इंटरव्यू : उदय सिन्हा (वरिष्ठ पत्रकार और ‘सहारा टाइम’ के एडिटर) : भाग (3) : अच्छा बनना सबसे कठिन काम है : भिक्षाटन करने की जबर्दस्त इच्छा है : जिंदगी को खानों में रखकर जीना चाहिए : जब-जब किसी ने पीठ में छुरा घोंपा, तब-तब मैं रोया : मैं कभी अपने आप से संतुष्ट नहीं रहा : 26 वर्षों में 800 प्रतिभाओं को चांस दिया : मीडिया इंस्टीट्यूटस को रेगुलेट करने के लिए संस्था होनी चाहिए : कृष्ण बिलकुल हमारे जैसे हैं : जिसने प्रेम नहीं किया उसने जीवन ठीक से नहीं जिया :
-हिंदी और अंग्रेजी की पत्रकारिता में मूलभूत अंतर क्या पाते हैं?
–मुझे दोनों भाषाओं में काम करने का मौका मिला है। दोनों जगह काम करने में मैंने एक बात देखी है कि देसज या यूं कहिए जमीनी राजनीति की रिपोर्टिंग में अंग्रेजी का हाथ तंग है। हिंदी पत्रकार जमीन से ज्यादा जुड़ा होता है लेकिन एक कमजोरी होती है अतिशय शब्दों का इस्तेमाल। फैक्ट से ज्यादा भावना की प्रधानता होती है। यह बुरा भी है, अच्छा भी है। बुरा इस लिहाज से कि भावना ज्यादा होने से तथ्यपरकता प्रभावित होती है। तथ्य ज्यादा होने से स्टोरी के बेजान होने का खतरा पैदा हो जाता है। अंग्रेजी रिपोर्टर आमतौर पर हाइवे जर्नलिस्ट होते हैं। मतलब, एक गाड़ी ली, दिल्ली से निकले, हाईवे पर गाड़ी चलाते हुए किसी बड़े शहर में पहुंचे, गाड़ी के ड्राइवर और रोड साइड होटल के बेयरा से जानकारी हासिल की। और खबर फाइल कर दी।
-आपने जर्नलिज्म में बहुतों को ब्रेक दिया। इनमें से कुछ सफल नामों के बारे में बताएं?
-मैंने अपने 26 सालों के करियर में लगभग 800 नई प्रतिभाओं को चांस दिया है। किसी का नाम नहीं लेना चाहूंगा पर मैं हिंदी पत्रकारिता से कई पत्रकारों को अंग्रेजी पत्रकारिता में लेकर आया। उनके लिए यह सपने सरीखा था। उनमें एक सज्जन हैं दीपक शर्मा। उन्हें मैं पायनियर में लेकर आया और जो आज आजतक न्यूज चैनल में वरिष्ठ पद पर हैं। (हंसते हुए) जिन लोगों को मैंने चांस दिया उनसे मेरी अपेक्षा है कि जब मैं नौकरी से रिटायर हो जाऊं तो वो अपने न्यूजपेपर या मैग्जीन में मुझे एक कॉलम दें ताकि लिखने-पढ़ने का अभ्यास बना रहे। बाकी, मेरा मानना है कि नाम लेकर मैं उन पर नैतिक दबाव डाल दूंगा, जो मैं नहीं करना चाहता।
-कई संस्थानों में आपने काम किया। कहां के अनुभव को श्रेष्ठ कहेंगे?
-दी पायनियर, लखनऊ का अनुभव बेहद अच्छा रहा। चंदन मित्रा जी से काफी कुछ सीखने को मिला। काम के लिहाज से भास्कर, दिल्ली के आरंभिक दिन भी स्मरणीय हैं।
-आपकी नजर में इस वक्त कौन लोग अच्छा काम कर रहे हैं?
-अंग्रेजी चैनलों में मुझे डा. प्रणव राय और उनका चैनल अच्छा काम करता प्रतीत होता है। उनके चैनल के प्रति एक आकर्षण बना रहा है। अर्नब गोस्वामी और टाइम्स नाऊ ठीकठाक लगते हैं। हिंदी चैनलों में स्टार न्यूज और आजतक पसंद हैं। अंग्रेजी अखबारों में द हिंदू और इंडियन एक्सप्रेस अब भी पसंद हैं। हिंदी अखबारों में कंटेंट के लिहाज से अमर उजाला और राजस्थान पत्रिका अच्छे अखबार हैं। इन दोनों के अलावा प्रभात खबर भी अच्छा काम कर रहा है।
-मीडिया से बाजार की दोस्ती का पत्रकारिता पर क्या प्रभाव पड़ा है?
