कुछ अन्यान्य कारणों से इधर लगभग दो महीनों से लेखन पर विराम सा लगा हुआ था पर 13 दिसंबर को वरिष्ठ पत्रकार साथी कमलेश थपलियाल के निधन की सूचना ने मुझे हिला कर रख दिया और स्वाभाविक `श्मशान दर्शन’ दीवार पर नजर आने लगा. सचमुच, मृत्यु अंत नहीं है बल्कि मृत्यु जीवन समीकरण का अंतिम कोष्ठक है.
जिसके बाद किसी व्यक्ति को मरणोपरांत समाज विवेचित करता है, समीकरण के बीच छोड़े गए अंकों का योग -वियोग, गुणा-भाग और शेष क्या है- मानवता के इतिहास में अधिकांश की मृत्यु में समीकरण फल शून्य ही रहा है. सिर्फ कुछ ही ऐसे खुशनसीब होते हैं जो काल की सीमाओं से परे के सत्य हैं. भाई कमलेश भी उनमे से एक हैं. जहाँ जीव विज्ञान सूत्र से पिता तक बरसी के पहले ही विस्मृत हो जाते हैं, वहीं कमलेश कई बरसों तक प्रति वर्ष याद आयेंगे.
1966 से 1997 तक के अपने सक्रिय खेल पत्रकारिता सफ़र के दौरान कमलेश थपलियाल महज रिपोर्टिंग ड्यूटी बजाये होते तो उनकी गिनती ‘आए राम, गए राम’ में हुई होती. परन्तु यह जुझारू उत्तराखंडी इस मामले में इतर था. कमलेश ने हिंदी खेल पत्रकारिता को शब्दों के बहाने दुर्दशा से सुरक्षा में पहुँचाया और इस गंभीर प्रयास के आम को अपने सहज हास्य के पल्लवों के बीच पाला-पोसा. उनके रसीले आमों में इतना दम-ख़म था कि डालियाँ आजीवन झुकी-झुकी रहीं. ज्ञानी अहंकारी होते हैं, कमलेश विनम्र रहे.
स्मृति चारण में व्यक्तिगत पाने-गंवाने का लेखा-जोखा नहीं होना चाहिए. लिहाजा मैंने क्या खोया, क्या पाया, यह आत्म प्रशंसा की निरर्थक मूर्खता है. हिंदी खेल पत्रकारिता ने उनसे क्या पाया
जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि कमलेश महज खेल रिपोर्टर ही नहीं थे बल्कि वो खेलों के लिए पूर्ण समर्पित एक ऐसे शख्स थे, जो हिंदी खेल पत्रकारिता को अंगरेजी के समतुल्य लाने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहे. ये जुनून ही तो था कि दशकों तक सरकारी नौकरी के साथ ही खेलों की लेखनी के माध्यम से सेवा करते रहे और जब देखा कि नौकरी से पत्रकारिता बाधित हो रही है, तो सरकार को प्रणाम कर पूर्णकालिक पत्रकार हो गए और 1981 से 1997 तक हिंदुस्तान को अपनी सेवाएं देते रहे.
कमलेश उस टीम के प्रमुख हिस्सा थे, जिसने विदेशी खेलों के तकनीकी शब्दों का हिंदी में ऐसा सरलीकरण किया कि देखते ही देखते देश के सभी हिन्दीभाषी अख़बारों ने उन्हें पूरी शिद्दत से अपना लिया था. यह बात दीगर है कि उनमे से अधिकांश शब्द लगभग खो से गए हैं. कम शब्दों में बहुत कुछ कह देना कमलेश का अपना वैशिष्टय था. 1990 हाकी विश्व कप के लिए पाकिस्तान से की गयी कमलेश की कवरेज पुरनियों की स्मृति में अब भी ताजा है. दिल्ली के फीरोजशाह कोटला मैदान के प्रेस बॉक्स में अगर जोरदार ठहाकों की आवाज़ गूंजी तो यह बताने की जरूरत नहीं पड़ती थी 80 और 90 के दशकों में कि कमलेश के किसी गंभीर अंदाज में सुनाये गए जोक पर उठा यह शोर है.
मैं नहीं जानता कि खुशवंत सिंह को कमलेश के निधन की सूचना मिली या नहीं पर अगर मिली तो वो अपने साप्ताहिक स्तम्भ में इस पत्रकार का उल्लेख करना शायद ही भूलेंगे. बहुतेरों को शायद यह नहीं पता होगा कि कमलेश ने वर्षों तक खुशवंत सिंह को उनके लोकप्रिय स्तम्भ ‘बुरा न मानो’ के लिए जोक्स दिए. 2005 में जब माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय से मुझे हिंदी खेल पत्रकारिता के इतिहास लेखन के लिए फेलोशिप मिली तो दिल्ली की खेल पत्रकारिता पर लिखने के लिए जो नाम मेरे ज़ेहन में आया, वो कमलेश का ही था और उन्होंने अपने इस अनुज समान मित्र के लिए लिखा. कमलेश ने कलम से सचमुच तत्कालीन हिंदी खेल पत्रकारिता का सार्विक चित्र खींचा.
जीवन के 75 वसंत देखने से कुछ माह पहले दिवंगत हुए कमलेश परदे के पीछे के सेनापति रहे. मौत ब्रूटस बन कर खा गयी इस जूलियस सीज़र को सिजेरियन के जरिये. लेकिन उनके प्रशंसक अपने मन में एंटोनियो का वह भाषण बार-बार दोहराएंगे.. ”कमलेश वाज एन ए आनरेबल मैंन.”
लेखक पदमपति शर्मा जाने-माने हिंदी खेल पत्रकार हैं. बनारसी ठाठ के धनी पदमजी जहां भी रहे, अपनी तबीयत से रहे, जो भी किया डंके की चोट पर किया. हिंदी खेल पत्रकारिता की दशा-दिशा बदलने वाले पदम ने दर्जनों खेल पत्रकारों को ट्रेंड कर पत्रकारिता में बड़े जगहों पर पहुंचाया. साठ साल की उम्र में भी पदमजी इन दिनों दिल्ली मे दनदना रहे हैं. वेब जर्नलिज्म से लेकर इलेक्ट्रानिक, प्रिंट, रेडियो सभी मीडिया माध्यमों में सक्रिय हैं. वे अपनी आवाज, विजन, लेखन, विश्लेषण से तेज-तर्रार युवा पत्रकारों को पछाड़े हुए हैं.