अखबारों में बीमा, लोन और शैंपू से जुड़े विज्ञापनों की बाढ़ : मंदी की मार व कर्मचारियों की भगदड़ से गड़बड़ायी जीवन बीमा कंपनियों की गाड़ी पटरी पर लौट रही है. प्रिंट मीडिया में बीमा कंपनियों ने विज्ञापन अभियान तेज कर दिया है. वर्ष 2008-09 की तुलना में इन कंपनियों ने 2009-10 में विज्ञापन में 26 प्रतिशत की वृद्धि की है.
सबसे ज्यादा विज्ञापन देने वाली बीमा कंपनियों में जीवन बीमा करने वाली कंपनियां आगे हैं. इनमें भी भारतीय जीवन बीमा निगम सबसे ऊपर है. बीमा कंपनियों की ओर से जारी किए गए कुल विज्ञापनों का 74 प्रतिशत जीवन बीमा कंपनियों द्वारा जारी किया गया. शेष 26 प्रतिशत में सभी प्रकार के बीमे जैसे मोटरव्हीकल इन्श्योरेंस, घर, दुकान इत्यादि का बीमा करने वाली कंपनियां शामिल रहीं, जबकि बीमा क्षेत्र में यह सबसे बड़ी आय वाला सेगमेंट है.
बीमाक्षेत्र की ओर से अखबारों में सबसे ज्यादा विज्ञापन देने वाली कंपनियों में नम्बर 1 पर है भारतीय जीवन बीमा निगम जिसने कुल विज्ञापन रकम का 35 प्रतिशत दिया जबकि आईसीआईसीआई प्रुडंशियल 8 प्रतिशत के साथ दूसरे स्थान पर है. राज्य कर्मचारी बीमा निगम ने भी 8 प्रतिशत विज्ञापनों पर धन खर्च किया. बिरला सन लाइफ एवं अवीवा सन लाइफ 4-4 प्रतिशत एवं मेक्स न्यूयार्क एवं रिलायन्स लाइफ इन्श्योरेंस कंपनियां 2-2 प्रतिशत पर ही रहीं.
कंपनियों के अलावा जिस बीमा प्रोडक्ट के सबसे ज्यादा विज्ञापन छपे वह है एलआईसी मार्केट प्लस. ज्यादा विज्ञापन के कारण इस बीमा पालिसी की बिक्री भी रिकार्ड ही रही. अवीवा ने अपनी पूरी ताकत यंग स्कालर प्लान के प्रमोशन में झोंक दी परंतु आईसीआईसीआई ने अपनी किसी एक विशेष पालिसी का कोई प्रमोशन नहीं किया, इसके बजाए वह केवल ब्रांड प्रमोशन में ही जुटी रही. जीवन बीमा क्षेत्र की एक बड़ी कंपनी एचडीएफसी ने अखबारों में विज्ञापन को शायद फिलूजखर्ची माना एवं उसने अपना ज्यादातर बजट प्रिंट मीडिया के बजाए दूसरे संशाधनों (जैसे टीवी, एसएमएस, कॉल सेंटर) के माध्यम से विज्ञापन पर खर्च किया.
यदि देश को मेट्रो, मिनी मेट्रो और नॉन मेट्रो तीन हिस्सों में बांटा जाए तो बीमा कंपनियों ने अपने बजट का सबसे ज्यादा 47 प्रतिशत नॉन मेट्रो (छोटे शहरों) में सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले अखबारों को दिया. उनका ध्यान अब इण्डिया के बजाए भारत की ओर केन्द्रित हो गया है और छोटे शहरों में वे नया बाजार तलाश रहीं हैं. इससे उन अखबारों को लाभ हो सकता है जो कि क्षेत्रीय स्तर पर मजबूत पकड़ रखते हैं जबकि राष्ट्रीय स्तर पर उनकी कोई खास पहचान नहीं है.
बीमा कंपनियों ने अपने कुल बजट का 37 प्रतिशत मेट्रो (महानगरों) पर भी खर्च किया अत: महानगरों से छपने वाले अखबारों को भी कोई खास नुक्सान नहीं हुआ. कहने का लव्वोलुआब केवल इतना कि बड़ी-बड़ी कंपनियां अब छोटे-छोटे शहरों में मोटे-मोटे विज्ञापन जारी कर रहीं हैं. जरूरत है कि दरवाजे की ओर आती हुई लक्ष्मी का स्वागत किया जाए.
एसबीआई लोन के विज्ञापन बांटने वाली सबसे बड़ी कंपनी : लोन बांटने वाली तमाम कंपनियां विज्ञापन जारी करती ही रहतीं हैं लेकिन इसके लिए प्रिंट मीडिया में विज्ञापनों पर सबसे ज्यादा रकम खर्च करने वाली कंपनी का नाम है स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया और मजेदार बात यह कि सबसे बड़ा ब्रांड भी एसबीआई ही है. यदि वित्तीय वर्ष 08-09 एवं वित्तीय वर्ष 09-10 के बीच विश्लेषण किया जाए तो लोन बांटने वाली कंपनियों ने प्रिंट मीडिया में विज्ञापनों पर 19 प्रतिशत ज्यादा खर्चा किया.
इस सेगमेंट में सबसे ज्यादा विज्ञापन जारी करने वाली विज्ञापनदाता कंपनियों में नम्बर-1 पर एसबीआई के अलावा दूसरे पायदान पर एलआईसी है (एलआईसी ने बीमा पॉलिसियों के विज्ञापनों पर खर्च रकम के अलावा लोन बांटने वाले विज्ञापनों पर यह खर्चा किया). इसके अलावा सुन्दरम, मणप्पुरम, आईडीबीआई, बैंक ऑफ बड़ौदा, बिरला, यूटीआई, आईसीआईसीआई एवं यूनियन बैंक क्रमश: 3 से 10वें नम्बर पर आते हैं जिन्होंने सबसे ज्यादा लोन वाले विज्ञापन जारी किए. यह विश्लेषण यह भी बताता है कि लोन बांटने वाली कंपनियों ने सबसे ज्यादा विज्ञापन बजट (48 प्रतिशत) महानगरों में ही खर्च कर डाला.
