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दुख-दर्द

श्रद्धांजलि : हां, मैंने एक हीरो देखा है !

Vikas Mishra and VS Vajpayeeवीएस वाजपेयी नहीं रहे। हो सकता है आप जानते हों, हो सकता है आप न जानते हों। 1996-97 में भोपाल से एक प्रखर विचारों वाली मासिक समाचार पत्रिका निकली थी। नाम था विचार मीमांसा। जिनकी नजरों के आगे से ये पत्रिका गुजरी होगी, उन्हें न तो पत्रिका के बारे में बताने की जरूरत है और न ही वीएस वाजपेयी के बारे में। वीएस वाजपेयी इस पत्रिका के मालिक थे और संपादक भी। मैं इस पत्रिका में उत्तर प्रदेश ब्यूरो प्रमुख था। सबसे कम उम्र (25 साल) का ब्यूरो चीफ।

Vikas Mishra and VS Vajpayee

Vikas Mishra and VS Vajpayeeवीएस वाजपेयी नहीं रहे। हो सकता है आप जानते हों, हो सकता है आप न जानते हों। 1996-97 में भोपाल से एक प्रखर विचारों वाली मासिक समाचार पत्रिका निकली थी। नाम था विचार मीमांसा। जिनकी नजरों के आगे से ये पत्रिका गुजरी होगी, उन्हें न तो पत्रिका के बारे में बताने की जरूरत है और न ही वीएस वाजपेयी के बारे में। वीएस वाजपेयी इस पत्रिका के मालिक थे और संपादक भी। मैं इस पत्रिका में उत्तर प्रदेश ब्यूरो प्रमुख था। सबसे कम उम्र (25 साल) का ब्यूरो चीफ।

एक तरह से पत्रकारिता की शुरूआत थी। विचार मीमांसा के पहले संपादक थे डॉ. विद्यानिवास मिश्र। उनकी इच्छा विचार मीमांसा को धर्मयुग की तरह बनाने की थी। लेकिन वीएस वाजपेयी चाहते थे कि ये पत्रिका देश के नौजवानों की रगों में देशभक्ति का लहू गरम कर दे। विवाद होना था, सो हुआ, मैं प्रत्यक्षदर्शी था। डॉ.विद्यानिवास मिश्र ने पहले ही अंक में जब लालू का जंगलराज शीर्षक से कवर पेज पर स्टोरी देखी तो उन्होंने पत्रिका से खुद को अलग कर लिया। फिर संपादक खुद हुए वीएस वाजपेयी।

एक बहादुर पत्रकार। एक हीरो..। छह फीट कद, गोरा रंग, बुलंद आवाज। सहाराश्री सुब्रत राय ने उनके इस व्यक्तित्व का खूब फायदा उठाया था। वाजपेयी ने शुरुआत सहारा के फाइनेंस डिवीजन से की थी। शुरुआती साथी थे सुब्रत राय के। सुब्रत राय उन्हें बहनोई मानते थे, क्योंकि उनकी पत्नी आभा वाजपेयी को सुब्रत राय धर्मबहन मानते हैं। वीएस वाजपेयी सुब्रत राय के उन दिनों के साथी थे जब सहाराश्री स्कूटर से चलते थे।

वाजपेयी के भीतर देशभक्ति का कीड़ा कुलबुलाता था। वो चाहते थे कि ऐसी मैग्जीन निकले जो देश की तस्वीर बदल दे। वो फाइनेंस के मास्टर थे। उस वक्त भी लाखों में तनख्वाह थी। करोड़ों रुपये के मालिक थे। उन्होंने 1995 में लिंकर्स ग्रुप आफ कंपनीज नाम से फाइनेंस कंपनी खोली। उदघाटन के वक्त जेवीजी ग्रुप के मालिक भी थे। उन्होंने अपने भाषण में कहा था- आज देश की सबसे बड़ी फाइनेंस कंपनी शुरू हो रही है। ये हल्की बात नहीं थी। बिजली की गति से बढ़ी थी कंपनी। करोड़ों का टर्नओवर था महीने का।