-बाजार का प्रभाव मीडिया पर है, इसमें कोई दो-राय नहीं है और बाजार का प्रभाव इसलिए भी पड़ेगा क्योंकि एक 16 पृष्ठ वाला अखबार बनाने के लिए लगभग 18-20 रुपये का खर्चा आता है और पाठक अखबार खरीदता है 2 या तीन रुपये में। अब इनमें जो 15-16 रुपए का गैप है, उसे बाजार भरता है। बाजार अगर देगा तो लेना भी चाहेगा।
-तेजी से खुल रहे मीडिया इंस्टीट्यूटस के बारे में क्या कहेंगे?
-ज्यादातर मीडिया इंस्टीट्यूटस न केवल छात्रों को गुमराह करते हैं बल्कि उनके मां-बाप के सपने को भी तोड़ते हैं। माता-पिता अपने बच्चों के करियर और सेटेलमेंट को लेकर चिंतित होते हैं। जाब की गारंटी पर वे लाख-दो लाख रुपये खर्च करने से गुरेज नहीं करते। लेकिन आप ही बताएं कि जितने मीडिया इंस्टीट्यूट्स हैं और जितने बच्चे हर साल बाहर आते हैं, क्या उतनी नौकरियां हैं? होता यह है कोर्स करने के तुरंत बाद तो कहीं प्लेसमेंट हो जाता है लेकिन एक साल होते-होते उनमें से ज्यादातर बच्चे बाहर हो जाते हैं और इस कारण फ्रस्ट्रेशन के शिकार बन जाते हैं। मेरे खयाल से मीडिया इंस्टीट्यूटस को रेगुलेट करने के लिए एक संस्था होनी चाहिए। कुछ उसी तरह, जैसे डाक्टर और इंजीनियर बनने के लिए कोई संस्थान कामन टेस्ट लेती है।
-आपके जर्नलिज्म के सफर में क्या किसी ने कभी विश्वासघात किया?
–देखिए, जर्नलिज्म में तो आप ये मानकर चलिए कि कटु अनुभव होने ही होने हैं। अगर आपके पास कटु अनुभव नहीं है तो समझिए कि आपने जर्नलिज्म की यात्रा ठीक से नहीं की। यह ठीक वैसा ही है कि सड़क पर चलते समय अगर उबड़-खाबड़ जगह से नहीं गुजरे तो सड़क पर चलने का आनंद नहीं आया। मेरे करियर में कई बार ऐसा अनुभव हुआ जैसे किसी ने पीठ पर छुरा घोंप दिया हो।
-ऐसी किसी घटना के बारे में बताएं?
-जीवन में एक समय होता है जब आप फैलने के क्रम में होते हैं और एक समय होता है जब आप समेटने के दौर में होते हैं। समेटने के दौर में पुरानी घटनाओं को याद करना ठीक नहीं। नाम लेकर मैं किसी का अहित नहीं करना चाहता। उसने जो मेरा अहित किया होगा, उसे मैं भूल चुका हूं।
-26 साल के करियर में कभी रोए भी हैं?
-जब-जब आघात लगा, जब-जब किसी ने पीठ में छुरा घोंपा, तब-तब मैं रोया।
-किस तरह के आघात लगे?
-ऐसे कई किस्से हैं। कई बार ऐसा हुआ कि जिस व्यक्ति को मैंने आगे बढ़ाया, उसी ने मेरे खिलाफ साजिशें कीं। गलत तरीके से मेरी बातों को दूसरों के सामने मिस रिप्रेजेंट किया। यहां तक कि अध्यात्म में गहरी रुचि को भी मेरे खिलाफ इस्तेमाल किया गया। एक अखबार में जब कुछ लोग काम के चलते मुझसे नाराज हुए तो उन्होंने साजिश रची और नीबू, मिर्च और जानवरों की हड्डियां आफिस की किसी मेज पर रखकर उस पर सिंदूर का टीका लगा दिया। यह सब रात में किया गया। सुबह-सुबह जब दफ्तर पहुंचा तो अफरातफरी मची थी। जिन लोगों ने यह सब किया था, उन्ही लोगों ने यह उड़ाया कि मैंने रात में वहां कोई पूजा-पाठ कराया है। यह एक घृणित वाकया है जिस पर ज्यादा बात करना अच्छा नहीं। मुझे अब लगता है, ऑफिस में कभी मित्रता नहीं करनी चाहिए और सभी बातों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए।
-जिंदगी में कुछ पा लेने की अनुभूति कब हुई?
