[caption id="attachment_15060" align="alignleft"]संजय कुमार सिंह[/caption]आलोक तोमर के आलेख ‘नेट का भी अपना समाज है प्रभाष जी’ के क्रम में प्रभाष जी और उन जैसे तमाम लोगों को, जो नेट की हैसियत नहीं जानते या मानते, को यह बताना वाजिब होगा कि नेट के पाठक बिखरे हुए हैं, पर हैं काफी। यह अजीब बात है कि प्रभाष जी जनसत्ता में तो लिखते हैं पर नेट के पाठकों की संख्या को गंभीर नहीं मानते हैं। यहां मैं जनसत्ता के प्रसार की चर्चा नहीं करूंगा पर बताना चाहूंगा कि इंटरनेट गवरनेंस फोरम के मुताबिक भारत में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 8 करोड़ 10 लाख है। इसके अलावा दुनिया भर में फैले सैकड़ों भारतीय और हिन्दीभाषी नेट पर भारत से संबंधित और भारतीय लेखकों की सामग्री को पढ़ते हैं। इन्हें मिलाकर, इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री को पढ़ने वालों की संख्या अखबारों पत्रिकाओं के मुकाबले कई गुना ज्यादा होगी।
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नेट का भी अपना समाज है, प्रभाष जी!
सुबह-सुबह हमारे गुरु और हिंदी के या शायद भारत के महान संपादक प्रभाष जोशी का फोन आया। पहले तो उन्होंने यही पूछा कि कहां गायब हो। लेकिन वे जल्दी ही मुद्दे पर आ गए। मुद्दा यह है कि अखबारों की ईमानदारी का क्या आलम है और लोकसभा चुनाव के दौरान खबरों को छापने के लिए अखबारों ने जो निर्लज्ज धंधा किया है, उसके लिए क्या उन्हें माफ कर देना चाहिए? प्रभाषजी हालांकि इंटरनेट पर बहुत नहीं जाते। उन्होंने कई बड़े अखबारों जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया, अमर उजाला और दैनिक जागरण आदि के नाम ले कर खुलेआम लिखा और जगह-जगह बोला कि इन लोगों ने अपना ईमान बेचा है।
चारों तरफ चुप्पी पर नेट पर बड़ी घमासान : प्रभाष जोशी
पैसे लेकर खबर छापने के मामले पर जनसत्ता में फिर लिखा प्रभाष जोशी ने : पटना में इस बार एक नए पाठक मिले। नए तो वो मेरे लिए हैं। नहीं तो उमर और अनुभव में तो वे मुझसे भी पुराने हैं। बिहार चैंबर्स आफ कॉमर्स के अध्यक्ष रह चुके हैं। युगेश्वर पांडेय। कहने आए थे कि पिछले लोकसभा चुनाव में अखबारों ने खबरें बेचने का जो काला धंधा किया उसका भंडाफोड़ करके मैंने अपना पत्रकारीय धर्म निभाया है। जहां भी जाता हूं ऐसा कह कर हौसला बढ़ाने वाले आते हैं। लेकिन पांडेय जी जाते-जाते कह गए- देखिए आपने नाम लेकर उदाहरण देकर इतना सीधा-साधा और सख्त लिखा। लेकिन क्या बेशर्मी है कि किसी ने पलट कर कोई जवाब नहीं दिया। सब चुप्पी साध गए हैं।