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‘मैं दलित हूं तो इसमें मेरी क्या गलती’

लखनऊ के इस स्ट्रिंगर की व्यथा-कथा पढ़ने से पहले कुछ मेरी भी सुन लें। हम भी चाहते हैं कि भड़ास4मीडिया पर सिर्फ अच्छी-अच्छी बातें हों, नानसेंस कतई न आए, बिना वजह बहस न हो, लेकिन जब इस तरह के पत्र  (जिसे नीचे प्रकाशित किया गया है) आते हैं तो आप ही बताइए, क्या इसे मैं रोककर अपनी आत्मा से निगाह मिला पाऊंगा? शायद नहीं। ये सच है कि भड़ास4मीडिया एक कंपनी है, इसका एक बिजनेस माडल है, इससे जो कुछ पैसे आते हैं उससे हम कई लोगों के घर-परिवार चलते हैं लेकिन धंधे के चक्कर में हम उन पत्रकार साथियों की आवाज ही न उठाएं, जिनकी आवाज को उठाने के लिए कहीं कोई मंच नहीं है तो यह भड़ास4मीडिया के कांसेप्ट के लिए ठीक न होगा। बी4एम जब शुरू किया गया था तो यह कतई पता नहीं था कि देखते-देखते यह मीडिया और गैर-मीडिया के लोगों में भी इस तरह लोकप्रिय हो जाएगा। इसके पीछे एक वजह यही है कि यह पोर्टल उनके स्याह-सफेद के बारे में बताता है, बात करता है जिन्हें चौथे खंभे या प्रेस होने का प्रिविलेज हासिल है। तो क्या इस प्रिविलेज के कारण इन लोगों को कुछ भी करते रहने की छूट मिलनी चाहिए? मुझे लगता है नहीं। चलो, मान लेते हैं कि हम अकेले व्यवस्था नहीं बदल सकते।

<p align="justify">लखनऊ के इस स्ट्रिंगर की व्यथा-कथा पढ़ने से पहले कुछ मेरी भी सुन लें। हम भी चाहते हैं कि भड़ास4मीडिया पर सिर्फ अच्छी-अच्छी बातें हों, नानसेंस कतई न आए, बिना वजह बहस न हो, लेकिन जब इस तरह के पत्र  (जिसे नीचे प्रकाशित किया गया है) आते हैं तो आप ही बताइए, क्या इसे मैं रोककर अपनी आत्मा से निगाह मिला पाऊंगा? शायद नहीं। ये सच है कि भड़ास4मीडिया एक कंपनी है, इसका एक बिजनेस माडल है, इससे जो कुछ पैसे आते हैं उससे हम कई लोगों के घर-परिवार चलते हैं लेकिन धंधे के चक्कर में हम उन पत्रकार साथियों की आवाज ही न उठाएं, जिनकी आवाज को उठाने के लिए कहीं कोई मंच नहीं है तो यह भड़ास4मीडिया के कांसेप्ट के लिए ठीक न होगा। बी4एम जब शुरू किया गया था तो यह कतई पता नहीं था कि देखते-देखते यह मीडिया और गैर-मीडिया के लोगों में भी इस तरह लोकप्रिय हो जाएगा। इसके पीछे एक वजह यही है कि यह पोर्टल उनके स्याह-सफेद के बारे में बताता है, बात करता है जिन्हें चौथे खंभे या प्रेस होने का प्रिविलेज हासिल है। तो क्या इस प्रिविलेज के कारण इन लोगों को कुछ भी करते रहने की छूट मिलनी चाहिए? मुझे लगता है नहीं। चलो, मान लेते हैं कि हम अकेले व्यवस्था नहीं बदल सकते। </p>

