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नर्क का द्वार नहीं है नया मीडिया

पिछले हफ्ते इसी दिन हिन्दुस्तान की संपादक मृणाल पांडेय ने नये मीडिया के नाम पर एक लेख लिखा था. अपने लेखनुमा संपादकीय में उन्होंने और बातों के अलावा समापन किया था कि नया मीडिया घटिया व गैर-जिम्मेदार है. बाकी लेख में वे जो कह रही हों पर इस एक वाक्य पर ऐतराज जताने का हक बनता है. नये मीडिया के बारे में जानने से पहले जानें कि मृणाल की नये मीडिया के बारे में यह धारणा बनी क्यों?

<p align="center"><img src="http://www.bhadas4media.com/images/hero/lekh.jpg" border="1" hspace="6" width="181" height="138" align="left" /><span style="color: #ff0000;">नर्क का द्वार नहीं है नया मीडिया</span></p> <p align="justify">पिछले हफ्ते इसी दिन हिन्दुस्तान की संपादक मृणाल पांडेय ने नये मीडिया के नाम पर <a href="http://www.bhadas4media.com/index.php?option=com_content&view=article&id=1249:mrinal&catid=32:kahin&Itemid=54" target="_blank">एक लेख</a> लिखा था. अपने लेखनुमा संपादकीय में उन्होंने और बातों के अलावा समापन किया था कि नया मीडिया घटिया व गैर-जिम्मेदार है. बाकी लेख में वे जो कह रही हों पर इस एक वाक्य पर ऐतराज जताने का हक बनता है. नये मीडिया के बारे में जानने से पहले जानें कि मृणाल की नये मीडिया के बारे में यह धारणा बनी क्यों?</p>

नर्क का द्वार नहीं है नया मीडिया

पिछले हफ्ते इसी दिन हिन्दुस्तान की संपादक मृणाल पांडेय ने नये मीडिया के नाम पर एक लेख लिखा था. अपने लेखनुमा संपादकीय में उन्होंने और बातों के अलावा समापन किया था कि नया मीडिया घटिया व गैर-जिम्मेदार है. बाकी लेख में वे जो कह रही हों पर इस एक वाक्य पर ऐतराज जताने का हक बनता है. नये मीडिया के बारे में जानने से पहले जानें कि मृणाल की नये मीडिया के बारे में यह धारणा बनी क्यों?

सब जानते हैं कि भड़ास ब्लाग से मीडिया पोर्टल बनाने वाले यशवंत सिंह ने हिन्दुस्तान से निकाले गये कुछ कर्मचारी नुमा पत्रकारों की खबरें छापी थीं. हिन्दुस्तान ने कहा कि छंटनी करनी है क्योंकि मंदी है इसलिए कुछ ऐसे लोगों को बाहर निकाल दिया गया जिन्हें हिन्दुस्तान अब अपने साथ नहीं रख सकता था. इसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दुस्तान टाईम्स समूह ने इसे अपना अपमान मानते हुए उन तीन लोगों को तो नोटिस भेजा ही जिन्होंने निकाले जाने पर बगावत का बिगुल बजाया था, उन यशवंत सिंह को भी नोटिस थमा दिया जिन्होंने खबर छापी थी. किलोभर का नोटिस का बैग लिए यशवंत सिंह मिले तो चकराये हुए थे. जब तक हाईकोर्ट नहीं गये तो थोड़ा डरे भी हुए थे. लेकिन हाईकोर्ट से लौटे तो आश्वस्त थे कि उन्हें न्याय मिलेगा.

इसी बीच एक लड़की ने एक पोस्ट लिख दी जो सीधे तौर पर मृणाल पाण्डेय को निशाना बनाता था. उसने मृणाल पाण्डेय के बारे में कुछ ऐसी बातें लिखीं जो जनसामान्य को नहीं पता हो सकती. उसने उनके व्यक्तित्व, कार्यशैली आदि का जिक्र किया. मृणाल पाण्डेय का संपादकीय इन्हीं दो घटनाक्रमों के बाद आया था.

नोटिस भेजने के अपने तर्क पर वे लिखती हैं “अगर प्रोफेशनल दुराचरण साबित होने पर एक डॉक्टर या चार्टर्ड अकाउंटेंट नप सकता है, तो एक गैरजिम्मेदार पत्रकार क्यों नहीं?’ जरुर नप सकता है. लेकिन इस नपने नापने की लड़ाई में शुरूआत हमेशा नीचे से ही क्यों हो? क्या मृणाल पाण्डेय जी उन पत्रकारों को भी नापेंगी जो आमचुनाव की लहर में बहकर उन्हीं के अखबार में काम करते हुए १०-१० लाख रुपये में खबर खरीदने-बेचने का धंधा कर रहे हैं. इसके लिए तो शायद उन्हें नोटिस देने की जरूरत भी न पड़े. अपने ही घर का अखबार है, जब चाहें एक्शन ले लें. लेकिन वे ऐसा नहीं करेंगी. क्योंकि गरीब पांच रुपये झटक ले तो चोरी होती है लेकिन अमीर अरबों का वारा-न्यारा करे तो वह बिजनेस हो जाता है. और मजा देखिए कि यह खबर भी हमें एक ब्लागर अर्थात नये मीडिया कर्मी से ही पता चल रही है. बनारस के ब्लागर अफलातून लिखते हैं कि बिना रसीद पैसा उगाहने के इस पुनीत कर्म में हिन्दुस्तान के साथ ही दैनिक जागरण भी शामिल हैं.

नयी मीडिया से उभर रहे पत्रकारों को उखाड़ फेकने का मृणाल पाण्डेय का आह्वान सभी अखबारी समाज से है. जाहिर सी बात है आज अखबार औद्योगिक घराने हैं और शीर्ष पर बैठे घराना पत्रकारों को उन घरानों को बचाने की जद्दोजहद करनी होगी जिनके साथ वे काम कर रहे हैं. लेकिन हम उस सवाल पर लौटते हैं जो मृणाल पाण्डेय ने उठाया है कि नया मीिडया गैर-िजम्मेदार और घटिया है. मृणाल जी, जिम्मेदारी की परिभाषा क्या होती है और इसे कौन तय करता है? निश्चित रूप से इसे और कोई नहीं बल्कि पाठक तय करते हैं. पत्रकारिता को सीए और डाक्टर की तर्ज पर पेशा मान भी लें तो ग्राहक ही आखिरी निर्णायक होता है कि हमारा धंधा चलेगा या नहीं चलेगा. समाचार उद्योग की दुनिया पर भी यही लागू होता है. और नया मीडिया ऐसा माध्यम है जो पाठक के साथ सीधे संवाद का अवसर देता है. यहां ऐसा बिल्कुल नहीं होता कि अखबार के लिखे पर चिट्ठी छापने का हक संपादक के विवेक पर छोड़ दिया जाए. यहां पाठक सीधे तौर पर हस्तक्षेप करता है और निर्णायक की भूमिका में होता है. अब ज्यादा जिम्मेदार किसे कहा जाए? वह जो चिट्ठी मिलने पर न छापने का हक अपने पास सुरक्षित रखता है या फिर वह जहां पाठक सीधे तौर पर हस्तक्षेप कर रहा है. फैसला मृणाल जी के किसी और संपादकीय पर छोड़ते हैं…..

इसके आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें- नर्क का द्वार नहीं है नया मीडिया

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