Connect with us

Hi, what are you looking for?

कहिन

पैसे ले खबर छापना सही तो पैसे ले गोली मारना गलत कैसे?

संजीवमुददे पर बहस करें तो ज्यादा सार्थक होगा : मुद्दा था अखबारों के पैकेज संबंधी गोरखधंधे का। पर पिछले कुछ दिनों से मुख्य मुद्दा गौण हो गया। अब एक दूसरे पर आरोप लगाने की नौबत तक आ गई है। कौन गलत? कौन सही? जनसता का प्रसार घटा तो क्यों घटा? जनसत्ता महान या जागरण महान? शहर के अंदेशे में काजी जी दुबले क्यों? खैर जो कुछ है, उससे स्पष्ट हो गया है, हिंदी पत्रकारिता की दशा और दिशा क्या है। कैसे पत्रकार हिंदी जगत में है। उनकी शैक्षिक योग्यता क्या है? सामान्य रूप से पत्रकार हिंदी जगत में वही बनता है जिसे कहीं और नौकरी नहीं मिलती है। मैं भी उसी में से एक हूं। कहीं और नौकरी नहीं लगी तो पत्रकार बन गया। हिंदी जगत में कुल अस्सी प्रतिशत लोग ऐसे ही पत्रकार होंगे। यही कारण है कि निचले स्तर से उपर चापलूसी कर संपादक बने कई संपादक अपनी मूर्खता को छुपाने के लिए कई रास्ते अपनाते हैं। कई संपादक जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती वो अंग्रेजी के दो चार शब्दों का इस्तेमाल अपने जूनियर के सामने करेंगे। कई संपादक हिंदी के प्रगतिशील कवियों के उदाहरण देंगे। कई संपादक रिपोर्टर की खबरों में व्याकरण की गलतियों को निकाल उन्हें बुलाकर समझाने की कोशिश करेंगे। कई कहेंगे कि जब मैं रिपोर्टर था तो संपादकों को पीट देता था, अफसरों को पीट देता था। इस तरह के संपादकों से मेरा पाला पड़ चुका है।

संजीव

संजीवमुददे पर बहस करें तो ज्यादा सार्थक होगा : मुद्दा था अखबारों के पैकेज संबंधी गोरखधंधे का। पर पिछले कुछ दिनों से मुख्य मुद्दा गौण हो गया। अब एक दूसरे पर आरोप लगाने की नौबत तक आ गई है। कौन गलत? कौन सही? जनसता का प्रसार घटा तो क्यों घटा? जनसत्ता महान या जागरण महान? शहर के अंदेशे में काजी जी दुबले क्यों? खैर जो कुछ है, उससे स्पष्ट हो गया है, हिंदी पत्रकारिता की दशा और दिशा क्या है। कैसे पत्रकार हिंदी जगत में है। उनकी शैक्षिक योग्यता क्या है? सामान्य रूप से पत्रकार हिंदी जगत में वही बनता है जिसे कहीं और नौकरी नहीं मिलती है। मैं भी उसी में से एक हूं। कहीं और नौकरी नहीं लगी तो पत्रकार बन गया। हिंदी जगत में कुल अस्सी प्रतिशत लोग ऐसे ही पत्रकार होंगे। यही कारण है कि निचले स्तर से उपर चापलूसी कर संपादक बने कई संपादक अपनी मूर्खता को छुपाने के लिए कई रास्ते अपनाते हैं। कई संपादक जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती वो अंग्रेजी के दो चार शब्दों का इस्तेमाल अपने जूनियर के सामने करेंगे। कई संपादक हिंदी के प्रगतिशील कवियों के उदाहरण देंगे। कई संपादक रिपोर्टर की खबरों में व्याकरण की गलतियों को निकाल उन्हें बुलाकर समझाने की कोशिश करेंगे। कई कहेंगे कि जब मैं रिपोर्टर था तो संपादकों को पीट देता था, अफसरों को पीट देता था। इस तरह के संपादकों से मेरा पाला पड़ चुका है।

