Connect with us

Hi, what are you looking for?

दुख-दर्द

बिहार के दसटकिया पत्रकारों का दर्द

[caption id="attachment_15024" align="alignleft"]संजय कुमारसंजय कुमार[/caption]चुनाव के दौरान जिस तरह मीडिया की दुकानदारी चली, उस पर बहस लाजिमी है। प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी ने मुहिम छेड़ दी है। इस मुद्दे पर नेताओं की तरह पत्रकारों में भी दो गुट बन गए हैं। कोई पक्ष में है तो तो कोई विपक्ष में। मोटी चमड़ी वाले मीडिया मालिकों पर वैचारिक हमलों का कितना असर होगा, यह तो भविष्य में पता चलेगा लेकिन एक महत्वपूर्ण मुद्दा छूटा जा रहा है। वह है ‘दसटकिया पत्रकारों’ का दर्द। ये ऐसे पत्रकार होते हैं जिन्हें प्रति खबर 10 रुपये दिए जाते हैं। बिहार में इन्हें भले ही दसटकिया कहा जाता है लेकिन ऐसे शोषण के शिकार पत्रकार पूरे देश में हैं। मीडिया में कार्यरत ज्यादातर पत्रकारों की माली स्थिति बेहद खराब है। इनके शोषण के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाता। मीडिया के ये सिपाही अखबार में काम करते हुए जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

संजय कुमार

संजय कुमारचुनाव के दौरान जिस तरह मीडिया की दुकानदारी चली, उस पर बहस लाजिमी है। प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी ने मुहिम छेड़ दी है। इस मुद्दे पर नेताओं की तरह पत्रकारों में भी दो गुट बन गए हैं। कोई पक्ष में है तो तो कोई विपक्ष में। मोटी चमड़ी वाले मीडिया मालिकों पर वैचारिक हमलों का कितना असर होगा, यह तो भविष्य में पता चलेगा लेकिन एक महत्वपूर्ण मुद्दा छूटा जा रहा है। वह है ‘दसटकिया पत्रकारों’ का दर्द। ये ऐसे पत्रकार होते हैं जिन्हें प्रति खबर 10 रुपये दिए जाते हैं। बिहार में इन्हें भले ही दसटकिया कहा जाता है लेकिन ऐसे शोषण के शिकार पत्रकार पूरे देश में हैं। मीडिया में कार्यरत ज्यादातर पत्रकारों की माली स्थिति बेहद खराब है। इनके शोषण के खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाता। मीडिया के ये सिपाही अखबार में काम करते हुए जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

इनमें से कुछ को 1500 रुपये महीने में हर रोज सुबह से देर शाम तक खबरों के पीछे भागना पड़ता है। कुछ को हर खबर पर केवल 10 रुपये दिए जाते हैं। वहीं ऐसे पत्रकार भी हैं जो इसी काम के लिए दस हजार से लेकर एक लाख रुपये तक तनख्वाह लेते हैं। ‘जैसा काम वैसा दाम’ की परिपाटी मीडिया में कुलांचे मार रहा है। अनुभव और नाम के सहारे लाखों की तनख्वाह पाने वाला बड़ा पत्रकार भी उतना ही श्रम करता है जितना एक आम पत्रकार। बल्कि छोटा पत्रकार ज्यादा काम करता है। दूर के इलाके में बैठा पत्रकार अपने यहां घटने वाली हर घटना पर सुबह से ही नजर बनाए रखता है। उसे डाक संस्करण से लेकर देर रात के संस्करण के लिए खबर को डेवलप कर लगातार भेजना पड़ता है।

