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साहित्य

लोक कवि के जीवन में यादवों का योगदान

दयानंद पांडेय: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (5) :  कुछ दिन बाद चेयरमैन साहब ने बाबू साहब और लोक कवि के बीच बातचीत करवानी चाही पर दोनों ही एक दूसरे से बात करने को तैयार नहीं हुए। दोनों के बीच तनाव बना रहा। फिर भी घोषित तारीख़ पर जब लोक कवि सम्मान प्राप्त करने अपने गृह नगर जा रहे थे तो एक दिन पहले लोक कवि ने बाबू साहब को भी फोन कर विनयपूर्वक चलने के लिए कहा।

दयानंद पांडेय: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (5) :  कुछ दिन बाद चेयरमैन साहब ने बाबू साहब और लोक कवि के बीच बातचीत करवानी चाही पर दोनों ही एक दूसरे से बात करने को तैयार नहीं हुए। दोनों के बीच तनाव बना रहा। फिर भी घोषित तारीख़ पर जब लोक कवि सम्मान प्राप्त करने अपने गृह नगर जा रहे थे तो एक दिन पहले लोक कवि ने बाबू साहब को भी फोन कर विनयपूर्वक चलने के लिए कहा।

लेकिन बाबू साहब बावजूद सारी फजीहत के निशा को भूले नहीं थे। छूटते ही लोक कवि से उन्होंने कहा, ‘निशा मिलेगी वहां। साथ चलेगी?’

‘नहीं।’

तो बाबू साहब ने भी, ‘तो फिर सवाल ही नहीं उठता।’ कह कर फैसला सुना दिया, ‘निशा नहीं तो मैं भी नहीं, आप भी नहीं।’ वह और तल्ख़ हो कर बोले, ‘भाड़ में जाएं आप और आपका सम्मान!’ कह कर फोन रख दिया।

लोक कवि मायूस हो गए।

निशा भी कलाकारों की टीम के साथ लोक कवि के गृह जनपद जा रही थी। लेकिन बहुत सोचने समझने के बाद उन्होंने निशा को चलने से बिलकुल अंतिम क्षणों में मना कर दिया। निशा ने पूछा भी कि, ‘क्यों क्या बात है गुरु जी ?’

‘समझा करो।’ कह कर लोक कवि ने उसे टालने की कोशिश की। पर वह मानी नहीं अड़ी रही। बार-बार उसके पूछने पर लोक कवि उस पर बिगड़ गए, ‘अभी तो नहीं कह दिया है लेकिन कहीं सचमुच वहां वह भी आ गए तो ?’

‘कौन गुरु जी ?’

‘बाबू साहब और कौन ?’ लोक कवि बुदबुदाए, ‘का चाहती हो वहां भी वितंडा खड़ा हो। रंग में भंग हो जाए, सम्मान समारोह में।’ कह कर उन्होंने निशा को उसका पारिश्रमिक देते हुए कहा, ‘यह लो और घर चली जाओ।’

‘घर में लोग पूछेंगे तो क्या जवाब दूंगी कि कार्यक्रम में क्यों नहीं गई?’ वह मायूस होती हुई बोली।

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‘कह देना तबियत ख़राब हो गई।’ लोक कवि बोले, ‘दुई चार ठो दर्द, बुखार की गोली ख़रीद कर बैग में रख लेना।’ वह रुके और बोले, ‘अब तुरंत यहां से निकल जाओ।’

फिर लोक कवि मय दल बल के गृह जनपद को कूच कर गए।

मुख्यमंत्री ने लोक कवि को समारोहपूर्वक पांच लाख रुपए का चेक, स्मृति चिन्ह, शाल और स्मृति पत्र दे कर सम्मानित किया। महामहिम राज्यपाल की अध्यक्षता में। कोई तीन कैबिनेट मंत्री और पांच राज्यमंत्री भी समारोह में बड़ी मुश्तैदी से उपस्थित थे। कई बड़े अधिकारी भी। सम्मान पाते ही लोक कवि ने इधर उधर देखा और रो पड़े बरबस। फफक कर। हां, इस सम्मान के सूत्रधार बाबू साहब उपस्थित नहीं थे। लोगों ने समझा खुशी के आंसू हैं लेकिन लोक कवि की आंखें मंच पर, मंच के आसपास और भीड़ में बाबू साहब को बार-बार ढूंढ़ती रहीं। बाबू साहब हालांकि ‘नहीं’ कह चुके थे तो भी लोक कवि को बड़ी उम्मीद थी कि बाबू साहब उस समारोह में उनका हौसला बढ़ाने, बधाई देने आएंगे जरूर। और लोक कवि ऐसा कुछ बाजार के वशीभूत या दबाव में नहीं, दिल की गइराइयों से श्रद्धा में भर कर, भावुक हो कर सोच रहे थे। और उनकी हिरनी सी आकुल आंखें बेर-बेर बाबू साहब को हेर रहीं थीं। भीड़ में, भीड़ से बाहर। आगे-पीछे, दाएं-बाएं दसों दिशाओं में वह देखते और बाबू साहब को न पा कर बेकल हो जाते। बिलकुल असहाय हो जाते। बिलकुल वइसे ही जैसे भोलानाथ गहमरी के एक गीत के नायक का विरह लोक कवि के एक समकालीन गायक मुहम्मद ख़लील गाते थे, ‘मन में ढूंढलीं, जन में ढूंढलीं / ढूंढलीं बीच बजारे / हिया-हिया में पइठ के ढूंढलीं / ढूंढलीं बिरह के मारे / कवने सुगना पर मोहइलू आहि हो बालम चिरई।’ लोक कवि खुद भी इस गाने की आकुलता को सोख रहे थे, ‘छंद-छंद लय ताल से पूछलीं / पूछलीं स्वर के मन से / किरन-किरन से जाके पूछलीं / पूछलीं नील गगन से / धरती और पाताल से पूछलीं / पूछलीं मस्त पवन से / कवने अतरे में समइलू आहि हो बालम चिरई।’ वह कुछ बुदबुदा भी रहे थे मन ही मन अस्फुट सा। बहुत से लोगों ने समझा कि लोक कवि यह सम्मान पा कर विह्वल हो गए हैं। पर उनके संगी साथी उनके मर्म को कुछ-कुछ समझ रहे थे। समझ रहे थे सम्मान समारोह में उपस्थित चेयरमैन साहब भी लोक कवि की आंखों में समाई खोज, खीझ और सुलगन को। लोक कवि की आंखें बाबू साहब को खोज रही हैं, इस आकुलता को चेयरमैन साहब ठीक-ठीक बांच रहे थे। बांच रहे थे और आंखों ही आंखों में सांत्वना भी दे रहे थे कि, ‘घबराओ नहीं, मैं हूं न!’ चेयरमैन साहब जो मंच के नीचे आगे की कुर्सियों पर बैठे हुए थे और बगल की दूसरी कुर्सी को ख़ाली रखे हुए थे यह सोच कर कि का पता बाबू सहबवा साला पहुंच ही आए लोक कवि के इस सम्मान समारोह में।

लेकिन बाबू साहब नहीं आए।

कि तभी संचालक ने लोक कवि को गाने के लिए आमंत्रित कर दिया। लोक कवि कुछ-कुछ बुझे, कुछ-कुछ खुशी मन से उठे और माइक पर पहुंचे। ढपली ली एक देवी गीत गाया और गाने लगे, ‘मेला बीच बलमा बिलाइल सजनी।’ इस गाने की नायिका के विषाद में ही वह अपना अवसाद धोने लगे।

कार्यक्रम के अंत में मुख्यमंत्री ने लोक कवि के जनपद की एक सड़क का नाम उनके नाम करने की घोषणा भी की तो लोगों ने तालियां बजा कर खुशी जताई। कार्यक्रम ख़त्म हुआ तो लोक कवि मंच से नीचे उतरे और वहां चेयरमैन साहब के पैर छुए। बोले, ‘आशीर्वाद दीजिए!’ चेयरमैन साहब ने लोक कवि को उठा कर बाहों में भर लिया। भावुक हो कर बोले, ‘घबराओ नहीं मैं हूं।’ उन्होंने जैसे दिलासा दिया, ‘सब ठीक हो जाएगा।’

कार्यक्रम से निकल कर उन्होंने कलाकारों को विदा किया और खुद तीन चार कारों का काफिला बना कर अपने पैतृक गांव पहुंचे। आज सरकार द्वारा प्रदत्त सरकारी लाल बत्ती वाली गाड़ी में वह गांव गए थे। साथ में चेयरमैन साहब भी अपनी एंबेसडर सहित थे। पर एंबेसडर छोड़ वह लोक कवि के साथ लोक कवि की लाल बत्ती वाली कार में बैठे। कार्यक्रम में वैसे भी उनके गांव के कई लोग, कई रिश्तेदार आदि हालांकि आए हुए थे तो भी वह गांव गए। गांव के डीह बाबा की पूजा अर्चना की। गांव के शिव मंदिर में भी वह गए। शिव जी को अक्षत, जल चढ़ाया। पूजा पाठ के बाद बड़े बुजुर्गों के पांव छुए और अपने घर बिरहा भवन जो उन्होंने काफी पैसा खर्च कर के बनवाया था, जा कर तख्त बिछा कर बैठ गए। चेयरमैन साहब के लिए अलग से कुर्सी लगवाई। संगी साथियों के लिए दूसरा तख्त लगवाया। वह लोग अभी जर-जलपान कर ही रहे थे कि धीरे-धीरे लोक कवि के घर पूरा गांव उमड़ पड़ा। बड़े-बूढ़े, बच्चे-जवान, औरतें सभी। लोक कवि के दोनों छोटे भाइयों की छाती फूल कर कुप्पा हो गई। तभी चेयरमैन साहब ने लोक कवि के एक भाई को बुलाया और दस हजार रुपए की एक गड्डी जेब से निकाल कर दी। कहा कि, ‘पूरे गांव में लड्डू बंटवा दो !’

‘एतना पइसा का ?’ लोक कवि के छोटे भाई मुंह बा कर बोले।

‘हां सब पइसे का।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘मेरी एंबेसडर वहां खड़ी है। ड्राइवर को बोलो मैंने कहा है। उसी से शहर चले जाओ और लड्डू ले कर फौरन आओ।’ फिर चेयरमैन साहब बुदबुदाए, ‘लगता है ई साला एतना पैसा एक बार में देखा नहीं है।’ फिर वह घबराए और अपने गनर से बोले, ‘जा तुम भी साथ चले जा, नहीं इससे कोई छीन झपट सकता है !’

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गांव के लोगों का आना-जाना बढ़ता ही जा रहा था। इस भीड़ में कुछ ऊंची जातियों के लोग भी थे। गांव के प्राइमरी स्कूल में स्पेशल छुट्टी हो गई तो स्कूल के बच्चे भी चिल्ल-पों हल्ला करते आ धमके। साथ में मास्टर साहब लोग भी। एक मास्टर साहब लोक कवि से बोले, ‘गांव का नाम तो आप के नाम के नाते पहले ही बड़ा था इस जवार में लेकिन आज आप ने गांव के नाम का मान भी बढ़ा दिया।’ कह कर मास्टर साहब गदगद हो गए। तभी कुछ नौजवान लड़कों ने काका-काका कह कर लोक कवि से गाना गाने की फरमाइश कर दी। लोक कवि लाचार हो गए। बोले, ‘जरूर गाता। इहां अपनी मातृभूमि पर नहीं गाऊंगा तो कहां गाऊंगा?’ उन्हों ने जोड़ा, ‘बकिर बिना बाजा गाजा के हम गा नहीं पाऊंगा। आप लोगों को भी मजा नहीं आएगा?’ वह हाथ जोड़ कर बोले, ‘फेर कब्बो गा दूंगा। आज के लिए माफी करिए।’

लोक कवि का यह जवाब सुन कर कुछ शोहदे बिदके। एक शोहदा भुनभुनाया, ‘नेताओं ख़ातिर गाते-गाते नेता बन गया है। नेतागिरी झार रहा है साला।’

अभी भीड़ में यह और ऐसी कई खुसुर-फुसुर चल ही रही थी कि एक बुजुर्ग सी लेकिन काफी स्वस्थ महिला एक हाथ में लोटा और एक हाथ में थाली लिए कुछ औरतों के साथ लोक कवि के पास पहुंचीं और जरा चुहुल करके गुहारा, ‘का ए बाबू!’

