खैर उस वक्त भी उनसे बात बात में कुमार गंधर्व की बात निकली और उन्होंने कई सारी बातें बताई, जब उनको बताया कि मैंने संगीत सीखा है तो बहुत खुश हुए और बोले कि अपन तो कुमार जी के फैन हैं… उसके बाद वातावरण में कुमार जी फैल गए… साथ साथ प्रभाष जी कुमार जी के गायन के बारे में कई सारी खासियतें और कई संस्मरण बताते चले गए। एक बार भी नहीं लगा कि मैं प्रभाष जोशी के साथ बैटा हूं, लगा कि घर का ही कोई बुज़ुर्ग है जो जीवन के अनुभव बांट रहा है।
प्रभाष जी जब सचिन को खेलते देखते थे, उस वक्त भी वो सचिन और कुमार गंधर्व की तुलना करते हुए सचिन को क्रिकेट का कुमार गंधर्व कहते थे। कुल मिलाकर वो खेल, संगीत, कला और उसी तरह पत्रकारिता में भी शुद्धता के हिमायती थे। खैर बात कर रहा हूं प्रभाष जयंती के कार्यक्रम की तो कार्यक्रम का प्रारंभ मेरे थोड़ा देर से पहुंचने की वजह से छूट गया लेकिन जब मैं पहुंचा तो ‘गांधी: एक असंभव संभावना’ विषयक व्याख्यान शुरू हो रहा था। पूरी साफ़गोई से कहना चाहूंगा कि प्रभाष जोशी गांधीवादी ज़रूर थे पर वो ये भी ज़रूर जानते समझते थे कि इस तरह के व्याख्यानों से पत्रकारिता का कुछ भला नहीं होने वाला और न ही कोई जन जागृति आ सकता है। हां यह अवश्य है कि इस तरह के शोधों के लिए कुछ खाली बैठे तथाकथित समाजशास्त्रियों को शोधवृत्तियां ज़रूर बांटी जा सकती हैं लेकिन क्या यह तर्कसंगत होगा कि प्रभाष परम्परा केवल इस तरह के शोधपत्रों को पढ़ने तक सीमित हो जाए…..
जिस वक्त वह व्याख्यान चल रहा था शुरुआत में भले ही लोगों ने उस व्य़ाख्यान को ध्यान से सुनने का प्रयास किया पर जैसे जैसे समय बीतता गया लोग आपस मैं बातचीत में व्यस्त हो गए, पानी और चाय पीने बाहर निकलने लगे… और तो और कई पत्रकारों ने दिन भर की थकान भी वहीं ऊंघकर उतार ली…. मेरा यहां यह आशय कतई नहीं है कि उक्त व्याख्यान बेकार था, बिल्कुल नहीं पर दरअसल वह कुछ ज़्यादा ही लम्बा हो गया था… क्योंकि जो बात वक्ता कहना चाह रहा था उसे लिए गए वक्त का आधा वक्त लेकर भी कहा जा सकता था। गांधी जी के जीवन के कई ऐसे प्रसंग सुनाए गए जो हम पहले भी सैकड़ों बार सुन चुके हैं… हां कुछ अनछुए पहलू वाकई आकर्षित करने वाले थे। लेकिन सवाल बड़ा यही है कि ऐसे व्याख्यानों का क्या फ़ायदा जिसे लोग सुनना ही न चाहें और उद्देश्य ही असफल हो जाए… मैं न तो गांधीवाद का विरोधी हूं और न ही मुझे व्याख्यान के उद्देश्यों के प्रति कोई शंका है पर वक्ता ने आरम्भ में स्वयं ही कहा कि “गांधी जी कभी भी 10-12 मिनट से ज़्यादा के भाषण या प्रवचन नहीं देते थे…” और उसके बाद खुद ही उसके बिल्कुल विपरीत किया….
