सलीम अख्तर सिद्दीक़ी हिंदी के सक्रिय ब्लागर हैं. जमकर लिखते हैं. बेबाक राय देने में संकोच नहीं करते. सच बयां करने से डरते नहीं. चौथी दुनिया के प्रशंसक रहे हैं. पर उन्हें यह अखबार अब नहीं भा रहा. क्यों, उन्हीं से सुनिए. जरूरी नहीं कि आप सलीम से सहमत हों. असहमति है, उसे प्रकट करना चाहते हैं तो [email protected] का सहारा लें. -एडिटर
इंडिया टीवी की राह चल रहा चौथी दुनिया
-सलीम अख्तर सिद्दीक़ी-
जब मैंने न्यूज पोर्टल ‘भड़ास4मीडिया.कॉम’ पर यह खबर देखी थी कि ‘चौथी दुनिया’ का दोबारा प्रकाशन होने जा रहा है तो मुझे बहुत खुशी हुई थी। इसी खुशी में मैंने ‘भड़ास4मी़डिया’ की उस खबर को कॉपी करके अपने ब्लॉग पर डाल दिया था। थोड़ी देर बाद ही भाई यशवंत ने मेरे ब्लॉग पर कमेंट किया कि भाई यह तो भड़ास4मीडिया का माल है, कम से कम साभार तो लिख दिया होता। बहरहाल, ‘चौथी दुनिया’ का प्रकाशन हुआ। अबकी बार भी सम्पादक वही संतोष भारतीय थे, जो 1986 वाले ‘चौथी दुनिया’ के सम्पादक थे। पहला अंक देखा तो बहुत मायूसी हुई। नये ‘चौथी दुनिया’ पर उस संतोष भारतीय की छाप नहीं थी, जिसका मैं प्रशंसक रहा हूं। मेरे जेहन में तो 1986 वाला ‘चौथी दुनिया’ बसा हुआ था। लेकिन 1986 के मुकाबले 21वीं सदी का अखबार फुल कलर तो था, लेकिन 1986 वाले तेवर नदारद थे। उस पर तुर्रा यह कि बीस पेज का अखबार बीस रुपए की कीमत में था। पता नहीं अखबार के कर्ताधर्ताओं को किसने यह समझा दिया था कि अब भारत का हर नागरिक लखपति हो गया है, जो हर हफ्ते बीस रुपए खर्च करने में नहीं हिचकिचाएगा। उस पर भी यह दावा कि अखबार जन सरोकार की पत्रकारिता के लिए प्रतिबद्ध होगा।पहला अंक खरीदने के बाद दूसरा अंक खरीदने की हिम्मत नहीं हुई। मेरी तरह और लोगों की भी हिम्मत नहीं हुई होगी। तभी तो हमारे मेरठ के एक बुक स्टॉल पर जितने अखबार आते थे, उतने ही वापस चले जाते थे। फिर एक दिन पता चला कि ‘चौथी दुनिया’ सोलह पेज का हो गया है, लेकिन कीमत पांच रुपए हो गयी है। तब से ‘चौथी दुनिया’ लगातार लिया जाने लगा। बुक स्टॉल पर भी अखबार जल्दी ही खत्म होने लगा।
1986 का ‘चौथी दुनिया’ अपने आप में एक मुकम्मल अखबार था। पूरा ब्लैक एण्ड व्हाइट था। लगभग हर राज्य से खबरें होती थीं, भले ही वह छोटी होती थी। अब तो ऐसा लगता है, जैसे-तैसे अखबार पूरा करना है। घपलों-घोटालों और जनता को डराने वाली खबरों को ही ज्यादा अहमियत दी जाती है। जबरदस्ती पेज पूरा किया जाता है, उसके लिए भले ही हैडिंग का साइज बहुत बड़ा करना पड़े या तस्वीरों को बड़ा करके लगाना पड़े। एक बात और जो समझ नहीं आती आखिर शिरडी के सांई बाबा को हर हफ्ते पूरा एक पेज क्यों दिया जाता है ? यह ठीक है कि अखबार के मालिक या सम्पादक की अपनी आस्था हो सकती है, लेकिन उस आस्था को पाठकों पर थोपना कहां तक सही है ? जो एक पेज सांई बाबा को समर्पित किया जाता है, उस पेज का सदुपयोग किसी अच्छी स्टोरी के लिए भी तो किया जा सकता है।
अखबार में ऐसी-ऐसी रिपोर्ट छापी जा रही हैं, जिनका कोई सिर पैर नहीं होता। बहुत सी रिपोर्टें तो ऐसी छपी हैं, जो कम शब्दों में पूरी की जा सकती थीं, लेकिन जबरदस्ती खींचतान करके दो पेज की बना दी गयीं। किसी-किसी रिपोर्ट में तो सिवाए लफ्फाजी के कुछ नहीं होता। उदाहरण के लिए 2 से 8 अगस्त का अंक देखा जा सकता है। पहले पेज की स्टोरी है- ‘एक बम दिल्ली खत्म’। इस स्टोरी में खोजी पत्रकारिता के नाम पर जो कुछ छापा गया है, वह हॉलीवुड की कई फिल्मों का विषय रहा है। अनेक समाचार-पत्र और पत्रिकाएं भी इस बात को लिख चुकी हैं कि एटमी वार कैसी होगी। इस बात पर भी बार-बार चिंता जताई जा चुकी है कि पाकिस्तान के एटम बम सिरफिरे आतंकवादियों के हाथ लग गए तो क्या होगा। यही बात इस स्टोरी में भी उठायी गयी है। स्टोरी पढ़कर ऐसा लगा जैसे, ‘इंडिया टीवी’ सरीखे किसी चैनल की स्क्रिप्ट में कुछ फेर बदल करके छाप दिया गया हो। पूरी स्टोरी की थीम इस बात पर टिकी है कि यदि कभी पाकिस्तान या आतंकवादियों ने दिल्ली या मुंबई पर एटम गिराया जो क्या होगा। यह भी सवाल उठाया गया है कि क्या भारत सरकार के पास ऐसे संकट से निपटने के साधन मौजूद हैं ?