और इसी बीच शुरू हुई थी विचार मीमांसा। अप्रैल 1996 में पहला अंक आ चुका था। अगले अंक की तैयारी थी। वाजपेयी ने मुझे लखनऊ से और अमरेंद्र किशोर को दिल्ली से बुला लिया। बिना तैयारी के मैग्जीन शुरू हुई थी। सारे ब्यूरो सुविधा संपन्न हो गए थे, अच्छे वेतन पर अच्छी टीम थी। लेकिन हेड आफिस में कोई नहीं था। जो थे, माशा अल्लाह थे। फिलहाल.. वाजपेयी जी के साथ शुरू हुआ काम। ताज्जुब में थे हम लोग। क्योंकि ये आदमी बहुत बड़ा था, बहुत ऊंचे विचारों वाला था, बहुत अक्खड़ था, लेकिन बहुत सरल भी। और काम..। जनाब काम करना कोई भी वीएस वाजपेयी से सीखे। नींद उनके लिए किसी छींक या खांसी की तरह थी। वो पांच पांच रातें बिल्कुल बिना सोए गुजार देते थे। कार में एकाध घंटे की नींद ले ली तो ले ली। हां, नहाने के लिए एक घंटे का वक्त उन्हें जरूर चाहिए होता था।

पूरा दिन काम हुआ, पूरी रात काम हुआ। सुबह पांच बजे हिम्मत जवाब दे गई। मैं और अमरेंद्र सो गए। वाजपेयी जी नहीं सोए, वो संपादकीय लिखने में मगन थे। सुबह साढ़े नौ बजे वो आफिस में थे और हम लोगों की नींद टूटी दोपहर तीन बजे।

…उन्हीं के घर में रहना, उन्हीं के घर खाना। उन्हीं के साथ भोपाल घूमना। गाड़ी में बैठने की तमीज भी उन्होंने सिखाई थी। हुआ यूं कि वो गाड़ी में ड्राइविंग सीट पर बैठे। उसके बाद हम लोग पीछे वाला दरवाजा खोलकर पीछे बैठ गए। तब उन्होंने बड़े प्यार से समझाया था कि ड्राइवर के साथ पीछे और कार मालिक के साथ आगे बैठना चाहिए।

काम और जिद कैसी आप सोच नहीं सकते। वो संपादक थे, उस वक्त मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे। उनकी नीतियों के छल पर वाजपेयी ने पूरी खोजबीन की थी। रिपोर्ट लिखी और उसका शीर्षक दिया- झूठ बोलता है मनमोहन सिंह। हम सब हैरान, सर बदल दीजिए। बोलता को बोलते कर दीजिए। हील हुज्जत, बहस के बाद नाम फाइनल हुआ- पूरे देश को छल रहे हैं मनमोहन सिंह

विचार मीमांसा ने एक सीरीज चलाई थी- पहचानिए अपने जनप्रतिनिधियों को। शुरुआत हुई थी राम विलास पासवान से। उनके घर घाट, व्यक्तित्व से जुड़ी सचित्र गाथा। तीन-तीन बीवियों के किस्से और उनकी तस्वीरें भी छपी थीं।

अगली बारी थी मुलायम सिंह की। जिम्मा मेरे कंधों पर था। 13 दिनों तक इटावा की खाक छानी। रिपोर्ट दी। तब तक विनोद मिश्र संपादकीय सलाहकार पद पर आ चुके थे। वही हेड आफिस के मुखिया थे। रात में वाजपेयी आए विनोद जी से पूछा-पंडित जी कैसी रिपोर्ट है। विनोद जी ने तारीफ की और ये भी बताया कि मुलायम सिंह यादव की हिस्ट्रीशीट भी है, ये बात मुझे अब पता चली है। 17 पेज की रिपोर्ट छपी, मुलायम की हिस्ट्रीशीट के साथ। शीर्षक था- माफिया मुलायम। अंदर शीर्षक था- रक्षामंत्री से देश को खतरा। और भाषा.. ऐसी कड़क भाषा लिखवाते थे की पूछिए मत। खैर वाजपेयी खुश हो गए, इस खबर के लिए उन्होंने मुझे एक नई मोटरसाइकिल गिफ्ट की थी, जो उस वक्त के लिए बहुत बड़ी बात थी।

