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जो बिकेगा वही टिकेगा!

संजय द्विवेदीभारतीय प्रेस दिवस पर विशेष :  मिशन और प्रोफेशन की अंतहीन बहस भले ही जारी हो पर यह तय है कि मुख्यधारा के मीडिया ने बाजार की ताकत तो पहचानकर उसका अनुगामी बनना स्वीकार कर लिया है। कभी साहित्य में ‘जो रचेगा वही बचेगा’ का नारा सुनाई देता था पर आज के मुख्यधारा के मीडिया का एक ही मंत्र है – ‘जो बिकेगा, वही टिकेगा’। भारतीय पत्रकारिता का गौरवशाली अधिष्ठान एक ऐसी गरिमागय और उजली परंपरा है जो हमें लगातार एक अपराधबोध से ग्रस्त रखती है। हमारी जड़े हमें लक्ष्य विचलन की याद दिलाती हैं और शायद इसलिए हम उस अतीत को भुलाने के सचेतन प्रयास भी करते हैं।

संजय द्विवेदी

संजय द्विवेदीभारतीय प्रेस दिवस पर विशेष :  मिशन और प्रोफेशन की अंतहीन बहस भले ही जारी हो पर यह तय है कि मुख्यधारा के मीडिया ने बाजार की ताकत तो पहचानकर उसका अनुगामी बनना स्वीकार कर लिया है। कभी साहित्य में ‘जो रचेगा वही बचेगा’ का नारा सुनाई देता था पर आज के मुख्यधारा के मीडिया का एक ही मंत्र है – ‘जो बिकेगा, वही टिकेगा’। भारतीय पत्रकारिता का गौरवशाली अधिष्ठान एक ऐसी गरिमागय और उजली परंपरा है जो हमें लगातार एक अपराधबोध से ग्रस्त रखती है। हमारी जड़े हमें लक्ष्य विचलन की याद दिलाती हैं और शायद इसलिए हम उस अतीत को भुलाने के सचेतन प्रयास भी करते हैं।

राजा राममोहन राय, हरिश्चंद्र मुखर्जी, केशवचंद्र सेन, अरविंद घोष से लेकर तिलक, गांधी, माखनलाल चतुर्वेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी, माधवराव सप्रे जैसे नाम जिस गहरे दायित्वबोध, सामाजिक सरोकार से जुड़कर अपने काम को अंजाम दे रहे थे – वे सारी बातें क्या 1947 के बाद अप्रासंगिक हो गयी हैं। जनजागरण, समाज सुधार जैसे लक्ष्य आजादी की प्राप्ति के बाद भी कायम रह सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वक्त बदला धारा बदली। अखबार वैसे भी एक ऐसा उत्पाद था, जो अपनी लागत से कम मूल्य पर बिकता है। नई तकनीक, रंगीन छाप-छपाई, बदलते सौन्दर्यबोध और चाक्षुश चेतना ने इसके पूरे अर्थतंत्र को बदल दिया। जब जंग बाजार की ताकतों और सामाजिक उत्तरदायित्व के बीच थी। जीवन की हर प्रवृत्ति को तय हुआ बाजार कैसे मीडिया को बख्श देता। वह तो मीडिया के अश्वमेध पर ही सवार होकर दिग्विजय के लिए निकल पड़ा है।

विज्ञापन का बढ़ता बाजार अखबारों को इस बात के लिए मजबूर कर रहा था कि वे येन-केन प्रकारेण अपना प्रसार बढ़ाएं। प्रसार और उसके चलते मिलने वाले विज्ञापन ही मूल तत्व बन गए। यानि बाजार में टिके रहना है तो नंबर एक या दो बनिए। छोटे अर्थतंत्र वाला मीडिया इस दौर से सहम कर रह गया। उसकी सांसें घुटने लगीं। कई एक संस्करणीय अखबार बंद पड़ मए या कमजोर हो गए। ज्यादा संस्करण वाले अखबारों के हाथ में बाजार की चाबी थी। अब दौर यह आया कि ‘सबसे बेहतर अखबार’ बनने के बजाए होड़ यह थी कि कैसे ‘सबसे ज्यादा बिकने वाला’ अखबार बना जाए। बिक्री के इस गणित ने बने-बनाए नीति-नियम तोड़ दिए। नैतिकता के बंधन षिथिल हुए। बाजार को बचाए और बनाए रखने के लिए समझौतों का दौर शुरू हुआ। एक बार बंधन शिथिल पड़े तो गांठें खुलती गयीं। अखबार और टीवी चैनल, जब जगह यह परिघटना एक नया इतिहास लिख रही थी।

