‘निशिकांत नहीं, राकेश शांतिदूत ले आए थे’

जागरण और भास्कर पर मेरी टिप्पणी से किसी और को आघात लगा हो या न, लुधियाना में फिर से आये सुशील खन्ना को बहुत चोट लगी लगी है. तभी तो उन्होंने फट से जवाब दे मारा. मैं यहां यह बताना चाहता हूं कि मुझे पत्रकारिता में निशिकांत ठाकुर नहीं बल्कि राकेश शांतिदूत लेकर आये थे. स्थानीय संपादक के रूप में निशिकांत जी ने समय-समय पर मेरी तरक्की में जरूर  भूमिका अदा की और जागरण से निकाल बाहर करने में भी. सुशील जी से पूछना चाहता हूं कि जिस दिन उनसे त्यागपत्र मांगा गया था, उस दिन उन्होंने निशिकांत ठाकुर के बारे में मुझसे फोन पर क्या कहा था.

‘ऋषि को पत्रकारिता में निशिकांत लेकर आए’

यशवंत जी, मैं उन लोगों का तहदिल से शुक्रगुजार हूं जो आज के युग में भी अपने से ज्यादा दूसरों की चिंता करते हैं। ऋषि नागर डे एंड नाइट अपने संस्थान से ज्यादा दैनिक जागरण की चिंता में लगे हुए हैं। यह वही संस्थान है जिसने उन्हें पत्रकार का खिताब दिया। निशिकांत ठाकुर ही ऐसे पहले शख्स थे जो उन्हें पत्रकारिता के क्षेत्र में लेकर आए। वे जिन लोगों के संस्थान छोड़ने की बात कर रहे हैं, वे सभी खुद अपनी तरक्की की उम्मीद में यहां से गए हैं।

Stop package selling in media

bhadas4media is a portal which is like a fresh wind in the stinking environment of decaying journalism : I would like to tender my apology for writing this in Engilsh. Several times I thought to write about the diminishing and vanishing ethics in journalism but I laid my idea off just because thinking that nothing is going to be changed. But this noon as I went through your soul searching article titled ‘In akhbaaron par thukein na to kya karein’ I get trembled and decided to write something about the absolute decaying of journalistic ethics. We can remember the role of journalists in the Indian freedom movement. At was in 1857 when Payam-e-Azadi started publication in Hindi and Urdu calling upon the people to fight against the British Rule. The paper was soon confiscated and any one found with a copy of the paper was persecuted for sedition.

‘आने वाला समय इन लोगों को क्षमा नहीं करेगा’

प्रिय भाई यशवंत जी, दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर की हरियाणा चुनाव की कवरेज़ पर टिप्पणी पढने को मिली है. इन दोनों अख़बारों की फटेहाल जग जाहिर है. पैसे के नाम पर बिक जाना इनकी आदत है. पत्रकारिता जाये भाड़ में, इन की बला से. दूसरों को नैतिकता का सबक सिखाने वाले इन दोनों अखबारों पर प्रभाष जोशी जी का साया जरूर पड़ना चाहिए वेरना पूरे देश को ये दोनों मगरमच्छ खा जायेंगे… वैसे इनके पीछे चलने वाले भी कम नहीं हैं. देश की भावी पीढी इन दोनों अख़बारों पर लानत देगी एक दिन. दैनिक जागरण के नरेन्द्र मोहन पर आयी टिप्पणी भी सामयिक ही है.

‘टिप्पणी करना वैचारिक स्वतंत्रता का हिस्सा’

प्रिय चन्दन जी, सादर अभिवादन, आपका पत्र पढ़ा। शायद आप दैनिक जागरण की ही संतति हैं। पहले आपको स्पष्ट कर दूं, अगर नरेन्द्र मोहन का जन्मदिन सिर्फ दैनिक जागरण मनाता तो मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। इस बहुरुपिये अखबार ने पूरे देश को जन्मदिन मनाने के लिए मजबूर किया। और तो और, नरेन्द्र मोहन की क्षीण होती स्मृतियों को स्थायित्व देने के लिए हमेशा की तरह गेम प्लान किया। आपको ये भी स्पष्ट कर दूं,  दैनिक जागरण की नीतियों से असहमति की वजह मेरा पूर्वाग्रह नहीं, मेरी अपनी सोच है जो इस अखबार की कलाकारी और गैर-अखबारी चरित्र की वजह से और भी स्थायी  होती जा रही है।

‘उनका हर ऐब भी जमाने को हुनर लगता है’