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सतपाल महाराज पर हमारे ब्यूरो से स्टोरी गई। वाजपेयी ने शीर्षक दिया भगवान या शैतान। क्योंकि अपने इलाके में सतपाल महराज भगवान के रूप में पूजे जाते हैं। उस रिपोर्ट में उस आदमी का भी इंटरव्यू दिया, जिसके पास महाराज का लोटा गिरवी था। सतपाल महाराज ने दो करोड़ रुपये की मानहानि का मुकदमा दर्ज करवा दिया।

भाषा को लेकर बड़े दुराग्रही थे वाजपेयी। कहते थे कि हिंदी लिखो तो हिंदी ही लिखो। वो खुद लिखकर दिखाते थे। मांसाहार के जबरदस्त समर्थक। हम लोगों से कहते थे कि साग भात खाकर आक्रामक कैसे लिख सकते हो। विनोद मिश्र जी को भी चिढ़ाते थे कि पंडित जी रबड़ी खाकर आग नहीं उगल सकते। मुर्गा खाओ मुर्गा..।

मैं ब्यूरो चीफ था, उस वक्त के दमदार और सीनियर मोस्ट आईएस अफसर से विज्ञापन के लिए बात करनी थी। मेरे मार्केटिंग मैनेजर ने कहा कि आप अगर एक मुलाकात कर लें तो 10 लाख रुपये का सरकारी विज्ञापन बुक हो जाएगा। मैं तैयार था, लेकिन वाजपेयी को खबर लगी तो उन्होंने मना कर दिया। बोले- मेरा ब्यूरो चीफ टुच्चे अफसरों के पास जाएगा। मैं मुनाफे के लिए मैग्जीन नहीं निकाल रहा हूं।

बेधड़क पत्रकारिता का नायाब नमूना थी विचार मीमांसा। लोग पूछते थे कि इस बार किसे निपटा रहे हैं। निपटाया ही। मकबूल फिदा हुसैन की कला ने द्रौपदी, गंगा, दुर्गा और हनुमान का जैसा रूप देखा था, उसकी कीमत चुकानी पड़ी। डॉक्टर ओम नागपाल ने लिखा था- ये चित्रकार है या कसाई। पूरे देश में प्रतिक्रिया हुई। सौ से ज्यादा मुकदमे हुए हुसैन पर और विचार मीमांसा पर भी। लालू यादव के खिलाफ लिखा- बंदर के हाथ में बिहार। लालू से बैर महंगा पड़ा। बिहार में लिंकर्स की सारी ब्रांचों में ताला पड़ गया। विधानसभा में भी लालू ने वीएस वाजपेयी को हरामी का बच्चा कहा और बकौल वाजपेयी फोन पर भी धमकी दी। बिहार के ब्यूरो चीफ अखिलेश अखिल पर लालू के गुर्गों ने हमला भी किया।

वाजपेयी उन्हें निशाने पर रखते थे, जिनके दोहरे चरित्र थे और जो सत्ता में थे। ज्योति बसु और लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह यादव और सतपाल महराज केंद्र में मंत्री थे। सत्ता से टकराना जैसे फितरत में था। रंगबाजी थी। इसी रंगबाजी में उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकर दयाल शर्मा पर भी निशाना साध दिया था। उनके बेटे के कृत्यों का कच्चा चिट्ठा खोलते हुए सवाल उठाया था-राष्ट्रपति महोदय आपके पुत्र इतने बेलगाम क्यों हैं। जामा मस्जिद के शाही इमाम के खिलाफ पहली बार इतनी तल्ख रिपोर्ट छापी। कीमत चुकानी पड़ी अखिलेश अखिल को। शाही इमाम के गुर्गों ने हमला बोल दिया था।

