देश का मारवाड़ी समुदाय न होता तो आज शायद हिन्दी की दुर्दशा ज्यादा दर्दनाक होती. ज्ञान को पूंजी का आधार ही नहीं बल्कि पूंजी का सम्मान भी चाहिए. मारवाड़ी समाज ने अपनी भाषा को पूंजी का यह सम्मान दिया. देवनागरी लिपी को ऐसा मानद सम्मान देनेवालों में स्वर्गीय के के बिड़ला भी शामिल थे. उनके प्रकाशन समूह हिन्दुस्तान टाईम्स मीडिया ने बाजार की विपरीत आंधी के बीच हिन्दुस्तान का हिन्दी स्वरूप बनाये रखा. अगर दिल्ली की बात करें तो उसके प्रतिद्वंदी (अब शायद नहीं) टाईम्स प्रकाशन ने हिन्दी को हिन्गलिस बनाने की जैसी “साहसिक” पहल की है हिन्दुस्तान लिपी और शब्दों के स्तर पर अपने स्तर को नीचे नहीं उतारा. बिड़ला जी शायद जानते थे तेवर भाषा के कलेवर में ही छिपा होता है, इसलिए इसकी पवित्रता बनाये रखना बहुत जरूरी है.
हम हिन्दी समाज को उनका और उनके काम का आभारी होना ही चाहिए कि उन्होंने एक भाषा को उसी रूप में जिन्दा रखा, भले ही इसके लिए उन्हें आर्थिक नुकसान ही क्यों न हुआ हो. उन्होंने एक काम और किया था. भाषा के साथ-साथ विद्या साधकों के लिए भी अपने जीते ठेके का प्राणी नहीं बनाया. हिन्दी समाज में पत्रकारिता में यह दूसरा साहसिक कदम था जो बाजार को चुनौती दे रहा था. हिन्दुस्तान समूह का इतिहास आजादी के आंदोलन से शुरू होता है और महामना मदन मोहन मालवीय जैसे संपादकों के साथ काम करने का इतिहास लिखता है.
लेकिन इधर एक साल के भीतर इस समूह के साथ दो ऐसी घटनाएं हुई जो हम हिन्दी पट्टीवालों को िनराश करती हैं. पहली घटना बिड़ला जी के मौत के ठीक बाद की है. दिल्ली के एक पुराने पत्रकार ने एक नई वेबसाईट शुरू की थी-गाशिप अड्डा. जिसके नाम में ही गाशिप हो उसके काम को गंभीरता से लेने की जहमत कौन उठायेगा भला? इस वेबसाईट ने एक खबर प्रकाशित की कि बिड़ला जी की मौत के बाद भी लखनऊ दफ्तर में प्रशासकीय विभाग पूर्व नियत पार्टी हुई. कायदे से तो समूह को उस पत्रकार को धन्यवाद करना चाहिए था जिसने उनके कार्यालय में पल-बढ़ रहे ऐसे लोगों को सामने ला दिया था जो समूह के मालिक की मौत के बाद भी गमगीन नहीं थे. हुआ उल्टा. उन पत्रकार महोदय के घर पुलिस पहुंच गयी. पुलिस ने बताया कि उनके खिलाफ मानहानि का मामला बनता है. उन्हें गिरफ्तार करना था क्योंकि लखनऊ के एचटी कार्यालय ने उनके खिलाफ शिकायत की थी. हड़कम्प मचा. पुराने पत्रकार सुशील सिंह के जितने भी परिचित थे उन्होंने सबने अपने-अपने हिसाब से कोशिश की और इसका इतना ही असर हुआ कि वे गिरफ्तार नहीं हुए. लेकिन उस घटना के बाद गाशिप अड्डा बंद ही हो गयी.
दूसरी घटना हाल-फिलहाल की है. जनवरी में हिन्दुस्तान टाईम्स समूह ने मंदी की मार से बचाने के लिए कुछ वरिष्ठ लोगों की छंटनी कर दी. जो लोग निकाले गये उनमें शैलबाला भी थीं. शैलबाला का कहना है कि जब उनसे इस्तीफा ले लिया गया उसके बाद उनके साथ बदसलूकी की गयी और बहुत अपमानित तरीके से संस्थान से बाहर जाने के लिए कहा. उन्होंने इस बात की शिकायत स्थानीय पुलिस स्टेशन में की और पुलिस ने १२०, १२० बी और धारा ३४ के तहत मामला दर्ज कर लिया. अगर यह सब दो साल पहले होता तो बात इतनी बढ़ती नहीं क्योंकि जितना अधिकतम शैलबाला कर सकती थीं उन्होंने कर दिया था. उन्होंने पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी थी. लेकिन पिछले दो तीन सालों में मीडिया में एक चौथे माध्यम ने जिस प्रकार से प्रवेश किया है उसने शैलबाला को इससे आगे जाने का मौका दिया. उन्होंने एक मीडिया पोर्टल भड़ास4मीडिया में खबर प्रकाशित करवाई. पोर्टल ने वही छापा जो पत्रकार महोदय ने उस पोर्टल को बताया. उस पर भी उस पोर्टल ने प्रतिवादी पक्ष प्रमोद जोशी का बयान भी लिया. और अखबार समूह ने अपनी सफाई में जो कुछ कहा वह भी उस पोर्टल पर छपा.
