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घाघ पत्रकारों और लालची मालिकों से बचाइए

संजय कुमार सिंहपुण्‍य प्रसून वाजपेयी ने ममता बनर्जी से जुड़े शोमा और कोमलिका प्रकरण पर जो मुख्य सवाल उठाया है, वह यही है कि पत्रकारिता कैसे की जाये? यह सवाल आज के समय में बहुत महत्त्वपूर्ण है और खासकर उन लोगों के लिए जो पत्रकारिता में नए आए हैं, इसके उसूलों और सिद्धांतों के लिए इसे अपना पेशा बनाया है। पुराने और मंजे हुए लोग जान गए हैं कि मीडिया की आजादी जितनी समझी जाती और दिखाई देती है, उतनी दरअसल है नहीं। लेकिन इस पेशे में नए आने वालों को इसका अंदाजा नहीं है।  इसीलिए वे गच्चा खा जाते हैं। उन्हें इसका जवाब दिया जाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि पुण्य प्रसून वाजपेयी के पास इसके जवाब नहीं है – हैं, और खूब हैं, पर वे इससे बचना चाह रहे हैं। इतने गंभीर मुद्दे से बचने की उनकी इसी कोशिश ने विमल पांडे को विरोध ब्लॉग पर यह लिखने के लिए मजबूर किया होगा कि…

संजय कुमार सिंह

संजय कुमार सिंहपुण्‍य प्रसून वाजपेयी ने ममता बनर्जी से जुड़े शोमा और कोमलिका प्रकरण पर जो मुख्य सवाल उठाया है, वह यही है कि पत्रकारिता कैसे की जाये? यह सवाल आज के समय में बहुत महत्त्वपूर्ण है और खासकर उन लोगों के लिए जो पत्रकारिता में नए आए हैं, इसके उसूलों और सिद्धांतों के लिए इसे अपना पेशा बनाया है। पुराने और मंजे हुए लोग जान गए हैं कि मीडिया की आजादी जितनी समझी जाती और दिखाई देती है, उतनी दरअसल है नहीं। लेकिन इस पेशे में नए आने वालों को इसका अंदाजा नहीं है।  इसीलिए वे गच्चा खा जाते हैं। उन्हें इसका जवाब दिया जाना चाहिए। ऐसा नहीं है कि पुण्य प्रसून वाजपेयी के पास इसके जवाब नहीं है – हैं, और खूब हैं, पर वे इससे बचना चाह रहे हैं। इतने गंभीर मुद्दे से बचने की उनकी इसी कोशिश ने विमल पांडे को विरोध ब्लॉग पर यह लिखने के लिए मजबूर किया होगा कि…

…वाजपेयी जी को यह प्रेस की आजादी पर हमला इसलिए नहीं लग रहा है कि वह चैनल जी नेटवर्क की भागीदारी में ही चलता है? आकाश बांग्ला और जी बांग्ला ने मिल कर उस 24 घंटा चैनल की स्थापना की है जिसके पत्रकारों की आजादी पर कथित हमला हुआ है। उसके पत्रकार न तो दूध से धुले हैं और न ही हरिश्चंद्र की संतान।  विमल पांडे ने मुद्दा सही उठाया है पर वे गुस्से में विषयांतर हो गए लगते हैं। उन्होंने पत्रकार को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है …..”…ममता के मना करने पर तमाम पत्रकार मौके से लौट गये। लेकिन सरकार और माकपा के भोंपू के तौर पर मशहूर 24 घंटा की ‘प्रखर और उत्साही’ महिला पत्रकार ममता का इंटरव्यू करने के लिए डटी रही। आखिर आधी रात को ऐसा क्या हो गया था जो उसके लिए ममता का इंटरव्यू जरूरी था? क्या कहीं कोई रेल हादसा हो गया था? शायद प्रसून जी ही  इसका जवाब दे सकते हैं…”’

प्रसून जी ने इसके जवाब में आलोक नंदन से कहा है… ”….आलोक नंदन जी, आपसे यही आग्रह है कि एक बार पत्रकार हो जाइए तो समझ जाएंगे कि ख़बरों को पकड़ने की कुलबुलाहट क्या होती है?”’

अब न तो पुण्य प्रसून और न विमल पांडे इतने नए हैं कि उन्हें बताया जाए कि खबरों की अकुलाहट का दुरुपयोग भी होता है। मेरा तो मानना है कि जिसमें यह अकुलाहट होती है वही पत्रकार बनता है इसे जानने या पैदा करने के लिए पत्रकार बनने की जरूरत नहीं है। विमल पांडे ने लिखा है कि ममता बनर्जी का इंटरव्यू रिपोर्टर के लिए क्यों जरूरी था। मेरा मानना है कि अगर उससे (रिपोर्टर से) कहा गया होगा या उसका असाइनमेंट यही होगा तो रिपोर्टर क्या करेगा। जहां तक रिपोर्टर द्वारा अपने भोंपू चैनल के लिए ममता के खिलाफ मुद्दा बनाने की बात है तो मेरे ख्याल से रेप कराने की धमकी पर एफआईआर हो सकती थी और यह ज्यादा बड़ा मुद्दा बनता (अगर बाकी सब नहीं हुआ होता और रिपोर्टर ने पहले एफआईआर करवाई होती। यह निर्णय रिपोर्टर का अपना या उसके किसी वरिष्ठ का भी हो सकता था) पर रिपोर्टर अपेक्षाकृत नई है और उसकी नीयत पर शक करना ठीक नहीं है (मैं उसे बिल्कुल नहीं जानता)। मेरा मानना है कि उसका उपयोग किया गया है। आप चैनल को दोष दीजिए,  उसके वरिष्ठों को कटघरे में लाइए पर नए या जूनियर पत्रकार की नीयत पर शक मत कीजिए। उसे तो यह बताए जाने की जरूरत है घाघ पत्रकारों और लालची मीडिया मालिकों से बचने की जरूरत है। और कैसे बचें।

