पत्रकारिता के कंधों पर कितनी बड़ी जिम्मेदारी होती है, पत्रकार की संवेदना कितनी व्यापक व उदात्त होती है, इसे समझने वालों की संख्या दिन ब दिन कम होती जा रही है. अच्छी बात है कि कई पत्रकार अपनी सीमाओं और अपने जीवन संघर्षों के बावजूद वृहद मानवीय सरोकारों को जी रहे हैं, पत्रकारिता के धर्म व पत्रकार के दायित्व के पैमाने पर 24 कैरेट सोने की तरह खरे उतर रहे हैं. उन्हीं में से एक संजय तिवारी हैं. इलाहाबाद के एक गांव के एक गरीब परिवार से निकले संजय इलाहाबाद विश्वविद्यालय की पढ़ाई मुश्किल से कर सके. आर्थिक दिक्कतों ने न तब पीछा छोड़ा था न अब. तब पढ़ने की दिक्कत थी, अब अपनी सोच व समझ के हिसाब से जीवन जीने का संकट है. विस्फोट डाट काम के जरिए हिंदी वेब पत्रकारिता में एक मुकाम हासिल किया है संजय ने.
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संजय तिवारी ने दिया अंबरीश के आरोपों का जवाब
15 जुलाई की शाम दिल्ली के गांधी दर्शन में प्रभाष जोशी को जानने मानने वाले कोई पांच सात सौ लोग इकट्ठा हुए और उन्होंने उनके जाने के बाद पहला जन्मदिन मनाया. प्रभाष जी जब थे तब वे जन्मदिन पर भी अपनी उत्सवधर्मिता का पालन करते थे. उनके जाने के बाद जिस न्यास ने इस कार्यक्रम का आयोजन किया था उसकी कोशिश भी यही थी कि प्रभाष जी की उस परंपरा को भी जन्मदिन के बहाने बरकरार रखा जाए. जिस दिन यह कार्यक्रम हो रहा था, मैं खुद मुंबई में था. चाहकर भी नहीं पहुंच पाया क्योंकि दिल्ली और मुंबई के बीच अच्छी खासी दूरी है और मुंबई से दिल्ली पैदल चलकर नहीं जाया जा सकता था. फिर भी लोगों से बात करके जो पता चला वह यह कि खूब लोग आये और प्रभाष जी को याद किया.
जवाब हम देंगे (3)
नर्क का द्वार नहीं है नया मीडिया
पिछले हफ्ते इसी दिन हिन्दुस्तान की संपादक मृणाल पांडेय ने नये मीडिया के नाम पर एक लेख लिखा था. अपने लेखनुमा संपादकीय में उन्होंने और बातों के अलावा समापन किया था कि नया मीडिया घटिया व गैर-जिम्मेदार है. बाकी लेख में वे जो कह रही हों पर इस एक वाक्य पर ऐतराज जताने का हक बनता है. नये मीडिया के बारे में जानने से पहले जानें कि मृणाल की नये मीडिया के बारे में यह धारणा बनी क्यों?
आपके मान की कीमत इतनी छोटी क्यों है?
देश का मारवाड़ी समुदाय न होता तो आज शायद हिन्दी की दुर्दशा ज्यादा दर्दनाक होती. ज्ञान को पूंजी का आधार ही नहीं बल्कि पूंजी का सम्मान भी चाहिए. मारवाड़ी समाज ने अपनी भाषा को पूंजी का यह सम्मान दिया. देवनागरी लिपी को ऐसा मानद सम्मान देनेवालों में स्वर्गीय के के बिड़ला भी शामिल थे. उनके प्रकाशन समूह हिन्दुस्तान टाईम्स मीडिया ने बाजार की विपरीत आंधी के बीच हिन्दुस्तान का हिन्दी स्वरूप बनाये रखा. अगर दिल्ली की बात करें तो उसके प्रतिद्वंदी (अब शायद नहीं) टाईम्स प्रकाशन ने हिन्दी को हिन्गलिस बनाने की जैसी “साहसिक” पहल की है हिन्दुस्तान लिपी और शब्दों के स्तर पर अपने स्तर को नीचे नहीं उतारा. बिड़ला जी शायद जानते थे तेवर भाषा के कलेवर में ही छिपा होता है, इसलिए इसकी पवित्रता बनाये रखना बहुत जरूरी है.