मसला यह नहीं है। मसला यह है कि 2009 के लोकसभा चुनावों में अखबारों ने पैकेज सिस्टम लाया। यह खुलेआम एक भ्रष्टाचार था। अर्थात पैसे लेकर खबरें छापी गई और जिन उम्मीदवारों ने पैसे नहीं दिया उन्हें अखबारों के पृष्ठ से गायब कर दिया गया। इस मसले को उठाया भाजपा के प्रत्याशी राम इकबाल सिंह, लालजी टंडन, समाजवादी पार्टी के मोहन सिंह और बसपा के हरमोहन धवन ने। इसके बाद विवाद की शुरुआत हुई। पत्रकारों के एक वर्ग ने इसे बुरा माना। इसमें प्रभाष जोशी एक थे। प्रभात खबर के हरिवंश ने सबसे पहले इस पर टिप्पणी की और खबरों का धंधा करने का खुला विरोध किया। इसके बाद मसला ज्यादा गरमाया। प्रभाष जोशी ने दैनिक जागरण पर हमला किया। उन्होंने अखबार का नाम नहीं लिखा, पर इशारा साफ जागरण की तरफ था क्योंकि राज्यसभा में दो अखबार मालिक अकेले जागरण समूह से ही गए हैं।

अब मसला था कि अखबारों के भ्रष्टाचार कितने नैतिक और कितने कानूनी हैं? पर कुछ पत्रकारों ने मुख्य मुदे से ध्यान हटाने के लिए निजी हमला शुरू कर दिया, कहा कि प्रभाष जोशी सफल है, जनसता असफल है, अर्थात प्रभाष जोशी असफल अखबार के सफल संपादक थे। ये दो अलग-अलग मुद्दे हैं। जनसता का अच्छा या बुरा होना अलग मुद्दा है, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर व पंजाब केसरी द्वारा पैसे लेकर खबरें छापना अलग मुद्दा है। इन दोनों मुद्दों का आपस में गड्डमड्ड नहीं किया जाना चाहिए। कोई अखबार कितना बिकता है, उससे अखबार की महानता नहीं सामने आती। लड़कियों की नंगी तस्वीर छापकर कोई अखबार समूह बीस लाख अखबार बेचता है तो वो बड़ा समूह नहीं हो जाएगा। हो सकता है कुछ दिनों में नंगी तस्वीर के कारण अखबार का सरकुलेशन पचास लाख हो जाए, पर क्या यह नैतिक या कानूनी रूप से जायज होगा? जनसता पर हमला करने वाले पत्रकार महोदय के तर्क को तब सही माना जाता जब वे प्रामाणिकता से कहते, प्रभाष जी, जनसता ने भी तो अमुक खबर लिखने के लिए पैसे लिए थे! जनसता ने भी तो चुनावों के दिनों में खबरें छापने के लिए प्रत्याशियों से पैसे लिए थे!! साथ ही इसका प्रमाण भी उपलब्ध करवा देते!!! पर प्रमाण पत्रकार महोदय के पास नहीं थे तो बड़े ही मारपीट की भाषा में कहा, जनसता से ज्यादा तो गली-कूचे के अखबार पढ़े जाते हैं। लेकिन यह भी तो हो सकता है कि जनसता इसलिए सरवाइव नहीं कर पाया क्योंकि जनसता वो भ्रष्टाचार नहीं कर सका जो अन्य अखबारों ने किया?

