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…दीपावली भी ऐसे ही चली जाएगी

[caption id="attachment_15884" align="alignleft"]विकास मिश्रविकास मिश्र[/caption]कोई प्राचीन भारत का इतिहास नहीं लिख रहा हूं। दफ्तर में काम करते-करते आंखों के सामने दशहरा बीत रहा है, एक आम दिन की तरह। साल का सबसे खास दिन, देखिए कैसे आम दिन की तरह ढलता जा रहा है। 1978 में आठ साल का था, तबसे लेकर अब तक का दशहरा याद आ रहा है। आठ आने में छोटी वाली गेंद मिलती थी, रबर की। आठ आने में ही सौ ग्राम जलेबी मिलती थी। हर मंगलवार को बगल के गांव में मंगरहिया बाजार लगता था। उसी गांव में स्कूल भी था। हर मंगलवार को आठ आने मिलते थे। कभी जलेबी खाते थे, कभी गेंद खरीदते थे और कभी अठन्नी बचा लेते थे, दशहरे के लिए। ये मिशन दशहरा होता था। क्योंकि दशहरे के बाद दीपावली आती है। जितने पैसे होंगे, उतने ही पटाखे आएंगे, उतनी ही अच्छी पिस्तौल आएगी।

विकास मिश्र

विकास मिश्रकोई प्राचीन भारत का इतिहास नहीं लिख रहा हूं। दफ्तर में काम करते-करते आंखों के सामने दशहरा बीत रहा है, एक आम दिन की तरह। साल का सबसे खास दिन, देखिए कैसे आम दिन की तरह ढलता जा रहा है। 1978 में आठ साल का था, तबसे लेकर अब तक का दशहरा याद आ रहा है। आठ आने में छोटी वाली गेंद मिलती थी, रबर की। आठ आने में ही सौ ग्राम जलेबी मिलती थी। हर मंगलवार को बगल के गांव में मंगरहिया बाजार लगता था। उसी गांव में स्कूल भी था। हर मंगलवार को आठ आने मिलते थे। कभी जलेबी खाते थे, कभी गेंद खरीदते थे और कभी अठन्नी बचा लेते थे, दशहरे के लिए। ये मिशन दशहरा होता था। क्योंकि दशहरे के बाद दीपावली आती है। जितने पैसे होंगे, उतने ही पटाखे आएंगे, उतनी ही अच्छी पिस्तौल आएगी।

घर के सभी भाई-बहनों को दशहरे का मेला देखने के लिए मां दो-दो रुपये देती थी। गांव के तमाम बच्चे, जिन्हें मेला देखने का पैसा नहीं मिलता था, बेधड़क मेरी मां के पास चले आते थे। मां सबको चवन्नी, अठन्नी या एक रुपये देती थी। पिताजी खुश होते थे तो बड़े भइया को दस रुपये दे देते थे कि सारे बच्चों को मेला घुमा लाएं। भइया उसमें गबन करते थे, लेकिन अब उनके खिलाफ आवाज कौन उठाए। आवाज उठाने का मतलब था पिटाई। नए नए कपड़े बनते थे, लेकिन बहुत मलाल था। पिताजी एक पूरा थान मंगवा लेते थे। सभी भाई बहनों के कपड़े एक रंग के, एक रूप के। उसी कपड़े की शर्ट तो उसी कपड़े की बहनों के फ्राक। पिताजी का ये सामाजिक न्याय न तो हम चार भाइयों को पसंद था और न ही पांचों बहनों को (हम तीन भाई और तीन बहनें सगे थे, बाकी बुआ और मामा के बच्चे थे, तब सगा और गैर सगा का फंडा नहीं था, कोई भेदभाव नहीं था)। मुझे पैसे की चिंता नहीं थी। मुझे बचपन से मेरी ताई ने पाला था। उन्हें हम लोग दिद्दा कहते थे। निःसंतान थीं, विधवा थीं, तीन महीने की उम्र से ही उन्होंने मुझे अपने पास रखा। उनका दुलारा था, मां ने कभी न तो प्यार से गोद में खिलाया और न ही अपने पास सुलाया। ये ममता का मामला नहीं था। दिद्दा की ममता को कहीं ठेस न लगे, मां इसका ख्याल रखती थीं। हां, बदमाशी करने पर मां पीटती थी, दिद्दा मां को कोसती थी। खैर दिद्दा मुझे दशहरे के दिन दस रुपये देती थीं। पहले से बचाए हुए कुछ पैसे वैसे भी रहते थे।