लोक कवि औरत को देखते ही ठठा कर हंस पड़े और उन्हीं के सुर में सुर मिला कर बिलकुल उसी लय में बोले, ‘हां, हो भौजी !’ कह कर लोक कवि लपक कर झुके और उन के पांव छू लिए।

‘जीयऽ! भगवान बनवले रहैं।’ कह कर भौजी ने थाली में रखी दही-अक्षत, हल्दी, दूब और रोली मिला कर लोक कवि का टीका किया। दही थोड़ा इस गाल, थोड़ा उस गाल लोक कवि के लगा के चुहुल की। लोक कवि के गाल में इस बहाने भौजी ने चुटकी भी काटी। और फिस्स से ऐसे हंसीं कि भौजी के गाल में भी गड्ढे पड़ गए। साथ की बाकी औरतें भी यह सब देख कर खिलखिला कर हंस पड़ीं। पल्लू मुंह में दबाए हुए। जवाब में लोक कवि कुछ चुहुल करते, ठिठोली फोड़ते कि इसके पहले ही भौजी ने परीछने का गाना, ‘मोहन बाबू के परीछबों….’ गाना शुरू कर दिया और लोढ़ा ले कर लोक कवि को परीछने लगीं। साथ आई बाकी औरतें भी गाती हुई बारी-बारी लोक कवि को बढ़-चढ़ कर परीछती रहीं बारी-बारी।

लोक कवि पहले भी दो बार परीछे गए थे। इसी गांव में। एक बार अपनी शादी में, दूसरी बार गौने में। तब वह ठीक से जवान भी नहीं हुए थे। बच्चे थे तब। आज जमाने बाद वह फिर परीछे जा रहे थे। अपनी मनपसंद भौजी के हाथों। अब जब वह बुढ़ापे के गांव में कदम रख चुके थे। तब बचपन के परीछने में उन के मन में एक उत्तेजना थी, एक कसक थी। पर आज के परीछने में एक स्वर्ग की सी अनुभूति थी, सम्मान और आन की अनुभूति थी। इतना गौरव, इतना सुख तो मुख्यमंत्री द्वारा दिए पांच लाख रुपए के सम्मान में भी उन्हें आज नहीं मिला था। जितना भौजी के इस परीछने में उन्हें मिल रहा था। लोक कवि सिर झुका कर मुसकुराते हुए बड़े विनीत भाव से परीछवा रहे थे। ऐसे गोया उनका राजतिलक हो रहा हो। वह लोक गायक नहीं लोक राजा हों। परीछने वाली औरतें जरा-जरा देर पर बदलती जा रही थीं और उन की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। अभी परीछन गीत के साथ परीछन चल ही रहा था कि नगाड़ा भी बजना शुरू हो गया। गांव की ही कुछ उत्साही औरतों ने गांव की चमरौटी में कुछ लड़कों को भेज कर यह नगाड़ा मंगवाया था। साथ ही लोक कवि को ‘देखने’ गांव की चमरौटी के लोग भी उमड़ आए।

लोक कवि गदगद थे। गदगद थे अपनी माटी में यह मान पा कर।

नगाड़ा बज रहा था और परीछन भी हो रहा था कि तभी एक बूढ़ी सी महिला खांसती भागती आ गईं। लोक कवि से थोड़ा दूर खड़ी हो उन्हें अपलक निहारने लगीं। लोक कवि ने भी जरा देर से सही उन्हें देखा और विभोर हो गए। बुदबुदाए, ‘का सखी !’

सखी लोक लाज के नाते मुंह से तो कुछ नहीं बोलीं, पर आंखों-आंखों में बहुत कुछ बोल गईं। कुछ क्षण दोनों एक दूसरे को अपलक निहारते रहे। कोई और बेला होती तो लोक कवि लपक कर सखी को बांहों में भर लेते। कस-कस के चूम लेते। लोक कवि ऐसा ही सोच रहे थे और सखी उन के मनोभावों को शायद समझ गईं। वह ठिठकीं और आंचल जो सिर पर था उसे और ठीक किया गौर से देख लिया कि कहीं फिसल तो नहीं रहा। सखी अभी इस उधेड़बुन में ही थीं कि क्या करें जरा देर और यहां रुकें कि चल दें यहां से। तभी कुछ होशियार औरतों ने सखी को देख लिया। देख लिया भौजी ने भी सखी को। सखी को देख कर थोड़ी नाक-भौं सभी ने सिकोड़ी लेकिन मौका दूसरा था सो बात आगे नहीं बढ़ाई। इसलिए भी कि ये काकी भौजी टाइप औरतें यह जानती थीं कि कुछ ऐसा वैसा करने कहने पर लोक कवि को दुख पहुंचेगा। और यह मौका लोक कवि को दुख पहुंचाने का नहीं था। एक औरत ने लपक कर सखी का हाथ थामा और उन्हें लोक कवि तक खींच कर लाई, बड़े मनुहार से। सखी के हाथ में लोढ़ा दिया बड़े प्यार से। और सखी ने भी लोक कवि को परीछा उसी उछाह से। सखी जब लोक कवि को परीछ रही थीं तो लोक कवि का एक बार तो मन हुआ कि छटक कर वह वहीं ‘रइ-रइ-रइ-रइ’ कर गाने लगें। लेकिन सामने सखी के साथ-साथ लोक भी था और उनकी आंखों में लाज भी। सो वह ऐसा सिर्फ सोच कर रह गए। सोख गए अपनी लोच मारती भावनाओं को।

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सखी की ख़ातिर !

सखी असल में लोक कवि की बाल सखी थीं। आम के बाग में ढेला मारकर टिकोरा, फिर कोइलासी खाते और खेलते हुए सखी के साथ लोक कवि का बचपन गुजरा था। फिर सखी के साथ गलियों में, पुआल में, अरहर के खेत और आम, महुआ के बाग में लुका छिपी खेलते हुए वह जवान हुए थे। गांव में तब लोक कवि और सखी को लोग गुपचुप-गुपचुप चर्चा का विषय बनाए हुए थे। तब सखी को लोग तंज में राधा और लोक कवि को मोहन कहते थे। लोक कवि का नाम तो मोहन ही था पर सखी का नाम राधा नहीं धाना था। लोक कवि भी धाना ही कहते थे पहले। पर बाद में जब बात ज्यादा बढ़ गई तो वह धाना को सखी कहने लगे। और लोग इन दोनों को राधा-मोहन कहने लगे। कई-कई बार दोनों ‘रंगे’ हाथ पकड़े गए, फजीहत हुए पर इनकी जवानी का करार नहीं टूटा। कि तभी मोहना पर नौटंकी, बिदेसिया की ‘नकल’ उतारने का भूत सवार हो गया। मोहना की राह बदलने लगी पर सखी को फिर भी वह साधे रहा। सखी भी थीं तो मोहना की तरह पिछड़ी जाति की लेकिन मोहना से उनकी जाति थोड़ी ऊंची थी। मोहना जाति का भर था तो सखी यादव। गांव में तब यह फर्क बहुत बड़ा फर्क था। लेकिन राधा मोहन की जोड़ी के आगे यह फर्क मिट सा जाता था। बावजूद इसके कि तब के दिनों राधा का घर काफी समृद्ध था और मोहन का घर समृद्धि से कोसों दूर। मोहना के अभी मूछ की रेख भी ठीक तरह नहीं फूटी थी कि तभी जो कहते हैं न कि हाय गजब कहीं तारा टूटा! वही हुआ। धाना का बियाह तय हो गया। बियाह तय होते ही ‘लगन’ लग गई धाना की। घर से बाहर-भीतर होना बंद हो गया। मोहना बहुत अकुलाया पर भेंट तो दूर, भर आंख देखना तो दूर, झलक भी पा पाना उसके लिए दूभर हो गया। उस बरस आम के बाग में सखी के साथ ढेला मार कर कोइलासी खाना मोहना को नसीब नहीं हुआ। तभी मोहना ने पहला ‘ओरिजनल’ गाना गया। गुपचुप। जो किसी बिदेसिया या नौटंकी की पैरोडी नहीं थी। हां, धुन कंहरवा जरूर थी। गली-गली में गाते गुनगुनाते फिरता यह गाना मोहनवा सुबह शाम भूल गया था। पर किसी से कुछ कह नहीं पाता था। मोहनवा गाता, ‘आव चलीं ददरी क मेला, आ हो धाना्!’ वह यह एक ही लाइन गाता, गुनगुनाता और टूट जाता। किसी पेड़ के पीछे बैठ कर जी भर के रोता। पर राधा की बारात आ कर चली गई मोहनवा की भेंट राधा से नहीं हुई। राधा दिखी भी तो लगन उतरने के बाद। पर बोली नहीं अपने मोहनवा से। मुंह फेर कर चली गई। पायल छमकाती छम-छम। मांग में ढेर सारा गम-गम, लाल-लाल सेनुर दिखाती। मोहन का जी धक् से रह गया। फिर भी वह, ‘आव चलीं ददरी क मेला, आ हो धाना!’ गाता, गुनगुनाता अकेले ही पहुंच गया बलिया में ददरी के मेला। घूमा-घामा, खाया-पिया और रात को तबके बहुत बड़े मशहूर भोजपुरी गायक जयश्री यादव का ‘पोरोगराम’ सुना। उनकी गायकी मोहन को बड़ी मीठी लगी। ख़ास कर, ‘तोहरे बर्फी ले मीठ मोर लबाही मितवा !’ गाने ने तो जैसे जान निकाल ली। ठीक ‘पोरोगराम’ के बाद मोहन जयश्री यादव से मिला। उनसे गाना सीखने, उनको गुरु बनाने की अपनी कामना रखी और उनके पैर छू कर आशीर्वाद मांगा। जयश्री यादव ने आशीर्वाद तो दिया पर गाना सिखाने और शिष्य बनाने से मोहन को साफ इंकार कर दिया। कहा भी कि, ‘अभी बहुत टूटे हुए हो तो बात गाना गाने की कह रहे हो, लेकिन यह सब तुम्हारे वश का नहीं है। अभी जवानी का जोश है जवानी उतरते ही हमको गरियाओगे। जाओ, हल जोतो, मजूरी धतूरी करो, भैंस चराओ।’ वह बोले, ‘काहें गाने में जिनगी ख़राब करना चाहते हो ?’

मोहन मायूस हो कर घर लौट आया। बहुत कोशिश की कि गाने बजाने से छुट्टी मिल जाए। पर भुला नहीं पाया। वह फिर गया जयश्री यादव के पास। फिर-फिर जाता रहा। बार-बार जाता रहा। पर जयश्री यादव ने हर बार उसका दिल तोड़ा।

फिर वह भूल गया जयश्री यादव को। लेकिन धाना ?

महीनों बीत गए मोहन ने फिर धाना का भी रुख़ नहीं किया। ध्यान भी नहीं आया धाना का मोहन को। उसके ध्यान में अब सिर्फ गाना और बजाना था। वह अकसर नए-नए गाने बनाता, गाता और लोगों को सुनाता। मोहन गाने के लिए अपने गांव में तो मशहूर हो ही गया था, गांव के आस-पास से होते हवाते पूरे जवार में जाना जाने लगा। मोहन की आवाज थी भी मिसरी सी मीठी और पगे गुड़ सी सोंधी खुशबू लिए। अब तक मोहन के हाथ में बजाने के लिए थाली या गगरे के बजाय एक चंग भी आ गई थी।

वह चंग बजाते-बजाते गाता और गाते-गाते गांव की कुप्रथाओं को ललकारता। ललकारता जमींदारों के अत्याचारों को उनके सामंती व्यवहार और गरीबों को बंधुवा बनाने की साजिश को। गा कर ललकारता, ‘अंगरेज भाग गए, तुम भी भाग जाओ। या फिर गरीबों को सताना बंद कर दो !’

इस फेर में मोहन की कई बार पिटाई हुई और बेइज्जती भी। सीधे गाने को ले कर नहीं किसी न किसी बहाने। मोहना यह जानता था फिर भी वह गाना नहीं छोड़ता। उलटे फिर एक नया गाना ले कर खड़ा हो जाता, किसी बाजार किसी कस्बे, किसी पेड़ के नीचे चंग बजाता, गाता हुआ।

इस बीच मोहना का भी बियाह तय हो गया। लगन लग गई। पर गवना तीसरे में तय हुआ। शादी के बहाने मोहना को औरतों के बीच धाना भी दिखी। धाना की शादी तो हो गई थी, पर गवना पांचवें में तय हुआ था। यानी शादी के पांच साल बाद। शादी के दो बरस तो बीत चुके थे। तीन बरस बाकी थे। इधर मोहना का भी गवना तीसरे में तय हुआ था। यानी तीन बरस बाद।

धाना गोरी चिट्टी तो पहले ही से थी, अब घर से कम निकलने के कारण और गोरी हो गई थी। रंग के साथ ही साथ रूप भी उसका निखर आया था। धानी चूनर पहने धाना की गठीली देह अब कंटीली भी हो चली थी। जब मोहना ने लंबे समय बाद उसे भर आंख देखा तो वह पहले तो सकुचाई फिर शरमाई और बरबस मुसकुरा पड़ी। मुसकुराने से उसके गालों में पड़े गड्ढों ने मोहना को जैसे आकंठ डुबो लिया। अवश मोहना उसे अपलक निहारता रहा।

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बारात जब विवाह के लिए गांव से विदा हुई तो मोहना को लोढ़ा ले कर परीछने वाली तमाम औरतों में धाना भी एक थी। परीछन के समय मोहन ने किसी बहाने धाना का हाथ छू लिया। छू लिया तो जैसे करंट लग गया दोनों को। और दोनों चिहुंक पड़े। एक बार इस वाकये का जिक्र लोक कवि ने चेयरमैन साहब से बड़ी संजीदगी से किया था तो चेयरमैन साहब चुहुल करते हुए बोले, ‘440 वोल्ट का करंट लगा था का?’ लेकिन लोक कवि इस 440 वोल्ट की तफसील तब समझ नहीं पाए थे और बाद में जब समझाने पर समझे भी तो चहक कर बोले, ‘एहू ले जादा!’