ठीक मेरे जैसे तमाम लोग वहां दी गई पर्चियों पर लिख रहे थे कि प्रभाष परम्परा न्यास मठाधीशों के व्याख्यानों के साथ युवाओं और खासकर पत्रकारों के बीच गोष्ठियां और बहस आयोजित करे जिससे प्रभाष जी के उन उद्देश्यों की पूर्ति की दिशा में बढ़ा जा सके जिनके लिए वो अपने आखिरी वक्त में लड़ते रहे। हालांकि प्रभाष जी के दोनो बेटों के अलावा वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय और वर्गीज़ जी की सक्रियता ने दोनो के अंदर के युवा पत्रकार से जो परिचय कराया है, उससे ये उम्मीदें ज़रूर बरकरार हैं कि प्रभाष जी का पत्रकारिता में गिरावट के खिलाफ आंदोलन सफल हो न हो…चलता ज़रूर रहेगा….और अगर ये लोग युवाओं को साथ जोड़ पाए तो सफल भी होगा।
खैर मैं इंतज़ार में था मुकुल शिवपुत्र के…. कई वजहों से, पहली वजह ये कि प्रभाष जी कुमार गंधर्व के गायन के दीवाने थे (अगर दीवाना शब्द अपनी सार्थकता रखता है तो) और मुकुल कुमार जी के पुत्र हैं…. दूसरा ये कि मैं खुद भी कुमार गंधर्व के गायन, खासकर निर्गुण शैली के भजनों का प्रशंसक हूं (मैंने CNEB में प्रभाष जी की यादों पर बने तीनों विशेष कार्यक्रमों में कुमार जी के निर्गुण भजनों का जमकर प्रयोग किया था…), तीसरा कारण ये कि मुकुल पिछले साल जब ख़बर बन रहे थे तो मैंने उनके बारे में न केवल कार्यक्रम बनाया था बल्कि काफी पढ़ा भी था… उसी दौरान कुछ पुराने विसुअल्स में उन्हें सुना था और तब से उनको सामने सुनने की इच्छा थी…. और चौथा कारण यह कि यह जानना था कि क्या वाकई मुकुल अपने पिता जैसे ही जीनियस हैं…..
लेकिन दुर्भाग्य से मुकुल के पहला सुर लगाते ही उनका मूड बिगड़ना शुरू हो गया, दरअसल मुकुल बेहद मूडी हैं और गायन के माहौल को लेकर बेहद ज़िद्दी… अपने हिसाब से, अपनी शर्तों पर गाते हैं और अलग ही मिज़ाज के हैं…. इस तरह एक महान या कहें कि जीनियस होने की पहली शर्त वो पूरी करते हैं। अभी हाल ही में कुमार जी की जयंती पर इंदौर में गाते हुए उन्होंने भीषण गर्मी में पूरे प्रेक्षागृह के पंखे बंद करवा दिए और श्रोता पसीना पसीना होते रहे…. यहां भी पहले मुकुल माइक से जूझते रहे और चिढ़ते रहे, रही सही कसर पूरी कर दी तानपुरा संभाले बुज़ुर्गवार ने जो मुकुल के सुर से सामंजस्य बिठाने में जूझते रहे। इन सबके बीच मुकुल को सुर साधने में ही करीब 30-35 मिनट लग गए….
