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मान्यता नहीं मिली क्योंकि मैं ब्राह्मण नहीं था

मैं जो कुछ लिख रहा हूं, उसे मैंने यूपी, खासतौर पर लखनऊ की पत्रकारिता में पिछले 10 महीनों में अनुभव किया है. महसूस किया है. वही लिख रहा हूं. मेरे लिखने से अगर किसी का नफा-नुकसान होता हो तो मेरी बला से. यूपी में पत्रकारों की मान्यता समिति का चुनाव होने वाला है. इसमें कुछ लोग बेशक अच्छे हैं लेकिन जातीय गणित के शिकार हैं. सबसे पहले मै अपना ही उदाहरण देता हूं. हालांकि मैं कोई चुनाव नहीं लड़ रहा लेकिन मतदान के अधिकार से भी वंचित रहा. कैसे? मैंने भी मान्यता प्राप्ति के लिए आवेदन किया. आवोदन पूरी तरह से पूर्ण था. बैठक 20 जुलाई 2009 को हुई. बहुतों की मान्यता की गई लेकिन मेरी मान्यता नहीं की गई और 14 सितंबर को निदेशक सूचना की तरफ से एक चिट्ठी भेजी गई जिसमें मुझसे चैनल के एक साल पूरे होने का सर्टिफिकेट मांगा गया. जबकि चैनल में पहले से ही दो लोगों की मान्यता हुई भी थी और रद्द भी की गई थी.

<p align="justify">मैं जो कुछ लिख रहा हूं, उसे मैंने यूपी, खासतौर पर लखनऊ की पत्रकारिता में पिछले 10 महीनों में अनुभव किया है. महसूस किया है. वही लिख रहा हूं. मेरे लिखने से अगर किसी का नफा-नुकसान होता हो तो मेरी बला से. यूपी में पत्रकारों की मान्यता समिति का चुनाव होने वाला है. इसमें कुछ लोग बेशक अच्छे हैं लेकिन जातीय गणित के शिकार हैं. सबसे पहले मै अपना ही उदाहरण देता हूं. हालांकि मैं कोई चुनाव नहीं लड़ रहा लेकिन मतदान के अधिकार से भी वंचित रहा. कैसे? मैंने भी मान्यता प्राप्ति के लिए आवेदन किया. आवोदन पूरी तरह से पूर्ण था. बैठक 20 जुलाई 2009 को हुई. बहुतों की मान्यता की गई लेकिन मेरी मान्यता नहीं की गई और 14 सितंबर को निदेशक सूचना की तरफ से एक चिट्ठी भेजी गई जिसमें मुझसे चैनल के एक साल पूरे होने का सर्टिफिकेट मांगा गया. जबकि चैनल में पहले से ही दो लोगों की मान्यता हुई भी थी और रद्द भी की गई थी.</p>

मैं जो कुछ लिख रहा हूं, उसे मैंने यूपी, खासतौर पर लखनऊ की पत्रकारिता में पिछले 10 महीनों में अनुभव किया है. महसूस किया है. वही लिख रहा हूं. मेरे लिखने से अगर किसी का नफा-नुकसान होता हो तो मेरी बला से. यूपी में पत्रकारों की मान्यता समिति का चुनाव होने वाला है. इसमें कुछ लोग बेशक अच्छे हैं लेकिन जातीय गणित के शिकार हैं. सबसे पहले मै अपना ही उदाहरण देता हूं. हालांकि मैं कोई चुनाव नहीं लड़ रहा लेकिन मतदान के अधिकार से भी वंचित रहा. कैसे? मैंने भी मान्यता प्राप्ति के लिए आवेदन किया. आवोदन पूरी तरह से पूर्ण था. बैठक 20 जुलाई 2009 को हुई. बहुतों की मान्यता की गई लेकिन मेरी मान्यता नहीं की गई और 14 सितंबर को निदेशक सूचना की तरफ से एक चिट्ठी भेजी गई जिसमें मुझसे चैनल के एक साल पूरे होने का सर्टिफिकेट मांगा गया. जबकि चैनल में पहले से ही दो लोगों की मान्यता हुई भी थी और रद्द भी की गई थी.