ख़ैर, मोहन बियाह करने तब ससुराल पहुंचा डोली में बैठ कर। नगाड़ा, तुरही बजवाते हुए। सिंदूर दान का समय जब आया तो पंडित जी के मंत्रोचार के साथ ही मोहना को सखी की साध लग गई। मांग वह पत्नी की भर रहा था पर याद वह सखी को कर रहा था। ध्यान में उसके धाना थी। उसे लगा जैसे वह धाना की ही मांग भर रहा था। परीछन के समय धाना के हाथ की छुअन, छुअन से लगा करंट मोहना के मन में तारी था।

मोहना के बियाह में धोबिया नाच का सट्टा हुआ था। जब नाच चल रहा था तभी मोहना का मन हुआ कि उठ कर वह भी खड़ा हो कर दू-तीन ठो बिरहा, कंहरवा गा दे। और कुछ न सही तो ‘आव चलीं ददरी क मेला, आ हो धाना!’ ही गा दे। पर यह मुमकिन नहीं हुआ। क्योंकि वह दुलहा था।

ख़ैर बियाह कर मोहना अपने गांव वापस आया। रस्में हुईं और कुछ दिनों बाद जब लगन उतर गई तो वह फिर गांव के ताल और बाग में गाता घूमा, ‘आव चलीं ददरी क मेला, आ हो धाना!’ पर धाना कहीं दिखी नहीं, सखी कहीं मिली नहीं। जिसको मोहना संगी बनाने को आतुर था। हालांकि उधर सखी भी अब बेकरार थीं। पर मोहना से मिलने की राह नहीं दिखती थी। फिर भी वह मोहना का ध्यान लगातीं और हमजोली सखियों, सहेलियों के बीच छमकती हुई झूम कर गातीं, ‘अब ना बचिहैं मोरा इमनवा हम गवनवा जइबों ना!’ वह जोड़तीं, ‘साया सरकै, चोली मसकै हिल्ले दूनो जोबनवा हम गवनवा जइबों ना।’ सखियां सहेलियां भी तब धाना से ठिठोली फोड़तीं, ‘काहें मकलात बाटू, बऊरा जिन, दिन धरा ल। आ नहीं त अलबेला मोहनवा से जीव लगा ल वोहू क गवना अबहिन नाईं भइल बा। त कई देई तोहार गवनवा, बकिर ‘इमनवा’ ले के!’ तो कोई सहेली ताना मारती पूछती, ‘कइसे जइबू गवनवा हे धाना!’ और तबका एक मशहूर गाना ठेका ले कर गाती, ‘ससुरे में पियवा बा नादान रे माई नइहर में सुनलीं !’

‘धत्!’ कह कर सकुचाती धाना बातचीत से भाग खड़ी होती। लेकिन सखी सोचती थीं सचमुच मोहनवा के ही बारे में। सपने में भी वह मोहनवा के साथ ही होतीं। कभी चकइ क चकवा खेलती हुई तो कभी बाग में ढेला मार कर कोइलासी खाती हुई। सपने में ही वह अपना गवना भी देखतीं पर डोली में अपने मरद के साथ नहीं मोहनवा के साथ बैठी होतीं। पर सब कुछ सपने में ही। अपने मरद की तो शकल भी धाना को मालूम नहीं थी। बियाह में नाउन हाथ भर का घूंघट भर, चद्दर ओढ़ा कर एतना कस कर पकड़े बइठी थी कि आंख उठा कर कनखियों से देखना तो दूर धाना आंख उठा भी नहीं पाई थी। सारा बियाह आंख बंद किए-किए ही संपन्न हो गया। सेनुर के समय तो देह थरथर कांप रही थी धाना की और आंखें बंद। बस सहेलियों के मार्फत ही जाना कि छाती चौड़ी है, सांवला है और कि पहलवानी देह है बस!

तो सपने वाले गवने में डोली में अपने मरद की छवि धाना देखती भी तो कैसे भला?

हालांकि, वह अपने मरद से बिना देखे ही सही प्यार भी बहुत करती थी। उसके नाम का सेनुर मांग में भरती थी। तीज का व्रत करती थी। अपने मरद से प्यार करने की उसकी कोई थाह नहीं थी। एक बार तो गांव में ही पट्टीदारी के एक घर से एकदम नया स्वेटर चुरा कर उसने कई दिन छुपाए रखा और फिर गांव के ही एक नादान किसिम के लड़के के हाथ अपने उस बिन देखे मरद के पास पठाने की कोशिश की। चुपके-चुपके। कि किसी को पता न चले। लेकिन वह स्वेटर ले जाने वाला लड़का इतना नादान निकला कि बात गांव से उसके निकलने से पहले ही खुल गई कि धाना अपने मरद को कुछ पठा रही है।

क्या पठा रही है ?

यह चर्चा गांव में चिंगारी तरह फैली और शोला बन गई। अंततः हाथ से सिल कर सीलबंद की हुई झोली खोली गई तो उल्टी सीधी इबारत वाली एक चिट्ठी निकली जिसमें सिर्फ ‘परान नाथ परनाम धाना’ लिखा था और वह स्वेटर निकला। लोगों की आंखें फैल गईं। और फिर यह बात फैलते भी देर नहीं लगी कि धाना तो चोट्टिन निकली। धाना पढ़ी लिखी तो थी नहीं। तो यह चिट्ठी किस ने लिखी एक सवाल यह भी निकला। और पता चला कि दर्जा चार में पढ़ने वाले एक लड़के से धाना ने लिखवाया था।

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बड़े बुजुर्गों ने ‘बच्ची है!’ कह कर बात को टाला भी फिर भी बेइज्जती बहुत हुई धाना की।

बेइज्जती धाना की हुई और आहत मोहन हुआ। दो बातों से। एक तो यह कि धाना के कोमल मन को किसी ने नहीं समझा, उसके मर्म और प्रीति की पुकार को नहीं समझा। उलटे उसको चोट्टिन घोषित कर दिया। दूसरे, यह कि अगर धाना को अपने मरद ख़ातिर यह स्वेटर भेजवाना ही था तो उस बकलोल लवंडे से भिजवाने की का जरूरत थी। कोई ‘हुसियार’ आदमी को भेजती। हमको कहती। हम जा के दे आते उसके मरद को स्वेटर। किसी को पता भी नहीं चलता और ‘परेम सनेस’ पहुंच भी जाता।

लेकिन अब तो सारा कुछ बिगड़ चुका था। उधर धाना बेइज्जत थी, इधर मोहन आहत। गांव में, जवार में घटी हर बात पर गाना बना देने वाले मोहना से कुछ उजड्ढ टाइप के लोगों ने इस धाना के स्वेटर चोरी वाली घटना पर भी गाना बनाने का बार-बार आग्रह कर तंज कसा। इस बात का भी मोहना को बहुत बुरा लगा और बार-बार। हर बार वह अपने मन को चुप लगा जाता। अपने आक्रोश को लगाम लगा लेता धाना के आन ख़ातिर। नहीं बेबात बात का बतंगड़ बन जाता और धाना का नाम उछलता कि मोहनवा धनवा के लिए लड़ गया। बेइज्जती बहुत होती। सो मोहनवा ख़ामोश ही रहता ऐसे तंजबाजों की बातों पर।

वो कहते हैं न कि रात गई, बात गई। तो धीरे-धीरे यह बात भी बिसर गई। एक मौसम बीत कर दूसरा, दूसरा बीत कर तीसरा मौसम आ गया।

हां, वह सावन का ही महीना था !

धाना सखी सहेलियों के साथ आम के बगीचे में झूले पर थी और गा रही थी, ‘कइसे खेले जइबू सावन में कजरिया, बदरवा घेरि आइल ननदी !’ जिस पेड़ पर धाना का झूला पड़ा था उस पेड़ से तीन चार पेड़ छोड़ कर एक पेड़ की डाल पर पत्तों की आड़ में बइठा मोहनवा धाना को टुकुर-टुकुर देख रहा था। न सिर्फ देख रहा था धाना को रह-रह कर इशारे भी करता जा रहा था। पर धाना बेख़बर ‘ननदी’ के गाने में मस्त थी। होंठ और पैर दोनों गुलाबी रंग से रंगे हुई थी। आंचल छाती से हटा हुआ था तो मोहनवा की आंख वहीं अटकी क्या टिकी पड़ी थी। बड़ी देर तक इशारेबाजी के बाद भी धाना की नजर जब मोहनवा पर नहीं पड़ी तो मोहनवा ने अंततः एक छोटा सा ढेला धाना के टिकोरा से आम हो चले स्तनों पर साध के ऐसे मारा कि झूला जब ऊपर से नीचे की ओर चले तब उसे लगे। लेकिन ढेला मारा ठीक वइसे ही जइसे वह कभी आम के पेड़ पर ढेला मार कर धाना को कोइलासी खिलाता था। फर्क सिर्फ इतना था कि तब वह ढेला नीचे से ऊपर मारता था आज ऊपर से नीचे मारा। निशाना अचूक था। मिट्टी का छोटा से ढेला धाना के कठोर और बड़े हो चले स्तनों के बीच जा कर ही तब फंसा जब वह पेंग मारती हुई झूले के साथ ऊपर से नीचे आ रही थी। निशाना की स्टाइल जानी पहचानी थी सो चिहुंक कर उसने ऊपर देखा और आंखें मूंद ली। ऐसे गोया कि कोई और न जाने कि मोहनवा दूसरे पेड़ की डाली पर बैठा है। फिर जब झूला नीचे से ऊपर जाने लगा तब उसने न सिर्फ मोहनवा को भर आंख देखा बल्कि कसके आंख भी मारी। थोड़ी देर तक इसी तरह दोनों के बीच झूला चलता रहा और आंखें झूला झूलती रहीं।

कि तभी बादर घेरे हुए तो थे ही, झम-झम बरसने भी लगे।

सावन के बादर !

झूला छोड़ कर सभी औरतें भागीं। पर धाना नहीं भागी। पैर में जल्दबाजी में चोट लगने के बहाने वहीं पास के पेड़ के नीचे भींगती भागती पैर दबाती मोहन को देखती रही। पेड़ गीला हो गया था। भीगे पेड़ से उतरने में ख़तरा था। पर यह ख़तरा उठाया मोहन ने धाना की ख़ातिर। उसे पाने की ख़ातिर। सभी औरतें भाग कर आधा फर्लांग दूर एक झोपड़ी में शरण ले कर बैठ गईं। लेकिन धाना मोहन की शरण ले कर एक पेड़ के नीचे भींगती रही। भींगती रही भीतर बाहर। एक बारिश बाहर हो रही थी एक बारिश धाना के भीतर। बरस रहा था मोहन धाना के भीतर। मोहन धाना के गालों को चूम रहा था। और उसके होठों पर लगा गुलाबी रंग अपनी जीभ से चख रहा था। धाना के कठोर हो चले वक्षों को जब मोहन ने छुआ तो जैसे उसकी देह में फिर भारी करंट दौड़ पड़ा और निर्वस्त्र धाना बेसुध हो निःशब्द हो गई। आंखें बंद कर वह एक जीवित सपने में कैद हो परम सुख के क्षणों में बहने लगी। और जब मोहन उसे लगभग निर्वस्त्र कर उसके ऊपर झुक आया तो उसने ख़ूब कस कर अपने से चिपका लिया। झूले का पीढ़ा जैसे उनका बिछौना बना था। और कवच भी कीचड़ से बचने का। बाग की हरी घास भी दोनों के साथ थी। फिर भी जो थोड़ा बहुत कीचड़ छू भी रहा था दोनों की देह को, वह बरखा की बौछारें धोए दे रही थीं। संजोए दे रही थी, धाना और मोहन के प्यार के पसीने को अपना पानी दे कर। क्षण भर भी नहीं लगा मोहन को धाना की देह बंध लांघने में और वह देह के प्राकृतिक खेल को भरी बरखा में खेलने लगा। मोहन के पुरुष ने ज्यों ही धाना की स्त्री का दरवाजा खटखटा कर प्रवेश किया धाना सिहर गई। चिहुंक कर चीखी, और मोहन निढाल हो गया। सावन का एक और बादर बरस गया था धाना में। बरसा गया था मोहन।

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क्षण भर में ही।

दोनों मदमस्त पड़े रहे। एक दूसरे को भींचते हुए। भींगते रहे सावन की तेज बौछारों में। बौछारें जब फुहारों में बदलने लगीं तो मोहन का पुरुष फिर जागा। धाना की स्त्री भी सोई हुई नहीं थी। एक देह की बारिश दूसरी देह में और घनी हो गईं। और जब मोहन धाना के भीतर फिर बरसा तो धाना उसे दुलारने सी लगी। तभी सावन की फुहारें और धीमी हो गईं साथ ही पास की मड़ई से हंसती खिलखिलाती आती औरतों की आवाजश् भी हलकी-हलकी आने लगी। अचानक धाना छिटक कर मोहन से दूर हुई। पेड़ की आड़ में खिसक कर जल्दी से पेटीकोट पहना, ब्लाउज पहनते हुए बोली, ‘अब तू भाग मोहन जल्दी से !’

‘काहें ?’ मोहन मदहोशी में बोला।

‘सब आवति हईं।’ वह बोली, ‘जल्दी से भाग।’ कह कर वह जल्दी-जल्दी साड़ी बांध कर पैर पकड़ पेड़ से सट कर बैठ गई। ऐसे जैसे पांव का चोट अभी ठीक नहीं हुआ हो !’ तभी उसे मोहन फिर से चूमने लगा। तो वह थोड़ा गुस्साई, ‘मरवा के मनबऽ का मोहन।’

मोहन धीरे से वहां से भागा। बाग के दूसरी ओर। छप-छप, छप-छप।

औरतें आईं और तर-बतर धाना को संभालने में लग गईं। ज्श्यादातर नादान टाइप सखियां तो ओफ्फ उफ्फ कर धाना के साथ, ‘जादा घाव लाग गइल का !’ की सहानुभूति में पड़ गईं पर अनुभवी आंखों वाली सखियां तड़ गईं कि आज इस बाग में सावन के बादरों के अलावा भी कोई बादर बरसा है। यों ही नहीं रुक गई थीं धाना सखी।

‘का हो धाना सखी, आज त तू नीक से भीजि गइलू हो।’ कहती हुई एक औरत जिसका कि गौना हो चुका था, बोली, ‘इमनवा बचल कि ना !’ वह बोली, ‘तोहार अंखिया त कहति बा कि ना बचल।’

‘का जहर भाखत बाटू !’ धाना ने प्रतिवाद किया।

‘माना चाहे नइखै गवनवा त हो गइल एह बरखा में।’ वह औरत प्यार भरा तंज कसती हुई बोली, ‘जाने इमनवा बचल कि ना !’

