यशवंत, काफी दिन के बाद किसी बयान पर लिख रहा हूँ. यह अलग बात है कि प्रेस आने के बाद रोजाना के काम निबटाने के बाद भड़ास भी देखना एक काम जैसा हो चुका है. आज आवेश तिवारी और दयानन्द पांडेय पर लिखने का मन है. दोनों लोग अपनी जगह ठीक हैं. क्योंकि जब अखबार के किसी मरे हुय मालिक की पुण्यतिथि आती है तो भाई लोग, छ्पासी लोगों को पकड़ कर या फिर अपने आप ही उनके बयान छाप देते हैं. वैसे जो इस दुनिया से चला गया, उस पर टीका-टिप्पणी करना अच्छी बात नहीं है. लेकिन जब बात चल ही चुकी है तो जैसे हाथी के दाँत दिखाने के और खाने के और, वाली कहावत मीडिया वालों पर सटीक बैठती है. नरेन्द्र महोन भी उनमें से एक थे. वो स्टेज पर कुछ कहते थे और दफ्तर में पूरे लाला होते थे.
मुझे भी उनके अखवार में नौकरी का मौका मिला. अमर उजाला से ईमानदारी और निष्पक्षता सीख चुका था. 1989 में शरद यादव खाद्य मंत्री बने. जब वो अपने चुनावी इलाके बदायूं, (उत्तर प्रदेश का एक जिला) से मंत्री हो कर पहली दफा चुनाव क्षेत्र गए तो कवरेज के लिए अपन अपन भी उनके साथ थे. बिल्सी में एक माफिया के घर उनकी दावत हुई. अपन ने आदत के मुताबिक दावत देने वाले के बारे में लोगों से बात की और मुख्य स्टोरी के साथ बॉक्स में लोगों की बात लिख डाली. छापने से पहले लोकल एडिटर बच्चन सिंह को वो सब सुनाया और दिखाया. वे इस बारे में बहुत दरियादिल इनसान रहे हैं, पता नहीं आजकल कहां हैं. वो ख़बर अगले दिन लगी. इसके बाद शरद ने एक नोटिस भिजवा दिया लाला और हम सब को. तब अपन को फरमान सुनाया गया कि खंडन छाप दो. बच्चन सिंह जी ने इस मामले में अपन से कहा कि देखो, लाला रोज़ बदायूं कोर्ट तो नहीं आ पायेगा. हम लोग तो झेल लेंगे. अपन ने बोला कि सब ठीक है, डरने की बात नहीं है, अपन ने पूरे सरकारी आंकड़े जुटा लिए हैं. यही बात अपन ने मंत्री के एक चमचे से भी कही तो बाद में नेता जी शांत हो गये, लेकिन नरेन्द्र जी ने जब-जब अपन से बात हुई तब-तब यही कहा कि नेताओं पर ऐसे मत लिखा करो. यह बिलकुल सही है कि उनके जमाने में ही जागरण में स्ट्रिंगर की प्रथा शुरू हुई.
-संजय पाठक
जर्नलिस्ट, देहरादून