछ लिखा है जिनसे उनका सीधा वास्ता रहा। डॉ. अग्रवाल ने स्पष्ट किया कि उनका मकसद किसी व्यक्ति विशेष की छवि को ठेस पहुंचाना नहीं है, लेकिन जो वास्तविकता है उसे समाज के बीच लाने में वह कोई बुराई नहीं समझते।
राउरकेला स्टील प्लांट (आरएसपी) के पूर्व प्रमुख डॉ. अग्रवाल जनता शासनकाल से लेकर इंदिरा शासनकाल के शुरुआती दिनों (1980) तक ‘सेल’ के चेयरमैन रह चुके हैं। डॉ. अग्रवाल ने आत्मकथात्मक शैली में लिखी इस पुस्तक में अपने पूरे कैरियर का खाका खींचा है, साथ ही कुछ ऐसी घटनाओं का ब्यौरा दिया है, जिनसे उस दौर की तस्वीर का दूसरा पहलू भी उभरता है।
अपनी पुस्तक में भिलाई की एक कंपनी की आरएसपी विरोधी मुहिम का जिक्र करते हुए डॉ. अग्रवाल ने लिखा है कि 1971 में राउरकेला स्टील प्लांट के कोक ओवन का कोल्ड और हॉट रिपेयर होना था। चूंकि इस कोक ओवन की स्थापना जर्मन फर्म डॉ. सी. ओट्टवो एवं कंपनी ने की थी, लिहाजा उन्हें ही इसकी मरम्मत का वृहद अनुभव था। जब टेंडर बुलाए गए तो इसी जर्मन फर्म की भारतीय इकाई ओट्टवो इंडिया और बीआर जैन की भिलाई कंस्ट्रक्शन कंपनी ने निविदा भरी। विशेषज्ञता और अनुभव को देखते हुए ओट्टवो इंडिया को ठेका देने का निर्णय लिया गया।
जब भिलाई कंस्ट्रक्शन को काम नहीं मिला तो इस कंपनी के लोगों ने राउरकेला स्टील प्लांट और विशेषकर मेरे खिलाफ दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया। इन लोगों ने सारे संसद सदस्यों और कमेटी ऑन पब्लिक अंडरटेकिंग (कोपू) सहित विभिन्न कमेटियों को इस फैसले के खिलाफ चिट्ठी लिखी और प्रेस में भी हमारे खिलाफ काफी कुछ लिखवाया। हालांकि हमारा निर्णय बिल्कुल सही था और यह बात बाद में उस वक्त भी सही साबित हुई जब जैन डायरी (जैन हवाला केस) प्रकरण राष्ट्रीय मुद्दा बना। हम लोगों को पता चला कि बीआर जैन इन डायरियों के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार थे।
आरएसपी में जनरल मैनेजर रहने के दौरान उड़ीसा की तत्कालीन मुख्यमंत्री और उनके भाई से हुए विवादों का जिक्र करते हुए डॉ. अग्रवाल ने लिखा है कि मुख्यमंत्री नंदिनी सत्पथी के भाई तुषार पाणिग्रही उनसे मिलने आए और संयंत्र भ्रमण के बाद सीधे तौर पर 5 एमएम मानक वाली 110 टन स्टील प्लेट की मांग कर दी। असमर्थता जताने पर श्री पाणिग्रही नाराज होकर चले गए और बाद में संभवत: यह बात अपनी बहन (मुख्यमंत्री) को भी बताई होगी। इसके बाद जब श्रीमती सत्पथी राउरकेला दौरे पर आई तो उन्होंने मुझे अकेले में ले जाकर कहा कि- मैं तुम्हे उड़ीसा से बाहर करवा दूंगी, क्योंकि मेरे अपने लोगों के लिए तुम कुछ भी नहीं कर सकते हो। मैंनें उन्हें बेहद विनम्रता से जवाब दिया कि मैडम, यह आपकी इच्छा है, अगर मुझे राउरकेला से बाहर भी पोस्टिंग मिलती है तो मैं वहां जाकर काम करने में खुशी महसूस करूंगा।
