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पॉवर-पुलिस

असहाय यशवंत और यूपी का लोकतंत्र

: क्या पत्रकार का असहाय होना जुर्म है? : आज ना जाने क्यों अपने पत्रकार और ईमानदार होने पर पहली बार शर्म आ रही है। आज दिल चाह रहा है कि अपने सीनियर्स जिन्होंने हमको ईमानदार रहने के लिए शिक्षा दी उन पर मुकदमा कर दूं। साथ ही ये भी दिल चाह रहा है कि नई जनरेशन को बोल दूं कि ख़बर हो या ना हो, मगर ख़ुद को मजबूत करो।

<p style="text-align: justify;">: <strong>क्या पत्रकार का असहाय होना जुर्म है?</strong> : आज ना जाने क्यों अपने पत्रकार और ईमानदार होने पर पहली बार शर्म आ रही है। आज दिल चाह रहा है कि अपने सीनियर्स जिन्होंने हमको ईमानदार रहने के लिए शिक्षा दी उन पर मुकदमा कर दूं। साथ ही ये भी दिल चाह रहा है कि नई जनरेशन को बोल दूं कि ख़बर हो या ना हो, मगर ख़ुद को मजबूत करो।</p>

: क्या पत्रकार का असहाय होना जुर्म है? : आज ना जाने क्यों अपने पत्रकार और ईमानदार होने पर पहली बार शर्म आ रही है। आज दिल चाह रहा है कि अपने सीनियर्स जिन्होंने हमको ईमानदार रहने के लिए शिक्षा दी उन पर मुकदमा कर दूं। साथ ही ये भी दिल चाह रहा है कि नई जनरेशन को बोल दूं कि ख़बर हो या ना हो, मगर ख़ुद को मजबूत करो।

कम से कम इतना मज़बूत तो कर ही लो कि अगर तु्म्हारी बेगुनाह माता जी को ही पुलिस किसी निजी द्वेश की वजह से ब्लैकमेल करते हुए थाने में बिठा ले तो मजबूर ना होना। थानेदार से लेकर सीओ, एसएसपी, डीआईजी, आईजी, डीजी समेत सूबे की मुखिया तक को उसकी औक़ात के हिसाब से ख़रीदते चले जाना। मगर मां के एक आंसू को भी थाने में मत गिरने देना। ये मैं इसलिए नहीं कह रहा कि तुम्हारी बेबसी से तुम्हारा अपमान हो जाएगा। बल्कि अगर अपमान की वजह से किसी बदनसीब की बेगुनाह की मां की आंख का एक क़तरा भी थाने में गिर गया तो यक़ीन मानना उस एक कतरे के सैलाब में कोई भी व्यवस्था बह जाएगी।

आज मेरे एक दोस्त की, बल्कि मेरी ही माता जी के उत्तर प्रदेश पुलिस के हाथों होने वाले अपमान की ख़बर मिली। ना जाने क्यों ऐसा लगा कि किसी ने मेरे पूरे बदन से कपड़े ही नोंच लिए हों । उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर की इस घटना के बारे में मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा कि भले ही हर पत्रकार का अपना एक दायरा हो। उसकी जान पहचान बहुत लम्बी हो। उसके एक फोन पर लोग छोड़े और पक़डे जाते हों। मगर जिसकी मैं बात कर रहा हूं उसको देश का कोई ऐसा पत्रकार नहीं जो ना जानता हो। कई बड़े अखबारों में रह कर आज वो एक ऐसी संस्था चला रहा है जिसने देश की पत्रकारिता को एक नए अध्याय से जोडा है। सबसे ख़ास बात ये कि आज अगर भारत के पत्रकारों का कोई एक मंच है, तो वो उसका जनक है।

मैं निसंकोच बात कर रहा हूं यशवंत की। यानि मैं भ़ड़ास4मीडिया के सर्वेसर्वा की बात कर रहा हूं। अक्सर कई पत्रकार साथियों के साथ हुए मामलों पर यशवंत की बेबाकी और उसकी जुर्रत ने ये साबित किया कि कोई आवाज़ तो है जो पत्रकारों की बात करती है। मगर अफसोस उत्तर प्रदेश में उसी यशवंत की माता और पूरे परिवार को बंधक बना लिया गया। पुलिस के हाथो बंधक बनाये जाने के पीछे तर्क ये था कि तुम्हारे परिवार के कुछ लोगों ने गम्भीर अपराध किया है। उनको ले आओ और परिजनों को ले जाओ। तकरीबन 12 घंटे तक एक बेटा जो रोजी रोटी की तलाश मे देश की राजधानी में आया था, सैंकड़ों मील दूर थाने में बैठे अपने परिवार और माता जी को छुड़ाने के लिए अधिकारियों से लेकर अपने पत्रकार साथियों से गुहार लगाता रहा। आखिर वही हुआ। यानि आरोपी जब तक पुलिस के हत्थे नहीं लगे ये बेचारे वहां पर अपमान का घूंट पीते रहे।

