वीओआई यानि एक बड़ा सबक : वॉयस ऑफ इण्डिया चैनल में जो कुछ हुआ, वह इस चैनल से सीधे तौर पर जुड़े देश के सैकड़ों पत्रकारों के लिए एक दर्द भरी दास्तान और हजारों पत्रकारों के लिए एक सबक बन गया है। वॉयस ऑफ इंडिया की दास्तान छल फरेब की बुनियाद पर टिकी एक ऐसी दुखद कहानी है, जिसने झूठे सपनों की तिजारत के कड़वे सच को बेनकाब कर दिया है। वीओआई से सीधे तौर पर प्रभावित होने वाले सारे लोग इस घटनाक्रम को किस तरह देखते और कैसे सोचते हैं, ये उनके नजरिये पर निर्भर कर सकता है…. लेकिन मुझे इस कहानी ने कई सबक दे दिए हैं। मसलन ऊपर वालों के गधे कैसे देशी घी के हलुवे की दावत उड़ाते हैं….
गैर अनुभवी कारोबारी के लिए कोई नया कारोबार कितना घातक हो सकता है…. बाहरी चमक दमक को हकीकत मानने वाले कितना बड़ा धोखा खा सकते हैं और सरकारी नियम कायदे किस कदर लचर हो चुके हैं….। वीओआई में काम करने के लिए आने वाले ज्यादातर मीडिया कर्मी गिरामी संस्थानों की इज्जत की नौकरी छोडकर आए थे। इनमें से ज्यादातर को उम्मीद थी कि एक नए चैनल को बुलंदियों पर ले जाएंगे …. शुरुआती दौर में ऐसा होता दिखाई भी देने लगा था। खासतौर से उस वक्त जब इस नए चैनल को चैनल टू वॉच के एवार्ड से नवाजा गया। इस चैनल में आने वाले लोग इसके मालिकों से भले ही अनजान रहे हों. लेकिन चैनल के नोएडा कार्यालय की भव्य साज सज्जा और चैनल से जुड़े बड़े पत्रकारों के नाम उन्हें सुनहरे भविष्य की गारंटी जैसे लग रहे थे। कम से कम मुझे ऐसा ही लगा था। दरअसल, साज सज्जा के नाम पर जिस तरह पैसा बहाया गया था, उसे नियोजन और दूरदृष्टि की कमी मानने के बजाय भव्यता मान लेना मुझ जैसे कई लोगों को अब एक बड़ी गलती लग सकता है।
मैं जिस पृष्ठभूमि से आया हूं, वहां ग्लैमर की जगह मेहनत, निष्ठा और विश्वास की सुगंध सारी सजावट की कमी को दूर कर देती थी। यहां अमर उजाला का जिक्र करना प्रासंगिक होगा, जहां ऐसा ग्लैमर नहीं था, बल्कि एक भरोसे की बुनियाद थी, जिसे मेहनत से सींचा जाता था। अखबार के मालिक खुद पत्रकारों के साथ रात तीन-तीन बजे तक जुटकर काम करते थे। भरोसे से मेरा मतलब सिर्फ आपसी भरोसे से नहीं है, पाठकों-दर्शकों का भरोसा जीतना और बनाए रखना सबसे बड़ी बात होती है, उसी पर किसी भी मीडिया हाउस की बुनियाद खड़ी होती है।
वीओआई के मामले में शायद सबसे बड़ी गलती यहीं हो गई। भरोसे से कहीं ज्यादा अहमियत इस संस्थान में दिखावे को मिल गई। इस संस्थान के लिए प्रोजेक्ट और नीति बनाने वालों ने इसके मालिक मित्तल बंधुओं को शायद मीडिया घरानों के संघर्ष के सच से अन्जान रखा? उन्हें यह नहीं बताया गया कि कोई एक चैनल चलाने और उसे प्रतिष्ठा दिलाने के लिए कितने संयम, ईमानदारी, श्रम और निवेश की आवश्यकता पड़ती है? या फिर मित्तल बंधु टीवी चैनल को कोई कॉलोनी काटकर प्लॉट या फ्लैट बुक करने जैसा काम समझ बैठे, जिसमें कुछ पैसा लगाने के बाद एकदम पैसा आने लगता है? इसकी हकीकत क्या है, ये मैं नहीं जानता, लेकिन इतना जरूर जानता हूं कि वीओआई के मालिकों में पुराने मीडिया घरानों जितना धैर्य और भावना कभी नजर नहीं आए। वे चैनल शुरू करने के कुछ ही दिनों बाद मुनाफा कमाने की उम्मीदें संजोने लगे थे। हो सकता है कि इस चैनल का प्रोजेक्ट बनाने वालों ने उन्हें यही बताया हो कि चैनल चलना शुरू होते ही नोट बरसने लगेंगे और कुछ ही दिनों में चैनल अपने सारे खर्चे खुद निकालने लगेगा।
