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इंटरव्यू

मधुमक्खी का काम तिलचट्टे नहीं कर सकते

Vinod Shuklaहमारा हीरोविनोद शुक्ला

विनोद शुक्ला उर्फ विनोद भैया से बातचीत करना हिंदी मीडिया के एक युग पुरुष से बातें करने जैसा है। एक ऐसी शख्सीयत जिसने अपने दम पर कई मीडिया हाउसों के लिए न सिर्फ सफल होने के नुस्खे इजाद किए बल्कि कंटेंट को किंग मानते हुए जन पक्षधरता के पक्ष में हमेशा संपादकीय लाठी लेकर खड़े रहे। विनोद जी के प्रयोगों को मुख्य धारा की पत्रकारिता माना गया और दूसरे मीडिया हाउस इसकी नकल करने को मजबूर हुए।

Vinod Shukla

Vinod Shuklaहमारा हीरोविनोद शुक्ला

विनोद शुक्ला उर्फ विनोद भैया से बातचीत करना हिंदी मीडिया के एक युग पुरुष से बातें करने जैसा है। एक ऐसी शख्सीयत जिसने अपने दम पर कई मीडिया हाउसों के लिए न सिर्फ सफल होने के नुस्खे इजाद किए बल्कि कंटेंट को किंग मानते हुए जन पक्षधरता के पक्ष में हमेशा संपादकीय लाठी लेकर खड़े रहे। विनोद जी के प्रयोगों को मुख्य धारा की पत्रकारिता माना गया और दूसरे मीडिया हाउस इसकी नकल करने को मजबूर हुए।

दैनिक जागरण को लखनऊ में नंबर वन बनाने वाले इस शख्स की संपादकीय, प्रसार, विज्ञापन, तकनीक आदि विभागों पर जिस तरह की संपूर्ण पकड़ रही है और जिस तरह की गहन समझ रही है, वैसा अब तक कोई और व्यक्ति पैदा न हुआ। आज हिंदी मीडिया में संपादकीय से लेकर प्रबंधन तक में जो सितारे जगमगा रहे हैं, उनमें से ज्यादातर के गुरु विनोद शुक्ला रहे हैं। विनोद शुक्ला हिंदी मीडिया के एक ऐसे स्टाइलिश व्यक्तित्व का नाम है जिसके आभामंडल के आगे बड़े-बड़े सूरमाओं के तेज फीके पड़ जाते रहे हैं। शासन, सत्ता, राजनीति, नौकरशाही, माफिया जैसे संस्थान विनोद शुक्ला के नाम से भय खाते थे। अपने बिंदास स्वभाव के चलते विनोद शुक्ला कई तरह के विवादों में भी रहे पर इससे उनका हौसला कम होने की बजाय और बढ़ जाया करता।

जीवन के उत्तरार्द्ध में विनोद शुक्ला इन दिनों कई तरह की बीमारियों से जूझ रहे हैं। बावजूद इसके सभी अखबारों को पढ़ना और मीडिया के परिदृश्य पर नजर गड़ाए रखना उनका प्रिय शगल है।

भड़ास4मीडिया के एडीटर यशवंत सिंह ने विनोद शुक्ला से लखनऊ में कई दौर में बातचीत की, पेश है कुछ अंश-


 

Vinod Shukla-शुरुआत अपने बचपन और पढ़ाई-लिखाई से करिए।

–मेरा जन्म और पालन एक संयुक्त परिवार में हुआ। जन्म से लेकर 6 साल की उम्र तक मैं नाना-नानी  के यहां दिल्ली में रहा। वह एक बड़ा-सा संयुक्त परिवार था। परिवार में मिल-जुल कर अनुशासनपूर्वक रहने का शऊर मैंने वही, उसी शैशवकाल में सीखा। काशी आया तो वहां भी संयुक्त परिवार ही मिला। मेरे पिता पंडित रघुनन्दन प्रसाद शुक्ल ‘अटल’ धुरंधर साहित्यकार-पत्रकार, विद्रोही और फक्कड़ मिजाज के व्यक्ति थे, किंतु परिवार की एकता बनाये रखने के लिए सदा सतर्क रहते थे। वहां सामूहिकता थी। तीन भाई और उनके बाल-बच्चे साथ रहते थे। पिता परिवार के मुखिया थे और परिवार के लिए निजी सुख-सुविधा का त्याग करते थे। अपना हित गौण और दूसरों का हित सर्वोपरि, यह थी उनकी सोच। संयम से रहते थे। सबके दुख स्वयं सहते थे, वह भी अदभुत जीवंतता के साथ। पिता के ये गुण मैंने बहुत निकट से ग्रहण किये। एक संयुक्त परिवार अपने सदस्यों को बहुत कुछ सहज भाव से सिखा देता है। वह सब मैंने भी सीखा। पिता संस्कृत के विद्वान थे इसलिए घर में बड़े-बड़े विद्वानों का आना बराबर लगा रहता था। एक से बढ़कर एक गुणी जन आते थे, गोष्ठी और विमर्श करते। उदाहरण के लिए, मेरे यज्ञोपवीत में अन्य विद्वानों के अलावा तीन पीठों के शंकराचार्य आये थे। इसी तरह पिताजी के त्रयोदशाह में देश के सर्वोच्च तंत्रविद गोपीनाथ कविराज तक आ गये थे। इसी परिवेश में मैं पला-बढ़ा। विद्वान के प्रति अनुराग और गुणी-विद्वज्जनों के प्रति आदर भाव मैंने उसी परिवेश से सीखा।

-आपको जन्मजात पत्रकार मानें या अर्जित संस्कार वाला? अखबार से पहला परिचय कब और कैसे हुआ?

