उत्तराखंड में भ्रष्टाचार की जड़े कहीं गहरे तक धंसी हुईं हैं। यह किसी सरकार या किसी चेहरे तक सीमित नहीं है। निर्वाचन आयोग के मातहत काम करने वाले राज्य निर्वाचन विभाग भी इस बीमारी से बचा नहीं है। भ्रष्ट और बेइमान किस्म के नौकरशाह इसे भी अपनी काली कमाई का जरिया बनाने में नहीं चूक रहे हैं। जिस निर्वाचन आयोग पर गर्व करने के लिए इस मुल्क की जनता के पास बहुत सारी वजहें मौजूद हैं, उसी आयोग के दिशा-निर्देशन में उत्तराखंड में चुनाव के नाम पर करोड़ों का घोटाला खुलकर सामने आया है।
सीएजी की रिपोर्ट से पता चलता है कि भ्रष्टाचार रूपी बीमारी उत्तराखंड को किस तरह लुंजपुंज करती जा रही है। राज्य सरकार की ओर से वर्ष 2007 और 2008 के विधानसभा और लोक सभा चुनाव के लिए विधानसभा वार निर्वाचन प्रक्रिया के प्रबंधन के लिए टेंट और फर्नीचर समेत अन्य जरूरी सामान की खरीद के लिए 80 हजार रुपये की अधिकतम सीमा निर्धारित की थी। लेकिन निर्वाचन अधिकारियों ने मनमानी से सरकारी आदेशों की अनदेखी करते हुए कई गुना अधिक भुगतान दिखाकर सरकारी खजाने को तगड़ा चूना लगा डाला। कैग की देहरादून जिला निर्वाचन विभाग की लेखा परीक्षा रिपोर्ट से यह मामला सामने आया है।
2007 के विधानसभा चुनाव में देहरादून जनपद की नौ विधानसभा सीटों में टेंट व फर्नीचर आदि जरूरी सामान की आपूर्ति के लिए दो ठेकेदारों को 41.56 लाख रुपये का भुगतान किया गया। जबकि नियमानुसार 80 हजार रुपये प्रति विधानसभा सीट के हिसाब से 7 लाख 20 हजार रुपये का भुगतान किया जाना चाहिए था। घोटालेबाज निर्वाचन अधिकारी के कदम यहीं नहीं थमे। कमीशनखोरी के लिए मिलीभगत से बिना निविदा मांगे ही निर्वाचन अधिकारी ने हरिद्वार की दो फर्मों मैसर्स नरेन्द्र और मैसर्स शारदा को फिर ठेका दे दिया। इस बार लोकसभा सीट के दस विधानसभा क्षेत्रों के लिए 20.56 लाख रुपये का भुगतान किया गया। जबकि नियमानुसार मात्र आठ लाख रुपये का ही भुगतान किया जाना चाहिए था।
इस प्रकार 2007 के विधानसभा चुनाव में देहरादून की 9 सीटों और 2008 में लोकसभा उपचुनाव में 10 सीटों के लिए कुल 15 लाख रुपये ठेकेदारों को भुगतान किया जाना था, लेकिन जिला निर्वाचन अधिकारी की मिलीभगत से सहायक निर्वाचन अधिकारी ने ठेकेदारों से सांठगांठ कर 63 लाख रुपये का भुगतान किया गया। इस घोटाले के जवाब में जिला सहायक निर्वाचन अधिकारी ने उच्च अधिकारियों के मौखिक आदेशों का हवाला देते हुए ठेकेदारों को भुगतान करने की बात कही। इससे साफ जाहिर होता है कि इसमें सीधे-सीधे देहरादून जनपद में ही 48 लाख रुपये का घोटाला किया गया। इस तरह निर्वाचन अधिकारियों द्वारा सरकारी खजाने को लाखों का चूना लगा दिया गया।
सीएजी ने केवल नमूने के तौर पर देहरादून जिला निर्वाचन महकमे की जांच की है। अगर राज्य के तेरह जनपदों की सभी 70 विधानसभा सीटों में इसी तरह निर्वाचन अधिकारियों ने मनमानी से ठेकेदारों को भुगतान किया हो तो इस घोटाले का आकार काफी बड़ा हो जाता है। सीएजी की इस नमूना जांच को आधार माने तो 2007 के विधानसभा चुनाव में ही राज्यभर में निर्वाचन अधिकारियों द्वारा साढ़े तीन करोड़ का घोटाला किया गया। अब अगर 2009 के लोकसभा चुनाव में भी इसी तरह की मनमानी की गई हो तो यह घोटाला 7 करोड़ के आसपास ठहरता है। यह भी संभव है कि कुछ जिला निर्वाचन अधिकारियों ने सरकारी आदेश के अनुसार अस्सी हजार रुपये की सीमा में रहते ही खर्च किया हो, लेकिन निर्वाचन आयोग की नाक के नीचे देहरादून में जिस प्रकार लाखों का घोटाला किया गया, उससे इस बात की आशंका को बल मिलता है कि निर्वाचन विभाग के आला अफसरों के आदेश पर पूरे राज्य में कमीशनखोरी के लिए इस घोटाले को अंजाम दिया गया।
छानबीन से पता चला है कि राज्य के ज्यादातर जनपदों में इस तरह की मनमानी की गई। इससे निर्वाचन आयोग की भूमिका भी इस पूरे मामले में सवालों के घेरे में आती है। राज्य के निर्वाचन आयुक्त हरीश चंद्र जोशी कहते हैं कि सीएजी की रिपोर्ट मिलने के बाद दोषियों के खिलाफ कार्रवाई अमल में लाई जाएगी। लेकिन सवाल उठता है कि आयोग इतने समय तक कहां सोया हुआ था? इस पूरे मामले से पता चलता है कि जिस निर्वाचन आयोग पर इस देश की जनता आंख मूंदकर भरोसा करती है, वह भी दूध का धुला नहीं है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम के तौर पर क्या इस पर भी गौर नहीं किया जाना चाहिए।
लेखक दीपक आजाद हाल-फिलहाल तक दैनिक जागरण, देहरादून में कार्यरत थे. इन दिनों स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं.
Comments on “निर्वाचन आयोग की नाक के नीचे करोड़ों का घोटाला”
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