आदरणीय अरविंद जी, सामान्यत: मैं निंदापरक टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया नहीं देती लेकिन आपने अध्यापन जैसे पवित्र पेशे से जुडे होने के बावजूद जागरण में छपे सुभाषिनी जी के लेख के आधार पर मुझ पर (बिना मेरी किताब पढने का कष्ट उठाये) साहित्यिक चोरी का जो गलत सलत आरोप लगाया है, उसपर प्रतिवाद ज़रूर करना चाहती हूँ. उम्मीद है अध्यापक होने के नाते आप खुद इस किताब को पढ कर भूल सुधार का प्रयास करेंगे.
मुझे पता नहीं यह गलतफहमी क्यों हुई. आप यदि किसी लेख से ही तुरत निष्कर्ष निकालने की बजाय किताब पढ लेते तो अच्छा होता. अव्वल तो मैंने ‘माझा प्रवास, 1857 च्ये बंडा ची हकीकत’, शीर्षक इस पुस्तक का हिंदी नहीं बल्कि अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है, वह भी मूल मराठी से. हिंदी का अनुवाद तो एकाधिक बार हो ही चुका था. पुस्तक की प्रस्तावना में इसके दोनों हिंदी अनुवादकों – मधुकर उपाध्याय तथा स्व अमृतलाल नागर जी, जिन्होंने मुझे शिवानी जी को अपने हिंदी अनुवाद की प्रति देते समय मुझे कभी इस नायाब किताब का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने का सुझाव दिया था, का तथा उनके प्रकाशकों का ज़िक्र भी दिया गया है. साथ ही इसके लेखक तथा मराठी में इसके छपने के बहुत रोचक इतिहास का भी पूरा ब्योरा है.
समय मिले तो आप (हार्पर कौलिंस द्वारा प्रकाशित) इस पुस्तक को पढ कर मेरी बात को सत्यापित कर सकते हैं. भूल सुधार या क्षमा याचना करना न करना मैं आपके विवेक पर ही छोड़ती हूँ.
शुभेच्छु
मृणाल पाण्डे
अरविंद पथिक द्वारा मृणाल पांडे के पत्र का भेजा गया जवाब…
आदरणीया मृणाल जी, सुभाषिनी अली के लेख ”पुराने पन्नों पर नई नज़र” के संदर्भ मे मेरी टिप्पणी को लेकर आप जैसी बड़ी लेखिका ने जो पत्र भेजा है उसके लिए मै अत्यंत आभार मानते हुए आपसे आग्रह करता हूं कि कृपया सुभाषिनी अली के लेख को फिर से पढें. मैं उनके लेख की शुरुआती पंक्तियां उदधृत कर रहा हूं–
इस साल मार्च मे हिंदी की दो महत्वपूर्ण पुस्तकों के अंग्रेजी अनुवाद छपे हैं. दोनो अनुवादकर्ता महिलाएं हैं. संयोग से दोनो पुस्तकें भारत के स्वतंत्रा संग्राम से संबंधित हैं. पहली, विष्णुभट्ट गोडसे की मराठी मे मेरी यात्रा है, जिसका हिंदी मे अनुवाद मधुकर उपाध्याय ने विष्णु भट्ट की आत्म कथा के नाम से किया था. उपरोक्त दोनो पुस्तको का अनुवाद क्रमशः मृणाल पांडे और आयशा किदवई ने किया है.
उपरोक्त पंक्तियों को कितनी ही बार क्यों ना पढ ले, यह स्थापित नही होता कि आपको मुल पुस्तक स्व. अमृतलालनागर जी ने देकर अंग्रेजी अनुवाद का आग्रह किया था. मेरे जैसा आम पाठक तो यही निष्कर्ष निकालेगा कि माझा प्रवास का आपने अंग्रेजी मे अनुवाद किया जिसका फिर हिंदी मे मधुकर उपाध्याय ने अनुवाद किया. आपने भूल सुधार खेद आदि की बात की है तो उपरोक्त तथ्यों के आलोक में मैं सिर्फ इतना निवेदन करना चाहूंगा कि हिंदी का आम पाठक आज भी लिखे हुए शब्दों की पवित्रता में यकीन करता है. पर उसके इस यकीन को चोट झूठ से कम अर्धसत्य से अधिक पहुंचती है.
मैं तब भी थोड़ा पढने लिखने वाला व्यक्ति हूं पर क्या हिंदी का आम पाठक आपकी अंग्रेजी पुस्तक की भूमिका मे मधुकर उपाध्याय और स्व. अमृतलाल नागर जी के प्रति आपके द्वारा व्यक्त किए गए आभार को जान सकेगा? जहां तक मै समझ सका हूं यदि वास्तव मे खेद प्रकट करने की आवश्यकता है तो वह सुभाषिनी अली और दैनिक जागरण के संपादक मंडल को है. फिर भी मै आपका पत्र और और अपना उत्तर ब्लागजगत को सौंप रहा हूं. एक बात और कहना चाहूंगा कि पत्रकारिता के पेशे मे अध्यापन से कहीं अधिक तथ्य की सत्यता पर जोर दिया जाता है.
विनयावनत
अरविंद पथिक
मूल पोस्ट को आप इस लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं- साहित्य की चौर्य परंपरा में मृणाल पांडेय का भी नाम जुड़ा
Comments on “अरविंदजी, भूल सुधार या क्षमा याचना आपके विवेक पर छोड़ती हूं : मृणाल पांडे”
अरविंद जी
मृणाल जी ने सही कहा है कृपया पुस्तक पढ़ लें। आपने खुद अपने लेख में नागर जी का नाम लिखा। पुस्तक में इसका पूरा पूरा जिक्र है। वैसे भी अगर पुस्तक पढ़ेंगे तो जिस ढंग से अनुवाद कया गया है और रोचकता बनाए रखी गयी है, आप सराहे बिना नही रह सकेंगे। उम्दा काम है। एक बात और माफी मांगना पराजय का प्रतीक नही है।
अरविन्द जी आप अब कुतर्क मे उतर आएं है कृपया बडप्पन दिखाते हुए माफ़ी मा्गं लीजिए