पत्रकारों के बीच एक सामान वेतन नहीं हो सकता। पर जिंदगी जीने के लिए जो न्यूनतम वेतन चाहिए, उतना तो दिया ही जाना चाहिए। श्रमजीवी पत्रकारों के वेतन को लेकर सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर प्रयास चले, लेकिन मीडिया मालिकों ने नौकरी की परिभाषा ही बदल दी। संपादक हो या पत्रकार, अमूमन अब सभी ठेके पर रखे जा रहे हैं। जब मन हो रख लिया और जब मन हो निकाल दिया। वहीं बड़े नाम इसका फायदा भी उठा रहे हैं। जहां दूसरे मीडिया हाउस ने ज्यादा पैसे दिये, तुंरत पहले को छोड़, दूसरे को पकड़ लिया। सबसे बुरा हाल निचले स्तर के पत्रकारों का है। वे हमेशा हाशिए पर रहते हैं। अब तो कई मीडिया हाउस किसी पत्रकार को रखते समय एक बांड भरवाने लगे हैं है जिसमें उनका पेशा पत्रकारिता नहीं बल्कि खेती-बाड़ी, व्यवसाय आदि भरवाया जाता है और मीडिया हाउसे से जुड़ाव के बारे में लिखा जाता है कि वे पत्रकारिता शौक के चलते कर रहे हैं इसलिए अपने काम के बदले में कभी किसी पैसे की मांग नहीं करेंगे। दूसरों के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने वाले पत्रकार स्वयं कितने शोषित हैं, इससे पता चल जाता है।

पत्रकारों की जिंदगी संघर्षों से भरी है। अमूमन हर मीडिया हाउस पत्रकारों का शोषण करता है। लेकिन कहीं भी विरोध की गूंज सुनाई नहीं पड़ती। सबसे बड़ा मुद्दा आर्थिक शोषण का है। चौंकने वाला तथ्य यह है कि छोटे और बड़े मीडिया हाउसों में 1500 रुपये मासिक पर पत्रकारों से 10 से 12 घंटे काम कराया जाता है। इन पत्रकारों को मीडिया हाउस कोई अनुबंध पत्र / नियुक्ति पत्र नहीं देता। प्रबंधन की मर्जी, जब नौकरी पर रखे या जब चाहे नौकरी से निकाल दे। भुगतान दिहाड़ी मजदूरों की तरह मास्टर रोल जैसा है। महीने के आखिर में एक मास्टर रोल पर हस्ताक्षर करवाया जाता है और भुगतान के बाद उसे फाड़कर फेंक दिया जाता है। वेतन के मामले में पीड़ित कलम के सिपाहियों का हाल सरकारी आदेशपालों से भी बुरा है।

देश के राज्यों में अधिकांश युवा पत्रकार अपने करियर की शुरुआत मामूली सी तनख्वाह 1500 रुपये पर करते हैं। अगर देखा जाए तो दिहाड़ी मजदूरों को जितनी मजदूरी एक महीने में दी जाती है, उससे कम पत्रकारों को दी जाती है। बिहार से प्रकाशित कई अखबारों में कमोबेश स्थिति ऐसी ही है। वहीं कस्बाई पत्रकारों को अखबार की ओर से अधिकतम 3000 रुपये प्रति माह दिए जाते हैं। ज्यादातर कस्बाई पत्रकारों को हजार- बारह सौ रुपये मासिक पर ही रखा जाता है। उन्हें समाचार संकलन के अलावा अखबार के लिए विज्ञापन भी जुटाना होता है। पहले सेंटीमीटर या कॉलम के हिसाब से भुगतान दिया जाता था लेकिन अब प्रति खबर या मासिक भुगतान किया जाता है।

बिहार के कस्बा और छोटे जगहों पर कार्यरत पत्रकारों ने बताया कि अखबार को आंदोलन, बदलाव आदि का नारा देने वाले बड़े समाचार पत्र समूह द्वारा एक स्ट्रिंगर को प्रति समाचार 10 रुपये दिए जाते हैं, चाहे खबर एक कॉलम की हो या चार कॉलम की। भुगतान तय रहता है, 10 रूपये प्रति खबर। इन पत्रकारों को बोलचाल की भाषा में ‘दसटकिया पत्रकार’ कहा जाने लगा है। वहीं सुपर स्स्ट्रिंगर को प्रति माह दो से तीन हजार दिया जाता है। जहां तक छोटे समाचार पत्र का सवाल है तो वे कस्बा और छोटे जगहों पर कार्यरत पत्रकारों को एक पैसा भुगतान नहीं करते हैं। हां, उनके समाचार जरूर छापते हैं। साथ ही उन्हें विज्ञापन लाने को कहा जाता है जिस पर कमीशन दिया जाता है। अखबार के मुख्य कार्यालयों में कार्यरत स्ट्रिंगर और सुपर स्ट्रिंगर को तीन हजार से 14 हजार रुपये प्रतिमाह दिये जाते हैं। संपादक / प्रबंधक तनख्वाह तय करते हैं।