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‘अरे, सीधे पूछ कि जोरनवा पड़ल कि ना ?’ एक तीसरी सखी पड़ताल करती हुई बोली, ‘हई घसिया बतावति बा !’ वह आंखें घुमाती हुई होंठ गोल करती हुई बोली, ‘हई होठवा का उड़ल लाली बतावति बा, हई साड़ी क किनारी बतावति बा।’

‘का बतावति बा ?’ धाना बिफरती हुई बोली।

‘कि घाव बड़ा गहिरा लागल बा हो धाना बहिनी !’ एक और हुसियार सखी बोली।

बारिश ख़त्म हो गई थी पर धाना की सहेलियों की बात ख़त्म नहीं हो रही थी। आजिज आ कर धाना एक सहेली का सहारा ले कर उठ खड़ी हुई। उसका कंधा पकड़ा और घर चलने के लिए आंखों ही आंखों में इशारा किया। वह चलने लगी तभी झूले का पीढ़ा उठाती एक सखी बोली, ‘ई पीढ़ा तो झलुवा से उतरल बा हो।’

‘के उतारल ?’ एक दूसरी सखी ने रस ले कर पूछा।

‘हई पायल जो उतरले होई।’ वह पीढ़े के पास गिरे धाना के पायल को दिखाते हुए बोली।

‘लावा पायल !’ सकुचाती, गुस्साती धाना बोली, ‘इहां जान जात बा और तूहन के मजाक सूझत बा।’

‘राम-राम !’ वह सखी बोली, ‘इ तोहरै पायल है का ?’ उसने फिर चुहुल की, ‘केहु से कहब ना, के उतारल बता द !’

‘हई दई उतरलैं !’ धाना ने बादरों की ओर इशारा करते हुए जान छुड़ाने की कोशिश की।

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‘का हो दई, इहै कुल करबऽ !’ ऊपर बादर की ओर देखती और ठुमकती हुई वह सहेली जैसे बादल से बोली, ‘लाज नइखै आवत, धाना क पायल उतारत !’

फिर तो घर के रास्ते भर किसिम-किसिम की चुहुल होती रही। घर के पास पहुंचते ही एक सहेली बोली, ‘हई ल धाना क पायल का दई निकरलैं, इनकर चाल भी बदलि गईल !’

‘काहे न बदलै भला। ‘घाव’ जवन लागल बा।’ वह सहेली बोली, ‘जान करेज्जा में लागल बा जे गोड़े में। बकिर लागल त बा !’

धाना को उसके घर छोड़ती हुई धाना की मां से भी सहेलियों ने कहा कि, ‘घाव बड़ा गहिर लागल बा, जे हरदी दूध ढेर पियइह ए काकी !’

जो भी हो इस पूरी स्थिति, ताने उलाहने और दिक्कतों का ब्यौरा धाना ने मोहन को अगली मुलाकात में खुसुर-फुसुर कर के ही सही पूरा-पूरा दिया। जिसका बाद में लोक कवि ने अपने एक डबल मीनिंग गाने में बड़ी बेकली से इस्तेमाल भी किया कि, ‘अंखिया बता रही है लूटी कहीं गई है।’ फिर आगे दूसरे अंतरे में वह आते, ‘लाली बता रही है चूसी कहीं गई है’ और फिर गाते, ‘साड़ी बता रही है खींची कहीं गई है।’

बहरहाल बिना घाव के ही सही हल्दी दूध पीते समय धाना ने अपने पैरों की अंगुली यूं ही देखी तो धक् रह गई। उसने देखा कि पैरों की अंगुली से बिछिया भी गायब थी! उसने दबी जबान माई को यह बात बताई भी। तो माई ने कोई ऐतराज नहीं जताया। माई बोलीं, ‘कवनो बात नाई बछिया, तोहार जान परान और गोड़ बचि गइल का कम बा ? बिछिया फेर आ जाई !’

पैर में चोट का बहाना फिर भी भारी पड़ा। इस बहाने कुछ दिन धाना घर से बाहर नहीं निकल पाई। तब जब कि उसका अंग-अंग महुआ सा महक रहा था। उसका मन होता कि वह चोटी खोल बालों को छोड़ कर नंगे पाव कोसों दूर दौड़ जाए। दौड़ जाए मोहना के साथ। भाग जाए मोहना के साथ। फिर लौट के घर न आए। बस वह दौड़ती रहे। वह और मोहना दौड़ते रहें एक दूसरे को थामे, एक दूसरे से चिपटे हुए। कोई देखे नहीं, कोई जाने नहीं।

पर यह सब तो सिर्फ सोचने और सपने की बात थी।

सच में तो वह मोहना से मिलने के लिए अकुलाती रही। अफनाती रही। गुनगुनाती और गाती रही, ‘हे गंगा मइया तोहें पियरी चढ़इबों, मोहना से कइ द मिलनवा हो राम !’ सखियां सहेलियां समझतीं कि ‘सैंया से कइ द मिलनवा हो राम’ गा रही है धाना। स्वेटर वाले सइयां के लिए। पर धाना तो गाती थी ‘मोहना से कइ द मिलनवा हो राम।’ लेकिन ‘मोहना’ इतनी होशियारी से वह फिट करती थी कि कोई बूझ नहीं पाता। सिर्फ वही बूझती। और वह देखती कि मौका बे मौका मोहना भी कोई गाना टेरता उसके घर के आस पास से जल्दी-जल्दी गुजर जाता। कनखियों से इधर-उधर झांकता, देखता। पर वह करती भी तो क्या ? उसके पैर में ‘घाव’ न था !

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‘जल्दी’ ही ठीक हो गया उसका ‘घाव’ और वह कुलांचे मारती हुई घर से निकलने लगी। ऐसे जैसे किसी गाय का बछड़ा हो। पर मोहना को देख कर भी नहीं देखती। अनजान बन जाती। मोहना परेशान हो जाता। धाना भी। और फिर रात में वह मिलती मोहना से चुपके-चुपके। लेकिन सपने में। सचमुच में नहीं। बाग-बारिश, झूला-मोहना और वह। पांचों एक साथ होते। सपने में बरसते हुए! भींजते, चिपटते और सिहर-सिहर कर एक दूसरे को हेरते हुए। एक दूसरे को जीते हुए। पर सब कुछ होता सपने में ही।

सच में नहीं।

सपना मोहना भी देखता था। धाना का सपना। बाग-बारिश और झूले का नहीं। सिर्फ धाना का। और बह जाता सपने के किसी छोर पर जांघिया ख़राब करता हुआ।

जल्दी ही ख़त्म हुआ दोनों के सपने का सफ़र !

सच में मिले।

भरी दुपहरिया में धाना की भैंसों की घारी में। भैंसें बाहर चरने गईं थीं। और धाना मोहन घारी में। मक्खी, मच्छर और गोबर के बीच एक दूसरे को चरते हुए। जल्दी ही दोनों छूट गए। कैद से। तय हुआ कि अब आगे से दिन में नहीं रात में ही कभी घारी, कभी खलिहान, कभी बाग, कभी खेत या जहां भी कहीं मौका हाथ लगेगा मिलते रहेंगे। यहां-वहां। पर चुपके-चुपके। धाना जल्दी में थी। घारी से सबसे पहले भागी फिर मौका देख कर मोहना भी इधर-उधर ताकता हुआ धीरे से निकला।

फिर मौके बेमौके कभी अरहर के खेत में, कभी गन्ना के खेत में, कभी बाग तो कभी घारी, बारी-बारी जगह बदलते मिलते रहे धाना मोहन। बहुत बचा कर भी होने वाली यह मुलाकात पीपल के पत्तों की तरह सरसराने लगी। लोगों की जबान पर आने लगी। मोहन-धाना या धाना-मोहन के तौर पर नहीं राधा मोहना के तौर पर। धाना जैसे मोहन के लिए सखी थी वैसे ही चर्चाकारों, टीकाकारों के लिए राधा बन चुकी थी। कृष्ण वाली राधा ! तो नाम चला क्या दौड़ पड़ा। राधा-मोहना।

पर राधा मोहना तो बेख़बर थे। बेख़बर थे अपने आप से, अपने ख़बर बन जाने की ख़बर से।

एक रात बड़ी देर तक दोनों एक दूसरे से चिपटे रहे। उस रात मोहना कम धाना ज्यादा ‘आक्रामक’ थी। मोहना जब-जब चलने की बात कहता तब-तब धाना कहती, ‘नाहीं, अबै नाहीं।’ वह जोड़ती, ‘तनिक अवर रूकि के।’ मोहन करता भी क्या धाना उसके ऊपर ही लेटी पड़ी थी। अपने कठोर-कठोर बड़े होते जा रहे स्तनों से उसे कुचलती हुई। और मोहन नीचे से उसके नितंबों को रह-रह कर हाथों से थपकियाता कहता, ‘अब चलीं न!’ और वह कहती, ‘नाहीं, अबै नाहीं।’ उस रात धीरे-धीरे ही सही राधा ने मोहन से कहा कि, ‘बड़ा गवैया बनल घूमै ल, आजु हम गाइब!’ और गाया भी धाना ने खूब गमक के, ‘ना चली तोर न मोर / पिया होखे द भोर / मारल जइहैं चकोर / आज पिया होखे द भोर।’ और सचमुच उस रात भोर होने पर ही छोड़ा धाना ने मोहन को। तब तक मोहन धाना के साथ गुत्थमगुत्था हो कर तीन चार फेरा निढाल हो चुका था। चलते-चलते वह सिसकारी भरते हुए मचल कर बोला भी, ‘लागता जे हमें मार डरबू ए धाना!’

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‘हां, तूहें मारि डारब !’ धाना भी शोख़ी बोती हुई बोली थी तब।

राधा मोहन का यह सिलसिला चलता रहा और चर्चा भी !

बात मोहना के घर तक पहुंच चुकी थी पर राधा रूपी धाना के घर नहीं। किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ती। राधा के दो भाई पहलवान थे और लठैत भी। जो भी ख़बर पहुंचाता उसकी ख़ैर नहीं थी। इसी नाते गांव में चर्चा भी चलती राधा-मोहना की तो खुसुर-फुसुर में। वह भी गुपचुप।

पर कब तक छुपती भला यह ख़बर !

आखि़र ख़बर पहुंची धाना के घर। जो धाना ने ही पहुंचाई। धाना ने क्या, धाना की उल्टियों ने पहुंचाई। पर धाना के घर ख़बर पहुंची यह बात धाना के घर वालों ने कानों कान किसी को ख़बर नहीं होने दी। धाना को बड़ी यातना दी गई। पर यह बात भी बाहर नहीं आई। पचवें में गवना जाने वाली धाना का डेढ़ बरस पहले ही गवना हो गया। यह ख़बर जरूर पहुंची सब तक लेकिन चर्चा इसकी भी नहीं हुई।

धाना ने यातना जरूर सही और बेहिसाब सही पर मोहन का नाम जबान पर नहीं लाई।

लेकिन मोहन डर गया था। डर गया पहलवानों की लाठी से। वह समझ गया कि ऊंच नीच हो गया है। घबरा कर शहर की राह पकड़ ली। वहीं चंग ले कर गाने बजाने लगा।

धाना के फेर में इधर वह गाना भी भूल गया था।

एक दिन वह जिला कचहरी के एक मजमे में गा रहा था। कलक्टर के जुर्म पर बनाया गाना। बिना कलक्टर का नाम लिए। तो भी पुलिस ने पकड़ कर पीट दिया मोहन को। गनीमत की जेल वेल नहीं भेजा। लेकिन वह यह कलक्टर के जुर्म का गाना गाता रहा। एक कम्युनिस्ट नेता ने भी राह चलते एक दिन यह गाना सुन लिया मोहन से। यह कम्युनिस्ट नेता यहां का स्थानीय विधायक भी था। उसने मोहना को बुलाया। बात की, चाय पिलाई और उसके बारे में जाना। उसकी पीठ थपथपाई और पूछा कि, ‘हमारी पार्टी के लिए गाओगे ?’

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‘जो कहेगा उसके लिए गाऊंगा। बस गरीबों के खिलाफ नहीं गाऊंगा।’ मोहन बेखौफ हो कर बोला।

‘हम गरीबों मजदूरों और मजलूमों के हक की लड़ाई लड़ते हैं।’ कम्युनिस्ट नेता ने मोहन को यह बात बता कर उसका मन साफ किया और अपने साथ अपनी टीम का मेंबर बना लिया। फिर वह पार्टी का मेंबर भी बना और पार्टी के लिए गाने लगा।

पर वह अपनी सखी धाना को नहीं भूला। धाना की खोज ख़बर लेता रहा। बाद में पता चला कि धाना के बेटा हुआ है। उसे यह समझते देर नहीं लगी कि यह बेटा उसका ही बेटा है। मोहन और धाना का बेटा। उसने रोब से मूंछें ऐंठीं। हालांकि उसकी मूंछ का ठीक-ठीक अभी पता नहीं था। पर नाक के नीचे पतली मूंछ की इबारत सी निकलती जरूर दिखती थी।

बाद में उसे धाना के कष्टों, ‘जल्दी’ बच्चा पैदा हो जाने से मिलने वाले तानों और तकलीफों का भी ब्यौरा मिलता रहा। पर वह बेबस था। करता भी तो क्या? कोई पहल या दिलचस्पी दिखाने का मतलब था धाना को और कष्ट, और बेइज्जती, और मुश्किल में डालना। सो वह धाना की तकलीफों को ध्यान कर अकेले ही रो गा कर शांत हो जाता।

इसी बीच मोहन का भी गवना हो गया। वह शहर से गांव, गांव से शहर गाता बजाता भटकता रहा। पर कोई स्थाई राह नहीं मिली। दो बच्चे भी तब तक उसे हो गए। पर रोजी रोटी का ठिकाना दूर-दूर तक नहीं दीखता था।

इसी बीच उसे फिर धाना दिखी। शहर के एक अस्पताल जाती हुई रिक्शे से। उसका मरद भी उसके साथ था। और उसका बेटा भी। रोक नहीं पाया मोहन अपने आप को। सारे ख़तरे उठा कर वह लपका। और बोला, ‘हे सखी!’ सखी मोहन की आवाज सुनते ही सकुचाईं पर घबराई नहीं। अपने मरद को खुदियाया, मोहन को दिखाया और बोलीं, ‘का हो मोहन!’ मोहन के मन का सारा पाप मिट गया। सखी का मरद था तो पहलवान पर गुस्सैल नहीं था। सखी को मानता जानता बहुत था। एक तरह से सखी का गुलाम था। ठीक वइसे ही जइसे जोरू का गुलाम !