वाजपेयी ने सहारा और सुब्रत राय के खिलाफ भी जमकर खबर छापी। शीर्षक था- प्रजातंत्र को कलंकित किया सहारा ने। संदर्भ था लखनऊ में लोकसभा चुनाव। जहां अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ खड़े थे राज बब्बर। सहारा राज बब्बर का प्रायोजक था और मजे की गड़बड़ हुई थी चुनाव में। वाजपेयी ने एक पीस सुब्रत राय के बारे में भी लिखा था। बहुत कुछ जानते थे वो सुब्रत राय के बारे में, लेकिन लिखा नहीं। बोले-अगर तुम लोग लिखते तो मैं छाप देता, लेकिन जो जानकारी मुझे निजी संबंधों की वजह से है, उन्हें मैं कैसे सार्वजनिक कर सकता हूं। सुब्रत राय का साथ उनके लिए सबसे बड़ी मजबूती थी तो कमजोरी भी। वीएस वाजपेयी सुब्रत राय से बड़ा साम्राज्य खड़ा करने की चाहत रखते थे। मुझे याद है कि भारत और पाकिस्तान के बीच टोरंटो में एक वनडे सीरीज हो रही थी। प्रायोजक सहारा था। सभी खिलाड़ी सहारा की टीशर्ट पहने थे। वाजपेयी बोले-चिंता मत करो अगले साल टोरंटो में ही सीरीज होगी, लेकिन सभी प्लेयर लिंकर्स की टीशर्ट पहने होंगे।

उस दौर में हिंदी की सिर्फ दो पत्रिकाएं थीं इंडिया टुडे और माया। विचार मीमांसा माया का सर्कुलेशन पार कर गई। डेढ़ लाख कॉपियां छपती थीं और वापसी दस फीसदी से ज्यादा नहीं। हाल ये था कि जिसके खिलाफ छपता था, उस क्षेत्र में मैग्जीन ब्लैक में बिकती थी। ऐसे लोगों की चिट्ठियां आईं जिन्होंने एमएफ हुसैन वाला अंक 500 रुपये में खरीदा था। इसका अपना पाठक वर्ग था, जो दीवाना था। चिट्ठियों का हाल ये था कि हर महीने दो तीन बोरे भर जाते थे।

…हवा फाइनेंस कंपनियों के खिलाफ थी, वाजपेयी करोड़ों रुपयों को अरबों में तब्दील करने का नुस्खा तलाश रहे थे कि उन पर सत्ता की बिजली गिर गई। बिहार में नुकसान हुआ। कंपनी डूबने लगी। मैग्जीन बंद हो गई। वाजपेयी कहते थे जब तक मैं जिंदा हूं, विचार जिंदा है। मैग्जीन हर हाल में निकलेगी।

हम लोगों की उस दौर में जितनी तनख्वाह थी, वो प्रिंट मीडिया के पत्रकारों के लिए तब सपना थी। लेकिन तनख्वाह बंद हो गई। दुर्दिन आ गया था। नौकरियां बहुत थीं, लेकिन वाजपेयी जैसा संपादक कहां मिलता। ये भी था कि जाने वाला गद्दार कहलाएगा। जैसे कोई धर्मयुद्ध लड़ा जा रहा हो। फाकेमस्ती की हालत आ गई। 

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फाकेमस्ती के आलम में भी खूब कमाल हुआ। अप्रैल 1997 में दिल्ली ब्यूरो का चार्ज भी मेरे पास आ गया। मैं टीम के साथ दिल्ली था। तनख्वाह मिली नहीं थी। पैसे खत्म थे। याद आए भुवन चंद खंडूरी। जिन्होंने कई बार फोन करके सतपाल महाराज वाले अंक मुहैया कराने की गुजारिश की थी। गढ़वाल लोकसभा सीट से खंडूरी और सतपाल महाराज दोनों लड़ते थे। खंडूरी ने मैग्जीन की फोटो कॉपी भी खूब बंटवाई थी। अगले चुनाव की तैयारी में उन्हें और प्रतियां चाहिए थीं। दिल्ली ब्यूरो में उस अंक के वापसी की 300 कापियां पड़ी थीं। मैंने फोन किया तो वो मगन हो गए। फटाफट 4500 रुपये नगद भेजा ड्राइवर के साथ और मंगवा लीं सारी कापियां। मजा आ गया। खर्चा चला कुछ दिन। लालू वाले अंक की भी करीब 500 प्रतियां थीं। हम लोग पहुंच गए नीतीश कुमार के पास। नीतीश रेलमंत्री थे, जैसे ही जाना, मिलने आ गए। खूब आवभगत की। अपने पास से मैग्जीन औऱ उसकी फोटो स्टेट भी दिखाई। लेकिन हम लोगों का मिशन फेल हो गया था। मैग्जीन बिकी नहीं।