जो भी पत्रकार मीडिया के इस गोरखधंधे पर लिख रहे हैं, उन्हें न तो कानून की जानकारी है न ही सामाजिक परंपरा की, जो कानून के रूप में इस देश में सदियों से चला आ रहा है। दिलचस्प बात यह है इसमें रिपोर्टर ही नहीं, कुछ संपादक भी शामिल हैं। वे अखबारों के पैकेज को सही ठहराते हुए इसे अपनी रोजी-रोटी से जोड़ रहे हैं। खैर, ये वो पत्रकार हैं जो पत्रकार इसलिए बन गए क्योंकि किसी अखबार के संपादक के घर सब्जी, दूध, दही पहुंचाते होंगे। उनकी इस सेवा से प्रसन्न संपादक ने उन्हें कई सितारे दे दिए होंगे। लेकिन बहस तो इस बात पर होनी चाहिए थी कि वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों में अखबारों ने जो पैकेज का गोरखधंधा चलाया, क्या वो कानूनी रूप से जायज था? क्या ये चुनावी आचार संहिता के अनुकूल था? चुनावी आचार संहिता और भारत का जनप्रतिनिधि कानून इस पर क्या कहता है? इस संबंध में प्रेस, मीडिया एंड टेलीकम्यूनिकेशन ला क्या कहता है? इस संबंध में प्रेस एवं रजिस्ट्रेशन से संबंधित एक्ट क्या कहते हैं?

लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि अभी तक इन कानूनी पहलुओं पर कोई बहस नहीं छेड़ी गई। न तो किसी पत्रकार महोदय ने इस पर लिखने की जहमत उठायी, न ही कोई आगे शायद उठाए। अच्छा होता सुप्रीम कोर्ट के किसी वकील से इस मुददे पर बहस कराई जाती। इस मसले पर भाजपा के वकील नेता अरुण जेतली, रविशंकर प्रसाद, कांग्रेस के वकील नेता अभिषेक मनु सिंघवी और कपिल सिब्बल से कुछ लिखवाया जाता? कम से कम इस देश के पत्रकार जगत को तो यह तो पता चलता कि आखिर देश का कानून इस संबंध में क्या कहता है? साथ ही इस बात पर भी बहस होनी चाहिए थी कि दुनिया के दूसरे देश जहां लोकतांत्रित तरीके से सरकार का गठन होता, वहां मीडिया की भूमिका क्या है? अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस जैसे देश में चुनावों के दौरान मीडिया कवरेज से संबंधित क्या कानून हैं? इनकी क्या परंपरा है? इन कानूनों और परंपराओं का कितना पालन होता है? फिर कम से कम राजनीतिक दलों से यह सवाल पूछा जाना चाहिए था कि अखबारों के इस गोरखधंधे पर उनका कया स्टैंड है? कुल मिलाकर सर्वसम्मति से इस गंभीर मसले पर एक निष्कर्ष निकालने की कोशिश होनी चाहिए।

सवाल उठता है कि अगर मतदान केंद्र पर कब्जा करना अपराध है, गैर-कानूनी है, मतदाताओं को पैसे देकर वोट खरीदना अपराध है, गैर-कानूनी है तो फिर अखबारों से पैकेज खरीद कर खबरों को छपवाना कैसे कानूनसम्मत होगा? 1990 के पहले चुनावी आचार संहिता शब्द देश की जनता नहीं जानती थी। चुनाव आयोग में जब मजबूत चुनाव आयुक्त आए तो चुनावी आचार संहिता देश के लोग जानने लगे। चुनावी आचार संहिता का कड़ाई से पालन होने लगा। उम्मीदवारों को चुनाव आयोग का डर भी होने लगा। पहले चुनावों में बेशुमार खर्च होते थे। ये खर्च दिखते थे। उम्मीदवार झंडे, डंडे, गाड़ी और बूथ लूटेरों पर बेतहाशा धन खर्च करते थे। चुनाव आयोग ने खर्च सीमा तय कर कुछ हद तक इसे रोकने की कोशिश की। झंडे-डंडे गायब हो गए गाड़ियां भी गायब हो गईं। पर खर्च के और अलग तरीके उम्मीदवारों ने ढूंढ लिया। अब प्रत्याशी शराब और पैसे लोगों के बीच बांटने लगे। बिहार जैसे राज्य में, जहां लोकसभा चुनाव दस लाख रुपये में निपट जाता था, अब करोड़ों का खर्च होने लगा है। वहां बूथ लूटेरों का आतंक कम हुआ तो शराब बंटने लगी। पंजाब में तो वोटर आई-कार्ड खरीदे जाने लगे। विरोधी दल का वोट देने वाला मतदाता, मतदान केंद्र पर न पहुंचे इसे सुनिश्चित करने के लिए चुनावों में प्रति वोटर आई-कार्ड दो से पांच हजार रुपये तक बांटे गए। इससे भी संतुष्टि नहीं हुई और लगा कि कहीं कोई और प्रूफ लेकर मतदाता, मतदान केंद्र तक न पहुंच जाए, तो उसकी अंगुली पर स्याही लगा दिया गया। मतलब की जो काम गैर-कानूनी था, उसे आयोग की सख्ती के बाद भी अंजाम दिया गया। आयोग अभी भी पूरी तरह से लोकतांत्रित प्रक्रिया बहाल करने में विफल रहा है। पर निश्चित तौर पर चुनाव के दौरान पैसे बांटना, शराब बांटना, वोटर आईकार्ड की खरीद गैर-कानूनी काम है। फिर जब ये गैरकानूनी है तो अखबारों द्वारा पैसे लेकर चुनावी खबर छापना कैसे कानूनी होगा?