‘चौथी दुनिया’ के सवाल सही हो सकते हैं। लेकिन क्या ‘चौथी दुनिया’ के सम्पादक यह नहीं जानते की जिस देश की सरकार हर साल बाढ़ आने से होने वाले नुकसान को रोकने के उपाए आज तक नहीं कर पायी, वह उस हादसे से होने वाले नुकसान को रोकने के उपाए कैसे कर सकती है, जो सिर्फ कल्पना पर ही आधारित हो। भारत ही क्यों, एटमी वार की त्रासदी को झेलने के लिए तो अमेरिका सरीखे विकसित देश भी अभिशप्त होंगे। अमेरिका भी अपने उन शहरों की हिफाजत के लिए कुछ नहीं कर पाया है, जहां अक्सर तूफान आते रहते हैं। कुल मिलाकर स्टोरी से एक बार फिर जनता को डराने की कोशिश की गयी है। ऐसे ही जैसे कुछ टीवी चैनल (खासकर इंडिया टीवी) यह बताकर डराते आ रहे हैं कि 2012 में कयामत आ जाएगी। कभी-कभी तो लगता है कि अखबार अपनी प्रसार संख्या बढ़ाने के फेर में अपने पैर पर खुद ही कुल्हाड़ी मार रहा है।
अमित गर्ग. जयपुर. राजस्थान.
August 16, 2010 at 6:40 am
बहुत खूब कहा सलीम जी. साधुवाद.
Haresh Kumar
August 16, 2010 at 7:15 am
चौथी दुनिया ने वाकई में निराश किया है। अब वो बात नहीं रही, जिसके लिए चौथी दुनिया को जाना जाता था। 1986 में चौथी दुनिया के आगामी अंक के लिए लोगों में जबर्दस्त उत्साह रहता था। और खबरें भी निकाश नहीं करती थीं। लेकिन अभी तो कई खबरे अन्य समाचारपत्रों में या तो प्रकाशित हुई होती है या बस इंडिया टाइप रिपोर्ट होती है।
AK
August 16, 2010 at 10:15 am
saleem babu itne reasearched story ko aap darane wala kaise keh rahe hain… ek sambhawna jatai gai hai…sarkar ko aagah kiya gaya hai…mei naa to chauthi duniya ko janta tha..aur na hee iske bare mein…. aap ke iss lekh ko padhne ke bad kautuhal vash google mein search kar ke chauthi duniya ka artical padha… khabron ki thodi bahut samajh mujhe bhee hai… iss, lekh ko pad kar dar to bilkul nahin laga..haan chinta zaroor hui..ki sarkar kitni besudh hai… atom bomb ke khatre se koi bhee inkar nahin kar sakta..shayad aap bhee nahin… aap ko nahin lagta kya ki sarkar ko isse bachne ke liye tayar rehna chahiye… its a researched article…
arvind kumar singh
August 17, 2010 at 3:09 pm
salim bhai
aaj jo patrkarita ho rahi hai usse to aap parichit hi hain. aaj kaun si patrika ravivaar, dinman ya dharmyug se mukabla kar sakti hai. main to chauthi dunia ki 1986 ki team me rah chuka hoon aur purana daur bhi dekha hai. yah bhi dekha hai ki hindi me sri santosh bhartiya jaisa saahsi samarpit aur apne sathion ke sath khada rahnewala editor to kamse kam mane nahi dekha hai. haan age ka to nahi kaha ja sakta hai. mujhe chauthi dunia se ummid hai aur manta hoon ki santosh ji aage aur behtar karenge aur jadta ko todege.
arvind kumar singh