डॉ. अग्रवाल के मुताबिक इस प्रकरण के बाद उड़ीसा स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड से आरएसपी को बिजली आपूर्ति के मुद्दे पर गतिरोध उत्पन्न हो गया। उड़ीसा बिजली बोर्ड हमें हमारे हिस्से की बिजली देने में कोताही बरतने लगा। इससे प्लांट का उत्पादन प्रभावित हो रहा था। इस बारे में जब मैंने अपने लोगों से पता करवाया तो मालूम हुआ कि यह आदेश ‘ऊपर’ से था, जिसमें साफ तौर पर कहा गया था कि आरएसपी मैनेजमेंट को ‘सबक’ सिखाना जरूरी है। मैंने वस्तुस्थिति की रिपोर्ट बनवाई और अपने मंत्री चंद्रजीत यादव को रूबरू कराया। श्री यादव इस फाइल को लेकर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले। अगले दिन श्रीमती सत्पथी नई दिल्ली आने वाली थीं। ऐसे में बाद में मुझे श्री यादव ने बताया कि श्रीमती गांधी ने मुख्यमंत्री को बेहद कड़े शब्दों में चेताया था। इसका असर यह रहा कि उड़ीसा विद्युत मंडल से आरएसपी को बिजली की आपूर्ति नियमित हो गई।
‘सेल’ में विदेश से कोक मंगाने की शुरुआत का जिक्र करते हुए डॉ अग्रवाल ने लिखा है कि 1979 के दौर में कोक ओवन में कोक 10 लाख टन कम मिलने लगा। इससे सभी यूनिटों के उत्पादन पर असर पड़ा। कोल वाशरी ने अपना उत्पादन बढ़ाने के चक्कर में सिर्फ खनन पर ध्यान दिया और वाशरी को उपेक्षित रखा। इससे कोयले में राख की मात्रा (ऐश कंटेंट) बढऩे लगी और पिग आयरन और स्टील की क्वालिटी पर फर्क पड़ा। कोक की लगातार कमी को देखते हुए भिलाई स्टील प्लांट में एक ब्लास्ट फर्नेस बंद कर इसे कई महीनों तक गर्म हालत में रखा गया था। एक साल के दौर में कोल स्टाक लगातार कम होता गया। तमाम स्टील प्लांट के एमडी और जनरल सुपरीटेंडेंट और स्टील सेक्रेट्री इन बातों से अच्छी तरह वाकिफ थे। ऐसे में सेल ने कोयला आयात के प्रस्ताव को मंजूरी दी। यह परंपरा आज तक चल रही है।
आज तो 90-90 लाख टन कोयला मंगाया जा रहा है, जबकि उस वक्त एक साल में सिर्फ 10 लाख टन आयात की इजाजत थी। इस मामले में ‘सेल’ के संबंधित विभाग ने बहुत अच्छा किया और विदेश से बहुत कम ऐश कंटेंट वाला कोल लिया और इससे कुछ राहत मिली और उत्पादन बढ़ गया। इस दौरान तत्कालीन कोल मिनिस्टर ने एक बैठक बुलाई थी जिसमें कोयला उद्योग से जुड़े तमाम दिग्गजों के साथ स्टील सेक्टर की ओर से मैं भी मौजूद था। इस बैठक में कोल वालों ने सारा दोष रेलवे पर डाल दिया जबकि उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि वह खुद ही उत्पादन नहीं दे पा रहे हैं।
इंदिरा शासनकाल में पडऩे वाले दबाव का जिक्र करते हुए डॉ. अग्रवाल ने अपनी किताब में बहुत से खुलासे किए हैं। डॉ. अग्रवाल ने लिखा है कि इंदिरा गांधी के बहुचर्चित योग गुरु (जिनका नाम उन्होंने नहीं दिया है) का एक पत्र मिला, जिसमें उन्होंने कुछ हजार टन स्टेनलेस स्टील (लैट) लगभग आधी कीमत पर ‘सेल’ से खरीद कर इंपोर्ट करने मांग की थी। स्टील के कंट्रोल के दौर में इस योग गुरु का आवेदन मैंने रद्द कर दिया। इसके कुछ दिन बाद इस योग गुरु का एक और पत्र मुझे मिला जिसमें 5 एमएम मानक के 12,000 टन स्टील प्लेट की मांग की गई थी। अपने पत्र में इस गुरु ने यह यह उल्लेख किया था कि उन्हें इस स्टील प्लेट की जरूरत हिमाचल प्रदेश में अपने छोटे से एयरक्राफ्ट का फ्यूल टैंक बनाने के लिए है।