विमल पांडे के इस कथन से असहमत नहीं हुआ जा सकता है कि …. पत्रकारों से बात करने या न करने का फैसला संबंघित नेता या मंत्री पर निर्भर है।  पर नए पत्रकारों को बताइए न कि नेता ये फैसले कैसे और क्यों लेते हैं। कब कोई चैनल, अखबार या रिपोर्टर अच्छा और कब बुरा हो जाता है। नया रिपोर्टर तो यही जानता है कि नेता लोग अखबार वालों के आराम से खूब बतियाते हैं। पर जो दिखाई देता है वह सच नहीं है यह भी तो बड़े और पुराने लोग ही नए बनने वाले पत्रकारों को बताएंगे।  

आलोक नंदन ने पूरे मामले पर वाजपेयी जी के चित्रण पर लिख दिया कि … पूरा फिल्मी टाइप का मामला बना दिया है आपने… महिला पत्रकार ममता बनर्जी से प्रभावित थी, बचपन से ही। जब सारे पत्रकार समझाने के बाद चले गये तो यह डटी रही, इंटरव्यू करने के लिए… पत्रकारिता होती क्या है, रिपोर्टर बैठा झख मार रहा है, तो इसका यह मतलब थोड़े ही है कि आधी रात को सनक में आकर मना करने के बावजूद व्यक्तिगत सीमाओं को तोड़ते हुए काम करे।

इस पर वे इतने तिलमिला गए कि आलोक नंदन को मानसिक दिवालिया बता दिया। अरे भाई किसी को मानसिक दिवालिया कह देना भर उसके सवाल का जवाब नहीं होता है और न ही इससे सवाल खारिज हो जाता है। आधी रात को किसी को जगाकर इंटरव्यू करना या सवाल पूछना तो सनक हो सकता है पर कोई किसी और के घर में है, उससे मिलने आया है, वापस अपने घर जा रहा है, चमचों, सलाहकारों, सेवकों की अपनी पूरी फौज के साथ जाग रहा है तो सवाल पूछने की जिद्द सनक नहीं है। आलोक नंदन इसे नहीं जानते, अपने वरिष्ठ से पूछते हैं तो उन्हें बताने, जानकारी देने की बजाय उन्हें मानसिक दिवालिया कह देना कोई बड़प्पन नहीं है।

वैसे, मैं नहीं मानता कि सवाल पूछने वाला अज्ञानी ही होता है। कई बार वह आपकी राय जानना चाहता है, आपसे विस्तार में जाने की अपेक्षा करता है। उसे इस तरह अपमानित करके आप पत्रकारिता का भला नहीं कर सकते। पत्रकारिता की सच्चाई नए पत्रकारों से बहुत लंबे समय तक नहीं छिपाई जा सकती है। होना यह चाहिए कि हमलोग इस पर खुलकर चर्चा करें, सवालों के उदारता पूर्वक जवाब दें ताकि पत्रकारिता को पेशा बनाने के बाद युवा हताश निराश और कुंठित न हों। उनका निर्णय जानकार हो। पुणय प्रसून वाजपेयी जैसे वरिष्ठ पत्रकार की यह जिम्मेदारी जरूर बनती है।   

इस मामले में प्रभाकर मणि तिवारी ने लिखा है …. जब यह घटना हुई तो मौके पर दूसरा कोई पत्रकार मौजूद नहीं था। इसे क्या मानें? क्या ममता की कथित बैठक की सूचना सिर्फ इसी चैनल के पास थी या फिर उसकी मंशा कुछ और थी। अगर यह हमला प्रेस की आजादी पर है तो कोलकाता में मीडिया चुप क्यों है… यह समझना मुश्किल है। मुझे तो लगता है कि यह मामला उससे कहीं ज्यादा पेचीदा है, जितना नज़र आता है।