इस बीच पास ही बैठे यशवंत भाई का मोबाइल पर संदेश आया कि “कवि कहना क्या चाहता है…और कब कहेगा?” तो मैंने कहा कि,”अभी इंजिन गर्म हो रहा है…. रुक जाइए और देखते रहिए….” पर ज़ाहिर है दिल्लीवालों में इतना सब्र रहा नहीं तो कई सारे लोग उठ कर निकलने लगे… पर मैं शायद ये कभी भूल नहीं पाऊंगा कि एक सज्जन ज्यों उठ कर निकलने को हुए वैसे ही मुकुल ने राग का पहला स्वर लगा कर तान दी…. और वो सज्जन वहीं खड़े रह गए और पूरे कार्यक्रम भर वैसे ही खड़े रहे। सारा सभागार संगीत में खो रहा था, धीरे धीरे ही सही पर मुकुल कानों के रास्ते से ज्ञानेंद्रियों पर कब्ज़ा जमाते जा रहे थे (हालांकि कई ज्ञानेंद्रिय विहीन लोग भी मौजूद थे…और कई पत्रकारों ने भी ये साबित किया कि वे केवल ख़बरें लिख सकते हैं…संगीत उनके बस का रोग नहीं) पर मैं…और मेरे साथ बैठे दोनो लोग एक एक कर के डूबते जा रहे थे।
बीच बीच में मैं आंखे खोल कर कनखियों से दोनो को देख लेता था और शायद हम तीनों ही एक दूसरे को….मुकुल ने कई जगह ऐसे स्वर लगाए कि रोएं भी खड़े हुए और दरअसल शब्द ढह गए क्योंकि संगीत ने भाषा को गौण कर दिया….मंत्रमुग्ध होने के जुमले को जीने का मौका रोज़ नहीं मिलता….इस समय तक यकीन होने लगा था कि मुकुल में वाकई कुमार गंधर्व की आत्मा बसी है, कम से कम गाते वक्त तो….और फिर मुकुल ने कहा कि अब वो निर्गुण भजन सुनाएंगे और मैं तो इसी की प्रतीक्षा में था।
मुकुल शिवपुत्र को पहली बार सामने सुन रहा था….निर्गुण भजन कुमार गंधर्व की खासियत थे…जीवन और मरण के प्रश्नों के उत्तर खोजते निर्गुण भजन….प्रभाष जी भी इन भजनों के आम भाषा में कहें तो फैन थे….और मुकुल वाकई कुमार जी का आभास दे रहे थे….बाद में भोजन भी हुआ पर उसका विवरण कई लोग देंगे….मेरी आत्मा ने भोजन किया…लम्बे वक्त बाद….मुकुल शिवपुत्र, आपका आभारी हूं…प्रभाष परम्परा न्यास का आभारी हूं….मुकुल की गायकी सुनकर नाद के ब्रह्म होने का भरोसा हुआ….लगा कि कुमार गंधर्व कहीं नहीं गए…हमारे बीच ही हैं….ठीक वैसे ही जैसे प्रभाष जी…..प्रभाष जी आपका धन्यवाद…..
धन्यवाद कि आप हर बार मुश्किल वक्त में सम्बल देते हैं कि अड़े रहो…खड़े रहो…समझौता कर के रोज़ मत मरो…वीर एक बार मरते हैं….प्रभाष-परम्परा का वाहक होने का ढोंग नहीं करना चाहता….पर ज़रूर चाहता हूं कि हर साल जब प्रभाष जयंती पर जाऊं तो इस बार की तरह सर उठा कर जाऊं….और हर बार प्रभाष जी को महसूस कर पाऊं….प्रभाष जी आपका धन्यवाद कि आप कभी थे… क्योंकि हमारे बीच जीवित सिद्धांतवादियों को हाशिये पर डालने की परिपाटी है….कम से कम आपके न होने पर हम आपके होने को याद करते हैं….
आयोजकों…प्रभाष जी के परिवार….को भी आभार….
लेखक मयंक सक्सेना युवा और प्रतिभाशाली पत्रकार हैं. माखनलाल से पत्रकारिता की डिग्री लेने के बाद कुछ दिनों तक यायावरी की. जी न्यूज से जुड़े. वहां से सीएनईबी पहुंचे. इन दिनों फिर यायावरी को जी रहे हैं.
anuj
July 17, 2010 at 7:53 am
mayank aap hi bataiye ki prabhash parampara ko aage badhane ke liye kya kiya jana chahiye. gariyana to bahut aasan hai par raasta batana utna hi mushkil. kam se kam jo kuchh karna chahte hain unka hanth bata nahi sakte to unka moral down to mat kijiye. haan agla aalekh samadhan par aap likh saken to aapka jordar parichay sahi sabit hota dikhega.
./ 8M8G(>
July 17, 2010 at 11:03 am
मैंने किसी के भी प्रयासों का अपमान नहीं किया है…पर जब भी कभी सज्जन लोगों का अपमान या अनादर होते देखता हूं….तो बुरा लगता है….व्याख्यान में भी यही हुआ था….