-जिंदगी ने जब भी दिया, हंस कर दिया। अच्छी-भली नौकरी मिली। दो बेटे का बाप बना। समाज ने खूब खुल कर मान-सम्मान दिया। अच्छे दोस्तों का साथ रहा। लेकिन हमेशा एक खालीपन रहा। हमेशा लगता रहा कि यह सब तो हर किसी के साथ होता है। कुछ पा लेने की अनुभूति उस दिन हुई जिस दिन पिताजी ने कहा कि जिंदगी में तुम अच्छा कर रहे हो। दरअसल लखनऊ में एक समारोह में मुझे यूपी रत्न के सम्मान से नवाजा गया था। उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल सूरजभान ने एवार्ड दिया था। उस समारोह में मेरे पिताजी भी आए थे। उस सम्मान को मैंने अपने पिताजी को समर्पित किया था। जब मैंने पत्रकारिता को करियर के रूप में चुना था तो पिताजी खुश नहीं थे। उन्हें हमेशा लगता था कि ऐसी नौकरी से घर परिवार कैसे चलेगा। लेकिन उस सम्मान वाले दिन वो मुझसे बहुत खुश थे। शायद इसलिए भी कि मैं उनकी नजर में समाज में थोड़ा बहुत ही सही लेकिन एक जाना-पहचाना नाम बन गया था। जिस दिन पिताजी ने मेरे पत्रकार को स्वीकार किया उस दिन कुछ पा लेने की सुखद अनुभूति हुई।
-और कुछ खो देने का एहसास कब हुआ?
-जिस दिन और जिस क्षण पिताजी को मुखाग्नि दी। मां पहले ही चली गई थीं। 2001 में पिताजी के जाने के बाद जिंदगी बेमानी हो गई। दरअसल मां-बाप की मौत के बाद किसी उपलब्धि का कोई मतलब नहीं होता। श्मशान के वैराग्य ने धीरे-धीरे अंदर स्थान बनाना शुरू किया। विरक्ति के उसी दौर में मैंने गढ़वाल-हिमालय की खाक छानी। मैं कई दिनों तक बद्रीनाथ में पड़ा रहा। धीरे-धीरे एहसास हुआ कि मेरे उपर भी जिम्मेदारियां हैं। लेकिन इस बात का गहरा दुख बना रहा कि जब पिता की बुजुर्गियत की छाया की जरूरत थी तो वह छाया सिमट गई। अब लगता है कि बाप बेटे की छोटे-छोटी उपलब्धि को भी बड़ी उपलब्धि मानता है और उसे टाफी की तरह चुभला-चुभला कर स्वाद लेता है। पिताजी के जाने के बाद किसी उपलब्धि का कोई मतलब नहीं रहा।
-किन किन चीजों में आपकी रुचि है?
-‘अकल्ट’ में मेरी बहुत रुचि है। एक समय तंत्र विज्ञान को समझना चाहता था। कई तांत्रिकों से मिलने के लिए कई जगहों की यात्राएं कीं। श्मशान पर भी बैठा। कुछ क्रियाओं का भी गवाह बना। लेकिन अंत में मुझे लगा कि सात्विक अध्यात्म ही मन को शांति देता है। विद्यार्थी जीवन में मार्क्सवाद से प्रभावित रहा। उन्हीं दिनों आचार्य रजनीश के साहित्य के संपर्क में आया। रजनीश में मेरी रुचि उनकी सबसे चर्चित पुस्तक ‘संभोग से समाधि की ओर’ से पैदा हुई पर महावीर और कृष्ण पर उनकी पुस्तकों ने उनके प्रति सम्मान का भाव जगाया।
-इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं? किस विषय में ज्यादा दिलचस्पी है?