दयानंद पांडेयबहुत महीन है अखबार का मुलाजिम भी : अभी किन्हीं सज्जन की पतिव्रता टाइप टिप्पणी पढ़ी। जो मुझे भाषा की मर्यादा समझाने में लथ-पथ हैं। गोस्वामी तुलसीदास जीवित नहीं हैं अभी। अगर होते तो ऐसे पतिव्रता टाइप टिप्पणीबाज उन्हें ही हजारों सलाह देते कि ‘मरे हुए रावण को राक्षस क्यों लिख रहे हैं? अरे, आप तो सीता का हरण भी मत लिखिए। यह सब नहीं लिखना चाहिए। समाज पर बहुत गलत असर पड़ेगा, वगैरह-वगैरह।’ बता दूं कि मैंने कभी जागरण में नौकरी नहीं की। लेकिन क्या जरूरी है कि अमेरिका की दादागिरी को जानने के लिए अमेरिका में जा कर रहा भी जाए? या उसका शिकार होकर ही उसकी दादागिरी को बताया जा सकता है? मैं यहां कुछ छोटे-छोटे उदाहरण देकर इन सती-सावित्री टाइप, पतिव्रता टाइप टिप्पणीबाजों को आइना दिखाना चाहता हूं। लखनऊ में एक जमाने में बहुत ही प्रतिष्ठित अखबार हुआ करता था- स्वतंत्र भारत। उसके एक यशस्वी संपादक थे अशोक जी। उनको एक बार मर्यादा की बड़ी पड़ी तो उन्होंने एक फरमान जारी किया कि जिस भी किसी का नाम अखबार में लिखा जाए, सभी के नाम के आगे ‘श्री’ जरूर लिखा जाए।

‘जो चला गया, उस पर टिप्पणी ठीक नहीं’

यशवंत, काफी दिन के बाद किसी बयान पर लिख रहा हूँ. यह अलग बात है कि प्रेस आने के बाद रोजाना के काम निबटाने के बाद भड़ास भी देखना एक काम जैसा हो चुका है. आज आवेश तिवारी और दयानन्द पांडेय पर लिखने का मन है. दोनों लोग अपनी जगह ठीक हैं. क्योंकि जब अखबार के किसी मरे हुय मालिक की पुण्यतिथि आती है तो भाई लोग, छ्पासी लोगों को पकड़ कर या फिर अपने आप ही उनके बयान छाप देते हैं. वैसे जो इस दुनिया से चला गया, उस पर टीका-टिप्पणी करना अच्छी बात नहीं है. लेकिन जब बात चल ही चुकी है तो जैसे हाथी के दाँत दिखाने के और खाने के और, वाली कहावत मीडिया वालों पर सटीक बैठती है. नरेन्द्र महोन भी उनमें से एक थे. वो स्टेज पर कुछ कहते थे और दफ्तर में पूरे लाला होते थे.

‘हमारे रिपोर्टर से कोई बड़ाई नहीं लिखवा सकता’

प्रिय यशवंत जी, ‘इन अखबारों पर थूकें ना तो क्या करें‘ पढ़ा। सही कहा है आपने। ये पत्रकारिता के लिए काफी शर्म की बात है। पर हमने ऐसा नहीं किया है। हमारे अखबारों को जो विज्ञापन मिल रहा है, उसको हम भी छाप रहे है। लेकिन हमारे किसी रिपोर्टर से कोई भी इस तरह से अपनी बड़ाई नहीं लिखवा सकता है। भले ही हम जागरण-भास्कर नहीं हैं, फिर भी हम अपनी मर्यादायों की पालन कर रहे हैं।

‘अब खुद मालिक बाजार में खड़ा है’

यशवंत भाई, मीडिया के चारित्रिक पतन के लिए हमें केवल मालिकों पर ही दोष नहीं थोपना चाहिए। इसकी जड़ में जाना होगा। हां, यह सही है कि कुछ मीडिया घरानों ने पत्रकारिता को बेचने का भौंडा तरीका अपनाया है। पर अब भी अधिकतर अखबार इससे परहेज कर रहे हैं। जो अखबार इस गंदगी से दूर अपने पत्रकारों की अस्मिता को बचाने में जुटे हैं, उनके मालिक ही नहीं, संपादकीय प्रबंधन भी प्रसंशनीय हैं, और मैं ऐसे संपादकीय प्रबंधन तथा मालिकों को सल्यूट करता हूं, क्योंकि आर्थिक मंदी की मार उन पर भी है। मगर जो अखबार पत्रकारिता को हर मोड़ पर बेचने को उतावले हैं, उसका भी एक कड़ुआ सच है।

अरे भइया, ये इज्जत कौन चिड़िया का नाम है?