लखनऊ के इस स्ट्रिंगर की व्यथा-कथा पढ़ने से पहले कुछ मेरी भी सुन लें। हम भी चाहते हैं कि भड़ास4मीडिया पर सिर्फ अच्छी-अच्छी बातें हों, नानसेंस कतई न आए, बिना वजह बहस न हो, लेकिन जब इस तरह के पत्र  (जिसे नीचे प्रकाशित किया गया है) आते हैं तो आप ही बताइए, क्या इसे मैं रोककर अपनी आत्मा से निगाह मिला पाऊंगा? शायद नहीं। ये सच है कि भड़ास4मीडिया एक कंपनी है, इसका एक बिजनेस माडल है, इससे जो कुछ पैसे आते हैं उससे हम कई लोगों के घर-परिवार चलते हैं लेकिन धंधे के चक्कर में हम उन पत्रकार साथियों की आवाज ही न उठाएं, जिनकी आवाज को उठाने के लिए कहीं कोई मंच नहीं है तो यह भड़ास4मीडिया के कांसेप्ट के लिए ठीक न होगा। बी4एम जब शुरू किया गया था तो यह कतई पता नहीं था कि देखते-देखते यह मीडिया और गैर-मीडिया के लोगों में भी इस तरह लोकप्रिय हो जाएगा। इसके पीछे एक वजह यही है कि यह पोर्टल उनके स्याह-सफेद के बारे में बताता है, बात करता है जिन्हें चौथे खंभे या प्रेस होने का प्रिविलेज हासिल है। तो क्या इस प्रिविलेज के कारण इन लोगों को कुछ भी करते रहने की छूट मिलनी चाहिए? मुझे लगता है नहीं। चलो, मान लेते हैं कि हम अकेले व्यवस्था नहीं बदल सकते।

लेकिन इस व्यवस्था के सही-गलत के बारे में कह तो सकते हैं। बोल तो सकते हैं, लिख तो सकते हैं, बात तो कर सकते हैं, आवाज तो उठा सकते हैं। यही अधिकार देश की मीडिया को मिला हुआ है। इसी अधिकार के तहत मीडिया के सभी माध्यम हर चीज के बारे में खबरें छापते हैं। भड़ास4मीडिया के लिए सिर्फ मीडिया बीट है। इसलिए हम सिर्फ मीडिया की खबरों, विश्लेषणों, घटनाओं, गतिविधियों को प्रकाशित करते हैं। हमने साहस के साथ मीडिया के सच को लिखना और बताना शुरू किया और कराया। अगर यह अधिकार भी आप मीडिया वाले वरिष्ठ-कनिष्ठ साथी लोग छीन लेना चाहते हैं तो मुझे लगता है कि मुझे भड़ास4मीडिया बंद करके गांव लौट जाना चाहिए ताकि हल जोतकर कुछ अन्न उपजा सकूं जिससे बच्चे जी पाएं।

बात कुछ लंबी हो गई। लेकिन संदर्भ ऐसा है कि बोलना पड़ा।

नीचे जो पत्र प्रकाशित किया गया है, उसे एक बड़े चैनल के लखनवी स्ट्रिंगर ने भेजा है। यह पत्र कई रोज पहले आया था। अपनी व्यस्तताओं और खबरों-मेलों की भीड़ के चलते अनजाने में ही यह पेंडिंग में पड़ा रहा। तभी इन स्ट्रिंगर महोदय का एक और पत्र आ गया जिसमें उनने लिखा- ‘सर, और लोगों में और आप में क्या अन्तर है। मुझे तो नहीं लगता कि आप औरों से अलग हो। मैंने तो आपके बारे में बहुत सुन रखा था कि आप ही हो जो छोटे और आक्रोशित पत्रकारों का दर्द समझते हो। लेकिन मुझे लगता है ऐसा सोचना मेरी भूल थी। हो सकता है मैं ही गलत हूं जो आपके बारे में ऐसी सोच मेरे जेहन में आई। मैं आपसे सवाल करता हूं कि अगर आप हम जैसों की लड़ाई लड़ रहे हो तो मेरी शिकायत को आपने अभी तक संज्ञान में क्यों नहीं लिया? क्या आप भी ताकत वालों के सामने नतमस्तक हो गए? मैं पत्रकारिता लाइन में बहुत छोटा हूं और मैं ये भी अच्छी तरह से जानता हूं कि मैंने अशोभनीय टिप्पणी की है। हो सके तो मुझे क्षमा कर दीजिएगा। मै कितना व्यथित हूं, ये मैं ही जानता हूं। शायद इसी वजह से मैंने आज यह पत्र लिखा। अशोभनीय टिप्पणी के लिए मैं आपसे एक बार फिर क्षमा चाहता हूं।’

