यूपी में हर सरकार कानून का राज चलाने का दावा करते हुए आती है पर जल्दी ही न्याय-देवी की ऐसी मूर्ति में बदल जाती है जिसकी आंखे पारदर्शी पट्टी के पीछे से विरोधियों को घूर रही हैं और जिसने न्याय के तराजू को अपने स्वार्थों की तरफ झुका रखा है। इस “टेनीमारी” का नतीजा यह कि समूचा परिदृश्य अपराधियों के अनुकूल हो उठता है, लोग त्राहिमाम करने लगते हैं। पर यह जो त्राहिमाम सुनाई पड़ता है क्या वह सचमुच की पीड़ा और आम नागरिक की सुरक्षा की चिन्ता से पैदा हुआ है, इसकी पड़ताल करने की जरूरत है।
जैसे ही कोई बड़ी आपराधिक वारदात (आमतौर पर हत्या) होती है जिसमें सरकार को घेरने के लायक सारे रस और तत्व मौजूद हों कई नाटकीय परिवर्तन घटित होते हैं। सबसे पहले गले में सदाचार का ताबीज डाले विपक्षी राजनीतिक दल आते हैं। बयान, भर्त्सना फिर प्रायोजित आंदोलनों का सिलसिला शुरू होता है जिसमें यदा-कदा जनता भी दिखाई पड़ती है। फिर रिटायर्ड पूर्व पुलिस महानिदेशकों, कुछ वानप्रस्थी नौकरशाह और सक्रिय बुद्धिजीवियों के जत्थे प्रकट होते हैं जो प्रवचन शैली में बताते हैं कि कानून-व्यवस्था को सुधारने के लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए। तभी उचित अवसर की प्रतीक्षा करती सरकार विपक्षी दलों डपट देती है कि जब आपकी सरकार थी तब आपने क्या किया था। आरोप-प्रत्यारोप में कानून बेचारा विधानसभा के पिछवाड़े कहीं जाकर दुबक जाता है। रिटायर्ड पुलिस महानिदेशकों से कोई नहीं पूछता कि आप जब कुर्सी पर थे, तब आपका यह ज्ञान कहां था। लिहाजा वे बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर झुनझुने की तरह बजते रहते हैं। अपराधी कबड्डी खेलते रहते हैं, लोकतंत्र की लीला चलती रहती है।
जो अपराधी सरकारी दल में होते हैं उन्हें वहां एक खास उद्देश्य से भर्ती किया गया होता है। बड़े नेताओं द्वारा उन्हें सुधार कर, जिम्मेदार नागरिक के रूप में समाज को वापस कर देने का यह पवित्र उद्देश्य न्याय के मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित है और जनता उन्हे अपने वोट से चुनकर यह इच्छा पहले ही सार्वजनिक कर चुकी होती है। उन्हें सुधारने की नीयत से ही बड़े नेता उन्हें कभी “गरीबों का मसीहा” तो कभी “राबिनहुड बताते” रहते हैं। लेकिन अन्य दलों के जो अपराधी होते हैं वे अनिवार्य तौर पर समाजविरोधी और लोकतंत्र के नाम पर कलंक होते हैं। वे हमेशा इस अवसर की तलाश में रहते हैं कि वे सरकार में घुस कर सुधरने का अवसर पा सकें। अवसरों की संभावना के इस दौर असल कारनामा यह हुआ है कि विधानसभा में आपराधिक पृष्ठभूमि के इतने माननीय पहुंच चुके हैं कि वे चाहें तो मिलकर अपनी सरकार बना सकते हैं और राजनेताओं को सुधारने की परियोजना चला सकते हैं। खैर उन्होंने उन्होंने अपने बाहुबल से राजनीति का चरित्र तो बदल ही डाला है। यही कारण है कि कोई भी सरकार अब कानून का राज नहीं स्थापित कर पाती।
सुखी-संपन्न भविष्य के अचूक फार्मूले के रूप में अपराध को समाज में जबर्दस्त लोकप्रियता मिल रही है। अपराध अब नैतिक मुद्दा नहीं रहा, वह एक तकनीक है। मूल रूझान अब कानून को मानने का नहीं उसे धता बताकर किसी भी कीमत पर कामयाब होने का है। रिश्वत लेने वालों से लेकर दूध में यूरिया मिलाने वाले, नकली दवाएं बेचने वाले, लौकी में आक्सीटोसिन का इंजेक्शन ठोंकने वालों तक, सभी किस्मों के अपराधियों को विश्वास है कि वे महान लोकतंत्र के गुप्त रास्तों से बच निकलेंगे। क्या अब उन्हीं लोगों को निर्दोष कहा जाता है जिनमें अपराध करने की हिम्मत नहीं है? यह एक ऐसा सवाल है जिस पर सोचा जाना चाहिए।
लेखक अनिल यादव उत्तर प्रदेश के जाने-माने पत्रकार हैं. इन दिनों दी पायनियर, लखनऊ में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं. अमर उजाला, हिंदुस्तान, जागरण समेत कई अखबारों-मैग्जीनों में काम कर चुके हैं. संगठन कर चुके हैं, देशाटन करते रहते हैं. पर इन दिनों इनका मन चिंतन और मनन में ज्यादा लग रहा है.
Comments on “जिनमें अपराध करने की हिम्मत नहीं अब वही भले!”
अनिल जी की अभिव्यक्ति की क्षमता लाजवाब है। जैसे संविधान की प्रस्तावना उसकी आत्मा है ठीक उसी तरह अनिल जी का ये लेख उस आत्मा का गंदा शरीर है।