–पहली बात यह है कि मैं अपने को पत्रकार नहीं कहना चाहूंगा। मैं अखबार का संपूर्ण आदमी हूं। रिपोर्टिंग और संपादन तो उस संपूर्णता का एक अंग है। इस क्षेत्र में मेरे प्रवेश के समय ऐसे लोगों की ही जरूरत थी जो समाचारपत्र के पूरे स्ट्रक्चर (ढांचे) और पूरी प्रोसेस (प्रक्रिया) से जुड़े हों। इस संपूर्णता का पहला पाठ भी मैंने घर में ही सीखा। पिता ‘आज’ में थे। बाद में ‘सन्मार्ग’ का संपादन करने लगे। तब समाचार, लेख सब अंग्रेजी में होते थे। हम लोगों से अनुवाद कराया जाता था। उसमें सुधार किया जाता था। हमें प्रताड़ना भी मिलती थी। थप्पड़ और फटकार खाते-खाते हमनें बहुत कुछ सीख लिया। प्रेस घर में लगा था। ‘मतवाला’ जैसे पत्र वहीं छपते थे। ‘रणभेरी’ के प्रकाशक और मुद्रक मेरे फूफा सरयू प्रसाद दीक्षित थे। सामग्री के लिए मारामारी मैंने बचपन में ही देखी और सुनी। इस तरह, पत्रकारिता से मेरा परिचय तो जन्मजात था, लेकिन पत्रकारिता के पेशे में लाचारी में ही आया।

Vinod Shukla-आप इंजीनियर बनना चाहते थे, फिर पत्रकारिता की ओर कैसे मुड़े?

–पिता और परिवार का दबाव मुझे इंजीनियर बनाने के लिए था। बीएससी (बीएचयू) की फाइनल परीक्षा छोड़कर मैंने माइनिंग इंजीनियरिंग की पढ़ाई की, मगर एक दुर्घटना वश वह पढ़ाई भी अधूरी छोड़कर मैं घर आया। फिर वापस नहीं लौट सका। बनारस आकर मैं शावालेस फर्टिलाइजर में सेल्स का काम करने लगा। उसी क्रम में एक दिन हवाई अड्डे पर ज्ञानमंडल के स्वामी सत्येंद्र कुमार गुप्त से भेंट हो गयी। मैंने उन्हें नमस्कार किया। उन्होंने चंद्र कुमार (‘आज’ के वरिष्ठ संपादक) से पूछा- ‘कौन हैं ये?’ चंद्रकुमार ने बताया- ‘अटल जी के पुत्र हैं।’ सत्येंद्र गुप्त ने मुझे अगले दिन कार्यालय में बुलाया। अत्यंत आत्मीयता दिखाते हुए कहा- ‘पिता जी को तुम्हारी जरूरत है, काशी में ही रहो’। ‘आज’ की सेवा में मुझे रख लिया। वे स्वयं समाचारपत्र के एक संपूर्ण आदमी थे और इसीलिए मैं भी उसी रूप में अपने को ढालने लगा।

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Vinod Shukla-अखबारी दुनिया में उस दौर का नजारा कैसा था?

–तबकी दुनिया में पैसा नहीं था। संस्थान अभावग्रस्त थे- इतने कि आज याद करने पर आश्चर्य होता है कि वे समाचार पत्र निकालने का साहस कैसे करते थे। ऐसा ही आश्चर्य तबके पत्रकारों की कर्मठता पर होता है। आज की तुलना में साधन शून्य थे। आप सोच ही नहीं सकते कि वैसी घोर असुविधा के बीच अखबार तैयार किया जा सकता है। लोग दूर-दूर से पैदल आकर नंगे बदन काम करते थे। वेतन अतिअल्प था। वह भी टुकड़े-टुकड़े में मिलता था। विषम परिस्थिति के बावजूद वे जी-जान से जुटे रहते थे। अच्छी से अच्छी कापी देने की होड़ रहती थी। अगले दिन जब अखबार छप जाता तो एक दूसरे की आलोचना में गाली-गुप्ता तक हो जाता। मजेदार यह कि आलोचना-समालोचना के उन आलंकारिक एवं रसात्मक स्वरों को सुनने के लिए लोग उस दिन कुछ पहले ही प्रेस में पहुंच जाते। अदभुत जीवट वाले लोग थे। लेकिन अर्थ संकट की चिंता के कारण वे अपनी आधी-अधूरी प्रतिभा-क्षमता का ही उपयोग कर पाते थे। सब मालिक की कृपा पर जिंदा थे। बाद में पत्रकार मालिक आये- जैसे पूर्णचंद्र गुप्त, डोरीलाल अग्रवाल। उन्होंने पत्रकारों का संकट समझा। उनके प्रति सहानुभूति दिखाई। तभी पत्रकारों की आर्थिक स्थिति में सुधार आया।

-आपने सड़क से शिखर तक का सफर कैसे तय किया?