ख़ास बात ये है कि एक दलित और महिला के राज में किसी बेबस महिला का पुलिस अपमान किस बूते पर कर सकती है। कौन सा क़ानून है जिसकी दम पर किसी दूसरे व्यक्ति के अपराध के लिए किसी दूसरे को बंधक बना कर ब्लैकमेल किया जा सके। पुलिस का तर्क था कि ऊपर से दबाव था। उत्तर प्रदेश प्रशासन के इस कारनामे को देख कर अनायास ही ख़्याल आया कि अगर कोई ये पूछे कि उत्तर प्रदेश भी भारत का ही हिस्सा है। तो आप या तो उसको पागल कहोगे या फिर सिर फिरा। लेकिन मुझे आपके इस पागल और सिरफिरे के सवाल में दम नज़र आ रहा है। उत्तर प्रदेश जहां के बारे में सिर्फ ख़बरे पढ़ कर ही नहीं बल्कि ख़ुद ख़बरें करके कई बार देखा है कि आजकल दिल्ली से चंद किलोमीटर दूर यहां की सीमाओं में घुसते ही ना जाने क्यों लगने लगता है कि कुछ बदला बदला सा है। कानून के रखवालों के नाम पर मानो खुद लुटेरों ने कमान सम्भाल ली हो। टूटी सड़के बता रही हैं कि ठेकेदार से लेकर अफसरों और बहन जी तक ठीक ठाक बंटवारा पहुचा दिया गया है। भले ही दलित भूख से मर जाएं मगर मूर्ति का साइज़ छोटा नहीं हो सकता।

इतना ही नहीं सूचना के अधिकार अधिनियम में भी कांट छांट की अगर किसी ने हिम्मत की है तो सिर्फ उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार ने। इतना ही नहीं मेरे पास मौजूद दर्जनों फाइलों में कैद दस्तावेज ये साबित करने के लिए काफी हैं कि यहां क़ानून तक का मज़ाक़ उड़ाना प्रशासन के बाएं हाथ का खेल है। यानि कुल मिला कर अगर कहा जाए कि जो क़ानून देस भर में या किसी भी अन्य प्रदेश मे पूरी तरह से प्रभावी है तो वो उत्तर प्रदेश में बेबस सा नज़र आता है। ऐसे में किसी कमज़ोर पत्रकार की माता जी और परिवार को पुलिस 12 घंटे तक मानसिक प्रताड़ना देती रहे तो कोई ताज्जुब नहीं।

लेकिन धन्य है वो माता जिसने अपने पत्रकार बेटे को एक ऐसी स्टोरी मुहय्या करा दी जिससे उत्तर प्रदेश के पूरे तंत्र को ही नहीं बल्कि उन तमाम लोगों को भी बेनक़ाब कर दिया है जो बात तो करते हैं जनता की मगर महज़ वोटों की हद तक। उत्तर प्रदेश सरकार की आलोचना करने वाले कांग्रेसियों को बुरा ना लगे तो एक बात कहूं। वो महज़ राजनीति में बीच वाले की हैसियत से सिर्फ हथेलियां बजा कर काम चलाना चाहते हैं। काग्रेस के रंग रूप को देखकर किन्नर और भी सम्मानित नज़र आने लगते हैं। जनता को बयानों से बहकाने वाली काग्रेस अगर सूबे की सत्ता में नहीं है तो क्या वो जनता को बेबस तड़पते देखने को ही राजनीति मानती है। या फिर राजनीतिक अवसर वाद के तहत किसी समझौते पर अमल किया जा रहा है।

उधर लोहिया के क़ाग़ज़ी शेर भी बहन जी के नाम से दुम दबा कर बैठे हैं। जनता की कमाई लुट रही है। और नेता जी को परिवार वाद से ही फुरसत नहीं। और केंद्र में विपक्ष के नाम पर राजनीतिक बुज़दिली का प्रतीक बन चुकी बीजेपी भले ही भगवानों के नाम पर बगले बजाती फिरे मगर आम जनता के हितों को लेकर शायद उसको किसी समझौता का आज भी इंतज़ार है। एक असहाय पत्रकार की माता जी का उत्तर प्रदेश पुलिस के हाथों अपमान भले ही टीआरपी के सौदागरों के लिए कोई बड़ी ख़बर ना हो मगर ये सवाल है उन लोगों से जो बाते तो करते हैं बड़ी बड़ी मगर उनकी सोच है बहुत ही छोटी। अगर आज इस सवाल पर बात ना की गई तो फिर मत कहना कि कोई पत्रकार किसी की लाश को महज़ इस डर से बेच रहा है कि पुलिस को देने के लिए पैसा ना हुए तो उसके साथ भी……!!!!!!!!!!!!!

