उज्जैन के अभिनव रंगमंडल के सालाना नाट्य समारोह में शिरकत का यह दूसरा मौका था। उज्जैन के ही कवि शिवमंगल सिंह सुमन के नाम पर इसे सुमन रंगोत्सव नाम दिया गया है। शुरुआत 1 फरवरी को अभिनव की अपनी प्रस्तुति ‘लहरों के राजहंस’ से हुई। यह संयोग ही था कि मोहन राकेश के इस नाटक की कोई भी प्रस्तुति अब तक देखी नहीं थी। मोहन राकेश ने पहले पहल मात्र 21 साल की उम्र में इसी नाम से एक कहानी लिखी थी, जिसका मूल विचार उनके मन में अश्वघोष की कृति सौंदरनंद पढ़ते हुए आया था। बाद में इस कहानी पर उन्होंने ‘सुंदरी’ नाम से एक रेडियो नाटक लिखा। फिर इस नाटक को उन्होंने ‘रात बीतने तक’ नाम से एक नया संस्कार दिया। लेकिन इससे भी उन्हें संतोष नहीं हुआ और इस तरह सन 1963 में नाटक ‘लहरों के राजहंस’ ने आकार लिया। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। कहीं कुछ था जो अभी भी छूटा हुआ था।
नाटक के पात्र लेखक को कुरेद रहे थे कि वे वैसे नहीं हैं जैसा उन्हें होना चाहिए। कि ‘श्यामांग अब एक व्यक्ति नहीं रहा, एक आभास में बदल गया’ कि ‘नंद वापस आकर सुंदरी का सामना क्यों नहीं कर पाता?’ कि ‘नंद और श्यामांग में क्या तादात्म्य है?’ कि ‘क्या यह तादात्म्य नाटक में स्पष्ट हो सका है?’ राकेश को लगता कि ‘मैं एक अपराधी हूं। हर आलोचना या आलोचनात्मक पत्र मेरे ऊपर लगाया गया अभियोग है। मुझे जैसे भी हो, उस अभियोग का उत्तर देना है।’ तीन साल बाद जब श्यामानंद जालान ने इसे खेलने की योजना बनाई तो मोहन राकेश ने तीसरा अंक फिर से लिखने की मोहलत मांगी। दो अंकों का रिहर्सल चल रहा था और तीसरा लिखा जा रहा था। नाटक की प्रदर्शन तिथि जब महज दो दिन दूर थी आखिर तब जाकर नाटक का तीसरा अंक निर्देशक को हासिल हुआ। राकेश तब भी इससे संतुष्ट नहीं थे। उन्हें लगता था कि इसे फिर से लिखा जा सकता है।
लहरों के राजहंस दुविधा का नाटक है। सांसारिकता और उससे परे के बीच चुनाव की दुविधा। नंद की दुविधा के एक छोर पर सुंदरी है, दूसरे पर बुद्ध। नाटक का एक संवाद है- ‘नारी का आकर्षण पुरुष को पुरुष बनाता है, तो उसका अपकर्षण उसे गौतम बुद्ध बना देता है’। पात्र श्यामांग मानो नंद की उलझन का ही एक बिंब है और श्वेतांग उसके उलट एक चरित्र, जो अपने कर्तव्यों में इतना स्पष्ट है कि हर काम सुचारू रूप से कर पाता है। मोहन राकेश का मानना था कि ‘रंगमंच में शब्द की आधारभूत भूमिका’ होनी चाहिए। ‘आषाढ़ का एक दिन’ की तरह ही यह नाटक भी उनकी इस राय को व्यक्त करता है। अभिनय में स्पीच का यहां अहम रोल है। यह उस तरह का नाटक है जहां तनिक भी ‘अतिरिक्त’ सब कुछ चौपट कर सकता है। यहां अभिनय भी मानो वाचिक का आश्रित है। सारा नाटकीय तनाव जैसे संवादों के उतार-चढ़ाव पर