यशवंत जी यह सबसे बड़ी सच्चाई है कि आज पत्रकारिता मिशन न हो कर केवल बिजनेस बन कर रह गया है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण छत्तीसगढ के बस्तर संभाग मुख्यालय जगदलपुर में देखा जा सकता है, जहां साल भर पूर्व दैनिक भास्कर और नवभारत दोनों ने अपनी यूनिट डालने की पूरी तैयारी कर ली थी.
बताया जाता है कि दोनों समूह ने अपने-अपने प्रोजेक्ट के लिए लाखों-करोड़ों रूपये पानी की तरह बहा दिया, लेकिन जब दोनों को इस बात का एहसास हुआ कि बस्तर में कमाई का कोई जरिया नहीं है तो फिर दोनों ही उल्टे पांव लौट गये. दरअसल बात यह है कि दोनों ही ग्रुप इस उम्मीद में थे कि शायद जल्द ही लोहण्डीगुडा में टाटा का स्टील प्लांट शुरू हो जायेगा या फिर नगरनार में एनएमडीसी का स्टील प्लांट बन कर तैयार हो जायेगा. जब दोनों ने देखा कि अभी फिलहाल दोनों की स्टील प्लांट अस्तित्व में नहीं आने वाले हैं फिर प्रेस यूनिट डालने से क्या फायदा?
छत्तीसगढ की राजधानी रायपुर में दोनों ही अखबार सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी हैं, लेकिन समाचारों को लेकर नहीं बल्कि विज्ञापन और कमाई को लेकर. एक दूसरे से सर्कुलेशन ज्यादा होने का दावा करने वाले इन अखबारों में मैदानी कर्मचारियों को कोई तवज्जो नहीं दी जाती, अलबत्ता जिन मैदानी पत्रकारों की मेहनत के कारण ये अखबार चल रहे हैं, उन्हें दरकिनार कर विज्ञापन और सर्कुलेशन वालों को ज्यादा तवज्जो दी जाती है. क्या यही पत्रकारिता है.
छत्तीसगढ़ से एक पत्रकार साथी द्वारा भेजे गए मेल पर आधारित.
Comments on “कमाई नहीं दिखी तो बस्तर से लौट गए भास्कर और नवभारत!”
dallal kahe ke.