लखनऊ के जाने-माने और कलम के धनी पत्रकार अनिल यादव दस दिन की विपश्यना ध्यान पद्धति की कक्षा से वापस लौटे हैं. उन्होंने अपने ब्लाग पर अपने अनुभव की पहली किश्त प्रकाशित की है. शिविर में जाने के दौरान उन्होंने एक छोटी सी सूचनात्मक पोस्ट भी डाली थी. इन दोनों पोस्टों को उनके ब्लाग से साभार लेकर यहां प्रकाशित कर रहे हैं. पहले वह सूचना जो उन्होंने ध्यान शिविर में जाने के दौरान दी थी-
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हिन्दी का लेखक
रिटायर्ड आईपीएस शैलेन्द्र सागर और उनके कथाकार मित्रों को सराहा जाना चाहिए कि अठारह साल पहले उनके द्वारा शुरू किया गया साहित्यिक आयोजन कथाक्रम लखनऊ की तहजीब का हिस्सा बन चुका है। लेकिन इत्ते से सफर में उसकी देह कांतिहीन और आत्मा जर्जर हो चली है। एक रस्म रह गई है जिसे निभाने के लिए एक बार फिर हिंदी पट्टी के कथाकार, आलोचक और दांतों के बीच जीभ की तरह इक्का दुक्का विनम्र कवि जुटे हैं। यह लिक्खाड़ों के खापों की पंचायत है। वे हर साल इसी तरह जुटते हैं, मंच पर मकई के दानों की तरह फूटते हैं और फिर लौट कर लिखने में जुत जाते हैं। वे साहित्य की बारीकियों यथा कलावाद, यथार्थवाद, दलितवाद, नारीवाद, शिल्प, बाजार, उत्तराधुनिकता वगैरा पर घनघोर बहस करते हैं।
जिनमें अपराध करने की हिम्मत नहीं अब वही भले!
यूपी में हर सरकार कानून का राज चलाने का दावा करते हुए आती है पर जल्दी ही न्याय-देवी की ऐसी मूर्ति में बदल जाती है जिसकी आंखे पारदर्शी पट्टी के पीछे से विरोधियों को घूर रही हैं और जिसने न्याय के तराजू को अपने स्वार्थों की तरफ झुका रखा है। इस “टेनीमारी” का नतीजा यह कि समूचा परिदृश्य अपराधियों के अनुकूल हो उठता है, लोग त्राहिमाम करने लगते हैं। पर यह जो त्राहिमाम सुनाई पड़ता है क्या वह सचमुच की पीड़ा और आम नागरिक की सुरक्षा की चिन्ता से पैदा हुआ है, इसकी पड़ताल करने की जरूरत है।
स्क्रिप्ट तो लोकसभा, विधानसभा चुनाव वाली है
[caption id="attachment_18305" align="alignleft" width="73"]अनिल यादव[/caption]यूपी में इतने उपद्रवी पंचायत चुनाव पहले कभी नहीं हुए कि सरकार को रासुका लगाने और जरूरत पड़ने पर गोली चलाने का आदेश देना पड़े। गांवों के प्रपंच तंत्र से अनजान जो लोग ‘अहा, ग्राम्य जीवन भी क्या है’ टाइप कविताओं और ग्रामीणों के भोलेपन के किस्सों की खुराक पर पले हैं उन्हें ताज्जुब हो सकता है कि इतनी मारकाट क्यों हो रही है।
पागल का अगड़म-बगड़म कागज
अखबारों के दफ्तर में दो तरह के लोग जरूर आते हैं। पहला वाला बेखटके घुस जाता है, दूसरा वाला सिकूरिटी में फंस जाता है। पहला इस अंदाज में एकाग्र प्रकट होता है जैसे चील चूहा तलाशती है। चूहा तलाश लेने के बाद वह सेवा का प्रस्ताव करते हुए खबरनुमा चीज सरकाता है। ढीठ हुआ तो पूछ भी लेता है कितना लगेगा? (हालांकि यह पेड न्यूज के दौर में निहायत पिछड़ी बात है, कितना दोगे, अब यह पूछने का दायित्व संपादक जैसे किसी सीनियर का हो गया है।)
मठ, खंजन चिड़िया, मिस लहुराबीर
[caption id="attachment_17027" align="alignleft"]अनिल यादव[/caption]एक कहानी (3) : डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी के भव्य, फोटोजेनिक, रिटायर्ड आईएएस पिता परिवार की प्रतिष्ठा, बेटे के कैरियर की चिंता के आवेग से मठों, अन्नक्षेत्रों और आश्रमों की परिक्रमा करने लगे। बनारस में ब्रिटिश जमाने के भी पहले से अफसरों और मठों का रिश्ता टिकाऊ, उपयोगी और विलक्षण रहा है। कमिश्नर, कलेक्टर, कप्तान आदि पोस्टिंग के पहले दिन काशी के कोतवाल कालभैरव के आगे माथा नवाकर मदिरा से उनका अभिषेक करते हैं। जो दुनियादार, चतुर होते हैं वे तुरंत किसी न किसी शक्तिपीठ में अपनी आस्था का लंगर डाल देते हैं, क्योंकि वहां अहर्निश परस्पर शक्तिपात होता रहता है। इन शक्तिपीठों में देश भर के ‘हू इज हू’ नेता, उद्योगपति, व्यापारी, माफिया, मंत्री भक्त या शिष्य के रूप में आते हैं।