खंडूरी का हाल देखिए। उन्होंने हम लोगों के सामने कबूल किया कि सतपाल महराज के खिलाफ आपकी मैग्जीन ने ताकत दी, जीत में अहम योगदान था। राजनीति देखिए कोर्ट में उन्होंने लिख दिया कि विचार मीमांसा में उनका जो इंटरव्यू छपा है, उसमें तमाम मनगढ़ंत बातें हैं।  

वाजपेयी ने पैसे को हमेशा अपने बूट के नीचे रखा और जून 1997 में हालत ये थी कि अब खुद का खर्च चलाने के लाले पड़ गए थे। मैंने उनकी अय्याशी देखी है, फिजूलखर्ची देखी है। एक वाकया याद आता है- दफ्तर में अचानक खुफिया पुलिस के कुछ अधिकारी पहुंचे थे। वाजपेयी से मुलाकात हुई। बोले-आप पर आरोप है कि आपने केंद्रीय मंत्री सतपाल महराज से खबर का खंडन छापने के लिए 10 लाख रुपये मांगे हैं। वाजपेयी अपनी कुर्सी पर आराम से पसर गए। बोले-जनाब आप टेबल पर जो पेन देख रहे हैं उसकी कीमत है डेढ़ लाख रुपये। पचास हजार से नीचे की पेन से तो मैंने पिछले दस सालों में दस्तखत भी नहीं किए। चार चार लाख की भी पेन हैं और दर्जन भर हैं। ये हाथ की घड़ी जो आप देख रहे हैं उसकी कीमत है साढ़े छह लाख रुपये। ऐसी चार घड़ियां और हैं। अफसोस है कि सतपाल महराज ने मेरी औकात बहुत कम आंकी। उनसे कहिएगा कि दस लाख में मेरे किसी चपरासी को भी खरीद पाएं तो उन्हें भगवान मान लूंगा..। अफसर जैसे आए थे, चले गए।

एक वो दौर था, एक ये दौर आया। वाजपेयी पहले भी झूठ बोलते थे, लेकिन तब मौज के लिए झूठ बोलते थे। लेकिन अब वो झूठ की आखिरी स्टेज में थे। खुद से भी झूठ बोलने लगे थे। सब कुछ धीरे धीरे खत्म होने लगा था। जिस घर में सारी रात जलती थीं ट्यूब लाइटें, वहां शाम होते ही अंधेरा फैलने लगता था। वाजपेयी कुत्तों के बहुत शौकीन थे। डेढ़ लाख में विदेश से मंगवाया था ग्रेट डेन। मैंने इतना बड़ा कुत्ता कभी देखा नहीं था। एक जर्मन शेफर्ड भी था। दो छोटी नस्ल के कुत्ते थे। बाकी कुत्ते तो उनके कुछ यार दोस्त ले गए, लेकिन ग्रेट ड्रेन ने जाने से इनकार कर दिया। वाजपेयी की चौखट पर ही उसने दम तोड़ दिया।

पत्रिका तो कबकी बंद हो गई थी, कंपनी पर भी ताले लटक गए और एक बहादुर पत्रकार पहुंच गया जेल। आर्थिक घोटाले के सैकड़ों केस, सतपाल महाराज का केस, एमएफ हुसैन मामले का केस। जितनी जमीन जायदाद थी, सब पर सरकारी ताले पड़ गए। भोपाल में वाजपेयी जी की पत्नी आभा वाजपेयी का शानदार स्कूल बंद हो गया था। हम सब दूसरी जगह नौकरियों में व्यस्त हो गए।