हकीकत जो भी हो। वीओआई के पत्रकारों और दूसरे स्टाफ को मैनेजमेंट की इस गलती की एक बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। उन्हें भी जिन्होंने इस चैनल के लिए खून पसीना एक करके दिन रात काम किया है। चैनल चलने के कुछ ही महीने बाद पगार के लाले पड़ने शुरू हो गए… कमाई के नए-नए जरिये तलाशने के लिए बैठकें बुलाई जाने लगी। लोगों से जितना वेतन और दूसरे खर्चे देना तय हुआ था, उनमें कटौती हुई और खर्चों के तमाम वायदे झूठ का पुलिंदा बनकर रह गए। इस चैनल के स्टाफ को जहां चार से लेकर छह महीने तक की पगार नहीं मिली है, वहीं चैनल की रीढ समझे जाने वाले स्ट्रिंगर साथियों में अधिकांश ऐसे हैं जिन्हें अपने घर से पैसा लगाने के बावजूद एक एक साल से पैसा नहीं दिया गया है।
मित्तल बंधुओं को चैनल चलाने का भले ही कोई तजुर्बा न रहा हो, लेकिन कारोबार के लटके-झटकों से वे जरा भी अन्जान नहीं थे। इसका प्रमाण ये है कि उन्होंने चैनल के लिए तमाम सामान खुद खरीदने के बजाय किराये पर लिया। चाहे पगार के लिए परेशान कर्मचारियों को शेयर और एक माह का अतिरिक्त वेतन देने का लालीपॉप देकर अपनी पगार में कटौती कराने के लिए तैयार करने की बात हो या बैठक करके चैनल से पैसा कमाने के सारे गुर समझाने की कवायद, मित्तल बंधुओं ने हर जगह अपनी कारोबारी समझ का परिचय दिया है। ये दीगर बात है कि उन्होंने इनमें से अपना कोई भी वायदा पूरा नहीं किया। शायद मीडिया की दुनिया में वीओआई ऐसी अकेली मिसाल होगा, जहां मैनेजमेंट का कोई भी वायदा पूरा न होने के बावजूद कर्मचारी इतने लम्बे वक्त तक भरोसा करते चले गए।
वीओआई ने मीडिया को मोटे मुनाफे का धंधा मानकर इसमें आने वाले लोगों को भी एक बडा सबक दिया है। इस चैनल ने सरकारी विभागों के बौनेपन और नियम कानूनों के खोखलेपन को भी जगजाहिर कर दिया है। वीओआई के मैनेजमेंट ने अपने स्टाफ के वेतन से हर माह बाकायदा टीडीएस और भविष्य निधि (पी.एफ.) की कटौती की, लेकिन ये मोटी रकम सरकारी खजाने में जमा नहीं की गई। वीओआई के स्टाफ में तमाम लोग ऐसे भी हैं जिनका भविष्य निधि में रजिस्ट्रेशन भी नहीं कराया गया, लेकिन हर महीने उनकी पगार से पीएफ काटा जाता रहा। क्या भविष्य निधि और आयकर विभाग के नियम कायदे इतने कमजोर हैं कि उनके नाम पर कोई कम्पनी लम्बे समय तक सैकडों लोगों से पैसा लेती रहे और इन विभागों को पता ही न चले ? या सारे कायदे कानून भगवान के भरोसे छोड दिए गए हैं कि जो इनका पालन करे… उसका भी भला और जो इन्हें ठेंगा दिखाये … उसका भी भला ? इन हालात में सबसे बडा सवाल ये है कि दूसरों पर होने वाली नाइंसाफी के खिलाफ आवाज उठाने वाले ये मीडिया कर्मी खुद इंसाफ पाने के लिए क्या करें ?
वीओआई में जो कुछ हुआ, उसने मीडिया के एक बडे वर्ग की कार्यशैली पर भी सवालिया निशान लगाया है। इंसाफ की लडाई लडने का दम्भ भरने वाले ज्यादातर अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने वीओआई के स्टाफ के दुख-दर्द से इस तरह मुंह मोडे रखा … जैसे कि ये लोग किसी और दुनिया के लोग हैं…. ऐसे में कोई पीड़ित इंसाफ की आस संजोये भी तो किसके भरोसे?