अब अखबार वाले कहेंगे कि अगर प्रत्याशी बाकी मामलों में पैसे खर्च कर रहा है तो अखबार ने कुछ पैसे ले लिए तो क्या हुआ? पर सच्चाई यह है कि अखबारों ने इस मसले पर भारी अपराध किया है। यह तो उनका सौभाग्य है कि अभी चुनाव आयोग चुप है। शायद अखबारों से चुनाव आयोग भी फिलहाल डरा हुआ लग रहा है। नहीं तो अखबारों ने आयोग के उस निर्देश की धज्जियां उड़ायी है जिस पर मामला तक दर्ज हो सकता है। अखबारों ने पैसे लेकर जो संपादकीय छापे हैं, उन्हें अगर आयोग ने चुनावी खर्चे में शामिल कर दिया तो प्रत्याशी भी फंसेंगे और अखबार भी। अखबारों ने इस बार प्रत्याशियों के विज्ञापन इसलिए नहीं छापे क्योंकि इससे विज्ञापन का बिल चुनावी खर्च में शामिल हो जाता। अर्थात अखबारों ने एडोटोरियल के माध्यम से प्रत्याशियों को चोरी का नया रास्ता बताया। पर अखबारों ने यह नहीं सोचा कि इतने खर्चीले चुनाव का सबसे ज्यादा असर इस देश के लोकतंत्र पर पड़ेगा। अगर अखबारों ने यही धं¡धा जारी रखा तो गरीब प्रत्याशी आगे चुनाव लड़ने को ही नहीं सोचेगा। प्रत्याशी चुनाव लड़ने से पहले अपने खर्चों को गिनाते वक्त कहेगा, शराब के लिए पचास लाख, मतदाताओं को बांटने के लिए एक करोड़ और अखबारों के पैकेज के लिए दो करोड़। गरीब प्रत्याशी चाहे वो किसी भी दल का हो, पैकेज का शिकार होगा। अर्थात चुनाव को महंगा बनाने और गरीबों को चुनाव लड़ने से रोकने में सबसे बड़ी भागीदारी अखबारों की है। फिर तो निश्चित तौर पर कोई कलावती और भगवतिया देवी लोकसभा का मुंह नहीं देख पाएगी। यह दुर्भाग्य की बात है कि 2009 में गठित लोकसभा में साठ प्रतिशत से ज्यादा उम्मीदवार करोड़ों रुपये के पति हैं।