निर्भर हो। यह बगैर शोर शराबे का तनाव है। अभिनव की प्रस्तुति में रंगमंडल प्रमुख शरद शर्मा नंद की भूमिका में थे। दिन में वे टीमों के ठहरने आदि के बंदोबस्त में जुटे थे और शाम ढलते-ढलते मंच पर नंद के द्वंद्व को आकार दे रहे थे। सुंदरी की भूमिका निभा रहीं कामना मंडलोई भट्ट बड़ौदा से इस प्रस्तुति के लिए आई थीं और श्वेतांग बने वीरेंद्र ठाकुर मंदसौर से। थिएटर में मंच के परे की दुनिया कई बार मंच पर दिख रहे से ज्यादा अदभुत लगती है। प्रस्तुति के दौरान प्रकाश संचालन में कहीं कोई असावधानी हुई। दर्शकों को तो इसका ज्यादा अंदाजा नहीं हुआ, लेकिन शरद का मूड इससे कुछ इस कदर खराब हुआ कि प्रस्तुति के ठीक बाद प्रकाश संचालक को हल्की फुल्की डांट खानी पड़ी।
2 फरवरी को संजय उपाध्याय निर्देशित प्रस्तुति ‘हरसिंगार’ का मंचन होना था। ट्रेन को दिन में 12 बजे पहुंचना था, लेकिन लेट होते होते वो पहुंची शाम को साढ़े छह पर, जब नाटक शुरू होने में महज आधा घंटा बचा था। करीब 20-22 घंटे की यात्रा करके पहुंचे टीम के 20 सदस्यों को सीधे ऑडिटोरियम पहुंचाया गया, जहां उनके लिए पोहे और चाय का इंतजाम कर दिया गया था। चाय पीते-पीते कलाकार प्रकाश योजना और मंच सज्जा को अंजाम दे रहे थे, कास्ट्यूम पहन रहे थे, हारमोनियम, सारंगी वादकों के बैठने की जगह वगैरह ठीक की जा रही थी, और मात्र दस मिनट की देरी से प्रस्तुति शुरू कर दी गई। बाद में संजय उपाध्याय ने बताया कि अगर ट्रेन को थोड़ी और देर होती तो हमने तैयारी कर ली थी कि ट्रेन में ही अभिनेता कास्ट्यूम पहनना शुरू कर देते।
नाटक ‘हरसिंगार’ स्त्री-पुरुष संबंध की बहस बनाता है। श्रीकांत किशोर का लिखा यह एक प्रहसनात्मक किस्म का आधुनिक नाटक है। गरीब हरबिसना और हरबिसनी टोकरियां बनाने का काम करते हैं। एक व्यापारी उनसे औने-पौने दाम पर खरीद न जमने पर उनके खिलाफ नालिश कर देता है। मामला राजा और दारोगा तक पहुंचता है। मामला तो जैसे तैसे निबटता है लेकिन राजा की निगाह हरबिसनी पर बिगड़ जाती है। हरबिसनी का गर्भ ठहर जाता है। सवाल है कि गर्भ दारोगा का है कि राजा का। राजा इस चीज को लेकर परेशान है। उधर एक दूसरी बहस सूत्रधार और उसकी बीवी में चल रही है। बीवी हरबिसनी को सही ठहराती है, सूत्रधार कहता है कि हरबिसनी सही है तो उसे पति का साथ क्यों चाहिए। इसी क्रम में दोनों गरीबों की स्थिति को वर्तमान के पतनशील हालात से भी जोड़ा गया है। नाट्यालेख के विमर्श में ज्यादा बातों को एक साथ ठूंस दिया गया मालूम पड़ता है। जो भी हो, लेकिन संजय उपाध्याय के संगीत का मिडास टच अपने ढंग से प्रस्तुति को संतुलित और रोचक बनाता है। उन्होंने इसमें पारंपरिक लोकनाट्य डोमकच का इस्तेमाल किया है। मुख्य भूमिकाओं में अभिषेक शर्मा, शारदा सिंह, शुभ्रो भट्टाचार्य, राजेश सिन्हा और मुस्कान थे।