Vinod Shukla–मुश्किलें तो आती ही हैं, क्योंकि यह सफर ही ऐसा है- कदम-दर-कदम रुकावट और जोखिम भरा। मगर आदमी जो कुछ करने को ठान लेता है तो वह येन-केन प्रकारेण कर ही लेता है। संकल्प में बड़ी शक्ति होती है। वह ऊर्जा ही नहीं, सूझ-बूझ भी देता है। पत्रकर्मी तो मधुमक्खी जैसा होता है। मधुमक्खी का आकार-प्रकार उड़ने के लिए बनाया गया है। वह दूर-दूर से सामग्री लाकर मधु बनाती है। यह काम तिलचट्टे नहीं कर सकते।

एक प्रकरण विकट संकट का है जिसे मैं भूल नहीं सकता। ‘आज’ के लिए विदेश से मशीन इम्पोर्ट (आयात) की गयी। 1966 की बात है। मशीन पोर्ट (बंदरगाह) में पहुंची तभी भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन हो गया। मशीन पोर्ट में फंस गयी, क्योंकि 65 प्रतिशत अधिक धनराशि का भुगतान ‘आज’ के लिए अत्यंत कठिन था। बड़ी हायतौबा मची। बड़े-बड़े सीए जुटे थे, लेकिन समाधान नहीं निकल रहा था। मशीन का आना जरूरी था। मैं सब कुछ जान-समझ रहा था, यह भी जान गया था कि दिल्ली में इस समस्या का निराकरण संभव है। मैंने इसकी पेशकश की। उन्होंने (सत्येंद्र गुप्त) पहले तो मुझे झिड़क दिया, मगर बाद में मुझे अपनी सूझ को आजमाने की अनुमति दे दी। मैं दिल्ली गया, तत्कालीन आयात-निर्यात मंत्री राजा दिनेश सिंह से मिला और काम निबटवा दिया। वह चुनौती भरा काम हो जाने के बाद मेरे जीवन में निर्णायक मोड़ आया। सत्येंद्र गुप्त मुझ पर भरोसा करने लगे और जिम्मेदारियां सौंपने लगे। विज्ञापनों के उद्देश्य से बड़े विभागों और व्यापारिक घरानों में जाने का अवसर मिला। काशी पूर्वांचल में आती है और वह गरीब इलाका है। तब हिंदी के समाचार पत्रों को बीड़ी के ही विज्ञापन मिलते थे, सिगरेट के नहीं। ऐसे हालात में मैंने विज्ञापन देने वाले विभागों और प्रतिष्ठानों में ‘आज’ की पैठ बनाई, बढ़ाई।

Vinod Shuklaएक अविस्मरणीय प्रकरण है ‘आज’ के कानपुर संस्करण का। मैं वहां एक शादी में गया था। वहां से ‘दैनिक जागरण’ निकलता था, मगर वह काशी के ‘आज’ के मुकाबले कमजोर था। तभी मन में एक सूझ जगी कि यदि ‘आज’ यहां से निकले तो कुछ काम बने। उस समय काशी हिंदू विश्वविद्यालय में भी पत्रकारिता विभाग खुल गया था और शिक्षित युवक पत्रकारिता में आने के लिए बेताब थे, किंतु उस समय अखबार ही नहीं थे। मुझे लगा कि कानपुर से ‘आज’ का प्रकाशन होने पर साठ-सत्तर युवकों को नौकरी दे सकता हूं। फिर तो जुट गया इस काम में। 1975 में कानुपर से ‘आज’  निकलने लगा।

कानपुर का ही एक और प्रकरण है। आपातकाल लग चुका था। युवाओं में बहुत उत्साह था। इमरजेंसी के खिलाफ वे गुस्से से उबल रहे थे, लेकिन कायदे-कानून से अनभिज्ञ थे। जिस दिन सेंसर घोषित हुआ उस दिन ‘आज’ की ओर से हमने (सेंसर के विरोध में) एक बुलेटिन निकाला जिसका बैनर था- ‘सब नारायण जेल में’, जबकि ‘दैनिक जागरण’ में संपादकीय (अग्रलेख) का स्थान खाली छोड़ दिया गया। आपातकाल और सेंसर के इस प्रतीकात्मक विरोध के कारण ‘दैनिक जागरण’ के पूर्णचंद्र जी सहित सभी संपादक जेल चले गये, मगर हम साफ बच गये। वास्तव में हम लोग (आज) कानपुर में पंजीकृत अखबार नहीं थे। काशी में ‘आज’ पर सेंसर लगा, किंतु कानपुर का ‘आज’ सेंसर से मुक्त रहा। सेंसर की परवाह न कर हमने समाचारपत्र का जो प्रकाशन किया उससे ‘आज’ खूब फैला, किंतु कागज की कमी और मशीन की कमजोरी के कारण हम मात खाते रहे। सरकार की धमकियों को देखते हुए हमने कथा-आधारित पत्रकारिता अपना ली। शुरुआत पुराने डकैतों की कथाओं से की। देखते-देखते इस क्षेत्र की विशेषता हासिल कर ली। तत्कालीन समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में हमारी उस सफलता के चर्चे आज भी देखे जा सकते हैं। मलखान और फूलन के आत्मसमर्पण की कथाएं हमारी ही बदौलत पत्र-पत्रिकाओं में खूब कायदे से छपीं। उन दिनों बड़े-बड़े घरानें के बड़े-बड़े पत्रकार ‘आज’ (कानपुर) में डेरा डाले पड़े रहते थे।

-आपने जिन पत्रकारों से प्रेरणा या प्रशिक्षण पाया उनमें कौन-सी विशेषताएं थीं?