विचार मीमांसा के एक पूर्व ब्यूरो चीफ एक सेठ को लेकर पहुंचे थे जेल में। बोले कि पैसे लेकर विचार का टाइटिल बेच दें। 15-20 लाख रुपये दिलवाने की भी बात थी। वाजपेयी ने डांटकर लौटा दिया, वही टशन-मेरे जीते जी ऐसा नहीं होगा, मैं जिंदा हूं, जेल से बाहर आउंगा तो निकलेगी विचार।

घर परिवार सब बिखर गया था। आभा वाजपेयी जी ने सहारा वेलफेयर में नौकरी शुरू की और बिखरी कड़ियों को संभाला। दुर्दिन में मुझे लखनऊ छोड़ना पड़ा। मेरठ पहुंचा। उन दिनों जागरण में काम कर रहा था। एक दिन अचानक वाजपेयी जी का फोन आया। जेल से ही बोल रहे थे। जेल में जलवा था। विचार के कई भक्त वहां थे। बात हुई, बोले-कुछ मुकदमों की और बात है, जल्दी ही जेल से बाहर आउंगा। विचार फिर से शुरू करनी है। वही ऊर्जा, वैसी ही गंभीर आवाज और वही जोश।

करीब छह साल बाद जेल से बाहर निकले थे वाजपेयी। उस शख्स का जोश देखिए जेल से निकलने के 15 दिनों बाद फिर बाजार में थी विचार मीमांसा। तेवर कहीं और कड़े..। हेडिंग वैसी ही तल्ख जैसे- लाशों पर मत नाचो मुलायम। दिलीप कुमार को भी उन्होंने लपेट दिया था। 

विचार मीमांसा दूसरी बार निकली जरूर, लेकिन तब से लेकर अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका था। मैग्जीन का दौर और खासकर उस तरह की मैग्जीन का दौर शायद खत्म हो गया था। पहले की तरह न तो नेटवर्क था और न ही पैसा। लिहाजा मार्केटिंग नहीं हो पाई। कुछ महीने मैग्जीन चली और फिर उसे बंद कर दिया वाजपेयी जी ने। अब वो नए प्रोजेक्ट में लगे थे। वो चाहते थे मध्य प्रदेश से विचार नाम का एक रीजनल चैनल लाना। विचार मीमांसा को वो पाक्षिक पत्रिका के रूप में छापना चाहते थे। वीएस वाजपेयी मुख्यधारा की पत्रकारिता में नहीं रहे, लेकिन उन्हें यकीन था कि वो जहां खड़े होंगे, मुख्यधारा वहीं से गुजरेगी। ये उनका अतिआत्मविश्वास था। उनके तमाम सपने थे, तमाम अरमान थे, सबको अधूरा छोड़कर चले गए। 26 सितंबर की रात हार्ट अटैक आया, किसी को खबर नहीं हुई, जब सवेरा हुआ तो सब कुछ खत्म हो गया था।

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1995 से 2008 तक के वाजपेयी के साथ और उनके आसपास बीते लम्हों को चंद शब्दों में समेटना आसान नहीं है। उनकी जिंदगी में बहादुरी, दुस्साहस, जोश, उमंग, तरंग, जितनी भी पॉजिटिव चीजें हैं, सब कुछ था उनमें। साथ ही उनकी जिंदगी के कुछ स्याह पक्ष भी थे। मैंने देर में जाना, लेकिन बहुत कुछ जानता हूं। अब वाजपेयी हमारे बीच नहीं हैं, उनकी जिंदगी के वो स्याह पन्ने न खोले जाएं तो ही बेहतर। मैं पूर्ण श्रद्धा से उन्हें नमन करता हूं। ईश्वर वीएस वाजपेयी की आत्मा को शांति दे। उनके परिवार को ये दुख उठाने की ताकत भी दे।


लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों न्यूज 24 में सीनियर प्रोड्यूसर हैं। उनसे [email protected] के जरिए संपर्क किया जा सकता है।

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