प्रभाकर मणि तिवारी क्या कहना चाहते हैं यह स्पष्ट है और कैसे की जाए पत्रकारिता में यह भी शामिल है। इस बारे में पुण्य प्रसून वाजपेयी ने कहा है … प्रभाकर मणि तिवारी जी कहते-कहते रुक रहे हैं… असल में उस सवाल को बड़े कैनवास पर उठाने की ज़रूरत है। कहीं मीडिया को पार्टियो में बांट कर पत्रकारिता पर अंकुश लगाने का खेल तो नहीं हो रहा है। मेरा मानना है कि मीडिया संस्थान जब भिन्न पार्टियों और उनके घोषित समर्थकों के होंगे तो यह होगा ही और इससे पत्रकारिता पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है। मीडिया में अगर अभी तक कुछ बचा हुआ है तो इसीलिए कि जो खबर एक अखबार में नहीं छपती वह दूसरे में आसानी से छप जाती है। इसलिए मीडिया वालों के पास अच्छे काम करने के कुछ दावे हैं। पर कई मामलों में ये सभी मीडिया संस्थान एक से हैं और इसके बारे में सभी वरिष्ठ और अनुभवी पत्रकार जानते हैं। अगर मीडिया संस्थान आपस में लड़ने लगें तो मेरे ख्याल में यह पत्रकारिता के लिए अच्छा ही होगा। मीडिया मालिक ऐसा करेंगे इसमें शक है। पत्रकारों को जरूर लड़ाते भिड़ाते रहेंगे और हममें जो जानकार है वह सब जानकर भी चुप रहेगा। खुलकर बात नहीं करेगा क्योंकि खुद को जमा कर रखना भी उतना ही जरूरी है।

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पुण्य प्रसून ने आगे कहा है – तिवारी जी, मीडिया सिर्फ बंगाल में ही नहीं बंटी है बल्कि दिल्ली और मुंबई में भी बंटी है… लेकिन वह बंटना संस्थानों या कहें मीडिया हाउसों की ज़रूरत है। कोई भी दिल्ली के किसी भी राष्ट्रीय न्यूज चैनलों को देखते हुए कह सकता है कि फलां न्यूज़ चैनल फलां राजनीतिक दल के लिए काम कर रहा है।

इस पर मेरा मानना है कि चैनल या अखबार तो छोड़िए एक-एक रिपोर्टर (जो किसी के लिए काम कर रहा है) उसका हरेक पाठक जानता और समझता है कि अमुक रिपोर्टर फलां के लिए काम करता है। पुण्य प्रसून ने कहा है, यह बंटना अंग्रेज़ी-हिंदी दोनों में है। सवाल है कि पत्रकार भी बंटने लगे हैं, जो पत्रकारिता के लिए खतरा है। लेकिन आपको यह मानना होगा कि कि न्यूज चैनलों से ज्यादा क्रेडिबिलिटी या विशवसनीयता कुछ एक पत्रकारों की है। और ये पत्रकार किसी भी न्यूज चैनलों की जरूरत हैं। मुद्दा यही है कि पत्रकार रहकर क्या किसी न्यूज चैनल में काम नहीं किया जा सकता है। मुझे लगता है कि किया जा सकता है… हां, मुश्किलें आएंगी जरूर और यह भी तय हे कि आपके साथ पद का नहीं पत्रकार होने का तमगा जुड़ता चला जाए। लेकिन यह कहना कि फलां सीपीएम का है और फलां कांग्रेस या बीजेपी का है तो उसमें काम करने वाले सभी पत्रकार उसी सोच में ढले है… यह कहना बेमानी होगी।

वाजपेयी जी बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। भाजपा समर्थित या समर्थक चैनल या मीडिया संस्थान में काम करने वाला हर कोई भाजपाई नहीं होता और न कांग्रेस समर्थक या समर्थित किसी मीडिया संस्थान में काम करने वाला हर कोई कांग्रेसी। भाजपा की अच्छी रिपोर्टिंग के लिए तो कांग्रेस समर्थित अखबार किसी भाजपाई को रख ले और इसी तरह भाजपा समर्थित अखबार कांग्रेस बीट पर किसी कांग्रेसी को ही रखेगा। पर इन लोगों को क्या दिक्कतें आएंगी और क्या सावधानी बरतनी होगी यह उनके जैसा अनुभवी पत्रकार तो जानता समझता है पर नए लोगों को कौन बताएगा। पत्रकारिता की शिक्षा देने वाले नए छात्रों को अगर यह सब ईमानदारी से बताने लगें तो छात्रों की कमी पड़ जाएगी और पत्रकारिता पढ़ाने का उनका धंधा बंद हो जाएगा। इसलिए स्थिति बहुत विकट है और उसमें बातें इशारों में हों तो कोई बात नहीं बनेगी। और यह सवाल बना हुआ है कि पत्रकारिता कैसे की जाए। भले ही सवाल उठाने वाले पुण्य प्रसून वाजपेयी और उनके जैसे पुराने, अनुभवी और जमे हुए पत्रकारों को यह बचपना या बेमतलब लगे पर इसमें दम है और इसके विस्तार में जाने की जरूरत है।


लेखक संजय कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं. इन दिनों वे अनुवाद का काम बड़े पैमाने पर कर रहे हैं। उनसे संपर्क [email protected] या 9810143426 के जरिए कर सकते हैं.


इस मुद्दे और बहस को संपूर्णता में जानने-समझने के लिए इन लिंक पर भी क्लिक कर सकते हैं-
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