Vinod Shukla–प्रारंभिक गुरु तो पिता ही थे। उनके विषय में पहले ही बता चुका हूं। वैसे, बचपन में पत्रकारिता में मेरी अधिक रूचि नहीं थी। इस क्षेत्र में आने में पारसनाथ सिंह ने सबसे अधिक प्रेरित और प्रभावित किया। उन्हीं से मिला प्रशिक्षण भी मेरे लिए सर्वाधिक काम आया। वे ‘आज’ में संपादकीय मंडल के सदस्य रहे। पटना और दिल्ली में ‘आज’ का प्रतिनिधित्व करते रहे। समाचारों का संग्रह, चयन और संपादन जितना संतुलित और सटीक वे कर देते थे, उतना बिरले पत्रकार ही कर पाते थे। समाचार पत्र के लिए संपर्क, संवाद और व्यवहार के भी वे सिद्ध पुरूष रहे हैं। पारसनाथ सिंह जैसे कर्मयोगी पत्रकार से प्रशिक्षण प्राप्त करना मैं अपना सौभाग्य ही मानता हूं। उनके साथ मैं लम्बे समय तक रहा। ‘आज’ के कानपुर संस्करण को लोकप्रिय बनाने में भी मुझे उनका महत्वपूर्ण सहयोग किला। ‘आज’ के वरिष्ठ संपादक विद्या भास्कर और चंद्रकुमार मेरे ‘इमीडिएट बॉस’ (निकटतम मार्गदर्शक) थे। विद्या भास्कर की अध्ययनशीलता, बहुज्ञता और कार्य के प्रति गंभीरता मेरे लिए प्रेरणा बनी। वे पूरा दिन पढ़ने और अपने अर्जित ज्ञान को साथियों-सहयोगियों के बीच बांटने में व्यतीत करते थे। मैंने भी यही तरीका अपनाया। ज्ञान के अर्जन और आदान-प्रदान के लिए वे देश-विदेश के बौद्धिक संस्थानों से जुड़े हुए थे। बाद में मैं भी उन संस्थानों का सदस्य बन गया। नये पत्रकारों को आगे बढ़ाने में विद्या भास्कर बेजोड़ थे। मैं जब कानपुर से ‘आज’ निकालने चला तो उन्होंने बड़ी आत्मीयता के साथ सफल होने के गुर बताये। उन्होंने कहा- “समाचार पत्र की जिम्मेदारी बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। सारा बोझ हंसते हुए ढोना पड़ता है। अब आपको जो अवसर मिला है वह आपके जीवन की सबसे बड़ी परीक्षा का अवसर है। यह (संपादक की) परीक्षा लिखकर नहीं, बल्कि लिखित सामग्री को संवार-निखार कर पास की जाती है। मेरी सलाह है कि अब आप लिखने की प्रवृत्ति छोड़ दें। समाचारों को ध्यान से देखें। उनका सुधार-परिष्कार जितना कर सकें कर दें, लेकिन लिखवाने का काम अपने अधीनस्थ सहयोगियों से ही करायें।” उनकी यह सलाह मैंने मान ली।

समाचार पत्र का संपूर्ण आदमी बनने की प्रेरणा और शिक्षा मैंने सत्येंद्र कुमार गुप्त से ही प्राप्त की। मशीन प्रकरण के कारण मैं उनके सीधे संपर्क में आ गया। वे गणित ज्योतिष के बड़े ज्ञाता थे। एक तरह से मैं उनका सचिव ही था। समाचार पत्र के संगठन और संचालन की संपूर्ण विद्या उन्होंने मुझे बच्चे की तरह- ककहरे से लेकर स्नातकोत्तर स्तर तक-सिखा दी। उसी विद्या की बदौलत मैं समाचार पत्र के नये संस्करण निकालने और पत्रकारिता में नये प्रयोग करने में सफल हुआ। समाचार पत्र में माड्यूलर मेक-अप (प्रभावी पृष्ठबंध) सबसे पहले हमने ही कानपुर (आज) में प्रारंभ किया। ‘लीड’ (सर्वप्रमुख समाचार) को दो कालम में छाप देने की युक्ति मेरे ही दिमाग की उपज थी। अखबार में ‘द्विस्तंभी झंडे’ (डबल कालम बैनर) के उस प्रयोग को न केवल लोगों ने सराहा बल्कि अन्य समाचार पत्रों ने उसे अपनाया भी। समाचारों के स्वरूप की एक सरल नीति भी निकाली हमने। उसके अनुसार “खबर जितनी जरूरी हो उतनी ही लिखी और छापी जाये। वह छोटी है या बड़ी, इसका कोई मायने नहीं। संख्या की दृष्टि से ज्यादा से ज्यादा खबरें छापने पर जोर दिया जाये।” इसी तरह नये संस्करण निकालकर हिंदी भाषी क्षेत्र को अखबारों से पाटने और पत्रकारों की एक बड़ी फौज खड़ी करने में भी सत्येंद्र जी का दिया ज्ञान मेरे बहुत काम आया और मेरे आगे बढ़ने का माध्यम बना।

-पत्रकारिता में आप बनारस घराने का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसका वैशिष्ट्य क्या है?

