कूच करने के लिए पचास साल भी कोई उम्र होती है

आलोक तोमर चले गए. जाने के लिए भी दिन क्या चुना. ठीक होली के दिन. शायद यह सुनिश्चित करना चाहते रहे होंगे कि बहुत करीबी लोगों के अलावा कोई दुःख न मना ले. आलोक के बारे में आज कुछ भी लिख पाना मुश्किल होगा, लेकिन आलोक का नाम लेते ही कुछ यादें आ जाती हैं. आलोक तोमर ने अपने प्रोफेशनल जीवन में प्रभाषजी से बहुत कुछ सीखा, इस बात को वे बार-बार स्वीकार भी करते रहे. प्रभाष जी से दण्डित होने के बाद भी उन्हें सम्मान देते रहे. लेकिन  अपने को हमेशा उनका शिष्य मानते रहे.

यह विद्रोही अपनी शर्तों पर कविता करेगा

[caption id="attachment_19199" align="alignleft" width="85"]शेष नारायण सिंह शेषजी[/caption]फेसबुक पर एक बहुत ही दिलचस्प बहस चल रही है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उनके छात्र जीवन के साथी असरार खां ने जनवादी कवि रमाशंकर यादव विद्रोही के बारे में कुछ ऐसे बयान दे दिए हैं जिन पर विवाद है. जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष चन्द्रशेखर से उनकी तुलना कर देने के बाद कुछ लोगों को नागवार गुज़रा और उन्होंने विद्रोही की कविता पर ही सवाल उठाने शुरू कर दिए. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 1983 में हुए संघर्ष की कथा में नायकों और खलनायकों का ज़िक्र चल पड़ा और बात विद्रोही की कविता से हट कर छात्र राजनीति की बारीकियों पर केन्द्रित हो गयी.

आरएसएस सभी हिन्दुओं का संगठन नहीं

शेषजी: हिन्दू धर्म में आतंकवाद की कोई जगह नहीं : दिसंबर में हुई कांग्रेस की सालाना बैठक में जब से तय हुआ कि आरएसएस के उस रूप को उजागर किया जाए जिसमें वह आतंकवादी गतिविधियों के प्रायोजक के रूप में पहचाना  जाता है, तब से ही आरएसएस के अधीन काम करने वाले संगठनों और नेताओं में परेशानी का आलम है. जब से आरएसएस के ऊपर आतंकवादी जमातों के शुभचिंतक होने का ठप्पा लगा है वहां अजीबोगरीब हलचल है. आरएसएस ने अपने लोगों को दो भाग में बाँट दिया है. एक वर्ग तो इस बात में जुट गया है कि वह संघ को बहुत पाक साफ़ संगठन के रूप में प्रस्तुत करे, जबकि दूसरे वर्ग को यह ड्यूटी दी गयी है कि वह आरएसएस को सभी हिन्दुओं का संगठन बनाने की कोशिश करे.

आखिर में राडिया गैंग के पत्रकार वेबमीडिया को घेरने की कोशिश करेंगे

शेषजी नीरा राडिया के टेलीफोन के शिकार हुए लोगों की नयी किश्त बाज़ार में आ गयी है. पहली किश्त में तो अंग्रेज़ी वाले पत्रकार और दिल्ली के काकटेल सर्किट वालों की इज्ज़त की धज्जियां उडी थीं. उनमें से दो को तो उनके संगठनों ने निपटा दिया. वीर संघवी और प्रभु चावला को निकाल दिया गया है लेकिन बरखा दत्त वाले लोग अभी डटे हुए हैं, मानने को तैयार नहीं हैं कि बरखा दत्त गलती भी कर सकती हैं. आउटलुक और भड़ास वालों की कृपा से सारी दुनिया को औपचारिक तौर पर मालूम हो गया है कि पत्रकारिता के टाप पर बैठे कुछ लोग दलाली भी करते थे. हालांकि दिल्ली में सक्रिय ज़्यादातर लोगों को मालूम है कि खेल होता था, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि उसके बारे में बात कर सके.

बाबासाहेब की याद में लगा मुंबई में मेला

शेषजीदिल्ली में रहने वालों को महान नेताओं की समाधियों के बारे में खासी जानकारी रहती है. लगभग हर महीने ही सरकारी तौर पर समाधियों पर फूल-माला चढ़ता रहता है. यह अलग बात है कि महात्मा गाँधी के अलावा और किसी समाधि पर आम आदमी शायद ही कभी जाता हो. अवाम की श्रद्धा के स्थान के रूप में महात्मा जी की समाधि तो स्थापित हो चुकी है लेकिन बाकी सब कुछ सरकारी स्तर पर ही है. करीब 35 साल से दिल्ली में रह रहे अवध के एक गाँव से आये हुए इंसान के लिए यह सब उत्सुकता नहीं पैदा करता. बचपन में पढ़ा था कि शहीदों की मजारों पर हर बरस मेले लगने वाले थे, लेकिन महत्मा गाँधी जैसे शहीद की मजार पर वैसा मेला कभी नहीं दिखा जैसा कि हमारे गाँव के आसपास के सालाना मेलों के अवसर पर लगता है.