जुलाई से ही दशहरे का इंतजार शुरू हो जाता था, प्लानिंग होने लगती थी। भाई बहनों का प्यार बढ़ जाता था, इसकी वजह सिर्फ ये थी कि वो सभी जानते थे कि दशहरे के दिन मेरे पास बहुत पैसा होगा। कम से कम पंद्रह से बीस रुपये। मेले में जलेबी, मसाल पट्टी, खुरमा और खाजा खाना है, पटाखे, फुलझड़ियों उड़ानी हैं तो मेरी खुशामद तो होगी ही। दशहरा करीब आते आते बेचैनी बढ़ने लगती थी। गांव से दो किलोमीटर दूर वाले गांव में मेला लगता था। मां और दिद्दा का जोर रहता था कि खाकर जाओ, लेकिन हम लोग मूर्ख थोड़े ही थे। खाकर जाएंगे तो मेले में खाने का मौज कैसे आएगा। दोपहर 12 बजे घर से पूरी टोली निकल पड़ती थी। सभी भाई बहन दो तीन नौकरों की निगरानी में निकलते थे। बिल्कुल पैदल। धान की लहलहाती फसलों की मेड़ से गुजरते हुए। कोदो का खेत आता था तो सभी उसके पत्ते खाते। पत्तों में स्वाद नहीं था, लेकिन कोदो के पत्ते खाने से मुंह लाल हो जाता था। तो मुफ्त में पान खाने का शौक पूरा हो जाता था। भागदौड़ का खेल भी होता था। कौन दौड़कर किसे छू लेता है। दो किलोमीटर पैदल चलना मामूली बात नहीं थी, लेकिन रावण, कुंभकरण और मेघनाद के लम्बे लम्बे पुतले गांव से निकलते ही दिखने लगते थे। बस उन्हें ही देखकर चलते रहते थे। अब पहुंचे, अब पहुंचे। पहुंच ही जाते थे।

सबसे ज्यादा रुचि थी मेले में राम-रावण-युद्ध देखने में। बड़े से मैदान में होती थी रामलीला। लम्बा घेरा बनाया जाता था, हम लोग किसी तरह दाएं बाएं होते होते, आगे पहुंच जाते थे। भीड़ को आगे बढ़ने से रोकने के लिए रस्सा नहीं लगाया जाता था। चूने की लाइन बनाई जाती थी। एक बरुआर चलता था। हां उसे बरुआर कहते थे, आपके यहां क्या कहते रहे होंगे, याद कर लीजिएगा, मैं उसका चरित्र चित्रण कर देता हूं। लंगोट पहने एक मोटा हट्ठा-कट्ठा आदमी उसके बदन पर खून की तरह फैला हुआ पेंट। दोनों हाथों में तलवारें। रस्सियों में बंधा होता था। दो लोग पीछे रस्सी पकड़े रहते थे। बरुआर तेजी से भागता था, लोग डरकर पीछे हट जाते थे। हम लोग बरुआर के बारे में सिर्फ यही जानते थे कि अगर चूने वाली लाइन से आगे गए तो बरुआर तलवार से काट डालेगा। बरुआर जब दौड़कर आता था तो हम लोगों को सांप सूंघ जाता था। अब सोचकर हंसी आती है।

रामलीला की स्पीड बहुत तेज थी। मेघनाद से युद्ध एक बजे शुरू हो जाता था, शाम पांच बजे तक रावण वध भी हो जाता था। लक्ष्मण को शक्ति बाण लगने के बाद के विलाप के दौरान हम लोग सरक लेते थे। पहले तो मेले का चक्कर लगता था। क्या क्या है, कितने का है, कहां का अच्छा है। जलेबी सवा रूपये पाव मिलती थी, इमरती दो रुपये। इमरती की इच्छा लिए बाकी भाई बहन मेरी तरफ देखते थे। मैं किसी राजे महराजे की तरह महादान करते हुए इमरती खिलाता था। हालांकि बाकी भाई बहन साठ गांठ करके मेरे पैसे खर्च करवाने की प्लानिंग करते थे। मैं जानता था, चिंता इसलिए नहीं थी कि मेरे पास दिद्दा के रूप में अक्षय भंडार था। दस पांच रुपये जब चाहूं, निकलवा लूंगा, यही सोचकर खर्च करने में कोताही नहीं करता था।