इसी बीच मेरे चैनल के एक सहयोगी जिन्हें 2008 से लेकर अब तक दो बार चैनल से हटाया गया था, मेरे आने के साथ ही उन्हें यहां दोबारा तैनाती दी गई लेकिन जून 2009 में फिर से निकाल दिया गया था और तिबारा अक्टूबर माह 2009 में उन्हें रखा गया तो बतौर रिटेनर. उन्होंने हमारे चैनल के सीईओ का 2008 का लेटर, 23 फरवरी को मेरे आने के साथ ही उनकी तैनाती का एक ऑफिसियल मेल जो निदेशक और सचिव सूचना को किया गया था, 16 हजार रुपए का चेक जो चैनल से मिला था, उसे सेलरी सर्टिफिकेट बताया गया, को पेश किया गया. इस तरह बिना एप्वाइंटमेंट लेटर के ही उपरोक्त कागजों के आधार पर अंदरखाने से उनको मान्यता प्रदान कर दी गई.

मुझे इस बात का कोई मलाल नहीं कि मेरी मान्यता नहीं की गई और उनकी कर दी गई. मलाल इस बात का है कि उसकी मान्यता में सारे रोड़े नजरअंदाज कर दिए गए क्योकि वह ब्राह्मण था और मेरे सब कुछ कागज पत्तर सही होने के बाद भी रोड़ा लगाया गया तो इसलिए कि मैं कायस्थ ठहरा. कैसे? ये भी साफ करता हूं. मान्यता समिति के अध्यक्ष और सचिव के साथ ही यूपी सूचना विभाग के प्रमुख सचिव, सचिव और निदेशक तक ब्राह्मण हैं. जिनकी मान्यता की गई वो भी ब्राह्मण हैं. मेरी नहीं की गई क्योंकि मै ठहरा कायस्थ. मान्यता का ये जातिवादी खेल इसलिए क्योंकि चुनाव में वोट लेना है और शायद ऐसे लोगों को मीडियावाद पर नहीं, जातिवाद में ज्यादा भरोसा है. मेरे ख्याल से तथाकथित बुद्धिजीवियों को इतना बताना काफी है कि यहां जातिवाद पर लोगों को भरोसा है, ना कि निष्पक्ष और निरापद रहकर सभी मीडियाकर्मियों का काम करने, उनकी मुश्किलें-तकलीफें दूर करने में और उनका दिल जीतने में.

मैं पिछले 12 सालों से पत्रकारिता कर रहा हूं. दैनिक जागरण, अमर उजाला, ईटीवी, जी न्यूज़ के बाद इंडिया न्यूज़ सरीखे संस्थानों में काम कर रहा हूं. लेकिन मैंने जो ऊपर लिखा, उसके इतर अगर मैं अपने पिछले 10 माह के लखनऊ कार्यकाल के बारे में गौर करता हूं तो पाता हूं कि यहां मीडियावाद नहीं, जातिवाद चलता है. मेरे व्यक्तिगत संबंध भले ही ज्यादातर लोगों से नहीं है और ना ही ज्यादातर लोग मुझे जानते हैं लेकिन मैं जितनों को जान पाया, उनसे मेरा सवाल है कि आखिर हम जातिवाद में क्यों उलझते हैं. हम मीडियावाद कब फैलाएंगे? हम प्रिंट के हों या इलेक्ट्रानिक के, हमें ‘मैं’ ही ‘मैं’ नहीं, ‘हम सब’ पर सोचना चाहिए. दूसरों के लिए तो पत्रकार का खौफ है लेकिन अपने लिए अपनों के खौफ से कब तक डरेंगे. वक्त आ गया है. चुनाव सिर पर है. मेरे उदाहरण को पढ़िए. कुछ शक सुबहा हो तो मुझसे जरूर पूछिए. मेरी कोई खता हो तो मुझे भी सजा सुनाइए. लेकिन जो लोग इस इलेक्शन में अच्छे हैं, उन्हें जिताइए. फिर चाहे आप कायस्थ हों और वो ब्राह्मण या आप ब्राह्मण हों और वो कायस्थ. प्लीज़ जातिवाद नहीं मीडियावाद फैलाइए ताकि अगली समिति से किसी संजय को मान्यता के लिए जातिवाद का शिकार ना होना पड़े.

उम्मीद और विश्वास के साथ…

आपका

संजय श्रीवास्तव

ब्यूरो चीफ़

इंडिया न्यूज़,

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लखनऊ

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0 Comments

  1. swayamvar rawat

    January 17, 2010 at 9:34 am

    bhai saab aap bilkul sahi kah rahae hai .media me ye log kisi ko bhi panpane ka mauka nahi detw

  2. deepa

    January 18, 2010 at 10:49 am

    aapne sach kha sir yahan jatiwaad bahot hai

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