दोस्त, आपने कोई अशोभनीय टिप्पणी नहीं की। देर आये, दुरुस्त आये की तर्ज पर आपकी बात को पब्लिश कर रहा हूं। आपने यह कहीं नहीं लिखा है कि आपका नाम उजागर हो या नहीं। लेकिन आपके मेल से जाहिर है कि आप चाहते हैं कि आपका नाम उजागर हो, इसीलिए आपने अपना संपूर्ण परिचय दिया है पर आपके नीचे लिखे लेख में कहीं कोई पहचान उजागर नहीं की गई है इसलिए हम भी आपकी पहचान उजागर नहीं कर रहे हैं। मैं इस चैनल के वरिष्ठों से अपील करूंगा कि इस पत्र को स्ट्रिंगर की अनुशासनहीनता न मानें। जब पानी सिर से उपर गुजरता है तभी लोग ऐसी बातें करते हैं। उम्मीद है कि इस स्ट्रिंगर साथी को न्याय मिलेगा, सम्मान मिलेगा, उसका वाजिब हक मिलेगा। यहां यह भी बताना चाहूंगा कि इस स्ट्रिंगर ने लिखा है कि वे यह पत्र छपते ही नौकरी से खुद इस्तीफा दे देंगे। मैं इनसे अपील करूंगा कि वे खुद ऐसा कोई कदम न उठाएं। व्यवस्था पर भरोसा करें। देर जरूर है, पर लगता नहीं कि अंधेर है। ऐसा मानना चाहिए।

यशवंत

एडिटर, भड़ास4मीडिया


खूब मिला स्ट्रिंगर को वफादारी का सिला

लखनऊ के टीवी स्ट्रिंगर इन दिनों दोहरी मार झेल रहे हैं। एक तो आर्थिक तंगी ने उनकी कमर पहले से ही तोड़ रखी थी, दूसरी रही-सही कसर उनके सीनियरों ने पूरी कर दी है। यहाँ के स्ट्रिंगर जान रहे हैं कि उनके साथ अन्याय हो रहा है और उनका शोषण भी किया जा रहा है लेकिन नौकरी जाने का भय और सीनियर द्वारा कहीं और नौकरी न करने देने की धमकी की वज़ह से कोई आवाज़ उठाने की हिम्मत आज तक नहीं जुटा पाया है। शायद मैं भी आवाज़ न उठाता लेकिन मेरे जैसे स्वाभिमानी के लिए बार-बार मरने के सिवाय एक बार मरना ही उचित है सो मैं ऐसा कर पा रहा हूँ। चूकि मैं लखनऊ के स्ट्रिंगरों का प्रतिनिधि नहीं हूँ इसलिए यहाँ मैं सिर्फ अपने बारे में ही लिख रहा हूँ।

मैं तक़रीबन दो साल से एक ऐसे चैनल में काम कर रहा हूं जो हमेशा सरकार विरोधी ख़बरों को दिखाने के लिए लोगो के बीच लोकप्रिय रहा है। लेकिन आज भी मैं अपनी पहचान के लिए तरस रहा हूँ। मैने स्वयं कई बार देखा है कि मेरे बाद आए लोगों का फोनो होता है और वो यदाकदा लाइव भी देते हैं लेकिन मुझे अपने दो साल के करियर में ये मौका अभी तक नही मिला है फिर भी मैं काम करता रहा क्योंकि मेरी नज़र में सीनियर्स की इज्जत सबसे उपर है। मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि वो मुझसे क्यों खफा हैं? इन दो सालो में मेरी यही कोशिश रही है कि लखनऊ में मुझसे कोई ख़बर छूट न जाए, सो खूब मेहनत करता लेकिन इससे कोई फायदा नहीं हुआ। फिर भी मुझे अपने प्रिय वरिष्ठों से कोई शिकायत नहीं है बल्कि शिकायत तो मुझे अपने-आप से है। अगर मैं भी अपने सीनियर की चाकरी करता और बाजार से महंगी-महंगी मक्खन की टिक्की लाकर खूब मक्खनबाजी करता होता तो मुझे भी अपनी पहचान मिल गई होती। ऐसा नहीं है कि मैं काम नहीं करता हूँ जिसकी वज़ह से मेरे साथ ये सब हो रहा है। मैंने इन हालात में भी पूरी ईमानदारी से काम किया और कई-कई बार तो मैं पूरी रात ख़बर बनाने और जुटाने में लगा रहा जिसके लिऐ हमारे सीनियर भी मेरी तारीफ किया करते थे।