आप कौन सा मसाला खाती थीं मेमसाहेब
एक कहानी (2) : एक हफ्ते बाद सिर मुड़ाए डीआईजी का बयान आया कि यह आत्महत्या नहीं, महज एक दुर्घटना थी। उनकी पत्नी पान मसाले की शौकीन थीं। बिजली जाने के बाद अंधेरे में उन्होंने पान मसाला के धोखे में, घर में पड़ा सल्फास खा लिया था। साथ ही खबर आई कि लवली त्रिपाठी के पिता ने डीआईजी पर अपनी बेटी को प्रताड़ित करने व आत्महत्या के लिए उकसाने का मुकदमा किया है और अदालत जाने वाले हैं। क्राइम रिपोर्टर यह खबर फीडकर रहा था और सी. अंतरात्मा पान का चौघड़ा थामे पीछे खड़े थे।
लवली त्रिपाठी की आत्महत्या
एक कहानी (1) : छवि जिसे फोटो समझती थी, दरअसल एक दुःस्वप्न था। रास्ते में चलते-चलते अक्सर उसे प्रकाश के हाथों में एक चेहरा दिखता था और उसके पीछे अपने दोनों हाथ सीने पर रखे, कुछ कहने की कोशिश करती एक बिना सिर की लड़की….। प्रकाश जिसे सपना जानता था, एक फोटो थी जो कभी भी नींद की घुमेर में झिलमिला कर लुप्त हो जाती थी- रात की झपकी के बाद जागते, अलसाए घाट, लाल दिखती नदी और सुबह का साफ आसमान है। एक बहुत ऊंचे झरोखेदार बुर्ज के नीचे सैकड़ों नंगी, मरियल, उभरी पसलियों वाली कुलबुलाती औरतों के ऊपर काठ की एक विशाल चौकी रखी है। उस डोलती, कंपकंपाती चौकी पर पीला उत्तरीय पहने उर्ध्वबाहु एक कद्दावर आदमी बैठा है जिसके सिर पर एक पुजारी तांबे के विशाल लोटे से दूध डाल रहा है। चौकी के एक कोने पर मुस्तैद खडे़ एक मुच्छड़ सिपाही के हाथों में हैंगर से लटकी एक कलफ लगी वर्दी है जो हवा में फड़फड़ा रही है। थोड़ी दूर समूहबद्ध, प्रसन्न बटुक मंत्र बुदबुदाते हुए चौकी की ओर अक्षत फेंक रहे हैं।
…क्योंकि नगर वधुएं अखबार नहीं पढ़तीं
भड़ास4मीडिया पर बहुत जल्द एक लंबी कहानी का प्रकाशन शुरू होगा. लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव लिखित इस कहानी का नाम है ‘क्योंकि नगर वधुएं अखबार नहीं पढ़तीं’. कहानी कुछ यूं है- उदास, निष्प्रभ तारे जैसा एक फोटो जनर्लिस्ट है. और है उसकी रहस्यमय नक्षत्र सी प्रेमिका. एक आत्महत्या के रहस्यों का पीछा करते हुए, वह दुनिया के सबसे पुराने यानि देह के धंधे के रहस्य जान जाता है. उन्हीं बदनाम गलियों में उसकी आंखें किसी वेश्या से नहीं अपने पेशे (पत्रकारिता) की आँखों से चार हो जाती है. यह आंखों का लड़ना मीडिया के क्रूर यथार्थ से मुठभेड़ है जिसमें शर्मसार होकर दोनों के आंखें फेर लेने के सिवा शायद कोई और रास्ता नहीं है…
वह भी कोई देश है महाराज
[caption id="attachment_15661" align="alignleft"]अनिल यादव[/caption]पुरानी दिल्ली के भयानक गंदगी, बदबू और भीड़ से भरे प्लेटफार्म नंबर नौ पर खड़ी मटमैली ब्रह्मपुत्र मेल को देखकर एकबारगी लगा कि यह ट्रेन एक जमाने से इसी तरह खड़ी है। अब कभी नहीं चलेगी। अंधेरे डिब्बों की टूटी खिड़कियों पर उल्टियों से बनी धारियां झिलमिला रही थीं जो सूख कर पपड़ी हो गईं थीं। रेलवे ट्रैक पर नेवले और बिल्ली के बीच के आकार के चूहे बेखौफ घूम रहे थे। 29 नवंबर की उस रात भी शरीर के खुले हिस्से मच्छरों के डंक से चुनचुना रहे थे। इस ट्रेन को देखकर सहज निष्कर्ष चला आता था कि चूंकि वह देश के सबसे रहस्यमय और उपेक्षित हिस्से की ओर जा रही थी इसलिए अंधेरे में उदास खडी थी। इसी पस्त ट्रेन को पकड़ने के लिए आधे घंटे पहले, हम दोनों यानि शाश्वत और मैं तीर की तरह पूर्वी दिल्ली की एक कोठरी से उठकर भागे थे।