सखी ने मरद से कह कर मिठाई मंगाई और खुसफुसा कर बताया कि, ‘तोहरे बेटा क तबियत ख़राब है। सरकारी डक्टरी में देखावे बदे आइल हईं।’

मोहन ने झट कम्युनिस्ट नेता से संपर्क साधा जो पार्टी कार्यालय में मिल गए। उनकी डाक्टर से बात कराई। डाक्टर ने लड़के को ठीक से देखा भाला। निमोनिया बता कर इलाज शुरू किया। लड़का ठीक हो गया। साथ ही मोहन भी। धाना का मरद मोहन का मुरीद हो गया। मोहन और उसकी सखी धाना का रास्ता भी साफ हो गया। दोनों फिर मिलने जुलने लगे। कभी धाना के मरद के सामने तो कभी गुपचुप-गुपचुप। धाना के अभी तक एक ही बेटा था, मोहन की कृपा से। मोहन का धाना से मिलना जुलना क्या शुरू हुआ धाना के पांव फिर भारी हो गए। कोई आठ बरिस बाद।

कि तभी विधानसभा चुनावों का ऐलान हो गया। मोहन के उस कम्युनिस्ट नेता ने भी फिर चुनाव लड़ा। मोहना ने इस चुनाव में जान लगा दी। स्थानीय समस्याओं को ले कर एक से एक गाने बनाए और गाए कि अन्य नेताओं के छक्के छूट गए। नेताओं के भाषण से ज्यादा मोहन के गानों की धूम थी। नेता जी के हर जलसे में तो मोहन गाता ही, जलसे के बाद जीप में भी बैठ कर माइक ले कर गाता, गांव-गांव घूमता। इस फेर में वह गाता हुआ अपने गांव भी गया और सखी के गांव भी।

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नेता जी चुनाव जीत गए तो मोहन को भी इसकी ना सिर्फ क्रेडिट दी उन्होंने बल्कि मोहन को अपने साथ वह लखनऊ भी ले आए। और मोहन को एक नया नाम दिया: लोक कवि!

लोक कवि ने लखनऊ आ कर लंबा संघर्ष किया। फिर नाम और पैसा भी खूब कमाया। लेकिन अपनी सखी को वह नहीं भूले। सखी से इस बीच भी वह मौका बेमौका मिलते रहे। नतीजतन सखी उनके तीन बच्चों की मां हो चली थीं। एक बार इस बात की चर्चा लोक कवि ने चेयरमैन साहब से चलाई तो चेयरमैन साहब ने लोक कवि से पूछा, ‘तो ऊ पहलवान साला क्या करता था ?’

‘पहलवानी !’

लोक कवि ने भी ऐसी स्टाइल से कहा कि चेयरमैन साहब हंसते-हंसते लोटपोट क्या हुए बिलकुल बेसुध हो गए थे।

बाद में सखी के पति पहलवान की आर्थिक स्थिति भी गड़बड़ा गई तो लोक कवि ने न सिर्फ तब संभाला बल्कि बराबर कुछ न कुछ आर्थिक मदद भी करते रहे। और साथ ही सखी की भी ‘मदद’ में रहे। बहुत बाद में सखी की ‘मदद’ तो वह बिसार बैठे पर उनकी, उनके परिवार की आर्थिक मदद वजज बेवजह वह करते ही रहे। यह काम लोक कवि कभी नहीं भूले। पहले पैसा कौड़ी ले कर खुद पहुंचते थे फिर किसी न किसी से भिजवाने लगे। कहते कि ‘अरे, वह भी अपना ही परिवार है।’ यहां तक कि सखी के बेटों की शादी बियाह में भी वह गए और धूमधाम से गए। खर्च बर्च किया। अब जैसे लोक कवि नाती पोते वाले हो चले थे वइसे ही सखी भी नाती पोतों वाली हो चली थीं। बल्कि लोक कवि वाले परिवार से पहले ही सखी वाला परिवार इस सुख से परिचित हो गया था।

अब वही सखी, मोहन की सखी , राधा मोहना की मीठी याद बोती हुई सी लोक कवि को परीछ रही थीं। पूरे मन, जतन और जान से। लोक कवि बुदबुदा रहे थे, ‘सखी !’ और सखी कह रही थीं, ‘बड़ा उजियार कइले बाड़ऽ आपन और अपने गांव क नाम ए मोहन बाबू !’ लेकिन लोक कवि अभिभूत थे। सखी के परीछन से। ढेरों औरतों के संसर्ग से गुजर चुके लोक कवि को तमाम औरतों को भूल भुला जाने की आदत है पर कुछ औरतें हैं ऐसी लोक कवि की जिंदगी में जिन्हें वह नहीं भूलते। भुलाना भी नहीं चाहते। सखी, पत्नी और मिसिराइन ऐसी ही औरतों में तीन औरतें हैं। जिनमें से पहले नंबर पर हैं यह सखी। धाना सखी। राधा मोहना के नाम से कभी क्या अब भी जानी जाने वाली सखी। लोक कवि को कभी क्या अब भी जिंदगी देने वाली सखी। वह सखी जिनके बिरह में लोक कवि का पहला ओरिजनल गाना फूटा, ‘आव चलीं ददरी क मेला, आ हो धाना !’

वह सखी जिसने लोक कवि की जवानी की पहली भूख-प्यास मिटाई। जो लोक लाज की परवाह छोड़ उनकी जिंदगी की न सिर्फ पहली औरत बनी, उनके पहले बेटे की मां बनी, भले ही वह उस बेटे को अपना नाम सामाजिक मर्यादा के नाते नहीं दे पाए, पर समाज तो जानता है। गुप-चुप ही सही। वह सखी जिसने कभी उनसे कोई मांग नहीं की, कभी डिमांड नहीं की, किसी तकलीफ की कोई गिरह, कोई परत खोल कर नहीं बताई, खुद पीती गई सारी तकलीफ, मुश्किल और अपमान। उसने ऊंची जाति का होते हुए भी, उसकी अपेक्षा समृद्ध होती हुई भी इस गरीब से आंख लड़ाई, वह सखी, उस प्यार में नहाई सखी को, जो इस उमर में भी अफनाई चली आई है, बिना यह सोचे कि बेटा, बहू, नाती, पोता या यह गांव, यह समाज कोई पुरानी गांठ खोल कर उस पर तोहमत भी लगा सकते हैं! लोक कवि ने अभी-अभी खुद देखा है कि उन क प्रिय भौजाई जो सबसे पहिले उन्हें परीछने आईं, सखी को देखते ही कैसा तो मुंह बनाया और आंखें टेढ़ी कीं। बाकी औरतों ने भी सखी को उसी रहस्य से देखा तो सखी सकुचाईं और लोक कवि सुलग गए। गनीमत की किसी ने साफ तौर पर कुछ नहीं कहा और बात आई गई हो गई। फिर भी सखी परीछ रही हैं लोक कवि को, पूरे लाज से और लोक की मर्यादा को निभाते हुए। और लोक कवि भी आंखों में उसी मर्यादा का भाव लिए देख रहे हैं सखी को अपलक। सखी ने एक बार और परीछा था मोहना रूपी इसी लोक कवि को तब जब मोहना बियाह करने जा रहा था, तब जब सखी का बियाह हो चुका था। लोक कवि अपलक देख रहे हैं सखी को निःशब्द ! और लोक कवि द्वारा सखी को इस देखने को देख रहे हैं चेयरमैन साहब, स्तब्ध !

‘परीछत रहबू कि केहू औरो के परीछे देबू ?’ कह रही हैं भौजी मारे तंज में सखी से। और सखी हैं कि गाती-गाती लोढ़ा एक राउंड और घुमा देती हैं लोक कवि के चेहरे पर ‘मोहन बाबू के परीछबों !’ और चलते-चलते उन के गाल पर दही रोली मल देती हैं।

‘ई गांव क बेटी हईं कि दुलहिन हो ?’ लोक कवि की एक भौजाई टाइप बूढ़ी औरत यह सब देख कर खुसफुसाती हैं।

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‘न दुलहिन, न बेटी। इन हईं राधा।’ एक दूसरी भौजाई जोड़ती हैं, ‘मोहना क राधा।’

‘चुप्पो रहबू !’ एक दूसरी भौजाई कहीं रंग में भंग न पड़ जाए इस गरज से सबको डपटती हैं। लेकिन खुसफुसा कर।

यह सारी बातें और परीछन का दृश्य देख चेयरमैन साहब थोड़ा भावुक होते हैं। फिर भी लोक कवि से ठिठोली फोड़ना नहीं भूलते। पूछते हैं, ‘का रे ई 440 वोल्ट वाली रहलि का ?’ पर जरा धीरे से।

‘हां, हां !’ मुसकुराते हुए धीरे से कहते हुए लोक कवि हाथ जोड़ते हैं चेयरमैन साहब से और आंखों-आंखों में इशारा भी करते हैं कि ‘बस चुप भी रहिए!’

‘ठीक है, ठीक है ! तें मजा ले !’ कह कर चेयरमैन साहब भी लोक कवि से हाथ जोड़ लेते हैं।

थोड़ी देर में औरतों का कार्यक्रम ख़त्म हो गया। सचमुच में ख़त्म तो तभी हो गया था जब सखी ने परीछना बंद कर दिया था तभी। पर अब बाकायदा ख़त्म हो गया था। औरतों के बाद अब मर्दों का लोक कवि से मिलना जुलना शुरू हो गया था। लोक कवि की खुशी का ठिकाना तब और नहीं रहा जब उन्होंने देखा कि सखी के पति पहलवान भी आए हैं।

‘आइए पहलवान जी !’ कह कर लोक कवि ने उन्हें गले लगा लिया।

‘असल में औरतों का कार्यक्रम चल रहा था तो हम लोग थोड़ा दूर ही खड़े रहे।’ पहलवान जी ने सफाई दी।

‘यह पहलवान जी हैं, चेयरमैन साहब !’ कह कर लोक कवि ने उनका परिचय कराया और आंख मारी कि मजा लीजिए लेकिन साथ ही इशारा भी किया कि, ‘कोई अप्रिय टिप्पणी कर गुड़ गोबर भी न करिए।’

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मिलना-जुलना जब ख़त्म हुआ और धीरे-धीरे भीड़ छंटने लगी तो लोक कवि ने अपने दोनों भाइयों को बुलवाया। लेकिन एक को तो चेयरमैन साहब दस हजार दे कर लड्डू लाने के लिए भेज चुके थे। तो सिर्फ एक ही आया, ‘हां भइया !’ कहते हुए।

वह उसे एक किनारे ले जाते हुए बोले, ‘देखो हमको पांच लाख रुपया आज मिला है !’

‘इनाम में ?’ लोक कवि की बात काटता हुआ छोटा भाई बोल पड़ा।

‘नहीं सम्मान में।’ लोक कवि ने बात शुरू की तो वह फिर बोला पड़ा, ‘अच्छा-अच्छा !’ तो लोक कवि उसको डपटते हुए बोले, ‘पिकिर-पिकिर जिन करो पहले पूरी बात सुनो।’

‘भइया !’ कह कर वह फिर बोल पड़ा।

‘कहीं खेत तजबीज करो। ख़रीदने के लिए।’ लोक कवि बोले, ‘‘झगड़ा झंझट वाला नहीं हो। एक साथ पूरा चक हो।’

‘ठीक भइया !’

‘रजिस्ट्री कराऊंगा तीनों भाइयों के नाम से !’ लोक कवि गदगद हो कर बोले।

‘ठीक भइया !’ भाई भी उसी गदगद भाव से छलका।

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सांझ होने वाली थी लेकिन लड्डू आ गया था और गांव में बंटने लगा था।  चेयरमैन साहब दहाड़ रहे थे, ‘कोई भी बचने न पाए। छोटा-बड़ा सब को बांटो। बच जाए तो बगल के गांव में भी बांट दो।’

पूरा गांव लड्डू खा रहा था। लोक कवि की चर्चा में डूबा हुआ। हां, कुछेक लोग या घर ऐसे भी थे जिन्होंने यह लड्डू नहीं लिया। वह लोग लोक कवि पर भुनभुनाते रहे, ‘भर साला लड्डू बंटवा रहा है।’ एक पंडित जी तो खुले आम बड़बड़ा रहे थे, ‘बताइए एह गांव में दू ठो क्रांतिकारी भी हुए हैं। कोई उनका नाम लेने वाला नहीं है ! बकिर हई नचनिया पदनिया की आरती उतारी जा रही है। पांच लाख रुपया मुख्यमंत्री दे रहा है। सम्मान कर के।’ वह बोल रहे थे, ‘उहो साला अहिर और इहो साला भर! जनता की गाढ़ी कमाई साले भाड़ में डाल रहे हैं और कोई पूछने वाला नहीं है।’ किसी ने टोका भी कि ‘चुप भी रहिए!’ तो वह और भड़के, ‘काहें चुप रहें? एह नचनिया पदनिया के डर से!’

‘त तनी धीरे बोलिए!’

‘काहें धीरे बोलें जी। एह नचनिया पदनिया का हम लड्डू खाए हैं का ? कि सारे का कर्जा खाए हैं।’ कह कर वह और जोर से बोलने लगे। बात पंडित जी की लोक कवि तक खुसुर-फुसुर में पहुंचाई गई। तो लोक कवि ने चेयरमैन साहब को यह बताया। चेयरमैन साहब चिंतित हुए बोले, ‘वो पंडित भी ठीक बोल रहा है। लेकिन गलत समय पर बोल रहा है।’ फिर चेयरमैन साहब ने लोक कवि को तुरंत आगाह भी किया कि ‘कह दो कोई रिएक्शन नहीं। पंडित के जवाब में कोई नहीं बोलेगा!’

