कहीं ऐसा न हो कि कुछ साल बाद हिन्दी मीडिया संस्थानों में काम करने वाले लोग न मिलें : हिन्दी पत्रकारिता और उसकी एक बड़ी दुकान की पोल खोलने के लिए पायल चक्रवर्ती की जितनी भी तारीफ की जाए कम है। पायल का पत्र पढ़कर मुझे अपना लिखा याद आ गया था, ” …. आज मुझे तनख्वाह और भत्तों के नाम पर (एक राष्ट्रीय दैनिक में) जो कुछ मिलता है उतना मेरे साथ पढ़े लोगों को मकान का किराया भत्ता मिलता है।” पायल को अगर ऑफिस के माहौल से शिकायत है तो मुझे कम पैसे मिलने का अफसोस था। हालांकि, यह भी मैंने अपने आप नहीं लिखा था बल्कि मीडिया पर एक कॉलम में जब पत्रकारिता को अच्छा पेशा बताया गया था तो मैं प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए प्रेरित हुआ था क्योंकि उस समय तक मैं यह मानने लगा था कि मैंने इस पेशे को चुनकर गलत किया है।
लेकिन इसे खुलेआम कहने और एक दूसरे राष्ट्रीय दैनिक में छपवा लेने का साहस मुझे तब हुआ जब मैं अनुवाद करके तनख्वाह से ज्यादा पैसे कमाने लगा था और अनुवाद का काम पाने के लिए मुझे नौकरी की जरूरत नहीं थी। लेकिन पायल ने बहुत जल्दी ही यह काम कर दिया। इसके लिए वह निश्चित ही प्रशंसा की हकदार है। यह अलग बात है कि इसमें स्थितियों का भी योगदान है। इसलिए पत्रकारिता के पेशे के बारे में जो दिखता है और जो सच है, उसका अंतर आम लोगों को मालूम नहीं हो पाता था। अब यह काम आसानी से किया जा सकता है। और स्थिति यह हो गई है कि लाखों रुपए खर्च करके पत्रकारिता को अपना पेशा बनाने वाले किशोर इससे जुड़ी नकारात्मक स्थितियों के बारे में खुलकर बोलने लगे हैं।
पेशे की बदनामी इसी तरह फैलती रही तो कहीं ऐसा न हो कि कुछ साल बाद हिन्दी मीडिया संस्थानों में काम करने वाले लोग न मिलें। पाठक कृपया इसे मजाक न समझें। आज बहुत कुछ ऐसा हो चुका है जिसकी कल्पना 15-20 साल पहले की जाती तो लोग कल्पना करने वाले को पागल कह देते। यहां यह भी तथ्य है कि जमशेदपुर के जिस स्कूल में मैंने पढ़ाई की है उसे हिन्दी पढ़ने वाले छात्र नहीं मिलने के कारण अंग्रेजी माध्यम का कर दिया गया है और इस साल हिन्दी का अंतिम बैच इस स्कूल से पास करेगा। दूसरी ओर, केरल में साक्षरता ज्यादा होने का नतीजा यह है कि स्कूल में पढ़ने वाले छात्र-छात्राएं कम हैं। इसलिए वहां स्कूल बंद हो रहे हैं। दोनों ही स्थितियों का नुकसान हिन्दी को है – और इस नुकसान का असर सबसे पहले हिन्दी पत्रकारिता को होगा।
पत्रकारिता अब मिशन तो रही नहीं, पेशे के रूप में कैसी है, धीरे-धीरे सामने आने लगा है। पायल जैसे लोग लिखेंगे और पवन कुमार जैसे लोग (पता नहीं उनका ई-मेल आईडी सिंहराहुल क्यों है) जागरण जैसी संस्था का बचाव करेंगे तो वाकई जैसे पायल ने कहा और किया है, दोबारा लिखने का मौका मिल गया। इसमें और चाहे जो हो, हिन्दी पत्रकारिता का कच्चा चिट्ठा सामने आना शुरू होने में देर नहीं लगेगी और तब पत्रकार बनना चाहने वालों की संख्या कम हो जाए या मां-बाप के डेढ़ लाख रुपए बर्बाद करने के बाद उसकी आंखें खुलें – ऐसा शायद कम हो पाएगा। इससे जागरण जैसी संस्थाओं को दोहरा घाटा होगा – न तो पत्रकारिता पाठ्यक्रम के लिए छात्र मिलेंगे और न कम पैसे में काम करने वाले प्रशिक्षु। दूसरी ओर पत्रकारिता की पढ़ाई में क्या हो रहा है इस बारे में उमेश चतुर्वेदी अपने आलेख अंधेरे खोह में भटकती पत्रकारिता शिक्षा में पहले ही लिख चुके हैं कि “डीम्ड विश्वविद्यालयों के साथ ही स्ववित्तपोषित विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों में जिस तरह पत्रकारिता की पढ़ाई हो रही है, उससे साफ है कि अपनी तरह से खास इस अनुशासन की पढ़ाई को लेकर छात्रों और उनके अभिभावकों में ठगे जाने का भाव बढ़ा है।”
पायल चक्रवर्ती के मामले में भी पत्रकारिता की पढ़ाई के स्तर का पता चलता है। पायल ने जागरण के संस्थान से ही पढ़ाई की है और अव्वल छात्रों में रही है। ऐसे में उसका चुनाव किया जाना और फिर पहनावे के कारण निकाल दिया जाना (जैसा पवन कुमार ने कहा है) बताता है कि संस्थान अपने छात्रों (शायद छात्राओं लिखना चाहिए) को न तो पत्रकारिता या अपनी जरूरत के पहनावे के बारे में बता पाता है और न पहचान पाता है कि कौन से छात्र कुछ सीखने वाले नहीं है। पायल ने तो जागरण अखबार ही नहीं, उसके पत्रकारिता पाठ्यक्रम की भी पोल खोल दी है। पवन (या राहुल) के पत्र से तो यही लगता है कि उन्होंने पहनावे की शिक्षा अच्छी तरह पाई है पर जागरण की वकालत करने की शिक्षा पाने से रह गए हैं।
लेखक संजय कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं. इन दिनों वे अनुवाद का काम बड़े पैमाने पर कर रहे हैं। उनसे संपर्क anuvaadmail@gmail.com या 9810143426 के जरिए कर सकते हैं.