मिनि मेट्रो में विज्ञापन का बजट (16 प्रतिशत) बहुत कम खर्च किया जबकि छोटे शहरों में (36 प्रतिशत) उपस्थिति दर्ज कराने के लिए विज्ञापन जारी किए गए. निष्कर्ष यह कि लोन वाले विज्ञापनों की बाढ़ केवल महानगरों तक ही सीमित है और विज्ञापनों की यह रकम क्षेत्रीय अखबारों को फिलहाल मिलने की कोई उम्मीद नहीं है.
शेम्पू एवं कंडीशनर के विज्ञापन बजट में 90 प्रतिशत का इजाफा : छोटे शहरों के बड़े अखबारों को मिले सबसे ज्यादा विज्ञापन : शेम्पू एवं कंडीशनर बेचने वाली कंपनियों ने भी प्रिंट मीडिया की ओर रुख कर लिया है. मजेदार तो यह है कि प्रिंट मीडिया में भी ऐसी कंपनियों की पहली पसंद दैनिक अखबार रहे जबकि सामान्यत: ऐसे प्रोडक्ट्स के विज्ञापन मेग्जीन में देखने को मिला करते थे. प्रिंट मीडिया में विज्ञापनों पर शेम्पू एवं कंडीशनर बेचने वाली कंपनियों 90 प्रतिशत ज्यादा खर्चा किया जो समाचार पत्रों के लिए शुभ संकेत है.
वित्तीय वर्ष 08-09 एवं 09-10 का विश्लेषण करें तो ध्यान में आता है कि 90 प्रतिशत ज्यादा बजट खर्चा करने के साथ-साथ ऐसी कंपनियों ने कुल बजट का 84 प्रतिशत समाचार पत्रों पर खर्च किया जबकि केवल 16 प्रतिशत रकम मेग्जीन में विज्ञापनों के लिए जारी की. स्वभाविक था कि विज्ञापन उन्हीं पत्रिकाओं को मिले जो महिलाओं के लिए थीं, लेकिन इससे एक बात यह प्रमाणित हो गई कि समाचार पत्रों के फीचर पेज या साप्ताहिक फीचर परिशिष्ट अब भारतीय महिलाओं की पसंद बनते जा रहे हैं और अब घरेलू महिलाएं भी अखबार पढऩे लगीं हैं.
कुछ साल पहले तक भारतीय हाउसवाइफ के बेडरूम्स में मनोरमा, गृहशोभा या ऐसी पत्रिकाएं मिला करतीं थीं. शायद इसीलिए इनके बाद बाजार में आई पत्रिकाओं ने अपना हेडर मेरी सहेली या सखी तय किया लेकिन अब महिलाओं ने उनकी सहेली दूर हो गई है. उनके अपने दैनिक समाचार पत्र में ही उन्हें एक नई दोस्त मिल गई है जो हर सप्ताह पतिदेव के समाचार पत्र में छिपकर घर के अंदर चली आती है.
खुशी की बात यह है कि अखबारों में फीचर पेजों ने इस तरह के विज्ञापनों का बाजार खोल दिया. जिक्र-ए-खास यह भी है कि शेम्पू एवं कंडीशनर के सबसे ज्यादा विज्ञापन (59 प्रतिशत) छोटे शहरों में सबसे ज्यादा बिकने वाले अखबारों को मिले जबकि महानगरों के अखबारों को कुल बजट के 26 प्रतिशत से ही संतोष कना पड़ा. मिनी मेट्रो शहरों के अखबारों में तो जैसे 15 बजट के साथ इन कंपनियों ने केवल खानापूर्ति की.
इन कंपनियों ने प्रिंट मीडिया में जारी किए गए विज्ञापनों के माध्यम से ब्रांड प्रमोट करने का प्रयास किया. इस पर कंपनियों ने 66 प्रतिशत खर्च किया जबकि सेल्स प्रमोशन वाले विज्ञापनों पर केवल 33 प्रतिशत खर्च किया. निष्कर्ष यह कि शेम्पू एवं कंडीशनर बेचने वाली कंपनियां अब छोटे शहरों में बाजार तलाश रहीं हैं एवं उन्हें मालूम है कि भारत के छोटे शहरों में संचार का सबसे बड़ा माध्यम समाचार पत्र ही हैं.
लेखक उपदेश अवस्थी हिन्दी दैनिक राज एक्सप्रेस, भोपाल में उपमहाप्रबंधक के पद पर कार्यरत है.
kamta prasad
June 9, 2010 at 2:55 am
भारत के छोटे शहरों में संचार का सबसे बड़ा माध्यम समाचार पत्र ही हैं। बेशक, हैं लेकिन रहेंगे नहीं क्योंकि शीघ्र ही इंटरनेट का इतना विस्तार होने जा रहा है जिससे अखबारों का वजन कम होगा। यही वजह है कि सभी अखबार वाले अपना नेट एडिशन निकाल रहे हैं। अखबारों की अर्थवत्ता विज्ञापन और सूचनाएं देने तक रह गयी है, कोई आंदोलन खड़ा करने या मुद्दा बनाने की ताब उनमें नहीं रह गयी है। कांटेट के स्तर पर यदि ठोस उपाय नहीं किये गये तो शुभ दिन लंबे समय तक नहीं खिंचेंगे।