‘काहें साहब ! हम लोग केहू से कम हैं का!’ लोक कवि का भाई बिदकता हुआ बोला।

‘कम नहीं ज्यादा हो इसीलिए चुप रहो, सबको चुप रखो !’ चेयरमैन साहब लोक कवि से मुखातिब हो कर बोले, ‘तुम तो जानते हो देश में मंडल-कमंडल चल रहा है। अगड़ा-पिछड़ा चल रहा है तो कहीं बात बढ़ कर बिगड़ गई तो तुम्हारा सारा सम्मान मिट्टी में मिल जाएगा! तो संघर्ष को रोको।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘पंडित गरियाता भी है तो चुपचाप पी जाओ!’

बात लोक कवि की समझ में पूरी तरह आ गई। और उन्होंने सबको सख़्त हिदायत दी कि, ‘कोई जवाब न दे।’ बल्कि बात आगे न बढ़े इस गरज से खुद पंडित जी के घर जा कर ‘पालागी’ कह कर उन का पांव छुआ। पंडित जी पिघल गए। लोक कवि को लगे आशीषने, ‘और नाम कमाओ, खूब यश कमाओ, गांव जवार का नाम बढ़ाओ!’ पर उन्होंने लगे हाथ अपनी बात भी कह दी, ‘सुना है मुख्यमंत्री के तुम बहुत मुहलगे हो?’

‘आशीर्वाद है आपका पंडित जी।’ कहते हुए लोक कवि विनम्र हुए और फिर उनका पांव छुआ।

‘तो उससे कह कर गांव का भी कुछ भला कराओ।’ पंडित जी बोले, ‘दू ठो क्रांतिकारी यहां हुए हैं। धुरंधर क्रांतिकारी। उनका स्मारक, मूर्ति बनवाओ।’ वह बोले, ‘कि नचनिए पदनिए ही उसकी सरकार में सम्मान पाएंगे?’

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पंडित जी की यह बात सुन कर लोक कवि जरा विचलित हुए। कुछ बोलते-बोलते कि चेयरमैन साहब ने लोक कवि का कंधा दबा कर कुछ न कहने का संकेत दिया। लोक कवि चुप ही रहे। बोले नहीं। लेकिन पंडित जी बोल रहे थे, ‘गांव में प्राइमरी स्कूल है। पेड़ के नीचे मड़ई में चलता है। उसका भवन बनवा दो। प्राइमरी स्कूल को मिडिल बनवा दो।’ वह बोले, ‘सड़क ठीक करा दो। सरकारी मोटर चलवा दो। और भी जो कर सकते हो करवा दो। गांव में लड़के बेकार घूम रहे हैं उनको नौकरी, रोजगार दिलवा दो!’

‘ठीक बा पंडित जी आशीर्वाद दीजिए।’ लोक कवि ने पंडित जी के फिर पैर छुए। कहा कि, ‘कोशिश करूंगा कि आप का आदेश का पालन हो जाए!’

‘तुम नचनिया पदनिया का बात मानेगा मुख्यमंत्री?’ पंडित जी फिर नहीं माने और घुमा फिरा कर अपनी पुरानी बात पर आ गए। लेकिन लोक कवि भीतर से सुलगते हुए बाहर से मुसकुराते हुए चुप खड़े थे। फिर पंडित जी जैसे अपनी शंका का खुद ही समाधान करते हुए बोले, ‘का पता मुख्यमंत्री साला भी अहिर है नचनिया पदनिया के सलाह से ही सरकार चलाता हो। पढ़े लिखे लोग, पंडित लोग उसे कहां मिलेंगे?’ बोलते-बोलते पंडित जी फिर पूछने लगे लोक कवि से कि, ‘सुना है तुम्हारा मुख्यमंत्री पंडितों से बड़ा चिढ़ता है, बड़ा बेइज्जत करता है?’ वह जरा रुके और पूछने लगे, ‘सही है ?’ कोई कुछ नहीं बोला तो वह बोले, ‘तुम भी तो वोही जमात के हो। तुम भी वही करते होगे?’ फिर वह हंसने लगे, ‘हमारी बात का बुरा न मानना। बकिर समाजै अइसेही हो गया है, राजनीतियै अइसी हो गई है। कोई करेगा भी तो का करेगा!’ वह बोले, ‘हमारी बात पर रिसियाना नहीं, पीठ पीछे गरियाना नहीं। पर गांव के लिए कुछ करवा पाओ तो करवाना जरूर।’ वह फिर बोले, ‘का पता नचनिया पदनिया से ही एह गांव का उद्धार लिखा हो।’ कह कर उन्होंने फिर से लोक कवि पर ढेर सारा आशीष, आशीर्वाद, कामना आदि की बौछार कर दी। बिलकुल खुले मन से। लेकिन बीच-बीच में ‘नचनिया पदनियां’ का संपुट दे-दे कर !

‘ब्राह्मण देवता की जय!’ कह कर लोक कवि ने फिर पंडित जी के पैर छू लिए।

पंडित जी के यहां से निकल कर लोक कवि चेयरमैन साहब के साथ गांव में दो चार और बड़े लोगों के घर गए। कुछ और पंडित जी लोगों के यहां। फिर बाबू साहब लोगों के यहां। बाकी पंडित जी लोगों में कुछ ने खुले मन से, कुछ ने आधे मन से और कुछ ने बुझे मन से सही लोक कवि का स्वागत किया, आशीर्वाद दिया। लेकिन ज्यादातर बाबू साहब लोगों के यहां लोक कवि की नोटिस नहीं ली गई। उनके घरों में नौकरों या बच्चों से ही मिल कर लोक कवि ने अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली। हां, एक बाबू साहब ने आधे मन से ही सही लोक कवि को सम्मानित होने पर बधाई दी। और कहा कि, ‘अब तो तुम्हारा बड़ा नाम हो गया है।’ वह बोले, ‘सुना है लखनऊ में बड़ा पइसा पीट रहे हो!’

‘सब आप का आशीर्वाद है।’ कह कर लोक कवि बबुआना टोला से भी निकल आए। कुछ पहलवानों-अहीरों के घर भी गए जहां उनका मिला जुला और भाव-विभोर स्वागत हुआ। कुछ अपने बचपन के पुराने संगी साथियों को भी लोक कवि ने खोज हेर कर भेंट की। उन के एक हमउमर ने फिर चिकोटी ली, ‘सुना है गुरु कि रधवा फेर गांव आई है आज?’

‘कवन रधवा ?’ लोक कवि ने टाला तो वह लोक कवि का हाथ दबाते हुए बोला, ‘भुला गइलऽ राजा धाना के।’

लोक कवि कुछ बोले नहीं मुसकुरा कर टाल गए।

लोक कवि वापस फिर अपने टोला में आ गए। अपने समाज में जहां उनका स्वागत लोग हृदय खोल कर पहले भी कर चुके थे। फिर कर रहे थे।

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‘पालागी-पालागी।’ करते हुए हाथ जोड़े लोक कवि सब के दरवाजे गए। ताकि कोई यह कहने वाला न रह जाए, ‘हमरे घरे नाईं अइलऽ !’

सांझ उतर कर जा रही थी और रात अपने आने की राह बना रही थी। चेयरमैन साहब ने लोक कवि से साफ-साफ पूछा कि, ‘रुकोगे यहां कि चलोगे लखनऊ?’

‘लखनऊ  चलूंगा, का करुंगा यहां रुक कर?’ लोक कवि बोले, ‘जो कहीं मेरे रहने से यहां मंडल-कमंडल खड़खड़ा गए तो बड़ी बेइज्जती हो जाएगी।’

भाइयों ने और बाकी परिजनों ने भी लोक कवि को रात गांव में रुकने को कहा। अहिर टोला से ख़ास संदेश आया कि सभी लठैत और बंदूकधारी पहरा देंगे। कोई डकैत या चोर लोक कवि का पांच लाख रुपया नहीं छू पाएगा। वह बेधड़क आज रात गांव में रहें।

‘सवाल पइसा चोरी या डकैती हो जाने का नहीं है।’ लोक कवि ने भाइयों, परिजनों को बताया कि, ‘ऊ तो चोर डकैत वैसे भी नहीं छू पाएगा क्योंकि वह चेक में है, नगद नहीं है। बकिर जाना जरूरी है। काहें से कि लखनऊ में जरूरी काम है।’ वह बताए, ‘वहां भी लोग अगोर रहे होंगे।’

कुछ लोगों ने गांव में जानना चाहा कि ‘चेक में’ का क्या मतलब है ? क्या कोई नई तिजोरी चली है ? लोगों को लोक कवि ने हंसते हुए बताया कि, ‘नाहीं कागज है।’ और उसे दिखाया भी।

तो गांव में एक चर्चा यह चली कि मुख्यमंत्री ने सरकार की ओर से लोक कवि को पुरनोट लिख कर दिया है। एक बुजुर्ग ने सुना तो वह बोले, ‘त अइसै! अरे, बड़ा रसूख वाला हो गइल बा मोहना!’

चलते समय लोक कवि एक बार धाना के घर फिर गए। धाना और धाना के पति से मिलने। फिर निकल पड़े वह गांव से डीह बाबा को हाथ जोड़ते, गांव के लोगों और सीवान को प्रणाम करते।

शहर पहुंच कर चेयरमैन साहब ने शराब ख़रीदी, कुछ साथ खाने के लिए लिया और पानी की बोतलें भी ख़रीद कर लोक कवि को ले कर वह खाते पीते लखनऊ  की ओर चल दिए। लाल बत्ती वाली कार में। लोक कवि की कार, चेयरमैन साहब की एंबेसडर, और बाकी दोनों कारें संगी साथियों को बिठाए पीछे-पीछे थीं।

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रास्ते में जब दो पेग लोक कवि पी चुके तो बोले, ‘चेयरमैन साहब ई बताइए कि हम कलाकार हूं कि नहीं?’

‘त का भिखारी हो !’ चेयरमैन साहब लोक कवि के सवाल का मर्म जाने बिना बिदक कर बोले।

‘त कलाकार हूं न !’ लोक कवि फिर बेचारगी में बोले।

‘बिलकुल हो।’ चेयरमैन साहब ठसके के साथ बोले, ‘एहू में कवनो शक है का ?’

‘तब्बै न पूछ रहा हूं।’ लोक कवि असहाय हो कर बोले।

‘तुमको चढ़ गई है सो जाओ।’ चेयरमैन साहब लोक कवि के सिर पर थपकी देते हुए बोले।

‘चढ़ी नहीं है चेयरमैन साहब !’ लोक कवि थोड़ा ऊंचे स्वर में बोले, ‘त इ बताइए कि हम कलाकार हैं कि नचनिया पदनिया !’

‘धीरे बोल साले। हम कोई बहरा हूं का जो चिल्ला रहा है।’ वह बोले, ‘पंडितवा का डंक तुमको अब लग रहा है ?’ वह लोक कवि की ओर मुंह करके बोले, ‘किसी अंडित पंडित के कहने से तुम नचनिचा पदनिया तो नहीं हो जाओगे। कलाकार हो, कलाकार रहोगे। ऊ पंडितवा साला का जाने कला और कलाकार!’ वह तुनके, ‘हम जानता हूं कला और कलाकार। मैं कहता हूं तुम कलाकार हो। और मैं क्या कला के सभी जानकार तुम्हें कलाकार मानते हैं। भगवान ने, प्रकृति ने तुम्हें कला दी है।’

‘वो तो ठीक है।’ लोक कवि बोले, ‘पर मेरे गांव ने आज मुझे मेरी औकात बता दी है। बता दिया है कि नचनिया पदनिया हूं।’

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‘राष्ट्रपति के साथ अमरीका, सूरीनाम, फिजी, थाइलैंड जाने कहां-कहां गए हो। गए हो कि नहीं ?’ चेयरमैन साहब ने तल्ख़ हो कर पूछा।

‘गया हूं।’ लोक कवि संक्षिप्त सा बोले।

‘त का गांड़ मराने गए थे कि गाना गाने गए थे ?’

‘गाना गाने।’

‘ठीक।’ वह बोले, ‘कैसेट तुम्हारे बाजार में हैं कि नहीं ?’

‘हैं।’

‘तुम्हारे सरकारी, गैर सरकारी कार्यक्रम होते हैं कि नहीं ?’

‘होते हैं।’

‘मुख्यमंत्री ने आज तुमको सम्मानित किया कि नहीं ?’

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‘किया चेयरमैन साहब !’ लोक कवि आजिज हो कर बोले।

‘तो फिर काहें मेरी तभी से मार रहे हो ? सारा नशा, सारा मजा ख़राब कर रहे हो तभी से।’ चेयरमैन साहब थोड़ा प्यार से लोक कवि को डपटते हुए बोले।

‘एह नाते कि हम नचनिया पदनिया हूं।’

‘देखो लोक कवि मारनी है तो उस पंडित की जा कर मारो जिसने तुम्हें यह नचनिया पदनिया का डंक मारा है। मुझे बख्शो !’ चेयरमैन साहब ने बात जारी रखी, ‘अच्छा चलो उस पंडित ने तुम को नचनिया पदनिया जो कह ही दिया तो उसकी माला लिए क्यों फेर रहे हो?’ वह कार की खिड़की से सिगरेट झाड़ते हुए बोले, ‘फिर नचनिया पदनिया कोई गाली तो है नहीं। और फिर तुम्हीं बताओ क्या नचनिया पदनिया आदमी नहीं होता का? और यह भी बताओ कि नचनिया भी कलाकार के खाते में आता है कि नहीं ?’ चेयरमैन साहब बिना रुके बोले जा रहे थे, ‘फिर जो तुम आर्केस्ट्रा चलाते-चलवाते हो वह क्या है ? तो तुम भी नचनिया पदनिया हुए कि नहीं?’