डॉ अग्रवाल के मुताबिक इस बारे में जब मैंने इंडियन आयल कार्पोरेशन के चेयरमैन चिंतादास गुप्ता से सलाह ली तो उन्होंने योग गुरु का नाम सुनते ही कह दिया कि मुसीबत में पड़ने के बजाय वो जितना मांगते हैं, उन्हें उतना स्टील दे दो। हालांकि दासगुप्ता ने मुझे बताया कि बीचक्राफ्ट एयरप्लेन में फ्यूल टैंक के लिए मुश्किल से दो सौ टन स्टील लगेगा, न कि 12 हजार टन। मैंने योग गुरु की दरख्वास्त इस्पात मंत्री प्रणव मुखर्जी तक पहुंचाई तो उन्होंने मुझे योग गुरु से इंजीनियरिंग ड्राइंग मंगवा लेने कहा। इसका नतीजा यह हुआ कि कुछ दिन बाद योग गुरु की तरफ से चिट्ठी आई कि अब उन्हें इस स्टील की जरूरत नहीं है।
इंदिरा राज की सबसे ‘ताकतवर हस्ती’ के प्रभाव का जिक्र करते हुए डॉ. अग्रवाल ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि ‘सेल’ चेयरमैन रहने के दौरान मुझ पर स्टील लॉबी का दबाव था कि स्टील की मांग के जितने पुराने प्रस्ताव हैं, उन्हें फिर से खोला जाए। इसके लिए स्टील लॉबी से जुड़े लोग इंदिरा शासन काल की सबसे ‘युवा ताकतवर राजनीतिक हस्ती’ (इनका नाम उन्होंने नहीं दिया) के पास पहुंचे। इस ‘हस्ती’ ने मेरे पास अपना एक प्रतिनिधि भेजा। यह सारे प्रस्ताव काफी पुराने थे और अगर मैं इन्हें मान लेता तो संभव था कि ‘सेल’ को बहुत बड़ा घाटा उठाना पड़ता। इसलिए मैंने सारे प्रस्तावों को बेहद गंभीरता के साथ परीक्षण करवाया। इससे होने वाले नुकसान को देखते हुए मैंने सारे प्रस्ताव पर अमल रोकना बेहतर समझा।
लेकिन, स्टील लॉबी इससे संतुष्ट नहीं थी। ऐसे में मैंने उन लोगों को सलाह दी कि यदि मेरे मंत्री मुझे लिखित में निर्देशित कर दें तो मैं ऐसा कर दूंगा। ऐसे में उन लोगों ने फिर उस ‘हस्ती’ से गुहार लगाई। उस ‘हस्ती’ ने बेहद नाराजगी जताते हुए यह कहा कि किसमें इतना दम है जो मेरे निर्देश को दरकिनार कर मंत्री का लिखित मांगे। इसके बाद उस ‘हस्ती’ ने इस्पात मंत्री को बुलवा कर मुझे भेजने कहा। लेकिन मेरे मंत्री ने उन्हें सलाह दी कि यदि आप उन्हें अकेले बुलाकर मिलते हैं तो इसका गलत संदेश जाएगा। इसके बाद उस ‘हस्ती’ ने कहा कि- यदि ऐसा है तो उस चेयरमैन को बदल दो।
डॉ. अग्रवाल के मुताबिक इसके बाद इस्पात मंत्री ने मुझे बुलाया और कहा कि वह मेरे काम से खुश हैं लेकिन अब उपर (व्यक्ति विशेष) से कुछ दिक्कतें आ रही है। मैं उनकी बात समझ गया और अगल दिन मैंने 5 लाइन की चिट्ठी लिखी कि मेरी जितनी छुट्टी बकाया है, उसे खर्च कर लेने दीजिए और उसके बाद मुझे पूरी छुट्टी दे दीजिए। इस तरह डॉ. अग्रवाल ने ‘सेल’ से अपनी विदाई ले ली और बाद में इंडोनेशिया की एक स्टील परियोजना से जुड़ गए। वहीं बाद में डॉ. अग्रवाल ने भारत सरकार के सलाहकार के तौर पर भी सेवाएं दी और सर्वश्रेष्ठ एकीकृत इस्पात संयंत्र के लिए दिए जाने वाली प्रधानमंत्री ट्रॉफी की स्थापना में भी मुख्य भूमिका निभाई।