इमरती के बाद मसालपट्टी का नम्बर आता था। क्योंकि उसे खाने में नहीं चुभलाने में आनंद था। सोठौरा खाने में तो मजेदार होता था, लेकिन कमबख्त खत्म बड़ी जल्दी हो जाता था। आगरा के लड्डू (जिसे आज के बच्चे बुढ़िया के बाल कहते हैं) का भी यही हाल था। खैर, मसालपट्टी के टुकड़े हाथ में लिए फिर हम सभी जुट जाते थे रामलीला देखने में। अब इंतजार होता था रावण के मरने का। कमबख्त जाने कितने तीर खाए, लेकिन मरने का नाम नहीं लेता था। युद्ध क्या होता था, नाटक होता था, लेकिन उस उम्र में असली जैसा मजा आता था। क्योंकि ये आंखें सिनेमा देखने की आदी नहीं थीं। वही हम लोगों के लिए सिनेमा होता था। राम रावण युद्ध लम्बा खिंचने का एक कारण और भी था। जब तक क्षेत्र के बड़े आदमी नहीं आ जाते थे, तब तक रावण मर नहीं सकता था। उनमें से मेरे पिताजी भी थे। घोड़े से आते थे। सफेद रंग का घोड़ा, दूर से ही नजर आ जाता था। बाबा (यानी हमारे पिताजी ) का घोड़ा आने का मतलब था रावण का मरना तय। खैर, रावण के मरने के बाद हनुमान जी, राम और लक्ष्मण को कंधे पर बिठाकर मैदान में घूमते थे और हम लोग वापस मेले में आ जाते थे।

ये मौका होता था खरीदारी का। बहनें रिबन और कंगन की दुकान पर जमा हो जाती थीं, तो हम लोग पटाखों की दुकान पर। चुटपुटिया चलाने वाली पिस्तौल डेढ़ रुपये की आती थी। छोटे भइया पहले ही बाजार का मुआयना करके आ चुके थे। बताया कि पिस्तौल तो पांच रुपये वाली भी आई है। उसमें चुटपुटिया नहीं लगती, काग लगता है। मुर्गा ब्रांड। बस घोड़ा खींचो, काग (गोली) भरो। टिगर दबाओ ठांय से। उसके पटाखे भी महंगे थे। चुटपुटिया एक रुपये का दस पैकेट मिलता था, काग वाला डेढ़ रुपये का एक पैकेट। भाई बहन मुझे चढ़ाते थे और मैं सारे पैसे पिस्टल और काग पर खर्च कर लेता था। मेले का एक नियम था कि पैसा बचाकर नहीं लाना है। सब खर्च कर देना है। छोटे भइया को मालूम था कि जो पिस्टल उन्होंने खरीदवाई है, उसे डर के मारे मैं चला नहीं पाऊंगा। यानी पैसे मेरे गए, मौज सभी लेंगे। मुझे भी मालूम था, लिहाजा पिपिहरी (अलग किस्म की बांसुरी जैसी चीज), गुब्बारे खूब खरीदता था।

रावण वध से एक घंटे के भीतर सारी खरीदारी हो जानी थी, क्योंकि इसके बाद मेले का क्लाइमेक्स आता था। राम, लक्ष्मण, हाथी पर बैठकर रावण का पुतला फूंकने निकलते थे। मैं बारी काका (घर के पुराने नौकर, बिल्कुल रामू काका जैसे) के कंधे पर बैठ जाता था। रामचंद्र सरकंडे का तीर छोड़ते थे, आग रावण के पीछे लगा दी जाती थी। बोलो सियावर्रामचंद्र की जय…। जोर की आवाज आती थी। पटाखे फूटते थे, तो हाथी बिलबिलाने लगता था। रामचंद्रजी के होश फाख्ता, लक्ष्मण जी परेशान। लेकिन रामलीला के क्लाइमेक्स में ये भी जरूरी था कि आग में जलते पुतलों को हाथी अपने मस्तक से गिराकर पैरों से रौंद डाले। तब तक राम लक्ष्मण को हाथी से उतरना नहीं था। रामकृपा से ये भी हो जाता था। हाथी की चिग्घाड़ से पूरा मैदान गूंज उठता था। डर लगता था, मजा आता था। मेले में छोटे-छोटे झूले भी आते थे, लेकिन उनसे अच्छे झूले तो हमारे घर के नीम के पेड़ में होते थे, लिहाजा झूले में किसी की रुचि नहीं थी।