चौंकाने वाला तथ्य यह है कि अमूमन हर अखबार कस्बा या छोटे शहरों में किसी को भी अपना प्रतिनिधि रख लेते हैं और उसे खबर के लिए कोई भुगतान नहीं किया जाता है। बल्कि वह जो विज्ञापन लाता है, उस पर उसे कमीशन दिया जाता है। अखबार का संपादक / प्रबंधक जानते हैं कि वह बेकार पत्रकार अखबार के नाम पर अपनी दुकान चलायेगा। बाद में यही दुकानदारी उसकी उसकी मजबूरी बन जाती है। आखिर  दिन भर अखबार के लिये बेगार करेगा तो खायेगा क्या?  बिहार के सासाराम में एक छोटे समाचार पत्र के लिए रिपोर्टिंग करने वाले एक पत्रकार अपना नाम छुपाते हुए कहते हैं कि हालात यह है कि पैसा मिले या न मिले, किसी मीडिया हाउस से जुड़ने के लिए पत्रकारों की लम्बी कतार है। बिना पैसे लिए सिर्फ विज्ञापन के कमीशन पर काम करने वाले पत्रकार मौजूद हैं तो भला क्यों कोई मासिक वेतन पर किसी को रखे? इसमें वे लोग भी शामिल हैं जो पत्रकार हित की लंबी-लंबी बातें करते हैं। तर्क दिया जाता है कि पत्रकारिता के पेशे में ऐसे लोग आ गए हैं जो तिकड़मी, अनस्किल्ड हैं और कहीं नौकरी नहीं लगी तो पत्रकार बन गये, आदि-आदि। सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर उन्हें रखता कौन है? अखबार ही न? और आज अखबार को संपादक कम प्रबंधक अधिक चला रहे हैं। ऐसे में शोषण घटने के बजाय बढ़ते जाने का अंदेशा है और इस शोषण के खिलाफ कोई आवाज कहीं से उठती नहीं दिख रही है।


लेखक संजय कुमार आकाशवाणी, पटना के समाचार संपादक हैं। कई अखबारों में काम कर चुके संजय की लिखी पांच किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। पिछले दिनों उन्हें बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की तरफ से नवोदित साहित्य सम्मान से नवाजा गया। संजय से संपर्क [email protected] या 09934293148 के जरिए कर सकते हैं।

This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अपने मोबाइल पर भड़ास की खबरें पाएं. इसके लिए Telegram एप्प इंस्टाल कर यहां क्लिक करें : https://t.me/BhadasMedia

Advertisement

You May Also Like

Uncategorized

भड़ास4मीडिया डॉट कॉम तक अगर मीडिया जगत की कोई हलचल, सूचना, जानकारी पहुंचाना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. इस पोर्टल के लिए भेजी...

Uncategorized

भड़ास4मीडिया का मकसद किसी भी मीडियाकर्मी या मीडिया संस्थान को नुकसान पहुंचाना कतई नहीं है। हम मीडिया के अंदर की गतिविधियों और हलचल-हालचाल को...

टीवी

विनोद कापड़ी-साक्षी जोशी की निजी तस्वीरें व निजी मेल इनकी मेल आईडी हैक करके पब्लिक डोमेन में डालने व प्रकाशित करने के प्रकरण में...

हलचल

[caption id="attachment_15260" align="alignleft"]बी4एम की मोबाइल सेवा की शुरुआत करते पत्रकार जरनैल सिंह.[/caption]मीडिया की खबरों का पर्याय बन चुका भड़ास4मीडिया (बी4एम) अब नए चरण में...

Advertisement