दलितों का हो अपना मीडिया

दलितों की कोई नयी मांग नहीं है कि उनका अपना मीडिया हो। हिन्दुवादी मीडिया में दलितों का अपना कोई व्यापक मीडिया नहीं है और न ही हिन्दुवादी मीडिया की तरह व्यवसायिकता और व्यापकता के साथ भारतीय मीडिया पर काबिज है। कहने के लिए तो सैकड़ों दलित पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं, जो दलितों द्वारा संचालित हो रही है।

सबक दे गया न्‍यूज ऑफ द वर्ल्‍ड का बंद होना

sanjayब्रिटेन का सबसे ज्यादा प्रसारित साप्ताहिक टैबलाइड अखबार ”न्यूज ऑफ द वर्ल्ड” का अंतिम अंक 10 जुलाई 2011 को निकला और अपने अपने अंतिम संस्करण के मुख्य पृष्ठ पर ‘थैंक्यू एण्ड गुड बाय’ की घोषणा के साथ ही मीडिया जगत और पाठकों से विदा ले लिया। एक पूरे पृष्ठ पर प्रकाशित संपादकीय में अखबार ने पाठकों से माफी मांगते हुए लिखा कि ‘हम रास्ते से भटक गये थे’।

अल्पसंख्यक नेतृत्व की तरह दिशाहीन होती उर्दू पत्रकारिता

संजय कुमारभारतीय मीडिया में हिन्दी व अंग्रेजी की तरह उर्दू समाचार पत्रों का हस्तक्षेप नहीं दिखता है। वह तेवर नहीं दिखता जो हिन्दी या अंग्रेजी के पत्रों में दिखता है। आधुनिक मीडिया से कंधा मिला कर चलने में अभी भी यह लड़खड़ा रहा है।

पत्रकारों की चार किताबों का नीतीश ने किया लोकार्पण

किताबपटना में सामूहिक रूप से तीन वरिष्ठ पत्रकार और एक कार्टूनिस्ट की पुस्तकों का लोकार्पण किया गया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 27 दिसम्बर 2010 को वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित दैनिक हिन्दुस्तान, पटना के वरिष्ठ संवाददाता श्रीकांत की पुस्तक ‘बिहार : राज और समाज’ तथा दैनिक हिन्दुस्तान के ही समन्वय संपादक अजय कुमार की पुस्तक ‘चुनाव : अथ बेताल कथा’ के साथ-साथ प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार/लेखक हेमंत की पुस्तक ‘इस देश में जो गंगा बहती है’ और हिन्दुस्तान पटना के कार्टूनिस्ट पवन की पुस्तक ‘कार्टूनों की दुनिया’ का लोकार्पण किया।

लागा मीडिया में दाग..!

संजयनीरा राडिया प्रकरण ने भारतीय मीडिया की चूलें हिला दी है। मीडिया के शिखर पर बैठे मठाधीशों की भागीदारी ने मीडिया के एक बदनुमा दाग को सामने ला दिया है। भारतीय मीडिया में नीरा राडिया प्रकरण एक मिसाल के तौर पर है। इसने मीडिया के सफेदपोशों को नंगा कर दिया है। जनप्रहरी, लोकप्रहरी के सवालों के घेरे में हैं। मीडिया के लिए मिसाल बने बड़े जनाब, आज बहुत छोटे और ओछे नजर आ रहे हैं। उनके चेहरे पर लगा मुखौटा हट चुका है। युवा पत्रकारिता के लिए आर्दश माने जाने वाले कथित पत्रकारों ने अपने निजी फायदे के लिए मीडिया को कटघरे में खड़ा कर दिया है।

बिहार चुनाव का अनोखा हाल : अजय की ‘ चुनाव अथ बेताल कथा’

अजयपत्रकार अजय कुमार अपने सद्यः प्रकाशित पुस्तक “चुनाव : अथ बेताल कथा’’ को लेकर खासे चर्चे में है। बिहार की पत्रकारिता में लम्बे समय  से सक्रिय भूमिका सार्थकता के साथ निभाते आ रहे अजय की यह पहली पुस्तक है। प्रभात खबर से अपनी पत्रकारिता की शुरूआत करने वाले अजय, प्रभात खबर, पटना के स्थानीय संपादक भी बने। इसके बाद दैनिक हिन्दुस्तान, जमशेदपुर में स्थानीय संपादक का दायित्व निभाया। इन दिनों दैनिक हिन्दुस्तान, पटना में समन्वय संपादक के तौर पर कार्य करते हुए पत्रकारिता के मुकामों को सार्थक बनाने की पहल में जुटे हैं।

बिहार का विश्‍लेषण करती श्रीकांत की ‘बिहार : राज और समाज’

राजबिहार अपने खास तेवर के लिए जाना जाता है। यहां की राजनीतिक प्रखरता के बावजूद यह राज्य विकास के पटरी पर सालों से नहीं आया। यहां राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक सहित अन्य पहलुओं में बहुत कुछ बदलाव देखा जाता रहा है। बावजूद यह वह मुकाम नहीं पा सका जो अन्य राज्यों ने पाया। राजनीतिक इच्छा शक्ति ने इसे पिछड़े राज्यों के अंतिम पायदान पर ला खड़ा किया। बिहार की सत्ता पर काबिज होने वाली पार्टियां भी न्याय नहीं कर पायी। देश के बाहर बिहारी शब्द गाली बनी। बिहार में बीस सालों में बहुत कुछ बदल गया है। सत्ताधारी पार्टी के एकाधिकार के खिलाफ नयी ताकत को जनता ने सत्ता के रंगमंच बैठाया। बिहार में विकास का सवाल उठा। आर्थिक विकास के साथ-साथ बिहार की गरिमा के लिए गोलबंद होने का दौर शुरू हुआ।