साढ़े तीन लाख रुपये प्रत्येक महीने और सेवा-टहल के लिए अलग से देने की औकात है तो टैम के टामी आप पर भी दिखा सकते हैं मेहरबानी : लगता है टैम ने छोटे चैनलों को मिटाने की ठान ली है। इसके लिए उसने एड एजेंसियों से हाथ मिलाया है और अब वो छोटे चैनलों को निगलने के लिए रोज उल-जुलूल नियम बना रहा है। और ये सब वो अपना पिटारा भरने के लिए कर रहा है। पैसा कमाने के लिए टैम किसी भी हद तक जाने को तैयार दिखता है। सबसे हैरान कर देने वाली बात ये है कि वो न तो सरकार से डर रहा है और न ही उसे अदालती पचड़ों का खौफ है। अब आप सोच रहे होंगे कि हम ऐसा क्यों कह रहे हैं, तो चलिए पहले आपको बताते हैं कि टैम है क्या। टैम एक संस्था है, जो चैनलों की मॉनीटरिंग करती है। टैम सभी चैनलों को तीन तरह के डाटा देता है और इसकी एवज में भारी भरकम फीस वसूलता है। टैम जो तीन प्रमुख डाटा देता है वो हैं- व्यूवरशिप डाटा, चैनल मोनिटरिंग का डाटा और एडेक्स सेवा।
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बिहार-झारखंड की टीआरपी पटना के 40 घरों में!
अब तो सत्ताधारी कांग्रेस को भी पटा लिया है ‘टैम’ के ‘टामियों’ ने : टीवी चैनलों की व्यूवरशिप बताने वाली कंपनी टैम (टेलीविजन आडिएंस मीजरमेंट) के नए नए खेल रोज देखने को मिलते हैं। कंपनियों को बेवकूफ बनाकर करोड़ों रुपये कमाने की तरकीब किसी को अगर सीखना हो तो टैम के टॉमियों से सीख सकते हैं। टैम के इन टॉमियों ने अब कांग्रेस को भी अपनी लुभावनी चालों से अपने गिरफ्त में ले लिया है। पता चला है कि कांग्रेस मुख्यालय में टैम की इतनी पहुंच हो गई है कि अब कांग्रेस का चुनाव प्रचार टैम के टॉमियों की फौज और बड़ी-बड़ी विज्ञापन एजेंसियों के अंग्रेजीदां बाबा लोगों के हाथ में आ गई है। जहां तक टैम की टीआरपी और जीआरपी का सवाल है तो सबसे पहले झारखंड का ही उदाहरण ले लीजिए। बिहार और झारखंड में टैम के कुल जमा चालीस मीटर हैं और वो भी सिर्फ और सिर्फ पटना में हैं।
टीवी संपादकों, टीआरपी को त्रैमासिक कराओ
सप्ताह 46वां, 8 नवंबर से 14 नवंबर 09 तक : टैम वाले टामियों को कमाते रहना है, अपने धंधे को चमकाते रहना है, सो थोड़े-बहुत अंकों के हेरफेर के साथ हर हफ्ते सो-काल्ड टीआरपी में कमी-बेसी के बारे में बताते रहना है। इन टामियों को किसी डाक्टर ने कहा है कि हर हफ्ते टीआरपी रिपोर्ट जारी करें? अबे, खुद भी चैन से जियो और चैनल वालों को भी थोड़ा चैन कर लेने दो। चैनल वाले कई बेचारे तो आजकल इतने टेंशन में हैं कि परसनल और प्रोफेशनल, दोनों लाइफ बर्बाद होने की स्थिति है। कइयों की तो पहले ही बर्बाद हो चुकी है। टैम वाले अपनी रिपोर्ट को न अर्द्धवार्षिक तो कम से कम त्रैमासिक तो कर ही दें। अखबार वाले कितने सुकून में हैं। छह महीने चैन से अखबार निकालते रहते हैं। भांति-भांति के प्रयोग और फ्लेर-कलवेर घटाते-बढ़ाते रहते हैं। जनता जनार्दन की भी बात कर लेते हैं। पर ये टैम वाले टामी तो टीवी वालों को टीआरपी के अलावा कुछ सोचने ही नहीं देते। भूत-प्रेत, यू-ट्यूब वीडियो की कहानियां, हंसी वाले सीरियल और रोने-गाने-बदन दिखाने वाले रियलिटी शो के जरिए अगर टीआरपी प्राप्त होती है तो अच्छे-खासे छवि वाले न्यूज चैनल भी इन्हीं हथकंडों को अपनाने लगते हैं। इन अच्छे-खासे चैनलों के संपादक जी लोग बस बेचारा बने रहते हैं। या फिर इलेक्ट्रानिक मीडिया की ऐसी-तैसी करने के अभियान में थोड़ा-बहुत अपना भी योगदान देते रहते हैं।