-गुरुचरन दास की पुस्तक ‘डिफिकल्टी आफ बीइंग गुड’ पढ़ रहा हूं। महाभारत में मेरी बहुत गहरी रुचि है। खासकर कृष्ण, कर्ण, कुंती और द्रोपदी जैसे चरित्र मुझे बहुत प्रभावित करते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि अगर कभी हिंदू धर्म के किसी केंद्रीय देवता पर सहमति बनेगी तो वह सिर्फ कृष्ण होंगे। कृष्ण हमारे इतने पास हैं कि वो बिलकुल हमारे जैसे हैं। यही पक्ष सबसे ज्यादा लुभाता है। वे साजिश भी रचते हैं, युद्ध भी जीतते हैं, प्रेम भी करते हैं, नैतिकता भी सिखाते हैं और जीवन दर्शन भी समझाते हैं। मुझे कभी कभी आश्चर्य होता है कि धर्माचार्यों ने कृष्ण को सेंट्रल डीटी (केंद्रीय देवता) बनाने पर अपनी सहमति क्यों नहीं पैदा की।
-आपके रोल मॉडल या आदर्श कौन हैं?
–मैं कई लोगों से इन्सपायर्ड रहा। मेरे पिता मेरे प्रेरणा स्रोत रहे हैं। वो काफी धैर्यवान थे। पहले उन्हें बेहद गुस्सा आता था लेकिन जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ी, वे धैर्य की मूर्ति बनते गए। पत्रकारिता में अरुण शौरी ने मुझे बेहद प्रभावित किया। उनके एक इन्टरव्यू को मैंने पढ़ा जिसमें उनसे किसी ने पूछा था कि खोजी पत्रकारिता क्या है? श्री शौरी का जवाब था कि सरकारी कागजातों के मध्य विरोधाभास ढूंढना ही सबसे बड़ी खोजी पत्रकारिता है। वाकई में खोजी पत्रकारिता फावड़े या कुदाल को लेकर नहीं किया जा सकता। अध्यात्म और जीवन पद्धति की बात करें तो स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस और जे. कष्णमूर्ति से काफी प्रभावित रहा। बाद के दिनों में गांधी साहित्य का मन-मस्तिष्क पर गहरा असर रहा। इंदिरा गांधी की नेतृत्व क्षमता और फाइटिंग स्पिरिट से तब प्रभावित हुआ जब वे हमारे बीच नहीं रहीं और उनके बारे में काफी कुछ पढ़ा।
-अपनी तीन कमियों के बार में बताएं…
-मैं बहुत जल्दी किसी पर भरोसा कर लेता हूं जो कि मेरे विचार में बहुत बड़ी कमी है। दूसरी कमी मैं अपने गुस्से को मानता हूं, जिस पर मैंने लंबे अभ्यास के बाद काफी कुछ काबू पा लिया है। तीसरी कमी है कि मैं कभी अपने आप से संतुष्ट नहीं रहा।
-लगे हाथ तीन अच्छाइयां भी बता दें…
–मैं क्रिटिसाइज होने की हद तक सच बोलता हूं और किसी के बारे में अप्रिय सत्य बोलने से बचता हूं। मेरे हिसाब से जिंदगी को खानों में रखकर जीना चाहिए और एक खाने का सच दूसरे खाने में नहीं जाने देना चाहिए। मुझे पढ़ने का बहुत शौक है। इसे मैं अपनी अच्छाई मानता हूं। जरूरतमंद लोगों को पैसे देकर और बेरोजगार को नौकरी खोजने में मदद करके मुझे खुशी मिलती है।
-लेटेस्ट फिल्म कौन-सी देखी है?
-सिनेमाहॉल जाने का शौक नहीं है। अंतिम फिल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ देखी थी। उसके कुछ दिनों पहले ‘ब्लैक’ और ‘चीनी कम’ देखी थी।
-आपको कौन-सी एक्ट्रेस पसंद है?
-ये तो बड़ा कठिन प्रश्न पूछ लिया आपने। खैर, एक जमाने में मुझे वहीदा रहमान बेहद अच्छी लगती थीं। फिर कुछ दिनों तक रेखा पर फिदा रहा। आजकल के जमाने में रानी मुखर्जी और तब्बू पसंद हैं।
-क्या कभी किसी से प्रेम किया?
-हां, प्रेम किया और शिद्दत से किया। जिसने प्रेम नहीं किया उसने जीवन ठीक से नहीं जिया।
(इसी दौरान भाभीजी कूद पड़ीं… और हंसकर बोलीं.. मैं सब कुछ जानती हूं…)
-जिससे प्रेम किया उससे शादी न कर पाने का दुख?