लेखक आज़ाद ख़ालिद चैनल 1 में बतौर न्यूज़ हैड जुड़े रहे और इस चैनल को लांच कराया. डीडी, आंखों देखी से होते हुए तकरीबन 6 साल तक सहारा टीवी में रहे. एक साप्ताहिक क्राइम शो तफ्तीश को बतौर एंकर और प्रोड्यूसर प्रस्तुत किया. इंडिया टीवी, एस1, आज़ाद न्यूज़ के बाद वीओआई बतौर एसआईटी हेड काम किया. इन दिनों खुद का एक साप्ताहिक हिंदी अख़बार ‘दि मैन इ अपोज़िशन’ और न्यूज वेबसाइट oppositionnews.com चला रहे हैं.

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0 Comments

  1. anuj kumar

    October 17, 2010 at 10:33 pm

    yashwant ji shabad hi nahin hain iske liye,sabse adhik ham sab, mata ji ke apraadhi hain ho sakta ha ke es janam mein toh eska prayshchit na ho sake, bhagwan mayawati ko sadbudhdhi dey

  2. shravan shukla

    October 18, 2010 at 12:20 am

    करना क्या है बस इतना आह्वान करो.
    हम आपके साथ है बस आज्ञा प्रदान करो.

  3. aapkiawaz.com

    October 18, 2010 at 12:27 am

    यशवंत जी, खुद को असहाय या कमज़ोर बिलकुल न समझे, ये घटना अपको जीवन पर्यंन्त अन्याय से लड़ने की प्रेरणा देती रहेगी। इसे जीवन की परिक्षा समझियें, और परिक्षा बहादुर की ही होती है। आज उनकी बारी थी, उनसे जो हो सका कर लिया, अब बारी हम लोगों की है, ऐसा सबक सिखाये की किसी भी माँ के खिलाफ कार्यवाही करने के पहले ये सो बार सोचने के लिए मजबूर हो। न्याय व अन्याय की जंग तो पुरानी है, और जालिम को भी कभी-कभी अपनी हरकत करने का मोका मिल जाता है। धैर्य व हिम्मत को अपना हथियार बनायें। हम लोग हर संभंव सहयोग का प्रयास जारी रखे हुए है। संपादक- आपकी आवाज़.कांम

  4. भारतीय़ नागरिक

    October 18, 2010 at 12:52 am

    पुलिस का चरित्र हमेशा ऐसा ही रहा है. यह व्यवस्था खत्म होना चाहिये..

  5. [email protected]

    October 18, 2010 at 2:24 am

    kuch kar dikhao , uper wala aap ko jannat bakshega……….

  6. ravindra.prabhat

    October 18, 2010 at 4:17 pm

    शर्मनाक….! धैर्य व हिम्मत को अपना हथियार बनायें यशवंत जी,हम आपके साथ है

  7. vivek chandra

    October 18, 2010 at 6:37 pm

    शर्मनाक….!

  8. yogesh jadon

    October 18, 2010 at 7:02 pm

    यशवंत भाई,
    मुझे आपसे सहानुभूति है यह कहकर मैं आपको कमजोर व्यक्ति के तौर पर नहीं आंकना चाहता हूं। मै तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि इन हरामजादे पुलिस वालों को जब नक्सली उलटा लटकाकर उनके पिछवाड़े बंदूक घुसेड़ देते हैं तो पूरी मीडिया सहानुभूति और नक्सलियों को दानव बताने मैं ही अपनी इंटेलीजेंसी और गांधीवादी चेहते को सामने लाती हैं। जब हमारी मांओं पर अत्याचार होते हैं तो धन्नासेठों के टुकड़ों पर पलने वाले संपादकों को सांप क्यों सूंघ जाता है। और हमारी मांए ही क्यों आज अत्याचार के शिकार किस आम आदमी की आवाज बन पा रहे हैं हम, सोचने की जरूरत है।
    योगेश जादौन

