कहानी : दरवाजा बंद करने से पहले सूने कमरे को मुड़ के देखा तो लगा जैसे जिस्म छूटा जा रहा है। वहीं जहां रात भर रहा था।
‘रूहानितय की उम्र में जिस्मानियत सवार हो गई है,’ छूटते हुए कमरे को देखते हुए ख्याल आया।
‘आप रूहानी हैं…?’ सवाल था या ख्याल था, क्या था पता नहीं।
‘जिस्मानी हूं…., ‘ एकाएक जवाब दिया, जैसे जिस्म ने खुद ही बोल दिया हो।
‘दोनों में फर्क क्या है। दोनों जिस्म इतने करीब थे कि बीच में रूह बराबर जगह भी नहीं थी।’
‘जिस्म भी जिस्म से बात करता है,’ एक बहुत छोटे या बहुत लंबे अर्से या एक बहुत छोटे या बहुत लंबे लम्हे के बाद मैंने कहा था।
‘आपका तो मुकम्मल जिस्म बात करता है,’ तुमने कहा था।
‘और तुम। इक बोलता हुआ बदन, खुद इक जहां लिए हुए।’
‘हरी भरी रंगों में चहकता, बोलता लहू,
वो बोलता हुआ बदन खुद इक जहां लिए हुए।’
‘पूरा शेर याद है। हम भी तुम पर….’
‘हम पर,’ तुमने कहा था।
‘जब जिस्म बोलता है तो जिस्म सुनता है।’
‘आप तो बोलते भी हैं, सुनते भी हैं, लिखते भी हैं…।’
‘लिखता भी हूं?’ मैंने कहा। एक कंपन सी, एक हरकत सी हुई तुम्हारे जिस्म में- जैसे मेरी बात का जवाब दिया हो।
’रूमानी शायर जिस्म पर भी जिस्म से लिखता है,’ मैंने कहा।
‘आप जिस्मानी शायर हैं।’
ध्यान टूटा तो मैं अब भी दरवाजे पर खड़ा था। सामने पोर्टर इंतजार में खड़ा था कि मैं बाहर निकलूं तो वह दरवाजा बंद करके कमरे को खाली कर दे।
‘मेरा दीया जलाये कौन,
मैं तेरा खाली कमरा हूं।’
नासिर काजमी का शेर पढ़ते-पढ़ते मैं गलियारे, लॉबी और पोर्टिको पार करता हुआ गाड़ी में बैठा और दरबान का सलाम लेता हुआ निकल गया।
गाड़ी के दोनों तरफ शहर तेजी से दौड़ रहा था। कौन शहर को इमारतों, सड़कों और चौराहों के लिए याद रखता है? यह सब तो उम्र के किसी पड़ाव, रिश्ते की किसी मंजिल की याद थे।
इस शहर के रास्ते का मोड़ था या रिश्ते का झुकाव, चौराहा था या कशमकश, धुंआ था या धुंध… मेरे जहन में इस शहर का अपना ही जुगराफिया था। ठीक वह जगह जहां शुरू हुआ जिस्मानियत का दौर। वह जगह जहां तुम्हारा फोन आया था, गाड़ी ने अपना रुख बदला था और तुमने वह कहा था जो शायद तुमने पहली बार किसी से कहा और मैंने पहली बार किसी से सुना।
गाड़ी टी.वी. सेंटर के सामने से गुजर गई लेकिन नजर वहीं रह गई। यादों की सीढ़ियां चढ़ता हुआ मैं ऊपर चला गया। अपनी पसंदीदा एडिट टेबल पर जाकर तुम्हारे पीछे खड़ा हो गया। नजर उन तस्वीरों पर थीं जो सामने मॉनीटर पर नाच रही थीं और तुम्हारी झुकी-झुकी गर्दन पर भी। नजरें गड़तीं हैं तो चुभन सी होती है। इसलिए तुमने मुड़ कर देखा और एकाएक खड़ी हो गईं।
‘अरे, बैठिए आप।’
‘नहीं… आप काम कर रही हैं।’
‘हो गया। बैठिए… देखिए इसे…,’ तुमने मुझे जबर्दस्ती बैठा लिया।
मशीन को ठंडा रखने के लिए तेज एयरकंडीशनर चल रहा था लेकिन कुर्सी पर बैठते ही मैं सन्न रह गया। तुम्हारे जिस्म की लौ अब भी जल रही थी। धीमी-धीमी आंच सी सुलगती हुई कुर्सी पर मैंने पहली बार तुम्हारे जिस्म को महसूस किया।
मैं जाने के लिए मुड़ा तो तुम कुर्सी पर बैठ गई। एक सिलसिला शुरू हो गया जिस्म, जिस्म के बीच। मैं आता। तुम्हारी कुर्सी पर बैठता। मैं उठता। तुम बैठ जातीं।
’जिस्म की लौ पहली बार तभी महसूस की थी मैंने भी…’ तुमने बाद में बताया था।
बात बहुत पुरानी थी लेकिन जो बात दिल के करीब होती है वह कल की सी लगती है।
’लौ लगाने का मतलब अब समझ आया।’ मैंने कहा था।
कुछ अच्छा लगे तो लोगों का चेहरा खिलते देखा है मैंने। तुम्हारा जिस्म खिलता था।
‘तुम पूरे जिस्म से खुश होती हो।’
‘और आप पूरे जिस्म को खुश होते हुए देखते हैं?’