–नहीं, कोई दुख नहीं है क्योंकि वो काफी मेच्योर डिसीजन था। इसके दो कारण मुख्य थे। दो अलग वर्गों से होने के कारण हम जानते थे कि कन्या मेरे परिवेश में कभी एडजस्ट नहीं हो सकती। शायद उस कन्या को भी प्रेम को शादी में तब्दील करने में कुछ हिचक थी। उस प्रेम में आह्लाद था, आनंद था, उन्माद था पर स्थाई भाव नहीं था।
-खान-पान में कैसे शौक रखते हैं?
-मै स्ट्रिक्टली नॉन वेजीटेरियन हूं। मुझे मुगलई व्यंजन पसंद हैं। कोलकाता में रहने के कारण मछली भी रुचिकर लगने लगी है। मुझे खाना बनाने का काफी शौक है। कबाब, खमीरी रोटी और मटन बिरयानी पसंद करता हूं।
-क्या आप ड्रिंक करते हैं?
–हां। दोस्त-यारों और सभा-सोसाइटी में पीता हूं। घर पर पीने-पिलाने से किसी को परहेज नहीं है। शुरुआत तो मैंने व्हिस्की से की पर अब बीयर या वाइन पीता हूं।
-ड्रिंक करना कब शुरू किया?
-1990 में जब कोलकाता पहुंचा तबसे। उसके पहला मैंने शराब नहीं पी थी।
-फेवरेट ब्रांड कौन-सा है?
-रॉयल चैलेन्ज से शुरू किया। अब आरसी के बाद एंटीक्विटी और टीचर्स अच्छी लगती रही। इससे महंगी शराब अफोर्ड भी नहीं कर सकता था। बीयर में किंगफिशर फेवरिट है और मौका मिलने पर अब यही पीता हूं।
-पत्रकारिता में ड्रिंक करने का क्या महत्व है?
–इसका महत्व इतना है कि यदि आप किसी प्रोफेशनल बैठक में हैं, तो सामने वाला व्यक्ति आपसे खुलता जाता है। अमूमन हम सब स्वयं से भागने के लिए शराब पीते हैं। शराब आपको कुछ देता-दिलाता नहीं है। लेकिन कुछ भूलने में, सहज होने में मदद जरूर करता है।
-आपके अनुसार आनन्द की परिभाषा क्या है?
-आपको जो भी अच्छा लगे, वो करना ही सच्चा आनन्द है।
-सबसे ज्यादा प्रसन्नता का अनुभव कब हुआ?
-कई बार ऐसे मौके आए जब अपने किसी गुणी सहयोगी को निचले लेवल से उठाकर ऊपर के लेवल पर बिठाया। मुझे ऐसा लगा मानो अपने एक हाथ को मालिश करके मजबूत कर दिया हो। मुझे याद है कि पायनियर के समय में एक लड़का मुझसे काम मांगने ऑफिस आया था। धीरे-धीरे वो रेगुलर आने लगा। मेरी उसमें कुछ रुचि पैदा हो गई। वो नेतरहाट का स्टूडेंट था और पूरे बिहार स्टेट में उसकी तीसरी या चौथी रैंक थी। इसके बाद उसने दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदू कॉलेज में दाखिला लिया था। बीए के बाद एमए भी किया। कॉलेज में टॉप किया था। लेकिन तीन साल तक लगातार यूपीएससी से रिजेक्ट होने के बाद वह लड़का टूट गया था। उसने मुझसे कहा- अब पत्रकारिता के अलावा कोई काम नहीं कर सकता। वह लड़का ज्योतिष में विश्वास करता है। उसके मुताबिक, उसकी कुंडली में उस वर्ष 10 अक्टूबर तक जॉब न लगने पर अगले तीन सालों तक कहीं काम न मिलने का दुर्योग है। उस बच्चे के एप्वाइंटमेंट के लिए मैंने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था। जिस दिन उसे जॉब मिली उस दिन मुझे बहुत तसल्ली हुई। खुशी भी मिली। आज वह लड़का एक प्रतिष्ठित न्यूज चैनल में अच्छे भले पद पर है।
-अपने जीवन का मकसद आपने क्या तय किया था?