  9. Ambesh Bajpai

    October 18, 2010 at 8:46 pm

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  10. sampurna nand dubey

    October 19, 2010 at 12:24 am

    यशवंत जी वह आप की मां नहीं है वह मेरी मान है. और जो कृत्य पुलिस ने किया है वह बिल्कुल गाली लायक है. वे तो जब चाहे प्रेस की येसी तैसी करते हैं. अब तो हमारी मां और बहन भी सुरक्षित नहीं हैं और अब तो लग रहा हैं कि मेंड ही खेत चरने लगी. हम आपके साथ तन और मन के साथ हैं. धन तो भगवन ने दिया नहीं. अगर होता तो आज वह भी आपके ऊपर कुर्बान कर देता. आपके साईट ने हमें काफी बल दिया हैं. और उसी के बल पर मैं. जी रहा हूँ. मेरी जब भी जरुरत पड़े याद करियेगा. गर्दन की कसम आपके सामने सर होगा. प्रणाम

  11. मदन कुमार तिवारी

    October 19, 2010 at 2:35 am

    आज ३-४ दिनों के बाद भडास पर आया हूं। यशवंत भाई मै कैसे आपके संघर्ष में साथ दे सकता हू यह बताएं और उतर प्रदेश के डी जी पी का फोन न० मुझे दो जरा बात करुंगा कि पुलिस वालों पर कोई कारर्वाई क्यों नही हुई । इस मामले को मानव अधिकार आयोग के पास ले जाने की जरुरत है।

  12. Bijay

    October 19, 2010 at 2:54 am

    is tarah ke hadse patrkaro ke sath hote hai lekin uaski khabar news paper me nahi chapti. aazad jee aapne bhi apne seniour our malik ke leya kayi kam karwaye honge lekin aap ki pida ko kesi ne nahi samjha hoga. khair aap ki bebaki aachi lagi.

  13. Upendra

    October 19, 2010 at 2:42 pm

    Be brave and do something against such type of nonsence. We all with you. Your fight against system is not yours its of all.

  14. adhyaksh

    October 24, 2010 at 5:02 pm

    Menka gandhi told once, Mayawati is not amother. maine iski aalochna ki thi. lekin aab lagta hai ki aapna vichar badlne ko maajboor hona padega.

  15. Hari Shanker

    October 28, 2010 at 9:22 pm

    मै तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि इन हरामजादे पुलिस वालों को जब नक्सली उलटा लटकाकर उनके पिछवाड़े बंदूक घुसेड़ देते हैं तो पूरी मीडिया सहानुभूति और नक्सलियों को दानव बताने मैं ही अपनी इंटेलीजेंसी और गांधीवादी चेहते को सामने लाती हैं।
    जब हमारी मांओं पर अत्याचार होते हैं तो धन्नासेठों के टुकड़ों पर पलने वाले संपादकों को सांप क्यों सूंघ जाता है। और हमारी मांए ही क्यों आज अत्याचार के शिकार किस आम आदमी की हम आवाज बन पा रहे हैं हमे, सोचने की जरूरत है।

  16. योगराज शर्मा

    October 28, 2010 at 10:01 pm

    सुप्रीम कोर्ट ऐसे मामलों में स्पष्ट गाइड-लाइन दे, जो पालन नहीं कर रहे उन पुलिसवालों को दंडित करे

    आरोप किसी पर हो, और पुलिस किसी और को ले जाए… वो भी महिला को… किसी भी तरीके से जायज नहीं ठहराया जा सकता… इस तरह का ये पहला मामला नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट चाहे तो इसे उदाहरण मानकर ही स्पष्ट गाइडलाइन दे सकता है… क्या इससे पहले अखबारों, नेट या टीवी पर आने वाली खबरों पर अदालतों ने कभी संज्ञान नहीं लिया… इस बार अदालतों की ये खामोशी क्यों… मायावती या मनमोहन सिंह की सरकार ऐसे मामलों पर चुप बैठ सकती है, आंखें मूंद सकती है… लेकिन अदालत पर तो आज भी देश का भरोसा है…
    यशवंत जी की माता जी के साथ किए पुलिस के दुर्व्यवहार पर सरकारों की चुप्पी बहुत ही शर्मनाक है… पुलिस के उन अधिकारियों की खामोशी भी उन्ही की पोल खोल रही है, जो न्याय दिलाने की कसमें खाकर वर्दी और कुर्सी का रौब झाड़ने में लगे हैं…
    मेरी विनती है माननीय अदालतों से अपना हक दिखाएं… अपनी ताकत का एक बार फिर परिचय दें… अदालत आदेश जारी कर सकती है, उच्च स्तरीय जांच करवा सकती है… लेकिन यूपी पुलिस से नहीं, हम चाहते हैं कि किसी रिटायर्ड जज को जिम्मेदारी सौंपे…
    न्याय पर लोगों का विश्वास बढेगा…

    योगराज शर्मा
    एडिटर इन चीफ
    जर्नलिस्ट टुडे नेटवर्क

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