–पत्रकारिता के बनारस घराने का प्रतिनिधित्व करने की मेरी हैसियत नहीं है। मैं स्वयं को उस महान घराने का एक छोटा-सा सिपाही ही मानता हूं। छिटपुट प्रयास चाहे जहां जितने हुए हों, वास्तविक अर्थों में हिंदी पत्रकारिता का जन्म बनारस में ही हुआ। 1956 में प्रथम प्रेस कमीशन की जो रिपोर्ट प्रकाशित हुई उसमें साफ-साफ कहा गया कि ‘आज’ केवल एक समाचार पत्र नहीं वरन हिंदी पत्रकारिता का प्रथम व्यवस्थित संस्थान भी है जिसे देश के अन्य पत्र-प्रतिष्ठान मॉडल के रूप में स्वीकार करते हैं। उस घराने को देश के धुरंधर विद्वानों और सर्वथा समर्पित पत्रकारों ने प्रतिष्ठित किया। तब काशी का प्रत्येक कंकड़ शंकर के समान (ज्ञानी, अक्खड़ और फक्कड़) होता था। सभी महारथी ‘आज’ कार्यालय में जुटते थे और एक दूसरे को ‘लंठ’ कहते थे। बड़े-छोटे का कोई भेद ही नहीं था। उस घराने को बाबूराव विष्णु पराड़कर और उनके अनुयायियों ने प्रतिष्ठित किया। उनमें संपूर्णानंद, कमलापति त्रिपाठी, श्री प्रकाश, राम मनोहर खांडिलकर, दूघनाथ सिंह, मोहनलाल गुप्त (भइयाजी बनारसी), विद्या भास्कर, पारसनाथ सिंह, लक्ष्मीशंकर व्यास, श्रीशंकर शुक्ल, रूद्रकाशिकेय, ईश्वरचंद्र सिन्हा, भगवान दास अरोड़ा, रामेश्वर सिंह आदि प्रमुख थे।

-आपने ‘आज’ क्यों छोड़ा?

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–सत्येंद्र गुप्त एक मिशन की तरह ‘आज’ का संचालन करते थे। स्वयं लगे रहते और योग्यता-कर्मठता का आदर करते थे। उनके बाद न तो मैं ‘आज’ के काम का रहा न ‘आज’ मेरे काम का। इसके विपरीत ‘दैनिक जागरण’ ने मुझे कुछ कर दिखाने का अवसर दिया। मैं उसका हो गया।

-दैनिक जागरण का पहला अनुभव कैसा रहा?

–उत्साहवर्धक। जब ‘आज’ का विस्तार हुआ तब ‘दैनिक जागरण’ वाले गोरखपुर चले गये। ‘आज’ गोरखपुर गया तो वे लखनऊ आ गये। उनके दोनों संस्करण नहीं चल पाये। लखनऊ संस्करण को तो बंद करने की सोच रहे थे। उस पर लेबर यूनियन का कब्जा हो चुका था। मैंने दोनों संस्करणों को तो जीवित किया ही, तीसरा आगरा और चौथा बरेली संस्करण भी चालू कर दिया। बिना यूनियन के अखबार धकाधक चलने लगा।

-आप नरेंद्र मोहन के निकट रहे हैं। जागरण को नंबर वन बनाने में उनका क्या विजन था?

–नंबर वन समाचार पत्र के रूप में ‘दैनिक जागरण’ की प्रतिष्ठा नरेन्द्र मोहन जी की दूरदर्शिता और सोच की ही परिणति थी। मैं तो सिर्फ हनुमान की तरह उनके पीछे लगा रहा। वह जो सोचते थे, उसे क्रियान्वित कराने में ही जुटा रहता था या यूं कह लीजिए कि सपने वह देखते थे और उन्हें क्रियान्वित कराने का प्रयास मेरा रहता था। वह लोगों की समस्यायें समझते और समाधान करने में रूचि रखते थे। अच्छे काम करने वालों के हौसले बढ़ाने और विचार-विमर्श के लिए सदैव उपलब्ध रहते थे।

-टेलीप्रिंटर युग से कंप्यूटर युग में आए अखबारों के बारे में क्या कहेंगे?