शाम ढलने और मेला उठने के बाद हम लोग चलते थे। जहां देखो, वहां लोग। लगता था, जैसे आसपास के गांवों में कोई नहीं बचा, सब मेला देखने आ गए। लौटते वक्त मैं फायदा उठा लेता था। पिताजी के साथ घोड़े पर आ जाता था। घर पहुंचने के बाद, क्या खरीदा, कैसा खरीदा का हिसाब किताब होता था। पटाखे-पिस्तौल दीपावली तक के लिए दिद्दा के पास सुरक्षित रखवा दी जाती थी।

गांव में एक मेडवाइफ थीं। मेरे ही घर के एक कमरे में रहती थीं। सरकारी दवाएं और परिवार नियोजन के साजोसामान उनके पास आते थे। आज का दौर नहीं था। हम लोग कंडोम और आई पिल्स की गोलियों का विज्ञापन देखकर बड़े नहीं हुए थे। तमाम चीजों से अनजान थे। निरोध के गुब्बारे हम लोग अक्सर मेडवाइफ भौजी के कमरे से उठा लाते थे। प्रयोग ये होता था कि उसे पिपिहरी के सिराहने बांध दिया जाता था, जिधर से हवा फूंकनी होती थी। फिर पिपिहरी के पीछे की तरफ से उसे फूंक मारकर फुला दिया जाता था। जब गुब्बारा फूलकर बड़े साइज का हो जाता था तो फूंक मारना बंद। फिर पिपिहरी करीब पांच मिनट तक अपने आप ही बजती और हम लोग उसके छेदों पर अंगुलियां फेरकर धुन निकालने की कोशिश करते। हम लोगों के लिए ये खेल था, घर के बड़ों के लिए सिरदर्द। वो मना करते थे, लेकिन मना करने की वजह कैसे बताते। बड़े भइया का सामान्य ज्ञान थोड़ा उन्नत हो चला था। हम लोगों को डांटकर दो तीन साल बाद गुब्बारे का इस्तेमाल बंद करवा दिया। तर्क ये दिया कि इसमें जहरीला केमिकल होता है। बालमन में उत्सुकता बनी रहती थी कि अगर इसमें जहर होता है, तो सरकार इसे भेजती क्यों है।

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दशहरे का मेला खत्म होता था, लेकिन मन में उत्सव का माहौल बना रहता था, क्योंकि कुछ दिन बाद ही दीपावली आती थी। मेरी मौज थी। कोई मुझसे झगड़ा नहीं करता था, मुझे सब अपनी तरफ मिलाकर चलते थे। क्योंकि दीपावली पर पटाखे और फुलझड़ियों का जखीरा तो मेरे पास ही रहता था। दीपावली आने के दो दिन पहले से ही धमाल शुरू हो जाता था। दिद्दा दीपावली के लिए भी पैसे देती थीं। फिर नए कपड़े बनते थे। दीपावली के दिन शाम ढलते ही धमाल चालू हो जाता था। देर रात के सन्नाटे को चीर देती थी पटाखों की आवाज। गरीबों के बच्चे हम लोगों का पटाखा चलाना देखकर ही खुश हो लेते थे। मेरी बंदूक भी चलती थी, भइया लोग चलाते थे, मजा सबको आता था। तब शहरी हवा से ताल्लुक नहीं था। तीन महीने पहले से ही दशहरा आने लगता था। साढ़े तीन महीने पहले से दीपावली का इंतजार रहता था। महीनों उल्लास रहता था। अब देखिए, दशहरा यूं आया और यूं चला गया। जानता हूं, दीपावली भी बस ऐसे ही आकर चली जाएगी। बिना उल्लास, शायद कहीं बेहद उदास।


लेखक विकास मिश्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी पत्रकार हैं। इन दिनों वे हिंदी न्यूज चैनल ‘न्यूज 24’ में सीनियर प्रोड्यूसर पद पर कार्यरत हैं। उनसे संपर्क [email protected] या 09873712444 के जरिए किया जा सकता है।

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