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मैं यहाँ अपने उन्हीं वरिष्ठों की बात कर रहा हूँ जो कभी मुझे अपने संस्थान में ही पक्की नौकरी दिलाने की बात करते थे, पूरे दो साल हमारी कोशिश रही कि कभी उनकी बात खाली न जाए। मैं यहां अपने बारे में एक और बात बतलाना चाहूँगा कि जब मेरे सीनियर के खिलाफ मुझसे लोग कहते थे कि यहां तुम्हारा शोषण हो रहा है, तुम हमारे यहां काम कर लो तो मैंने यही सोचा कि जब तक मेरे सीनियर लखनऊ में रहेंगे तब तक मैं कहीं नही जॉऊगा, चाहे कोई मुझे कुछ भी दे दे। मैंने भी पत्रकार बनने की इच्छा से ही पत्रकारिता में मास्टर डिग्री हासिल की थी और एक सपना देखा था कि मैं एक दिन बड़ा पत्रकार बनूंगा। अभी तक तो मेरे साथ सब ठीक ही चल रहा था, मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं थी लेकिन आज मैं अपने उन्हीं सीनियर्स के आगे इतना गिर चुका हूं कि पूछिए मत. एक टाइम था जब मैं इनको किसी स्टोरी के बारे में बतलाता था तो तुरन्त जवाब मिलता था परन्तु आज वो मेरे खबर से संबंधित एसएमएस का जवाब तक नहीं देते हैं.

अपने सामने आए लड़के को खबर का चयन करते हुए देखता हूं, वो चैनल की गाड़ी पर आईडी-कार्ड लगा कर चलते हैं। मैं आज भी वैसे ही काम कर रह हूं, जैसे पहले करता था। इन सारी वजहों से मुझे बहुत मानसिक परेशानी हो रही है। एक बार मैंने नशे में एक बहुत बड़ी गलती कर दी। मैंने अपने सीनियर से अपशब्द कह दिया। हाथापाई कर ली थी। इतना सब कुछ होने के बाद भी उन्होंने मुझे नौकरी से नही हटाया जिसके लिये मैं उनका सदा अभारी रहूंगा. लेकिन यहां एक बार फिर सवाल करुंगा कि अगर मेरे साथ ऐसा ही व्यवहार करना था तो उसी वक्त क्यों नही निकाल दिया? दूसरी बात, जब मैं दूसरी कम्पनी में जा रहा था तो आपने वहां क्यों दबाब बनाया कि मुझे वो काम पर न रखें? हो सकता है कि मैं दलित जाति का हूं इसलिए मेरे साथ इस तरह का व्यवहार किया जा रहा है। यहां भी हमारे सीनियर तर्क देते हैं कि और भी तो दलित लोग हैं जो इसी संस्था में काम करते हैं। लेकिन वो अच्छे से जानते हैं कि जो लोग काम कर रहे हैं वो उनके एक विशेष क्षेत्र से ताल्लुक रखते हैं। मुझे न पहले कभी नौकरी की चिन्ता थी और न ही आज है।

सबसे बड़ा दुख तो इस बात का है कि जिनकी मैं दिल से इज्जत करता हूं और जिनके लिए जान देने के लिए तैयार रहता हूं, उन्हीं की जानकारी में मेरा शोषण किया जा रहा है। शायद मेरे सीनियर के दिल में यही बात घर कर गई है कि मैं दलित हूं। लेकिन अगर मैं दलित हूं तो इसमें मेरी क्या गलती है? मैं भी तो सबकी तरह पढ़ाई करके ही इस प्रोफेशन में आया था, पत्रकार बनने के लिए। मैं जान गया हूं कि मेरा ये सपना अब कभी पूरा नहीं होगा। आज मैं इस हालत में पहुंच गया हूं जहां अपनी जान दे सकता हूं और किसी की भी जान ले सकता हूं।

एक बार फिर, मैं लखनऊ के स्ट्रिंगर भाइयों से अपील करता हूं कि वो भी अपने शोषण के खिलाफ आवाज़ बुलन्द करें। अगर किसी स्ट्रिंगर को उनके सीनियर जीने नही दे रहे तो स्ट्रिंगर अपने सीनियर के जीने का हक छीन लें। अगर अब भी आप लोग नहीं चेते तो आने वाले समय में आपके सीनियर ही आप को खा जायेंगे।

आपका

एक स्ट्रिंगर

लखनऊ

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