–‘टेलीप्रिंटर युग’ नाम ही गलत है। तब लोग टाइप से कंपोज करते थे और लेटर प्रेस पर (अखबार) छापते थे। टाइप मेटल (धातु) से ढाले जाते थे। आज हम कंप्यूटर युग में हैं। मेटल लापता हो गया। लेटर प्रेस की जगह आफसेट आ गया। टाइप कंपोजिंग की जगह लेजर कंपोजिंग आयी। इस यांत्रिक परिवर्तन में पत्रकारिता की मौलिक गुणवत्ता की बलि दे दी गयी। पत्रकारिता पहले पूर्णत: मिशन थी। उसमें पैसा नहीं था। भाव था, एक धुन थी समाज के लिए कुछ करने की, सब तरह की जानकारियां देकर समाज को सजग और सही दिशा में सक्रिय करने की। मशीनी विकास में वह भाव ही पीछे छूट गया। जब नीयत ही बदल गयी तो समाचार पत्र का स्तर तो क्षरित होगा ही। नाटक लिखा जाता है तो उसके भी कुछ मानंदड होते हैं। उसमें लोगों को जानकारी, मनोरंजन और शिक्षा देने का उद्देश्य निहित होता है। समाचार पत्र को यदि क्षरण से बचना है तो खबरों में भी ये तत्व आवश्यक हैं। आज मनोरंजन और सूचना के लिए तो बहुत-से साधन हैं, लेकिन एजुकेट करने वाला तत्व लापता है और इसी कारण मनोरंजन तथा सूचना भी व्यर्थ है। ईमानदारी के साथ तह तक जाने की लगन लुप्त हो गई है। भूख (लगन) ही आदमी को आसमान तक ले जाती है, तृप्ति का भ्रम उसे कबाड़ में मिला देता है। बिना परिश्रम, आसानी से जो कुछ मिल जाय उसे यथावत प्रस्तुत कर देना ही आज की पत्रकारिता है। सब टी शर्ट ही पहनना चाहते हैं, कमीज नहीं, क्योंकि उसके बनने में समय लगता है। सीखने-सिखाने की प्रवृत्ति भी लुप्तप्राय है। न वैसे गुरु रहे, न ही शिष्य। भाषा का लालित्य तो तभी प्रस्तुत किया जा सकता है जब आप स्वयं पढ़ें और भाषा को मांजें। पाठकों को एजुकेट करने के लिए पहले आपको स्वयं एजुकेटेड होना पड़ेगा। मीडिया में अनिवार्यत: अंतर्निहित, समाचारों के सामाजिक सरोकार और भाषा के प्रति संजीदगी यदि नहीं बरती गयी तो एक दिन पत्रकारिता अपनी अर्थवत्ता ही खो देगी। समाचार की वस्तु (घटना) के प्रति संवेदनशीलाता, भाषा के लालित्य और प्रस्तुति की भंगिमा अपनाये बिना पत्रकारिता चल ही नहीं सकती। राजनीति अथवा शहर की दुर्दशा और दुर्गंध की खबर ऐसी होनी चाहिये कि पढ़ने वाला बिलबिला जाये।

-नई पीढ़ी में इलेक्ट्रानिक मीडिया से जुड़ने की ललक अधिक है, इसका कारण?

–प्रदर्शन की प्रवृत्ति अब के लोगों पर हावी है। ये लोग पराड़कर (पत्रकार) बनने के बजाय शाहरूख खान (शोमैन) बनना ज्यादा पंसद करने लगे हैं। इनमें एक धारण घर कर गई है कि छोटे बक्से पर चेहरा दिखने से सहज ही पहचान बन जाती है। ललक का एक कारण तो यही है। दूसरा कारण यह है कि टेलीविजन में पैसा बहुत मिलता है। आज के समय में पैसा बहुत महत्वपूर्ण है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में बिना प्रतिभा, बिना योग्यता के नाम और नामा दोनों मिल रहे हैं। प्रिंट मीडिया में छदम पत्रकारिता नहीं चल सकती। समाचार पत्र में आपका कृतित्व ही आपकी पहचान होता है। मुद्रण माध्यम की डगर कठिन है, उसमें उपलब्धि अर्जित करने के अवसर कम हैं।

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-अखबार के संपादन और प्रबंधन तंत्र में संतुलन पर आपके अनुभव कैसे रहे?

–दोनों में स्वामी और सेवक का संबंध है, समाचार पत्र का दार्शनिक सत्य यही है। यही संबंध संपादन और प्रबंधन के बीच सही संतुलन बनाता है और समाचार पत्र को सार्थक, स्वस्थ एवं प्रगतिशील बनाये रखता है। समाचार पत्र का सबसे बड़ा यथार्थ यह है कि वह अपने कंटेंट, अपनी पठनीय सामग्री (समाचार और विचार) की बदौलत ही प्रतिष्ठा एवं प्रसार प्राप्त करता है। यही प्रतिष्ठा और प्रसार उसके व्यवसाय (बिक्री एवं विज्ञापन) का आधार होता है। चूंकि कांटेंट (पठनीय वस्तु) संपादकीय विभाग देता है, इसलिए वही राजा है। किसी भी समाचार पत्र का हृदय स्थल, उसका ब्रेन (मस्तिष्क) संपादकीय विभाग ही है। उसके सहकर्मी उसकी स्नायु हैं और प्रबंधतंत्र उस राजा की सेवा में सतत तत्पर रहने वाला सेवक तंत्र है। राजा को सबल और संतुष्ट रखने की सारी जिम्मेदारी प्रबंध तंत्र की होती है। इसमें जब बदलाव की चेष्टा होगी तो संतुलन का गड़बड़ाना और समाचार पत्र का पतन निश्चित है। प्रिंट मीडिया विद्वत्ता का खेल है। समाचार पत्र की महत्ता इतनी ही है कि वह मुद्रित शब्द है, अमिट अभिलेख है। इसीलिए इसके प्रति सतत सावधानी आवश्यक है। अलग-Vinod Shuklaअलग संस्थानों में अलग-अलग विचार चलते हैं। एक दौरा आया जब प्रबंधन को प्राथमिकता दी गयी। संपादकीय तंत्र को उसके पीछे-पीछे चलाया गया, किंतु वह व्यवस्था चली नहीं।

-पत्रकारिता की परंपरा और आए परिवर्तन के बारे में क्या कहेंगे?