‘जिस्म जिस्म को देखता है’ मैंने कहा था।
‘जिस्म-जिस्म के लोग हैं।’
और यहीं से मुझे दो जिस्मों की (आत्म) कथा का शीर्षक मिल गया।
दोनों जिस्म एडिटिंग टेबल पर पास-पास थे। बहुत जोर का नाच चल रहा था मॉनीटर पर। मैं घुमा-घुमा के स्लोमोशन में कई बार देख चुका था। एकाएक जबान खुल गई।
‘लोग अपने जिस्म से कितना कुछ करते हैं…।’
‘यानि…?’ तुमने पूछा।
‘यानि हम लोग अपना-अपना जिस्म लिए ऑफिस चले जाते हैं… और उसी जिस्म को लिए-लिए चले जाते हैं…।’
‘तो…?’
‘तो जिस्म यूं ही आता है और चला जाता है…।’
‘तो क्या करता?’ तुमने पूछा।
‘तुम रोज आती हो…’ क्या करती हो…? उंगलियों से टाइप करती हो, एडिटिंग करती हो, मुझ से हाथ भी मिला लेती हो, कभी आंख भी। कुल मिलाकर हाथ और आंख… बस इनसे गुजर बसर हो जाती है। बाकी का जिस्म तो बिना वजह ही आया ना!’
‘तो बाकी के जिस्म को कल से घर रख कर आएंगे,’ तुमने कहा।
‘मतलब कि इस प्रोफेशनल ट्रूप को देखो…, ’ मैंने मॉनीटर की तरफ इशारा किया, ‘पूरे जिस्म से बात कर रहे हैं… कपड़ों के ऊपर से जो भी हिस्सा दिख रहा है वह कुछ न कुछ कह रहा है…।’
‘हर अंग कुछ कहता है!’
तुम्हारे इस एक जुमले में इतना वजन था कि मैं इसमें कुछ जोड़ नहीं सका। पूरे जिस्म से तुम्हें गले लगाया और फिर अपने पूरे जिस्म को लेकर भागता हुआ बाहर चला गया।
ये जिस्मों की शुरुआती मुलाकातें थीं।
गाड़ी टी.वी. सेंटर को पीछे छोड़ चुकी थी। वह चौराहा आ गया जहां तुम्हारी नजरें गाड़ी के सामने आ गईं थीं।
कड़ाके की सर्दी के दिन थे। गाड़ी चौराहे के पास पहुंची थी तो जैसे तुम्हारी नजरों ने रोक लिया। तुम अपनी बस के इन्तजार में थीं।
मैंने इशारे में कहा, ‘तुम्हें छोड़ दूं?’ तुमने भी वैसे ही कहा, ‘नहीं।’
गाड़ी आगे बढ़ गई लेकिन मैंने मोबाइल मिला लिया।
‘ये जिस्म तन्हा-तन्हा क्यों खड़ा है?’
‘चौराहे पर बड़ी तन्हाई होती है,’ तुमने कहा था।
‘किसी एक रास्ते के लिए सवार हो जातीं तो ये तन्हाई न होती।’
‘चांद तन्हा है, जिस्म तन्हा है।’
‘तन्हाई चांद की मजबूरी है, जिस्म की नहीं।’
धुंधली, कुहासी सर्दी की रात थी। गाड़ी रास्ता ढूंढती घर की तरफ जा रही थी लेकिन लग रहा था कि किसी नामालूम जगह जा रही है।
‘वैसे आज जिस्म दिखाई नहीं दिया!’ मैंने कहा।
‘खोया-खोया था।’ तुमने कहा।
ऐसे ही बातें होती रहीं। तुम्हारे शब्दों में हम ‘जिस्म-जिस्म’ खेलते रहे। बहुत देर हो गई तो तुमने एकाएक पूछा, ‘अभी घर नहीं पहुंचे?’