पैकेज बेचकर अखबारों में खबर छापने के बाद अखबार किस नैतिकता से किसी गलत काम का विरोध करेंगे? अगर कोई प्रत्याशी अखबारों के पैकेज खरीद चुनाव जीत जाता है, तो पैसे के बल पर यूपीएससी और राज्य सिविल सेवा की परीक्षा में चुनकर आने वाला कोई अभ्यर्थी कैसे गलत होगा? आखिर वो भी तो रोजी-रोटी के लिए ही नौकरी में पैसे देकर चयनित हुआ? फिर ऐसी कदाचार संबंधी खबरें छापने का कितना नैतिक हक किसी अखबार को होगा? अगर कोई शूटर पैसे लेकर किसी की हत्या कर देता है तो यह कितना गैर-कानूनी काम होगा? आखिर उसने भी तो रोजी-रोटी के लिए किसी को गोली मारी? अगर कोई ठेकेदार जिला, राज्य, केंद्र स्तर पर अधिकारियों को घूस देकर काम करा लेता है तो क्या गलत है? आखिर ठेकेदार और अफसर दोनों की रोजी-रोटी का ही सवाल है? कम से कम इस महंगाई के दौर में वेतन से तो काम नहीं ही चलता?

बहस अगर सार्थक हो तो ज्यादा अच्छा होगा। बहस की सीमा यहीं तक होनी चाहिए कि क्या अखबारों का पैकेज का धंधा कानूनसम्मत है? अगर कानून सम्मत नहीं है तो आने वाले दिनों में इसे कानूनसम्मत बनाया जाए ताकि अखबारों को फलने-फूलने का पूरा मौका मिले? अगर यह कानून सम्मत नहीं है तो अखबारों के खिलाफ क्या अपराधिक मामला दर्ज होना चाहिए? क्या अखबारों को अब सीधे रूप में चुनावी आचार संहिता के अंदर लाया जाना चाहिए? क्या चुनावों के दौरान आयोग अखबारों की खबरों की मॉनेटरिंग के लिए हर लोकसभा क्षेत्र में अलग से एक पर्यवेक्षक तैनात करे? अगर पर्यवेक्षक अखबारों की खबरों में पक्षपात की बू पाता है और किसी प्रत्याशी के पक्ष में पाता है, तो क्या अखबारों को नोटिस जारी होना चाहिए? क्या अखबारों के उपर ठीक उसी तरह से कार्रवाई होनी चाहिए जिस तरह से चुनाव आयोग आचार संहिता लागू होने के बाद पक्षपाती अफसरों और कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई करता है? दुर्भाग्य की बात है कि अभी तक इस मसले पर कोई बहस नहीं छिड़ी है।


लेखक संजीव जुझारू पत्रकार हैं और पिछले कई वर्षों से चंडीगढ़ में विभिन्न मीडिया माध्यमों से जुड़े हुए हैं। उनसे संपर्क के लिए [email protected] पर मेल कर सकते हैं या फिर 09417005113 पर रिंग कर सकते हैं।

\n This e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it

Advertisement. Scroll to continue reading.

 

Click to comment

0 Comments

  1. jogender verma

    October 1, 2010 at 10:23 am

    everything in this article is correct.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

अपने मोबाइल पर भड़ास की खबरें पाएं. इसके लिए Telegram एप्प इंस्टाल कर यहां क्लिक करें : https://t.me/BhadasMedia

Advertisement

You May Also Like

Uncategorized

भड़ास4मीडिया डॉट कॉम तक अगर मीडिया जगत की कोई हलचल, सूचना, जानकारी पहुंचाना चाहते हैं तो आपका स्वागत है. इस पोर्टल के लिए भेजी...

Uncategorized

भड़ास4मीडिया का मकसद किसी भी मीडियाकर्मी या मीडिया संस्थान को नुकसान पहुंचाना कतई नहीं है। हम मीडिया के अंदर की गतिविधियों और हलचल-हालचाल को...

टीवी

विनोद कापड़ी-साक्षी जोशी की निजी तस्वीरें व निजी मेल इनकी मेल आईडी हैक करके पब्लिक डोमेन में डालने व प्रकाशित करने के प्रकरण में...

हलचल

[caption id="attachment_15260" align="alignleft"]बी4एम की मोबाइल सेवा की शुरुआत करते पत्रकार जरनैल सिंह.[/caption]मीडिया की खबरों का पर्याय बन चुका भड़ास4मीडिया (बी4एम) अब नए चरण में...

Advertisement