–परंपरा, ज्ञान और क्रिया के सभी क्षेत्रों की तरह, पत्रकारिता की भी आधारभूत संरचना है। हमारी जड़ों की मजबूती पंरपरा पर ही निर्भर है। सुदृढ़ पंरपरा वाले समाचार पत्र ही व्यापक प्रसार और गुणवत्ता की ऊंचाइयां प्राप्त करते हैं। परंपरा का साथ प्रिंट मीडिया का नया तंत्र नहीं निभा पा रहा है, यह उसके लिए दुर्भाग्य पूर्ण है। इस तंत्र को परंपरा की जानकारी ही नहीं है। वह सब कुछ कैप्सूल फारमेट में चाहता है। परिवर्तन और प्रयोग स्वाभाविक और जरूरी हैं, किंतु ये तभी फबेंगे और फलीभूत होंगे जब परंपरा से जुड़े रहेंगे। परंपरा से एक बारगी हटकर परिवर्तन और प्रयोग को अपना लेना पत्रकारिता के विनाश को निमंत्रण देना है। विनाश एक-ब-एक नहीं होगा, बल्कि धीरे-धीरे क्षरण होगा और पता नहीं चलेगा। बड़े-बड़े समाचार पत्रों ने इसीलिए आचार संहिताएं बना रखी हैं। मैंने जो कुछ किया, जितना कुछ खोया- पाया उसके लिए बाबा विश्वनाथ से जुड़ी परंपरा ही मुझे ऊर्जा देती रही है, इसलिए मेरा अनुभव यही कहता है कि सबकुछ भले छोड़िये, किंतु परंपरा कदापि नहीं।

-अखबार के विस्तार के संघर्ष का निचोड़ क्या रहा?

–अनुभव कुल मिलाकर संतोषजनक ही रहे। दुनिया में जैसे-जैसे आर्थिक सुदृढ़ीकरण की लहर चली, मीडिया का प्रभाव बढ़ता गया। उसका बाजार बढ़ा। एक दौर में यह बाजार 150 करोड़ से 500 करोड़ रूपये तक का रहा। हमारे समय में यह डेढ़-दो सौ करोड़ का था। आज यह साठ हजार करोड़ के ऊपर जा पहुंचा है। पहले प्रेस वाले प्राय: दरिद्र होते थे। मात्र एक गाड़ी होती थी। बाजार और साधन के साथ ही प्रेस का विस्तार हुआ। इसी क्रम में प्रसार Vinod Shuklaकी दौड़ चली। हार-जीत का एक पैमाना बना- जो नंबर वन होगा वही राजा।… और इस दौड़ में राजा बन गये हम।

-आप पर सहयोगियों को गरियाने, मारने-पीटने जैसे आरोप भी लगते रहे हैं। आपको अधिनायक और तानाशाह सरीखा कहा जाता है?

–यह सब बातें बेकार की हैं। तमाम विपरीत हालातों के बावजूद मैंने उतर प्रदेश में पत्रकारिता जगत का सबसे बड़ा चैलेंज स्वीकारा था, ‘आज’ को कानपुर लाकर। तब किसी के जेहन में मूल स्थान से इतर संस्करण निकालने की कोई सोच भी नहीं जगी थी। कल्पना कीजिये उस रिस्क के बारे में? रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मालिक तक ने हाथ खड़े कर दिये थे एकबारगी। वस्तुत: यही थे वह हालात जिन्होंने मुझे परफेक्ट बनाया। ‘आज’ में काम करने के मूलभूत सिद्धांत बहुत कड़े थे। ‘आज’ पहला अखबार था जिसका अपना कोड आफ कंडेक्ट था। काम का दबाव, मशीनों की कमी और मशीनों की कमी को आदमियों के जरिये पूरा करने की कोशिशों के चलते ही लोग मुझे क्रोधी और चिड़चिड़ा कहने लगे। लेकिन ऐसे लोगों में आपको वह लोग भी मिलेंगे जो कहते है कि मैं उनका भविष्य संवारने में सहायक रहा।

-चर्चा है आप दैनिक जागरण छोड़ना नहीं चाहते थे, आपको जबरन रिटायर कर दिया गया?

–1998 में मेरी किडनी ने काम करना बंद कर दिया था। 1999 में मैं डायलिसिस पर था मगर उससे पहले एक बड़ा काम निपटाना था- दैनिक जागरण के बिहार संस्करण की लांचिंग। पहले से ही इसके लिये वचनबद्ध था। काम पूरा नहीं कर पा रहा था। डायलिसिस पर जाते ही संचालकों को मेरा विकल्प खोजना ही था और उनके मन में अंतर्भाव यह भी था कि मैं काम का जितना बड़ा बोझ उठाये हूँ, उसे कम किया जाये। ‘विनोद, अपना कोई सहायक खोजो’- मालिकान निरंतर मुझसे यही कहते रहते थे। इस बीच मेरे साथ कुछ और हादसे भी हुए। ऐसे हादसे जिनकी पराकाष्ठा महाकेष की दशा में शामिल है। जैसे ही विकल्प का नाम मेरी समझ में आया, वह अच्छा था या गलत, मैंने मालिकों को बताया और उसकी नियुक्ति हो गई। तब भी मालिकों ने यह नहीं कहा कि आप अपना नाम प्रिंट लाइन से हटा दें। कुछ दिनों बाद मुझे लगा कि जिस अखबार में मेरा नाम जाये, वह अखबार पत्रकारिता के प्रत्येक मानक में नंबर वन हो और आखिर में अपना नाम Vinod Shuklaमैंने खुद ही हटवा दिया। आज भी मेरे सारे खर्चे और पूरी जिम्मेदारी दैनिक जागरण ही वहन करता है।