उत्सव के तीसरे दिन दो प्रस्तुतियों का मंचन हुआ। निर्देशक सुरेश भारद्वाज की प्रस्तुति ‘आठ घंटे’ दिल्ली में पहले भी देखी थी। यह दो क्लर्कों के यथार्थ, एकाकीपन और छोटी-मोटी चालाकियों की कहानी है। एक ओर उनका नीरस यथार्थ है, दूसरी ओर खुशनुमा भ्रम हैं। सीनियर बत्रा को यकीन है कि नौकरी छोड़कर गया गिरीश एक दिन गिड़गिड़ाता हुआ उसके पास आएगा। यथार्थ और भ्रम की टकराहट होने पर या तो उसका समाहार एक उच्छवास में होता है या टाइपराइटर की खिटपिट से वो खुद ही सुलझ जाती है। मंच पर दो कुर्सियां और टाइपराइटर और पीछे एक परदा। प्रस्तुति के दौरान उम्र के कई पड़ाव पार होते हैं। एक फोन कॉल के दौरान करीब दस साल गुजर जाते हैं। डिजाइन के लिहाज से यह एक बढ़िया प्रस्तुति है, लेकिन बाद का कुछ हिस्सा अनावश्यक रूप से लंबा है। दोनों भूमिकाओं में रमेश मनचंदा और अनुराग अरोड़ा का काम ठीकठाक था।
युवा रंगकर्मी मनीष जोशी की प्रस्तुति ‘हम तो ऐसे ही हैं’ एक शुरुआती प्रयोग के तौर पर ठीकठाक कही जा सकती है। प्रस्तुति रंगकर्मियों के संघर्षों की थोड़ी भावुक और थोड़ी रोमांटिसाइज विवरणिका है। इसे हबीब तनवीर को समर्पित किया गया है। मंच पर कार्ल मार्क्स, चे ग्वेरा, प्रेमचंद, मोहन राकेश और सफदर हाशमी के चित्र दिखाई देते हैं। प्रस्तुति के दौरान एक कलाकार ने हबीब तनवीर की एक पेंटिंग भी पूरी की।
नाट्य समारोह में प्रस्तुतियों के अलावा राजनीति और संस्कृति विषय पर वरिष्ठ साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने एक व्याख्यान भी दिया। उन्होंने वर्तमान दौर की राजनीति और अर्थव्यवस्था की वजह से बढ रहे एक जैसे पन के विरुद्ध संस्कृति की भूमिका को चिह्नित किया। उन्होंने कहा कि आज के दौर में संस्कृति राजनीति की ज्यादतियों के खिलाफ एक प्रतिपक्ष की भूमिका में है, क्योंकि उसमें हमारे समाज की बहुलता की आवाज सुनाई देती है। अभिनव रंगमंडल हर साल- रंगकर्म और कला समीक्षा के क्षेत्र में- दो पुरस्कार भी देता है। इस साल ये पुरस्कार क्रमशः आलोक चटर्जी और गीताश्री को दिए गए। आलोक को ये पुरस्कार पूर्व रंगकर्मी, सिने अभिनेता, पटकथाकार और गीतकार पीयूष मिश्रा ने दिया। पीयूष मिश्रा ने अपने बेलौस अंदाज में कहा कि सिर्फ रंगमंच करके जिंदगी चलाना मुश्किल है। आलोक चटर्जी ने इस मौके पर अपने रंग-सफर की एक कोलाज प्रस्तुति ‘ऐसा ही होता है’ पेश की।
लेखक संगम पांडेय वरिष्ठ पत्रकार हैं. वे जनसत्ता समेत कई पत्र-पत्रिकाओं में रंगकर्म पर लिखते रहे हैं. लंबे समय तक स्टार न्यूज में रहे. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.