यशवंत भाई, आपसे भलीभांति परिचित हूं। आप भी मुझे बखूबी जानते हैं। एक लेख भेज रहा हूं। पहचान गुप्त रखने की गुजारिश करता हूं। लेख को पढ़ें। चाहत है कि मौजूदा दौर और आने वाली पत्रकारिता की कौम आज की मीडिया से वाकिफ हो। यहां फैले व्यापारिक एकाधिकार को जाने। यदि संभव हो तो कृपया बहुचर्चित और मीडिया को समर्पित भड़ास4मीडिया के संजाल में इसे जगह दे। यथासंभव कोई त्रुटि रह गई हो तो संपादित करने का पूर्णाधिकार आपको है।

‘बीस बार थूका पर अभी मन नहीं भरा’

प्रिय यशवंत जी, आपकी हरियाणा के अखबार वाली रिपोर्ट पढ़कर मैंने बीस बार थूका. पर अभी मन नहीं भरा है. फिर थूकूंगा. आपको बताना चाहूंगा की हरियाणा सरकार के पब्लिक रिलेशन डिपार्टमेन्ट में कमिश्नर हैं के. के. खंडेलवाल. उसी पर आरोप है कि वह मुख्यमंत्री के इशारे पर हरियाणा के अखबारों को कंट्रोल करता है. इसके बदले वह उन्हें कई फायदे पंहुचाता है. आप यकीन नहीं करेंगे, उसी के घर पर खबरें लिखी जाती हैं तथा अखबारों को जारी कर दी जाती हैं. ये आदमी सरकारी नौकर है, पर उसके घर पर ही कांग्रेस पार्टी के लिए स्पेशल पेज बनते हैं.

इन अखबारों पर थूकें ना तो क्या करें!

दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर जैसे मीडिया हाउसों ने इमान-धर्म बेचा : देवत्व छोड़ दैत्याकार बने : पैसे के लिए बिक गए और बेच डाला : पैसे के लिए पत्रकारीय परंपराओं की हत्या कर दी : हरियाणा विधानसभा चुनाव में दैनिक जागरण और दैनिक भास्कर जैसे देश के सबसे बड़े अखबारों ने फिर अपने सारे कपड़े उतार दिए हैं। जी हां, बिलकुल नंगे हो गए हैं। पत्रकारिता की आत्मा मरती हो, मरती रहे। खबरें बिकती हों, बिकती रहे। मीडिया की मैया वेश्या बन रही हो, बनती रहे। पर इन दोनों अखबारों के लालाओं उर्फ बनियों उर्फ धंधेबाजों की तिजोरी में भरपूर धन पहुंचना चाहिए। वो पहुंच रहा है। इसलिए जो कुछ हो रहा है, इनकी नजर में सब सही हो रहा है। और इस काम में तन-मन से जुटे हुए हैं पगार के लालच में पत्रकारिता कर रहे ढेर सारे बकचोदी करने वाले पुरोधा, ढेर सारे कलम के ढेर हो चुके सिपाही, संपादकीय विभाग के सैकड़ों कनिष्ठ-वरिष्ठ-गरिष्ठ संपादक।

तो अखबार मालिक कफन बेच देंगे…

एसएन विनोद‘कली बेच देंगे, चमन बेच देंगे, जमीं बेच देंगे, गगन बेच देंगे, अखबार मालिक में लालच जो होगी, तो श्मशान से ये कफन बेच देंगे’… जरा इन शब्दों पर गौर करें। इनमें निहित पीड़ा और संदेश को आप समझ लेंगे। ये शब्द शब्बीर अहमद विद्रोही नाम के एक समाजसेवी के हैं। महाराष्ट्र के आसन्न विधानसभा चुनाव में मध्य नागपुर क्षेत्र से निर्दलीय चुनाव मैदान में हैं। विद्रोही के अनुसार चूंकि सभी दलों के उम्मीदवार शोषक वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जनता के सच्चे हितैषी के रूप में वे प्रतीकात्मक चुनाव लड़ रहे हैं। शब्बीर वर्षों से इस क्षेत्र में गरीब, शोषित वर्ग के लिए संघर्ष करते रहे हैं। स्थानीय अखबार इनकी गतिविधियों की खबरों को निरंतर स्थान देते थे। अब जबकि ये चुनाव मैदान में हैं, इनकी पीड़ा इनकी ही जुबानी सुन लें। शब्बीर ने हमें पत्र लिखकर अपनी व्यथा व्यक्त की है। वे लिखते हैं, ‘मैं समाचार आपको दे रहा हूं। इसलिए कि 1857 देश की आजादी की बुनियाद है। आज अखबार भी पूंजीपतियों के गुलाम हो गए हैं।