बीसीसी से मेरा कोई लेना-देना नहीं- बीआर जैन, भिलाई कंस्ट्रक्शन कंपनी के मुखिया : डा. अग्रवाल की किताब में भिलाई कंस्ट्रक्शन कंपनी के मुखिया के तौर पर अपना नाम आने से वरिष्ठ उद्योगपति बीआर जैन खफ़ा हैं। इन दिनों मुंबई प्रवास पर श्री जैन ने फोन पर चर्चा करते हुए कहा कि वह भिलाई इंजीनियरिंग कंपनी (बीईसी) के मुखिया हैं और उनका भिलाई कंस्ट्रक्शन कंपनी (बीसीसी) से कोई लेना-देना नहीं है। यह बीसीसी कंपनी उनके रिश्ते के भाई एसके जैन की है। श्री जैन ने कहा कि उन्होंने अभी डॉ. अग्रवाल की वह किताब नहीं देखी है लेकिन कोक ओवन के क्षेत्र में उनकी कंपनी बीईसी का लंबा अनुभव है और अभी भी राउरकेला में उनकी कंपनी कोक ओवन का काम कर रही है। श्री जैन ने कहा कि संभव है डॉ. अग्रवाल ने अपनी पुस्तक में भ्रमवश एसके जैन की जगह बीआर जैन लिख दिया होगा।
सीधे लोगों के साथ ऐसा ही होता है- जीएन पुरी, सलाहकार विश्व बैंक, वाशिंगटन : 80 के दौर में हमने भी सुना था कि कुछ ऐसा ही चल रहा है। लेकिन, इतने विस्तार से जानकारी नहीं थी जैसे कि डॉ. प्रभुलाल अग्रवाल की पुस्तक ‘जर्नी ऑफ ए स्टील मैन’ पर केंद्रित विस्तृत रिपोर्ट पढऩे के बाद मिली। मैं डॉक्टर अग्रवाल से निजी तौर पर तो बहुत ज्यादा नहीं मिला था, क्योंकि वो मेरे हिंदुस्तान से अमेरिका चले जाने के बाद ‘सेल’ के चेयरमैन बने थे। हां, उनकी चेयरमैनशिप के दौरान में ही मैं ‘सेल’ से पृथक होकर पूरी तरह विश्व बैंक से जुड़ गया था। 1975 से 1980 तक ‘सेल’ में मेरा पद ‘ऑन डेपुटेशन टू वर्ल्ड बैंक’ का ही चलता रहा और जब मैंने विश्व बैंक में ही रहने का फैसला कर लिया तो डॉ. अग्रवाल ने ही मेरी अर्जी पर दस्तखत किए थे। डॉ. अग्रवाल का व्यक्तित्व काफी सीधा व सरल रहा है। मेरा तजुर्बा है कि ज्यादातर सीधे और सरल लोगों के साथ ऐसा ही होता है।
sachkaha
August 27, 2010 at 10:57 am
Jab aap chairman they tab aapney iska khulasa key nahi kiya. us samay aap bhi bhashtachar ki mithai kha rahey they. Ab retire ho gaye to kitab likhkar phir paisa kamana chahtey hai
Wah Bhai Wah….. Matlab hum sabhi budhu hai na.. aur aap sabsey chalak[b][/b]
sandeep shrivastava
August 28, 2010 at 3:39 am
Dear Jakir ji — Namaskar
vishva ke nakshe par steel ki lokpriyata ke peeche rajnitigyo ne kaisi
chalaki karne ki koshish ki lekin Dr. agarwal ki book ka bariki se
adhyan kar aapne jo rahasya khola hai uski tariif karna chahiye.
ek patrakar se aisee hi apeksha mai karta hoo.( from –
sandeep shrivastava Media journalist Chhattishgarh)