जब मैं दफ्तर में बैठे-बैठे अचानक नारे लगाने वाली मुद्रा में जोर से बोल पड़ा कि ‘फर्जी टीआरपी के धंधे को खत्म करो, टैम वाले टॉमियों की वीकली भौं भौं बंद करो’ तो मेरे पास बैठे साथी चौंकने वाली मुद्रा में आ गए। कुछ दबी हंसी हंसे तो कुछ खिलखिला दिए। मगर मेरा हंसना मामूली न था। सबने वजह पूछी। मैंने कहा- ‘एक बार सभी मेरे साथ जोर से बोलो तब बताऊंगा।’ और फिर सबने ऐसा ही किया। मैंने उन्हें सविस्तार वजह बताई। मैं लगभग क्रांतिकारियों वाले अंदाज में गर्व से बोल पड़ा। दरअसल, जब हम लंबे समय से किसी बारे में सोचते आते हैं और लगभग वैसी ही बात नेशनल लेवल पर कोई और पूरी ताकत से कह दे तो मन ही मन अजीब-सी खुशी और विचारों में अनूठी ताकत महसूस होती है। मन करता है कि इस आदमी के गले मिल आएं या फिर जैसे भी बन पडे, अपना समर्थन उस तक पहुंचाएं। सोमवार शाम भडास4मीडिया पर टैम के टॉमियों के पीछे ‘वैचारिक, मूल्यपरक और मौलिक डंडा’ लेकर पड़ जाने वाला आलेख पढ़ा तो मानो मेरे मन की बात भी सुलग उठी।
सर्कुलेशन की कुत्ता दौड़ में हांफते अखबारों और टैम की दुम पकड़कर अपनी रफ्तार तय करने वाले चैनलों के बारे में लंबे समय से मन अकुलाता रहता था। अक्सर ये चीजें दिमाग को मथती थी कि आखिर क्यों सरोकार के पक्ष में खडे़ होने वाले कार्यक्रम ‘आपकी अदालत’ में बड़ी-बड़ी दलीलें देने वाले रजत शर्मा जैसा सुलझा हुआ आदमी झाबुआ में कुछ लोगों की मौत पर स्टोरी करने के आग्रह के बावजूद आलोक तोमर से कह देता है कि ‘झाबुआ इज नॉट ए टीआरपी प्लेस’। ऐसे वाकयों पर मन में फिर-फिर सवाल उठता था कि ये कुत्ती टीआरपी है क्या बला।
अखबारों, चैनलों से जुड़े अपने साथियों के साथ चौराहों पर चाय की चुस्कियों या पान खाते वक्त होने वाली फक्कड़-फालतू बातचीत में जब भी साथियों ने टीआरपी और सर्कुलेशन के कथित गणित को तर्कसंगत ठहराने के हथकंडे अपनाए, मैं वैसे ही उनके पीछे मानदंडों का डंडा लेकर पिल पडा जैसे यशवंत जी इन दिनों पडे़ हैं।
साथियों के तर्क होते थे कि टीआरपी नहीं तो फिर ये कैसे पता चलेगा कि कौन-सा चैनल कितना देखा जाता है? मेरा प्रतिप्रश्न होता था कि ‘तुम सीधे-सीधे ये कहो ना यार कि टीआरपी नहीं होगी तो ये कैसे तय होगा कि कौन चैनल मार्केट से कितना बिजनस झटक सकता है।’
वे फिर बोलते, मैं फिर दुलकता और आखिरकार बात उनकी ओर से इस टुच्चे तर्क पर आ गिरती कि ‘आखिर चैनल के पत्रकारों की सैलेरी कैसे निकलेगी?’
यहां मैं गर्व भरे भाव से कहता ‘…तो किसने कहा था पत्रकारिता ही करो, सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनते, मरीन इंजीनियरिंग ट्राय करते, और बात अगर पैसा कमाने की ही है तो आजकल अखबारों में लड़कों-पुरुषों के लिए ऐसे विज्ञापन भी छपते हैं जिनमें साफ लिखा होता है कि अमीर घरानों की महिलाओं की फुल बॉडी मालिश के लिए जिगोलो चाहिए, पैसा मनमाफिक मिलेगा।’…तो वही ट्राय कर लेते।
दरअसल, बात ढोंग रचने और समाज की पीठ में छुरा घोंपने की है। मैं कसाई को उस पंडित से कहीं अच्छा मानता हूं जो किसी मंदिर में पूजा-पाठ का ढोंग करने के साथ दानपेटी में हेरफेर भी करता है। असल में, यहां कसाई इसलिए पंडित से ज्यादा श्रेष्ठ है क्योंकि कम से कम वह झूठ तो नहीं बोल रहा, छद्म तो नहीं रच रहा और न ही समाज की पीठ में झूठ का छुरा घोंप रहा है। वह खम ठोंककर कहता है कि मेरा काम यही है, जबकि इसके उलट पंडित मोटा टीका लगाए राम-राम जपता है लेकिन अंदरखाने दान पेटी में गडम-तडम करता है। ठीक ऐसी ही हालत मीडिया वालों की है। ये भी घर से पिताजी के पैर छूकर निकले थे तो कहकर आए थे कि ‘पत्रकारिता करेंगे, समाज के ताने-बाने को सुधारेंगे, भ्रष्ट राजनेताओं, अलसाये अफसरों की नींद उड़ा देंगे और जाने क्या-क्या…’। मगर क्या हुआ। टैम और मार्केटिंग वालों ने गले में पट्टा डाला तो ये ऊं-ऊं करते वह सब बोलने लगे जो मार्केट ने इनसे बुलवाया। अरे प्रभाष जोशी की मानस संतानों, जरा तो शर्म करो।
खैर, मैं शायद टॉमियों की बात करते-करते ज्यादा दूर निकल आया।…लेकिन जो भी हो, यशवंत सिंह का ‘टैम वालों की ऐसी-तैसी करने की कसम खाने’ का अंदाज गजब लगा।
भई यशवंतजी, सरोकारों को बचाने के सच्चे अभियान में नारे लगाने की जरूरत पडे या पैसा लगाने की, आप एक आवाज लगाइयेगा, हम न्यूज एडिटर रहें या एडिटर… मध्य प्रदेश में रहें या दिल्ली, लेकिन इन टैम, टीआरपी वालों के खिलाफ तख्तियां लेकर निकल पड़ने, नील से दीवार लेखन करने या फिर किसी भी अन्य सकारात्मक काम में प्रभाष जोशी, गजानन माधव मुक्तिबोध या चे ग्वेरा के मानस पुत्र की तरह दौडे़ चले आएंगे।
लेखक ईश्वर शर्मा राज एक्सप्रेस, भोपाल में न्यूज एडिटर के पद पर कार्यरत हैं.