ठीक दो महीना बीतने के बाद अचानक भड़ास4मीडिया के संपादक को पता चलता है कि उनके खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट में मानहानि का मुकदमा हुआ है. मुकदमा एचटी मीडिया समूह के स्थानीय संपादक प्रमोद जोशी की ओर से किया गया है. प्रमोद जोशी ने माना कि इस पोर्टल ने जो खबर प्रकाशित की उससे उनके और उनके संस्थान दोनों की मानहानि हुई है. कहते हैं उन्होंने इसकी क्षतिपूर्ति के लिए दावा ठोंका है. पैसा चाहे जो हो इतना पैसा न तो बेरोजगार शैलबाला भर सकती हैं और न ही भड़ास4मीडिया के संपादक यशवंत सिंह. लेकिन यहां सवाल रूपये पैसे या कानून से ज्यादा नैतिकता का है. उस नैतिकता का सवाल है जिसकी दुहाई देते हुए भारत में पत्रकारिता को दुनिया के दूसरे देशों की पत्रकारिता से अलग माना जाता है. क्या हम पलटकर बड़े घराने से यह पूछ सकते हैं कि आपके मान की कीमत इतनी छोटी क्यों है? मान सम्मान तो मान सम्मान होता है. कोई अकेले में आपकी इज्जत ले या सरे बाजार. अगर आप नैतिक इंसान है तो बाजार में इज्जत जाने से जितने दुखी होंगे उतने ही दुखी अकेले में इज्जत जाने से भी होंगे. यह तो भला हो कि ये लोग इतना पैसा भी भरने की स्थिति में नहीं है. अगर ऐसा होता तो क्या थोड़ा सा पैसा भरकर कोई भी व्यक्ति भीमकाय मीडिया समूह एचटी का अपमान कर सकता है?
अजय उपाध्याय के जाने के बाद मृणाल पाण्डेय को एचटी समूह ने अपने अखबार हिन्दुस्तान का संपादक बनाया. मृणाल पाण्डेय के आने के बाद हिन्दुस्तान के बदलाव उसके बढ़ते प्रसार से पता चलता है. हिन्दी को हिन्गलिस बनाये बिना उन्होंने जिस तरह से आधुनिकता से तालमेल बैठाया है उसकी तारीफ करनी ही होगी. लेकिन अपने इस आशातीत आरोह में नये मीडिया माध्यमों से उलझना थोड़ा अचंभा पैदा करता है. मुझे नहीं लगता कि हिन्दुस्तान टाईम्स समूह इतना कमजोर संस्थान है कि किसी के गाशिप लिखने या खबर छापने से उसकी सेहत पर कोई फर्क पड़ता है. बल्कि उदार चरित समूह को इस आलोचना का भी वैसे ही स्वागत करना चाहिए जैसे अपनी प्रशंसा का करता है. सबको समेटने की सबसे बड़ी कला यह है कि आप प्रशंसा ही नहीं आलोचना को भी आदर दीजिए. आप अपने आप बड़े हो जाते हैं.
जिन लोगों को नोटिस आयी है वे उच्च न्यायालय को अपना जवाब देंगे और कानून अपना काम करेगा. कानून इन लोगों के खिलाफ भी फैसला दे दे तो ये लोग इतना पैसा अदा नहीं कर सकते. जिनके पास वह है ही नहीं जो आप मांग रहे हैं तो आप कोई भी आदेश पारित करवा लीजिए वह नहीं दे सकता तो नहीं दे सकता. फिर इस सारी कवायद का मतलब क्या रह जाता है? अगर उन लोगों को सजा मिल भी जाती है जिन्होंने घराने का अपमान किया है तो किसका नाम ऊंचा होगा और कौन विजेता बनेगा? घोर आश्चर्य तो तब होता है जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संजोते पूरी जिंदगी बिता देने वाले लोग भी इस तरह की बात करते हैं. अब हम हिन्दी समाज के लोग किस घाट लगेंगे, यह सोचकर बड़ा दुख होता है. बेहतर हो कि मानहानि का दावा करनेवाले अदालत परिसर में गये बिना ही बात को खत्म कर दें, यह न केवल किसी व्यक्ति विशेष के हित में होगा बल्कि पूरी पत्रकार बिरादरी के हित में होगा. संयोग से इस समूह की समृद्ध परंपरा में यह संभव है. बस……..इतना ही.