फिल्म- इन दा मूड फार लव : साल- 2000 : वक्त- 98 मिनट : किरदार- टोनी लियांग और केम-वाह कू : निर्देशक- बांग कर वहाई : निर्माता- ये चेंग चा और विलियम चेंग : बात 1962 की है। यह सिर्फ इत्तेफाक ही था कि नायक चाउ मो व्हान और नायिका सुलि झेन एक ही अपार्टमेंट के पड़ोसी बने। पहली मुलाकात बहुत सभ्य और गुमसुम भरी थी। इधर व्हान को उसकी पत्नी ने जोड़ा था, उधर झेन को उसके पति ने। दोनों बीते कल का अधूरा हिस्सा लिए थे और आहिस्ता-आहिस्ता जीते थे। उनके बीच रोमांस नहीं था, फिर भी उनकी मुलाकातों के दृश्य रोमांस से भर जाते थे। रोमांस के इन दृश्यों का सिलसिला रफ़्तार पकड़ता गया। ऐसे रोमांस के दृश्यों की निर्मलता सफेद होती रात की तरह बढ़ती गई। उन्होंने शहर की काली सड़क, काफी हाउस और गलियों को अपनी मुलाकातों से रंगीन बना डाला था। देखते ही देखते समर्पण और मनोविज्ञान की अनछुई परतों का खुलासा होने लगा।
पूरी फिल्म में एक दृश्य बेहद खूबसूरत है जिसे हर रात दोहराया गया। इसमें दोनों अपने-अपने कमरों की दीवारों से चिपके खड़े हैं। शरीर से मिलने का कोई मन नहीं। कैमरा, कमरों की काल्पनिक खिड़की से उनकी बेकरारी को बार-बारी पढ़ता है। ऐसा होते वक़्त कैमरे से लिए गए फ्रेम वही रहते है, इस उनके प्यार भरे मूड बदलते रहते हैं। दोनों खामोश, दोनों बिछड़े हुए, दोनो जवान और दोनों निर्दोष खड़े हैं। कैमरा के बेजोड़ फ्रेम के साथ संगीत की खूबसूरत धुनों से तो पत्थर भी धड़कना चाहेगा। दोनों के जज्बातों को लिपटना है लेकिन बीच में दीवार है। और नैतिकता की लगाम भी दोनों तरफ से कसी जा रही है। इन ही जज्बातों से दर्शक का ताना-बाना जुड़ चुका है। यहां रोमांस के साथ-साथ रोमांच की दीवार भी है कि पहल कौन करेगा ?
लेकिन ऐसे ताने-बानों में उलझा दर्शक हर रात आगे निकल जाता है और सुबह हो जाती है। शाम ढलती है और फिर वही रात वापस लौटकर आती है। कमरों में जाने से पहले वह साथ होते हैं, उसके बाद सिर्फ उनके दिल। जब ऐसा होता है तब तनहाई के बावजूद यह सबसे रोमांस भरा लमहा होता है। फिल्म की दो बातें बहुत खूबसूरत रहीं। एक तो जो जिसे चाहता था उसने किसी और को अपनाया था। याने यह पहले प्यार में ठुकराए दो किरदारों का किस्सा है। दुनिया में प्यार की ज्यादातर आदर्श कहानियों में ऐसा नहीं होता। अक्सर रोमांस की कहानियों में दो किरदारों के प्यार पर ही फोकस किया जाता है। लेकिन ‘इन दा मूड फार लव’ में पहले वाले प्यार से ठोकर की कसक भी है। दूसरा, सच्चे प्यार का मतलब अक्सर दूसरे के लिए खोने से लगाया जाता है। यहां ऐसा कुछ भी नहीं। खुशनुमा ध्वनि और चेहरों पर पड़ती मध्यम रोशनियों के बीच उनका रिश्ता पीछे भी लौट-लौटकर देखता है।
दुनिया के मशहूर फिल्ममेकर बांग कर वहाई की इस पेशकश को उनके दोस्त क्रिसटोफर ने अपनी सिनेमेट्रोग्राफी से लाजबाव बना डाला। उन्होंने रोमांटिक दृश्यों में स्लोमोशन फ्रेम के साथ रंगों का बखूबी इस्तेमाल किया। माइक ग्लासो और सीगेरो की धुनों ने रोमांस की लहरों से जैसे दो दिलों को एक कर डाला । जैसे कि दिल में ज्यादा से ज्यादा रोमांस उभारने के लिए इससे ज्यादा कुछ किया भी नहीं जा सकता था। यह फिल्म एक अधूरी कहानी के साथ खत्म होती है। कई बार सुखद होता है अपने अतीत में चुपचाप और बार-बार झांकना, भले ही वह असफल या अधूरा ही प्यार क्यों न हो !!
लेखक शिरीष खरे सामाजिक सरोकारों से जुड़े हुए पत्रकार हैं। पत्रकारिता की डिग्री लेने के बाद चार साल तक डाक्यूमेंट्री फिल्म संगठन में शोध और लेखन का कार्य किया। उसके बाद दो साल तक ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ से जुड़े रहे। इन दिनों ‘चाइल्ड राईट्स एंड यू, मुंबई’ के ‘संचार विभाग’ से जुड़े हुए हैं। शिरीष से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है।