बाजारवाद का प्रेरक दरअसल विज्ञापन का बाजार है। 1960 में विज्ञापन का बाजार कुल एक करोड़ का था। 1997 तक यह 4,000 करोड़ तक जा पहुंचा और सन 2000 में यह दस हजार करोड़ रूपये का आंकड़ा पार कर चुका था। कुछ वर्षों में तो इसकी विकास दर सालाना 30-33 प्रतिषत तक रही। अब मीडिया इसी पैसे के बल पर बाजारवाद की हवा को आंधी में बदलने में सहयोगी बना है। बाजार के रूप में बदला, उपभोक्ता सामग्री हर रूप में, हर आकार में, हर आयु-वर्ग के उपभोक्ता के लिए तैयार खड़ी थी। एक या दो रूपए के शैम्पू के पाउच, शीतल पेय की बोतलें, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद सजे-धजे बाजार में खड़े थे। अर्थात बाजार ने छोटे से छोटे उपभोक्ता तक पहुंच बनायी।

हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं के अखबार, दूरदर्शन और आकाशवाणी ने गांवों तक इस बाजार को पहुंचाया। विज्ञापन का सबसे बड़ा बजट टीवी को फिर प्रिंट मीडिया को मिलने लगा। क्षेत्रीय अखबारों को इस पूंजी ने सम्पन्न बनाया। उनकी बहुसंस्करणीय यात्रा इससे ताकत मिली। क्षेत्रीय अखबारों को मुनाफे के अनंत अवसर मिले, जिसकी शर्त थी प्रसार में सर्वोच्चता। सूचना क्रांति ने इसे बहुत सहज बना दिया। कम्प्यूटर, मोडम, इंटरनेट, सेटलाइट संपर्क ने संस्करण निकालने की लागत भी कम कर दी। मुनाफा कमाने की होड़ ने पत्रकारीय नैतिकता के मूल्यों को शीर्षासन करा दिया।

विज्ञापन शुरू से पत्रों के प्रकाशन का आर्थिक आधार है। 1923 में जब आचार्य शिवपूजन सहाय और पं. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने कलकत्ता से ‘मतवाला’ का प्रकाशन शुरू किया था तो उन्होंने भी उसके प्रथम पृष्ठ पर विज्ञापनदाताओं से अपील की थी। इसमें साफ कहा गया था कि विज्ञापन का अग्रिम मूल्य लिया जाएगा पर बिना देख उसे प्रकाशित नहीं किया जाएगा। यानि विज्ञापन कैसा होगा, उसकी भाषा व नैतिकता पर अखबार की सहमति जरूरी थी। आज सब कुछ उलट गया है। सम्पादकों को पता भी नहीं होता कि विज्ञापन के नाम पर उनके अखबार में क्या छप रहा है। जबकि एक विवाद में प्रेस कौंसिल आफ इण्डिया ने अखबार में छपे हर शब्द के लिए संपादक को जिम्मेदार माना था। मतलब विज्ञापन हमेशा जरूरी थे पर वे सब पर हावी नहीं थे। आज बाजार व विज्ञापनदाता ही खबरें तय कर रहे हैं। यानि इस दौर में ‘समाचार मूल्य’ की परिभाषा भी बदल गई। शायद इसीलिए आज आम आदमी के दुःख दर्द, उसके जीवन संघर्ष के बजाए किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के सीईओ की लाइफ स्टाइल, उसका रविवार मनाना, ये खबरें जगह पा रही हैं।

टीवी माध्यम पर उच्चवर्गीय परिवारों, धनाढ्यों की जीवन शैली के ही अखंड दर्शन होते हैं। चिंता के केन्द्र में आम आदमी नहीं, उसकी चीख नहीं, विज्ञापन हैं। टीवी पर कालाहांडी या किसी उपेक्षित इलाके की पीड़ा पर बनी फिल्म को शायद प्रायोजक भी न मिलें पर शरीरदर्शना उठापटक के लिए प्रायोजकों की लाइन लग जाएगी। ब्रेक इतने कि दर्शक ऊब जाते हैं। कुल मिलाकर जोर बिकने और बेचने पर है। सर्वग्राही और स्वीकार्य नारा यही है – ‘जो बिकेगा, वही टिकेगा।’ आप इसे टीआरपी से नापें या आईआरएस से, मर्जी आपकी।


लेखक संजय द्विवेदी माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं.

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0 Comments

  1. shani singh

    December 8, 2010 at 12:45 pm

    फोटो बडी मस्तञ आई है दायी मूंछ थोडी हल्कीह करा लो बाकी सब ठीक ठाक है

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