‘ऊंची जाति के लोग ऐसा क्यों सोचते हैं ?’ लोक कवि हताश हो कर बोले।

‘हे साला तुम कहना का चाहता है ?’ वह बोले, ‘क्या मैं ऊंची जाति का नहीं हूं। राय हूं और फिर भी तुम्हारी गांड़ के पीछे-पीछे घूम रहा हूं तो मुझे भी कोई नचनिया पदनिया कह सकता है। और जो कह भी देगा तो हम क्यों बुरा मानूंगा?’ वह बोले, ‘हम तो हंस के मान लूंगा कि चलो हम भी नचनिया पदनिया हैं।’ वह बोले, ‘इसको गांठ में बांधो तो बांधो दिल में मत बांधो।’

‘चलिए आप कहते हैं तो ऐसा ही करता हूं।’

‘फिर देखो, लखनऊ में या और भी बाहर कहीं तो तुम को जाति से तौल कर नहीं देखा जाता ?’ वह बोले, ‘नहीं देखा जाता न ? तो वहां तो बाभन, ठाकुर, लाला, बनिया, नेता, अफसर, हिंदू, मुसलमान सभी तुम को एक कलाकार के तौर पर ही तो देखते हैं। तुम्हारी जाति से तो नहीं आंकते तुम्हें। बहुतेरे तो तुम्हारी जाति जानते भी नहीं।’

‘एही से, एही से।’ लोक कवि फिर उदास होते हुए बोले।

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‘एकदमै पलिहर हो का !’ चेयरमैन साहब बोले, ‘मैं छेद बंद करने में लगा हूं और तुम रह-रह बढ़ाते जा रहे हो।’ वह बोले, ‘कुछ और हमसे भी कहलाना चाहते हो का !’

‘कहि देईं चेयरमैन साहब। आप भी कहि देईं!’

‘तो सुन ! हई मुख्यमंत्री और उसका समाज जो तुम को यादव-यादव लिखता है पोस्टर, बैनर पर और एनाउंस करता है यादव-यादव तो हई का है ?’ वह बोले, ‘इस पर तुम्हारी गांड़ नहीं पसीजती ? काहें भाई ? तुम सचहूं यादव हो का !’

‘ई बात का चर्चा मत कीजिए चेयरमैन साहब।’ हाथ जोड़ते हुए लोक कवि बोले।

‘तो तुम इस का प्रतिवाद काहें नहीं करते हो एको बार ?’ वह बोले, ‘इस बात का बुरा नहीं लगता तुमको और नचनिया पदनिया सुन लेने पर बुरा लग जाता है। डंक मार जाता है। इतना कि पूरा रास्ता ख़राब कर दिया, सारा दारू उतार दिया और अपने इतने बड़े सम्मान की खुशी को खुश्क कर दिया ! और तो और 440 वोल्ट वाली सखी से बरसों बाद मिलने की खुशी भी राख कर ली!’ सखी की बात सुन कर लोक कवि थोड़ा मुसकुराए और उनका अवसाद थोड़ा फीका पड़ा। चेयरमैन साहब बोले, ‘भूल जाओ इ सब और लखनऊ पहुंच कर खुशी दिखाओ, खुश दिखो और कल इस को जम कर सेलीब्रेट करो और करवाओ। कवनो छम्मक छल्लो बुला के भोगो!’ कहते हुए चेयरमैन साहब आंख मारते हुए मुसकुराए और दूसरी सिगरेट जलाने लगे।

लखनऊ पहुंच कर लोक कवि ने सांस ली। चेयरमैन साहब के घर उतरे। जा कर उन की पत्नी को प्रणाम किया। चेयरमैन साहब से कल मिलने की बात की और उनके भी पैर छू लिए। तो चेयरमैन साहब गदगद हो कर लोक कवि को गले लगा लिए। बोले, ‘जीते रहो और इसी तरह ‘यश’ कमाते रहो।’ उन्होंने जोड़ा, ‘लगे रहो इसी तरह तो एक दिन तुम को पद्मश्री, पद्मभूषण में से भी कुछ न कुछ मिल जाएगा।’ यह सुन कर लोक कवि के चेहरे पर जैसे चमक आ गई। लपक कर चेयरमैन साहब के फिर पैर छुए। घर से बाहर निकल कर अपनी कार में बैठ गए। चल दिए अपने संगी साथियों के साथ अपने घर की ओर।

रात के ग्यारह बज गए थे।

उधर लोक कवि घर चले। इधर चेयरमैन साहब ने लोक कवि के घर फोन किया, तो लोक कवि के बड़े लड़के ने फोन उठाया। चेयरमैन साहब ने उसे बताया कि, ‘लोक कवि घर पहुंच रहा है, हमारे यहां से चल चुका है।’

‘एतना देरी कैसे हो गया ?’ बेटे ने चिता जताते हुए पूछा, ‘हम लोग शाम से ही इंतजार कर रहे हैं।’

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‘चिंता की कोई बात नहीं है। सम्मान समारोह के बाद हम लोग तुम्हारे गांव चले गए थे। वहां लोक कवि का बड़ा स्वागत हुआ है। औरतें लोढ़ा ले-ले कर परीछ रही थीं। बिना किसी तैयारी के बड़ा स्वागत हो गया। पूरे गांव ने किया।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘फोन इसलिए किया हूं कि यहां तुम लोग भी थोड़ा उसका टीका मटीका करवा देना। आरती वारती उतरवा देना।’

‘जी, चेयरमैन साहब।’ लोक कवि का बेटा बोला, ‘हम लोग पूरी तैयारी से पहले से हैं। बैंड बाजा तक मंगाए बैठे हैं। ऊ आएं तो पहिले !’

‘बक अप्!’ चेयरमैन साहब बोले, ‘त रुको मैं भी आता हू।’ उन्होंने पूछा, ‘कोई और तो नहीं आया था?’

‘कुछ अधिकारी लोग आए थे। कुछ प्रेस वाले भी आ कर चले गए।’ उसने बताया पर मुहल्ले के लोग हैं। कई कलाकार लोग हैं। बैंड बाजा वाले हैं। घर वाले हैं।’

‘ठीक है तुम बाजा बजवाना शुरू कर दो। मैं भी पहुंच रहा हूं।’ वह बोले, ‘स्वागत में कसर नहीं रहनी चाहिए!’

‘ठीक चेयरमैन साहब।’ कह कर बेटे ने फोन रखा। बाहर आया। बैंड वालों से कहा , ‘बजाना शुरू कर दो, बाबू जी आ रहे हैं।’

बैंड बाजा बजने लगा।

फिर दौड़ कर घर में मां को चेयरमैन साहब का निर्देश बताया। और यह भी कि गांव में भी बड़ा धूम-धड़ाका हुआ है सो कोई कसर नहीं रहे। लोक कवि जब अपने घर के पास पहुंचे तो थोड़ा चौंके कि बिना बारात के ई बाजा गाजा! पर बैंड वाले, ‘बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है,’ की धुन बजा रहे थे और मुहल्ले के चार, छ लाखैरा लौंडे नाच रहे थे।

ठीक अपने घर के सामने वह उतरे तो समझ गए कि माजरा क्या है !

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उनकी धर्मपत्नी अपनी दोनों बहुओं और मुहल्ले की कुछ औरतों के साथ सजी-धजी आरती लिए खड़ी थीं लोक कवि के स्वागत के लिए। लोक कवि के पहुंचते ही उन्होंने चौखट पर नारियल फोड़ा, ‘बड़ी आत्मीयता से लोक कवि के पैर छुए और उन की आरती उतारने लगीं। मुहल्ले के लोग भी छिटपुट बटुर आए।

गांव जैसा भावुक और ‘भव्य’ स्वागत तो नहीं हुआ यहां, पर आत्मीयता जरूर झलकी।

लोक कवि के संगी साथी कलाकार नाचने गाने लगे। घर में पहले ही से रखी मिठाई बांटी जाने लगी। तब तक चेयरमैन साहब भी आ गए। लोक कवि के एक पड़ोसी भागते हुए आए। हांफते हुए बधाई दी और बोले, ‘बहुत अच्छा रहा आप का सम्मान समारोह।’ उन्होंने जोड़ा ‘हमारे पूरे घर ने देखा। मुख्यमंत्री और राज्यपाल के साथ आप को।’

‘का आप लोग भी आए थे वहां ?’ लोक कवि चकित होते हुए बोले, ‘लेकिन कैसे ?’

‘हम लोग ने टी.वी. पर देखा न्यूज में।’ पड़ोसी दांत निकाल कर बोले, ‘वहां नहीं आए थे।’

‘रेडियो न्यूज में भी था।’ एक दूसरे पड़ोसी ने बड़े सर्द ढंग से बताया, ‘आप का समाचार।’

रात ज्यादा हो गई थी सो लोग जल्दी ही अपने-अपने घरों को जाने लगे।

बैंड बाजा भी बंद हो गया।

खा-पी कर नाती नातिनों को दुलराते हुए लोक कवि भी सोने चले गए। धीरे से उनकी पत्नी भी उनके बिस्तर पर आ कर बगल में लेट गईं। लोक कवि ने अंधेरे में पूछा भी कि, ‘के है ?’ तो वह धीरे से खुसफुसाईं ‘केहू नाईं, हम हईं।’ सुन कर लोक कवि ख़ामोश हो गए।

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बरसों बाद वह लोक कवि के बगल में आज इस तरह लेट रही थीं। लोक कवि ने गांव की बातें शुरू कर दीं तो पत्नी उठ कर ‘हां-हूं करती हुई उनके पैर दबाने लगीं। पैर दबवाते-दबवाते जाने क्या लोक कवि को सूझा कि पत्नी को पकड़ कर अपने पास खींच कर लिटा बैठे। बहुत बरस बाद आज वह पत्नी के साथ संभोगरत थे। चुपके-चुपके। ऐसे जैसे सुहागरात वाली रात हो। गुरुआइन को उन्होंने संभोग सुख दे कर न सिर्फ संतुष्ट किया बल्कि परम संतुष्ट किया। सारा सुख, सारा तनाव, सारा सम्मान उन्होंने गुरुआइन पर उतार दिया था। और गुरुआइन ने अपना सारा दुलार, मान-प्यार, भूख और प्यास आत्मीयता में सान कर उड़ेल दिया था। संभोग के बाद थोड़ी देर लोक कवि की बाहों में पड़ी कसमसाती हुई वह संकोच घोलती हुई बोलीं, ‘टी.वी. पर आज हमहूं आप के देखलीं।’ उन्होंने जैसे जोड़ा, ‘बड़का बेटऊआ देखवलस !’

सुबह गुरुआइन उठीं तो उनकी चाल में गमक आ गई थी। उनकी दोनों बहुओं ने जब उन्हें देखा, उनकी बदली हुई चाल को देखा तो दोनों ने आपस में आंख मार कर ही एक दूसरे को संदेश ‘दे’ और ‘ले’ लिया। एक बहू मजा लेती हुई बुदबुदाई भी, ‘लागता जे पांच लाख रुपयवा इन्हीं पवलीं हईं।’

‘मनो और का!’ दूसरी बहू ने खुसफुसा कर हामी भरी। बोली, ‘कानि केतना बरिस बाद जोरन पड़ल है!’

सुबह और भी कई लोग लोक कवि के घर बधाई देने आए।

हिंदी अख़बारों में भी पहले पेज पर लोक कवि की मुख्यमंत्री और राज्यपाल के साथ सम्मान लेते हुए फोटो छपी थी। दो अख़बारों में तो रंगीन फोटो। साथ ही रिपोर्ट भी हां, अंगरेजी अख़बारों में जरूर फोटो अंदर के पेजों पर थी और बिना रिपोर्ट के।

लोक कवि का फोन भी दन-दन बज रहा था।

लोक कवि नहा धो कर निकले। मिठाई ख़रीदी और पत्रकार बाबू साहब के घर पहुंचे। उनको मिठाई दी, पैर छुए और बोले, ‘सब आप ही के आशीर्वाद से हुआ है।’ बाबू साहब भी घर पर थे, पत्नी सामने थीं सो कुछ अप्रिय नहीं बोले। बस मुसकुराते रहे।

लेकिन रास्ते पर नहीं आए, जैसा कि लोक कवि चाहते थे।

लोक कवि तो चाहते थे कि इस सम्मान के बहाने एक प्रेस कांफ्रेंस कर पब्लिसिटी बटोरना। चाहते थे स्पेशल इंटरव्यू छपवाना। सब पर पानी पड़ गया था। चलते-चलते वह बोले भी बाबू साहब से, ‘त शाम को आइए न !’

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‘समय कहां है ?’ कह कर बाबू साहब टाल गए लोक कवि को। क्योंकि निशा तिवारी को वह अपने मन से अभी टाल नहीं पाए थे।

लोक कवि चुपचाप चले आए।

बाद में आखि़रकार चेयरमैन साहब ने ही दोनों के बीच पैच अप कराया। बाबू साहब ने प्रेस कांफ्रेंस के सवाल को रद्द कर दिया। कहा कि, ‘बासी पड़ गया है इवेंट।’ लेकिन लोक कवि का एक ठीक ठाक इंटरव्यू जरूर किया।

रियलिस्टिक इंटरव्यू।

ढेरों प्रिय और अप्रिय सवाल पूछे। और विस्तार से पूछे। कुछ सवाल इसमें सचमुच बड़े मौलिक थे और जवाब उन के सवाल से भी ज्यादा मौलिक।

लोक कवि जानते थे कि बाबू साहब उनका नुकसान कुछ करेंगे नहीं सो बेधड़क हो कर जवाब दे देते। फिर पैर छू कर कह भी देते कि, ‘लेकिन इस को छापिएगा नहीं।’

जैसे बाबू साहब ने लोक कवि से पूछा, ‘कि जब इतना बढ़िया आप लिखते हैं और मौलिक ढंग से लिखते हैं तो कवि सम्मेलनों में भी क्यों नहीं जाते हैं? तब जब कि आप लोक कवि कहलाते हैं।’

‘ई का होता है ?’ लोक कवि ने खुल कर पूछा, ‘ई कवि सम्मेलन का होता है ?’