-अपने दौर में कैसे समझा था मार्केट को। क्या नई पीढ़ी में आपको आप जैसा कोई दूसरा कमांडर नजर आता है?

–1964 में मैं अमेरिका से निकलने वाली सबसे बड़ी मानक पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन-मनन कर रहा था। ‘आज’ चूंकि हिंदी का सबसे पुराना अखबार था लिहाजा अमेरिकी सरकार का सूचना तंत्र अखबारी दुनिया की अद्यतन सूचनाओं से संबंधित सामग्री समग्र रूप में ‘आज’ को उपलब्ध करवाता था। घर पर ‘टाइम’, ‘लाइफ’, ‘लुक’, ‘नेशनल ज्योग्राफिकल’ आती थी। घर पर साहित्य और पत्रकारितामय वातावरण था ही। इसलिए बचपन से मीडिया में खबरों के प्रस्तुतीकरण को अलग-अलग तौर-तरीके के साथ देखता चला आ रहा था। आश्चर्य करेंगे आप कि ‘न्यूनवीक’ ने लांचिंग के साथ ही अपनी काम्पलीमेंटरी कापी भेजनी शुरू कर दी थी मुझे। बाद में कुछ रोजी-रोटी पर बन आने की बात हो गई थी। ब्रांड और प्रोडक्ट की बात करने वाले लोग संस्थानों में आ गये थे। कलम-कागज के बीच जो आत्मा होती है, उसका मशीनीकरण करने को आतुर। इन सबको, इन्हीं की भाषा में समझाना आवश्यक था कि अखबार के ब्राण्ड और कोलगेट के ब्राण्ड में जमीन-आसमान का फर्क होता है। रही बात भविष्य की……. यह चीज तो समय खुद अपने आप चुनता है। मैं पक्षधर रहा हूँ परम्पराओं का लेकिन समय के साथ हुए बदलावों को स्वीकार करते हुए। अखबार में समाचार संप्रेषण जैसी चीजों का तरीका तो बदल सकता है लेकिन खबर के तौर-तरीके स्थाई रहेंगे। जिन्होंने उसको बनाकर रखा है, वही लम्बे समय तक जिन्दा रहेंगे। ‘गार्जियन’, ‘वाशिंगटन पोस्ट’ जो भी हों, ऐसे अखबार चैनल के दौर में भी जमे हैं, जमे ही नहीं हैं बल्कि सबको पीछे छोड़ देते हैं। नया नेतृत्व तो उनके लिये भी आता है न…। मेरी परिस्थितियां अलग Vinod Shuklaथी। वह चैलेंज ओन की करने की हिम्मत। वस्तुत: ओन करने की चुनौती जो भी स्वीकारेगा वही नेतृत्व कर पाने में सर्मथ्य होगा। ओनरशिप ही सही-गलत का पता देती है।

-अखबार के मार्केट में क्या होने वाला है। कैसा होगा भविष्य? क्या अखबार योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ रहे हैं?

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–अखबार की दुनिया अभी भी विकासशील देशों में सबसे बड़ी ताकत है। विकासशील देशों में प्रिन्ट मीडिया का बड़ा स्कोप है। कम्प्यूटर-लैपटापधारी विद्वानों का भविष्य चंद दिनों का है। इन्हीं दिनों प्रिन्ट मीडिया ने खासी ग्रोथ हासिल की है। ग्रोथ हासिल करने वाले भारत के दस बड़े अखबार हैं लेकिन इनमें अंग्रेजी का एक भी नहीं है। दैनिक जागरण अभी भी योजनाबद्ध ढंग से काम कर रहा है। यहां काम का माहौल है, पत्र ही नहीं मित्र का भाव है। भगवान की दया से किसी जूता कम्पनी का सीईओ कभी भी दैनिक जागरण में प्रवेश नहीं कर पायेगा। ब्राण्ड…… ब्राण्ड का शोर बहुत सुनाई देता है। साफ कर दूं कि अखबार एक ब्राण्ड जरूर है मगर सतही तौर पर नहीं। अखबार की छाप लोगों के दिलो-दिमाग पर पड़ती है। आप खुद सोचिये लोग क्या कहते है- ये मेरा अखबार है….. लोग ये नहीं कहते, अमुक दंत मंजन मेरा है।


इस इंटरव्यू पर विनोद शुक्ला तक अपनी राय उनकी मेल आईडी [email protected] के जरिए पहुंचा सकते हैं। उन्हें आप उनके मोबाइल नंबर 09839068330 पर फोन भी कर सकते हैं।

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