‘मैं तो कब का पहुंच गया।’
‘तो जाओ कपड़े बदलो, हाथ मुंह धोओ,’ तुमने कहा ‘फिर बात करेंगे।’
‘कर चुका,’ मैंने कहा।
‘क्या!’
‘कपड़े बदल चुका, हाथ मुंह धो चुका।’
‘मतलब…?’
‘जी हां यानि सही समझा आपने…।’
‘फोन लिए-लिए कपड़े बदल लिए…?’
‘हां… मैं तो ऐसे ही करता हूं।’
‘जो आप सोच रही हैं, मैं बता दूं?’
‘बताएं?’
‘आप का शक सही है… एक लम्हा ऐसा भी था जब मेरे जिस्म पर सिर्फ मोबाइल था…। मोबाइल के इस तरफ मैं था… उस तरफ आप।’
‘जिस्म पर सिर्फ मोबाइल था,’ तुमने मेरी बात को धीरे-धीरे दोहराया जैसे बात धीरे-धीरे समझ में आती जा रही हो।
गाड़ी शहर के जुगराफिए को नापती हुई बढ़ती जा रही थी।
टी.वी. सेंटर और चौराहा पीछे छूट चुका था। जैसे बहुत सारे बरस। जिस्म भी तो जिस्म से छूट गया था…।
‘मेरा डूबता हुआ जिस्म है?’ तुमने तुनक कर कहा था।
‘मेरा तो ऊबता हुआ जिस्म है।’ बहुत झगड़ा हुआ था।
यह न मन भेद था, न मतभेद। इसे तनभेद कह सकते हैं। लेकिन यह भेद भी कोई छोटा नहीं था। जिस्म भी जिस्म से रूठ जाया करते हैं, यह पहले न सोचा था, न हमारे जिस्मों के साथ यह पहले कभी हुआ था। लेकिन हुआ तो टूट कर हुआ और कुछ टूट-सा गया।
और इतने बरस बाद कल रात की मुलाकात।
‘कहां रहे इतने बरस?’ तुमने पूछा था।
‘अपना जिस्म लिए दुनियाभर में घूमते रहे,’ मैंन जवाब दिया।
‘जिस्म दुनिया घूमता रहा, दुनिया जिस्म घूमती रही?’ तुमने पूछा।
‘चलिए मान लिया और तुम?’
‘हम तो अपना-सा जिस्म लिए घूम रहे थे।’
‘इतने दिन बाद भी हम खुले जिस्म से मिले…।’
‘खुला जिस्म भी खुले दिल-दिमाग की तरह होता है,’ मैंने कभी कहा था, ‘सबको नसीब नहीं होता।’
‘मतलब?’
‘देखो ना! ज्यादातर लोग दबे-दबे, घुटे-घुटे तरीके से मिलते हैं और वैसे ही चले जाते हैं!’
‘ऊपर-ऊपर से मिल के….’
‘हां! ऐसे नहीं मिलते कि…’
‘बिल्कुल मिल जाएं।’
‘घुल-मिल जाएं।’
‘लेकिन उससे होता क्या है?’
‘जिस्म-जिस्म को पढ़ लेता है।’
‘बहुत पढ़े-लिखे हैं आप।’
‘कहां…? नया-नया पढ़ना सीखा है।’
गाड़ी टी.वी. सेंटर और चौराहे को पार कर आगे निकल गई थी। लेकिन अभी मैं कल रात में ही था।
‘इतने वक्त के बाद…’ तुमने मुझे या शायद जिस्म ने जिस्म से कहा।
‘कितने वक्त के बाद?’
‘जिस्म की लकीरों से वक्त लिखा हुआ है।’
‘दोनों जिस्मों पर वक्त के दस्तखत हैं,’ मैंने कहा,
‘न सूरज के उगने, न सूरज के ढलने से…’
‘वक्त बदलता है जिस्मों के बदलने से।’
‘बहुत देह-वर्ष गुजर गए… जिस्म-जिस्म घूमते रहे।’
‘तो दुनिया घूम कर इस जिस्म के पास क्यूं आए?’
‘जिस्मों-जिस्मों होता आया,’ वक्त दस्तखत पर मेरे हाथ रुक गए, ‘अब यह जिस्म समझ में आया।’
‘आप वाकई जिस्मानी शायर हैं।’