‘जहां कवि लोग जनता के बीच अपनी कविता सुनाते, गाते हैं।’ बाबू साहब ने बताया।

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‘अच्छा-अच्छा समझ गया।’ लोक कवि बोले, ‘समझ गया ऊ टी.वी., रेडियो पर भी आता है।’

‘तो फिर क्यों नहीं जाते आप वहां ?’ बाबू साहब का सवाल जारी था, ‘वहां, ज्यादा सम्मान, ज्यादा स्वीकृति मिलती। ख़ास कर आपकी राजनीतिक कविताओं को।’

‘एक तो एह नाते कि हम कविता नहीं, गाना लिखता हूं। एह मारे नहीं जाता हूं।’ लोक कवि बोले, ‘दूसरे हमको कभी वहां बुलाया नहीं गया।’ उन्होंने जोड़ा, ‘वहां विद्वान लोग जाते हैं, पढ़े लिखे लोग जाते हैं। हम विद्वान नहीं हूं, पढ़ा लिखा नहीं हूं। एह नाते भी जाने की नहीं सोचता हूं !’

‘लेकिन आपके लिखे में ताकत है। बात बोलती है आपके लिखे में।’

‘हमारे लिखने में नहीं, हमारे गाने में ताकत है।’ लोक कवि बड़ी स्पष्टता से बोले, ‘हम कविता नहीं लिखता हूं, गाना बनाता हूं।’

‘तो भी अगर कवि सम्मेलनों में आप को बुलाया जाए तो आप जाएंगे ?’

‘नहीं, कब्बो नहीं जाऊंगा।’ लोक कवि हाथ हिला कर मना करते हुए बोले।

‘क्यों ?’ पत्रकार ने पूछा, ‘आखि़र क्यों नहीं जाएंगे ?’

‘वहां पैसा बहुत थोड़ा मिलता है।’ कह कर लोक कवि ने सवाल टालने की कोशिश की।

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‘मान लीजिए आपके कार्यक्रमों से ज्यादा पैसा मिले तो ?’

‘तो भी नहीं जाऊंगा।’

‘क्यों ?’

‘एक तो कार्यक्रम से बेसी पइसा नहीं मिलेगा। दूसरे, हम गाना वाला हूं, कविता वाला विद्वान नाहीं।’

‘चलिए आप को विद्वान भी मान लिया जाए, ज्यादा पैसा भी दे दिया जाए तो ?’

‘तब भी नहीं।’

‘इतना भाग क्यों रहे हैं लोक कवि, कवि सम्मेलनों से आप ?’

‘इसलिए कि हमने देखा है कि वहां अकेले गाना पड़ता है। तो हमको भी अकेले गाना पड़ेगा। संगी साथी होंगे नहीं, बाजा गाजा होगा नहीं। बिना संगी साथी, बाजे गाजे के गा नहीं पाऊंगा। और जो गा दूंगा अकेले बिना बाजा-गाजा, संगी साथी के तो फ्लाप हो जाऊंगा। मार्केट डाऊन हो जाएगा।’ लोक कवि ने बात और साफ की कि, ‘हम कविता नहीं, गाना गाता हूं, धुन में सान कर जैसे आटा साना जाता है, पानी डाल कर। वइसे ही धुन मैं सानता हूं गाना डाल कर।’ वह बोले, ‘बिना इसके हम फ्लाप हो जाऊंगा !’

‘गजब! क्या जवाब दिया है लोक कवि आप ने।’ पत्रकार लोक कवि से हाथ मिलाते हुए बोला।

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‘लेकिन इसको छापिएगा नहीं।’ लोक कवि बाबू साहब के पांव छूते हुए बोले।

‘क्यों इसमें क्या बुराई है ? इसमें तो कोई विवाद भी नहीं है ?’

‘ठीक है। बकिर विद्वान लोग नाहक नाराज हो जाएंगे।’

‘क्योंकि यही काम वह लोग भी कर रहे हैं जो कि आप कर रहे हैं इसलिए? इसलिए कि वह लोग यही काम कर विद्वानों की पांत में बैठ जा रहे हैं, और वही काम करके आप गायकों की पांत में बैठ जा रहे हैं इसलिए?’ बाबू साहब बोले, ‘लोक कवि आपकी यह टिप्पणी इन कवियों को एक करारा तमाचा है। तमाचा भी नहीं बल्कि जूता है!’

‘अरे नहीं। ई सब नाहीं।’ लोक कवि हाथ जोड़ कर बोले, ‘ई सब छापिएगा नहीं।’

‘अच्छा जो ये ढपोरशंखी विद्वान आपकी इस टिप्पणी से नाराज हो जाएंगे तो क्या बिगाड़ लेंगे ?’

‘ई हमको नहीं मालूम। पर विद्वान हैं, बुद्धिजीवी हैं, समाज के इज्जतदार हैं, उनकी बेइज्जती नहीं होना चाहिए उन का इज्जत करना हमारा धर्म है।’

‘चलिए छोड़िए।’ कह कर पत्रकार ने बात आगे बढ़ा दी। लेकिन बात चलते-चलते फिर कहीं न कहीं फंस जाती और लोक कवि हाथ जोड़ते हुए कहते, ‘बकिर ई मत छापिएगा।’

इस तरह चलते-फंसते बात एक जगह फिर दिलचस्प हो गई।

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सवाल था कि, ‘जब इतने स्थापित और मशहूर गायक हैं आप तो अपने साथ डुवेट गाने के लिए इतनी लचर गायिका क्यों रखते हैं? कोई सधी हुई गायकी में निपुण गायिका के साथ जोड़ी क्यों नहीं बनाते हैं अपनी आप?’

‘अच्छा !’ लोक कवि तरेरते हुए बोले, ‘अपने से अच्छी गायिका के साथ डुएट गाऊंगा तो हमको कौन सुनेगा भला? फिर तो उस गायिका की मार्केट बन जाएगी, हम तो फ्लाप हो जाऊंगा। हमको फिर कौन पूछेगा?’

‘चलिए अच्छी गाने वाली गायिका न सही पर थोड़ा बहुत ठीक ठाक गाने वाली सही पर खूब सुंदर कोई लड़की तो अपने साथ डुवेट गाने के लिए आप रख ही सकते हैं?’

‘फेर वही बात !’ लोक कवि मुसकुराते हुए तिड़के, ‘देख रहे हैं जमाना एतना ख़राब हो गया है। टीम में लड़कियां न रखूं तो कोई हमारा पोरोगराम न देखे, न सुने और फिर सोने पर सुहागा ई करूं कि अपने साथ डुएट गाने वाली ख़ूब सुंदर लड़की रखूं!’ वह बोले, ‘हम तो फिर फ्लाप हो जाऊंगा। हम बुढ़वा को सुनेगा कौन, सब लोग तो उस सुंदरी को ही देखने में लग जाएंगे। ज्यादा हुआ तो गोली बंदूक चलाने लग जाएंगे !’ वह बोले, ‘तो चाहे देखने में बहुत सुंदर, चाहे गाने में बहुत जोग्य हमारे साथ चल नहीं पाएगी, हमको तो दोनों ही मामलों में अपने से उन्नीस ही रखना है।’

कहने को तो साफ साफ कह गए लोक कवि लेकिन फिर पत्रकार के पैर पड़ गए। कहने लगे, ‘इसे भी मत छापिएगा।’

‘अब इसमें क्या हो जाएगा ?’

‘क्या हो जाएगा ?’ लोक कवि बोले, ‘अरे, बड़ा बवाल हो जाएगा। लड़कियां सब नाराज हो जाएंगी।’ वह बोले, ‘अभी तो सभी को हूर की परी बताता हूं। बताता हूं कि हमसे भी सुंदर गाती हो। पर सब जब असलियत जान जाएंगी तो सिर फोड़ देंगी हमारा। टूट जाएगी हमारी टीम। कौन लड़की आएगी हमारी टीम में भला?’ लोक कवि पत्रकार से बोले, ‘समझा कीजिए। बिजनेस है ई हमारा ! टूट गया तो?’

तो इस तरह कुछ क्या तमाम अप्रिय लेकिन दिलचस्प सवालों के जवाबों को काट पीट कर लोक कवि का इंटरव्यू छपा मय फोटो के।

इससे लोक कवि का ग्रेस बढ़ गया और मार्केट भी।

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अब लोक कवि के कार पर उनके सम्मान के नाम की प्लेट जो उन्होंने पीतल की बनवाई थी, लग गई थी। बिलकुल मंत्री, विधायक, सांसद, कमिश्नर, डी.एम. या एस.पी. की प्लेट की तरह!

लोक कवि के कार्यक्रम भी इधर बढ़ गए थे। इतने कि वह संभाल नहीं पा रहे थे। कलाकारों में से एक हुसियार लवंडे को उन्होंने लगभग मैनेजर सा बना दिया। सब इंतजाम, सट्टा-पट्टा, आना जाना, रहना-खाना, कलाकारों की बुकिंग, उनको पेमेंट आदि लगभग सभी काम उन्होंने उस मैनेजर कम कलाकार को सौंप दिए।

किस्मत संवर गई थी लोक कवि की। इसी बीच उनको बिहार सरकार ने भी दो लाख रुपए के सम्मान से सम्मानित करने की घोषणा कर दी। बिहार में भी एक यादव मुख्यमंत्री का राज था। यादव फैक्टर वहां भी लोक कवि के काम आया। साथ ही बिहार में भी उनके कार्यक्रमों की मांग बढ़ गई।

चेयरमैन साहब अब लोक कवि को चिढ़ाते भी कि, ‘साले अब तुम अपना नाम एक बार फिर बदल लो। मोहन से लोक कवि हुए थे और अब लोक कवि से ‘यादव कवि’ बन जाओ!’

जवाब में लोक कवि कुछ कहते नहीं बस भेद भरी मुसकान फेंक कर रह जाते। एक दिन पत्रकार से चेयरमैन साहब कहने लगे कि, ‘मान लो लोक कविया की किस्मत जो अइसेही चटकती रही तो एक न एक दिन हो सकता है इसको ले कर रिसर्च भी होने लगे। यूनिवर्सिटी में पी.एच.डी. होने लगे इसके बारे में।’

‘हो सकता है चेयरमैन साहब बिलकुल हो सकता है।’ चेयरमैन साहब के मजाक के वजन को और बढ़ाते हुए बाबू साहब बोले।

‘तो एक विषय तो इस लोक कवि की पी.एच.डी. पर सबसे ज्यादा पापुलर रहेगा।’

‘कौन सा विषय?’

‘यही कि लोक कवि के जीवन में यादवों का योगदान!’ चेयरमैन साहब थोड़ी तफसील में आते हुए बोले, ‘इसकी सबसे पहली 440 वोल्ट वाली प्रेमिका यादव, इसने सबसे पहला गाना बनाया यादव प्रेमिका पर, इसने सब से पहले संभोग किया यादव लड़की से, इसका जो पहला लड़का पैदा हुआ यादव औरत से।’ चेयरमैन साहब बोले, ‘पुरस्कार तो इसने बहुत पाए लेकिन सबसे बड़ा और राजकीय पुरस्कार पाया तो यादव मुख्यमंत्री के हाथों, फिर दूसरा पुरस्कार भी यादव मुख्य मंत्री के हाथों।’ वह बोले, ‘एतना ही नहीं आजकल कार्यक्रम भी जो खूब काट रहा है वह भी यादव समाज में ही।’ चेयरमैन साहब सिगरेट की लंबी कश लेते हुए बोले, ‘निष्कर्ष यह कि यादवों की मारते हुए भी यादवों का राजा बेटा बना हुआ है!’

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‘यह तो है चेयरमैन साहब।’ बाबू साहब मजा लेते हुए बोले।

पर लोक कवि हाथ जोड़े आंख मूंदे यों बैठे हुए थे गोया प्राणायाम कर रहे हों!

जो भी हो इन दिनों लोक कवि की चांदी थी। बल्कि यों कहें कि दिन उनके सोने के थे और रातें चांदी की। जैसे-जैसे उम्र उनकी बढ़ती जा रही थी लड़कियों का व्यसन भी उनका बढ़ता जा रहा था। पहले कोई लड़की उनकी पटरानी की स्थिति में महीनों क्या साल दो साल रहती थी पर अब दो महीना, चार महीना, ज्यादा से ज्यादा छ महीना में बदल जाती। कोई टोकता भी तो वह कहते, ‘मैं तो कसाई हूं कसाई।’ वह जोड़ते, ‘व्यवसाय करता हूं, व्यवसायी हूं। जो जितना बिकती है, उसे बेचता हूं। कसाई मांस नहीं काटेगा, बेचेगा तो खाएगा क्या?’

जाने क्यों दिन-ब-दिन वह कलाकारों के प्रति निर्दयी भी होते जा रहे थे। पहले उनके छांटे, निकाले हुए कलाकारों में से लोग मिल जुल कर साल दो साल में एक दो टीम अलग-अलग बना कर गुजारा करते। लोक कवि भी उन्हें अपनी टीम से भले अलग करते लेकिन अपने गानों को गाने से मना नहीं करते। तो यह नई टीम अलग भले ही रहती, लेकिन रहती लोक कवि की बी टीम बन कर ही। लोक कवि के ही गानों को गाती बजाती। लोक कवि का मान सम्मान करती हुई।

पर अब ?

….जारी….

उपन्यासकार दयानंद पांडेय से संपर्क 09415130127, 09335233424 और [email protected] के जरिए किया जा सकता है. इसके पहले के भाग को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- LKAGN part 4

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