: उन्होंने तो माफी मांग ली, पर उनके चेले अपने शब्दों पर शर्मिंदा हैं या नहीं? : दिल्ली से निकलने वाली एक राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका का एक सहायक संपादक जो कभी विभूति की कृपा पर विदेशों की सैर कर चुके हैं, वो खुलेआम विभूति के समर्थन में बयानबाजी कर रहे हैं. यही नहीं, दफ्तर की महिलाकर्मियों के सामने विभूति के ‘छिनाल’ वाले घटिया बयान को लेकर छींटाकशी भी कर रहे हैं। वे अपने पुरुष साथियों से कहते फिर रहे हैं- ”क्या जरूरत थी विभूति को सच बोलने की। सच ही तो कहा है. क्या झूठ बोला है. देखो सच बोल कर कैसे फंस गया बेचारा.”
फिर उसके बाद सहायक संपादक फोन पर इस मसले को फैलाने लग जाते हैं. ”उन्होंने गटर को प्रमोट किया. वे ही उन्हें गालिया दे रही है. भईया, मैंने तो उनसे एक सम्मानजनक दूरी बना ली है. मैं क्या कर सकता हूं. बस, उन्हें अपने स्टैंड पर कायम रहना चाहिए. डटे रहें. गलत तो कुछ बोला नहीं.” आदि आदि. देर तक प्रलाप चलता रहता है इन दिनों. उन्हें परवाह नहीं कि दफ्तर में भी कई महिलाएं काम करती हैं जिनकी भावनाएं ये सब सुनकर आहत हो सकती हैं. वो भी इस वक्त जब पूरा देश, समाज विभूति नारायण के खिलाफ आंदोलन पर उतारू है.
कोई भी संवेदनशील इनसान विभूति के बयान को सही नहीं ठहरा रहा है। स्त्रियों की तरफ से सारी लड़ाई पुरुष वर्ग लड़ रहा है। ऐसे में मीडिया में एक जिम्मेदार पद पर बैठा कोई सहायक संपादक इस तरह की टिप्पणी कैसे कर सकता है। महिलाकर्मियों में इसको लेकर खासा रोष है। उनका कहना है कि विभूति तो एक प्रतीक है, कुंठित मानसिकता वाले पुरुषों का। सहायक संपादक की छवि पहले से ही मीडिया में अच्छी नहीं है, उलूल जुलूल बकने में माहिर व्यक्ति यह भूल जाता है कि उसकी पत्नी भी मीडिया में हैं जहां खुलेपन का माहौल है। क्या वह अपनी पत्नी के लिए ऐसी अशोभनीय टिप्पणी सह सकेगा। उसकी बेटी बड़ी हो रही है. उन्हें सोचना चाहिए कि हम उसे अपने कुत्सित विचारों से कैसा माहौल दे रहे हैं। नई पीढ़ी तो और खुली होगी। नैतिकता का डंडा वहां चल पाएगा क्या?
विभूति जैसे ना जाने कितने कुंठित मानसिकता वाले पुरुष मीडिया में बड़े पदों पर बैठे हैं। कितनी विभूतियों से कितनी बार बचेगी स्त्रियां। कदम कदम पर भरे पड़े हैं। ‘छिनाल’ वाले प्ररकरण से विभूति के दोस्त तक नाराज हो गए हैं. ऐसे में विभूति से लाभान्वित होने वाले पत्रकार उनको नमक की कीमत दिखाने पर आमादा हैं। उन्हें लगता है कि विभूति का कुछ नहीं बिगड़ेगा और आगे चलकर वे विभूति का साथ देने की मोटी कीमत वसूल सकते हैं। इस लालच में फंसे पुरुषों की अच्छी खासी जमात पीछे से उनका हौसला बढ़ा रही है। ताजी सूचना के अनुसार विभूति ने तो माफी मांग ली. क्या ये सहायक संपादक महोदय भी अपने बोले पर शर्मिंदा हैं? अगर उनका रवैया एसा ही रहा और अपने टुच्चेपन पर उतारू रहे तो दफ्तर की महिला सहयोगी लिखित शिकायत देकर कारर्वाई की मांग कर सकती हैं।
kamta prasad
August 3, 2010 at 11:40 am
मेरे लाल, लगते जिगर दिल के टुकड़े बेनामी भाई। अपना नाम देने में शर्मा काहे गये। विभूति ने जिन लेखिकाओं के संदर्भ में उक्त टिप्पणी की है वे सब की सब बोर्जुआ सांस्कृतिक विकारों की मारी निहायत आत्मग्रस्त, प्रचार प्रेमी महिलाएं हैं जिनका कोई सामाजिक सरोकार नहीं।
क्या आज के मुश्किल दौर में उन्हीं बातों को साहित्य के केंद्र में होना चाहिए, जिन पर वे कलम चलाती हैं। जनमानस में जो शब्द घर किया हुआ है उसके अनुसार इस शब्द का मतलब विवाहेतर यौन संबंध है और अगर यह शब्द परिघटना के रूप में मौजूद है तो उसे शब्द देने में क्या हर्ज है।