-संपादक बनने की तमन्ना थी, वो तो पूरी हो गई। दूसरी इच्छा थी कि हर व्यक्ति मुझे अच्छे इंसान के तौर पर जाने। लेकिन अब मुझे लगता है कि अच्छा बनना सबसे कठिन काम है। पूरी तरीके से कोई भी अच्छा नहीं बन सकता। उस पर कई किस्म के दबाव रहते हैं। मसलन, व्यवस्था का दबाव, बाजार के अनुरूप जीते रहने का दबाव, संस्थान के हिसाब से करते रहने का दबाव, परिवार की बेहतरी का दबाव…..। इन दबावों में मनुष्य कहीं अपने ओरिजनल व्यक्तित्व को क्रमशः न्यून करता जाता है। इसलिए जीवन के मूलभूत प्रश्न पर एक उपन्यास लिखने की इच्छा है। उस पर काफी काम कर भी लिया है।
-कोई ऐसी कविता जिसने आपको मोटिवेट किया हो?
-दुष्यंत की गजलें, बशीर बद्र की शायरी और दिवंगत गोरख पांडेय की कविताओं से प्रभावित रहा हूं। एक समय मैंने अपने कमरे की दीवारों पर दुष्यंत की गज़लों की पंक्तियां लगा रखीं थीं….
कहां तो तय था चिरागा हर एक घर के लिए
यहां चराग मयस्सर नहीं सहर के लिए’
इसके अलावा…
‘दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों,
तमाशबीन दुकानें लगाकर बैठ गए’
इत्यादि।
उपन्यास, ऐतिहासिक परिवेश वाले, पसंद हैं। शिव प्रसाद सिंह का नीला चांद मैंने तीन बार पढ़ा। ‘साहब बीबी और गुलाम’ उपन्यास भी कई बार पढ़ा। देवकीनंदन खत्री को पढ़ने के बाद यह महसूस हुआ कि हिंदी के आरंभिक दिनों में भी कितने अच्छे जासूसी उपन्यास लिखे जाते थे। भूतनाथ और चंद्रकांता संतति मेरे प्रिय उपन्यास रहे हैं। वृंदावनलाल वर्मा और यशपाल के उपन्यास भी अच्छे लगते हैं।
-कौन-सी इच्छाएं शेष हैं जिन्हें मौका मिलने पर पूरा करना चाहेंगे?
–जेब में बिना पैसे लिए गांव-गांव घूमने की इच्छा होती है। भिक्षाटन करने की भी जबर्दस्त इच्छा है। मुझे लगता है कि अपने अहंकार को जीतने के लिए भिक्षाटन से बेहतर और कोई शस्त्र नहीं है। महाभारतकालीन शहरों को विजिट करने की तमन्ना है। कुछ को कर चुका हूं। कुछ करना है। मंदबुद्धि बच्चों के लिए एक संस्था खड़ी करने के बारे में सोचता हूं।
-शुक्रिया उदय सर, आपने हम लोगों से इत्ती सारी बातचीत की, और खुलकर की।
-धन्यवाद यशवंत।
….समाप्त….
viresh
February 8, 2010 at 1:41 pm
uday sir, its truly been a gr8 learning experience with you, the best thing about you is ur straight forward attitude….thanx for everything n wish u d best in life…
Jamal Khan
July 15, 2010 at 9:06 am
Your opinion about English journalism is correct. But one thing I want to say that English Newspaper never promote good people. Only those get promotion and good hike who were close to editors. This practice is very bad. Take the example of The Telegraph in Jharkhand, all table reporters are senior, principal and special rcorrespondent.
Rajesh Sidhana
July 27, 2010 at 12:36 pm
Aap ka artikal/Interview bahut acha laga . wakai highway Jourlist he ab reh gai kaafi haed tak. baaki aap nai already accept kr liya hai or Bhabi ji ko past history bta kr. Maine B aaisa he kiya Tha. My first Brand was also R.C., Good Luck Sir
ravishankar vedoriya 9685229651
August 22, 2010 at 1:15 pm
uday sir apne jo apne dil ki baat ko ek aine tarah sabke samne rakh diya or jivan ke achhe burue anubhavo ko bataya inse hame bahut janne ko mila
yasvant sir apko bhi thankes
anil sharma
September 16, 2010 at 12:17 pm
r/uday sir ji aapka intervew pad kar kafi aisha laga aur kush seekana ko mila be hai
GOPAL PRASAD
December 8, 2011 at 9:37 pm
must read