दस साल पहले उत्तराखंड जिन सवालों के समाधान की तलाश में वजूद में आया था, आज वे सभी सवाल फिर खतरनाक ढंग से उसका पीछा कर रहे हैं। विकास के पैमाने पर मैदान और पहाड़ के बीच की खाई पहले की अपेक्षा गहरी हुई है। पहाड़ पहले भी उत्तर प्रदेश में रहते हुए आर्थिक गतिविधियों से कटा हुआ एक उपेक्षित क्षेत्र था, और आज भी जब एक राज्य के रूप में उत्तराखंड दस साल की यात्रा पूरी कर चुका है।
राज्य की सारी आर्थिक गतिविधियां देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंह नगर के मैदानी भू-भाग में सिमट कर रह गई हैं। उत्तराखंड के भीतर पैदा हो रहे इस असंतुलन से मुख्यधारा की राजनीति में किसी तरह की कोई चिंता या हरकत नहीं दिखती। यही वे दस साल हैं जब राज्य के पर्वतीय क्षेत्र से खतरनाक रूप में रोजी-रोटी की तलाश में लोगों ने बड़ी तेजी से मैदान की ओर रुख किया है। शायद अब तक का यह सबसे ज्यादा पलायन भी है। विस्थापन इस समस्या को और गंभीर बना रहा है। हाइडो पॉवर प्रोजेक्टस से करीब पचास लाख की आबादी विस्थापन की चपेट में है।
जो सवाल दस साल पहले लखनऊ में बैठी सरकार से पूछे जा रहे थे, आज वहीं सवाल देहरादून में बैठे सत्ता के मठाधीशों से किए जा रहे हैं। मुख्यधारा का मीडिया इन सवालों पर गंभीर नहीं है, और उसमें कभी कुछ दिखता है भी तो वह चलताऊ किस्म का ही होता है। मीडिया का कारोबारी मॉडल उसे इसकी इजाजत भी नहीं देता। अखबार पर्वतीय क्षेत्र को कवर करते हैं भी तो वह सिर्फ इसलिए कि उसे सरकारी विज्ञापन समेटने होते हैं। वरना देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंह नगर ही कारोबारी लिहाज से उसके लिए मुफीद बैठता हैं। अब इस सबके प्रतिकार में कई तरह की आवाजें उठ रही हैं। कोई समग्रता में उत्तराखंड के सवालों को समझने की कोशिश कर रहा है तो कुछ ऐसे भी हैं जो जबरन उत्तराखंड का हिस्सा बनाए गए हरिद्वार और उधमसिंह नगर जिलों को फिर यूपी में मिलाने की बात कर रहे हैं।
एक तीसरी धारा भी है जो यूपी के बिजनौर और सहारनपुर को उत्तराखंड का हिस्सा बनाने की मांग उठा रहा है। इन्हीं सब सवालों को केन्द्र में रखते हुए पत्रकार शंकर भाटिया ‘उत्तराखंड के सुलगते सवाल’ नाम से एक बेहतरीन किताब के साथ समग्रता में इस बहस को आगे बढ़ा रहे हैं। भाटिया अपनी किताब में बताते हैं कि कैसे उत्तराखंड की परिसम्मपतियों पर अभी भी उत्तर प्रदेश कब्जा जमाए बैठा है, और यह भी कि उत्तराखंड के राजनेता अपने-अपने स्वार्थों के लिए बेशर्मी पर उतर आए हैं। जिन सवालों के लिए अलग राज्य की लड़ाई लड़ी गई, वे आज और भयावहता के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे हैं। जिस राज्य के निर्माण के लिए चालीस से अधिक लोगों ने शहादत दी, उस राज्य की दस साला तस्वीर को जानने-समझने के लिए पत्रकारीय दृष्टि से लिखी गई यह एक बेहतरीन किताब है।
भाटिया लिखते हैं- ‘ लखनऊ पर आरोप लगाया जाता था कि वहां के शासकों के लिए पहाड़ सिर्फ सैर सपाटे के साधन हैं, लखनऊ पहुंचकर वे पहाड़ को भूल जाते हैं। ये आरोप सच भी थे। लेकिन क्या आज के उत्तराखंड में पहाड़ की मौजूदा सच्चाई इस बात की प्रमाण नहीं है कि लखनऊ से अधिक निर्मोही तो देहरादून में बैठे शासक हैं? देश के आजाद होने के 53 सालों में जब तक कि उत्तराखंड वजूद में नहीं आया था, तब तक मैदान और पहाड़ के बीच विकास का अंतर मौजूद था, लेकिन तुलनात्मक रूप से देखें तो यह अंतर काफी कम था। उत्तराखंड बनने के बाद इन दस सालों में पहाड़ और मैदान के बीच विकास की खाई कई गुना चौड़ी क्यों हो गई? इस विभेदकारी विकास के लिए कौन जिम्मेदार है?’
इस तरह भाटिया सवालिया लहजे में उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन के केन्द्र में रहने वाले सवालों के साथ भाजपा-कांग्रेस और कुछ हदतक क्षेत्रीय दल यूकेडी के नेताओं की नाकामी पर गंभीर प्रश्न खड़े करते हैं। साथ में उत्तराखंड के विकास के उन दावों की भी पोल खोलते हैं जिनमें कहा जाता है कि यह राज्य अभूतपूर्व गति से आगे बढ़ रहा है।
देहरादून से दीपक आजाद की रिपोर्ट.
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उत्तराखंड के विकास के उन दावों की भी पोल खोलते हैं जिनमें कहा जाता है कि यह राज्य अभूतपूर्व गति से आगे बढ़ रहा है।
baki sab thik hai par antim in lineoo sai koi bhi uttarkhandi sahmat nahi hoga prayas accha hai lakin vikes ho raha hai ye bhi thik baat hai ager vikes nahi hotaa to log uttarkhand sai chalay jatay lakin ab log yaha aa rahay hai
power projet sai 50 lakh log prabbwate nahi hai rajaya ki kul jan sankya 1 crore sai jaydaa nahi hai