यशवंत भाई और आदरणीय दयानंद जी, अच्छा लेख पर क्षमा चाहता हूं कि क्या मैं जान सकता हूं कि दयानंद जी ने कितने वक्त तक जनसत्ता में काम किया था. जहां तक मेरी जानकारी है शायद केवल एक महीने बतौर प्रूफ रीडर. हो सकता है मैं गलत हूं और चाहूंगा कि दयानंद जी इसका खंडन करें. तो पाठक ही तय करें कि कोई व्यक्ति जिसने केवल एक महीने जनसत्ता में काम किया हो. ऐसे लेख लिखे मानो वो आलोक तोमर को बचपन से जानता हो…और जनसत्ता को मानो उसी ने स्थापित कर दिया.
क्षमा चाहूंगा पर लेख की भाषा से प्रतीत यही होता है…और फिर केवल एक महीने जनसत्ता में काम कर के आप कैसे प्रभाष जोशी को गरियाने की मुद्रा में आ गए…आपने उनका आकलन विश्लेषण शुरु कर दिया. आपको शायद याद हो कि उन्हीं प्रभाष जोशी के बारे में टिप्पणियां होने पर आलोक जी डेढ़ महीने लिख-लिख कर दसियों विरोधियों से मोर्चा लेते रहे. कभी प्रभाष जी के खिलाफ़ एक शब्द सुनना पसंद नहीं किया. मैं प्रभाष जी का भक्त नहीं पर आलोक जी का पागल प्रशंसक हूं…और यकीन मानिए आलोक तोमर आज होते तो आपसे इस बात पर भिड़ चुके होते. आलोक तोमर कभी प्रभाष जी के बारे में गलत नहीं सुनते…तो वो शख्स जो केवल एक महीने जनसत्ता में रहा, वो ये कैसे कर रहा है…क्या आलोक जी इससे खुश होते…..सोचिएगा.
राशिद
राशिद जी, आप की टिप्पणी पढ़ी, हंसी आई. और क्षोभ भी हुआ. आलोक का शोक भी आप ने लोप कर दिया. तार-तार कर दिया. आप ने अपनी पहचान सहित यह सवाल किया होता तो इस का जवाब देने में ज़्यादा आनंद आता. मुझे तो आप नहीं ही जानते, लगता है जनसत्ता के बारे में भी कुछ नहीं जानते. आप तो मेरे किसी ‘शुभचिंतक’ के हाथ खिलौना बन गए. आप अपनी टिप्पणी में तारीफ़ करते हुए लिखते हैं कि लेख अच्छा लगा. यहीं से आप की बुद्धि का भी पता चलता है. और एक कहावत याद आती है कि कौव्वा कान ले गया. माफ़ करें यह लेख नहीं संस्मरण है. नहीं जो आप को कुछ दुविधा लगी तो मेरा फ़ोन नंबर था, आईडी थी, आप सीधे पूछ सकते थे. फिर भी आप ने पूछा है तो जवाब देना मेरा नैतिक धर्म बनता है. दे रहा हूं.
आप ही के अंदाज़ में पूछते हुए जो बताऊं कि मैं जनसत्ता में एक महीने का प्रूफ़ रीडर भी नहीं, एक दिन का चपरासी था. तो क्या आप खुश हो जाएंगे? या वो जिन के कहे पर आप का कान कौव्वा ले गया है, खुश हो जाएंगे? या कि जो भी कुछ मैं ने आलोक तोमर के बारे में लिखा, वह झूठ हो जाएगा?
और आप तो प्रूफ़ रीडर को ऐसे नवाज़ रहे हैं गोया प्रूफ़ रीडर होना चोर होना होता है. बहुत बड़ा अपराध होता है. अफ़सोस कि प्रूफ़ रीडर को कुछ अहंकारी लोग अपने गधेपन में ऐसा ही समझते हैं. आप को बताऊं कि अपनी किताबों का फ़ाइनल प्रूफ़ मैं खुद पढ़ता हूं. और दुनिया के ज़्यादातर लेखक ऐसा ही करते हैं. हालां कि अभी भी मैं पक्का प्रूफ़ रीडर नहीं बन पाया हूं. बावजूद तमाम एहतियात के एकाध गलतियां रह ही जाती हैं, जिस का हमेशा अफ़सोस बना रहता है.
पर बात चूंकि जनसत्ता की आप ने चलाई है तो आप की तसल्ली के लिए बता ही दूं कि जनसत्ता में तब के समय एक भी प्रूफ़ रीडर नियुक्त नहीं हुआ था. जोशी जी कहते थे कि हर कोई अपना प्रूफ़ खुद पढे़. लोग पढ़ते भी थे. मैं भी पढ़ता था. बल्कि तब के साक्षर किस्म के कार्यवाहक समाचार संपादक गोपाल मिश्र से इस को ले कर मेरी किच-किच होती ही रहती थी. और वह जोशी जी से मेरी शिकायत करते ही रहते थे. खैर यह कहानी फिर सही.
बहरहाल तब अखबार में गलतियां भी चली जाती थीं. पर प्रभाष जोशी कहते थे कि प्रूफ़ रीडर कौम खतम करनी है. गो कि वह खुद बताते नहीं अघाते थे कि उन्हों ने अपना करियर नई दुनिया से बतौर प्रूफ़ रीडर शुरू किया था. और कि प्रभाष जोशी ही नहीं बहुतेरे संपादकों और लोगों ने प्रूफ़ रीडर से ही बिस्मिला किया है. एक संपादक तो कंपोजिटर भी नहीं, उस से भी नीचे डिस्ट्रीब्यूटर से काम शुरू किए. नाम है अरविंद कुमार. जो बाद में टाइम्स आफ़ इंडिया की पत्रिका माधुरी के संस्थापक संपादक हुए. 14 कि 16 बरस वहां रहे. बाद में सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट के भी संस्थापक संपादक हुए. अब थिसारस के लिए जाने जाते हैं. अब तो खैर अखबारों से सचमुच प्रूफ़ रीडर कौम खतम हो चुकी है. सिर्फ़ विज्ञापन के प्रूफ़ के लिए ही प्रूफ़ रीडर रखे जाते हैं, न्यूज़ के लिए नहीं. गोया अखबार सिर्फ़ विज्ञापन के लिए छपते हैं, खबर के लिए नहीं.
आप को बताऊं कि अभी तक तो मैं ने जनसत्ता तो क्या कहीं भी प्रूफ़ रीडर की नौकरी नहीं की. जनसत्ता में भी नहीं. आप चाहें तो आप को अपनी नियुक्ति की चिट्ठी स्कैन कर के भेज सकता हू. और जो आप को लगे कि वह भी फ़र्ज़ी है तो बताऊं कि इंडियन एक्सप्रेस में रिकार्ड रखने की परंपरा है. वहां से तसदीक कर सकते हैं. मेरे पास जनसत्ता में छपी खबरों की ढेर सारी कतरनें भी हैं आप देख सकते है. हां, बहुत सारे पुराने सहयोगी अभी जीवित हैं, स्वस्थ है, उन से भी तसदीक कर सकते हैं.
हां यह ज़रूर है कि जनसत्ता में मेरी पारी बहुत लंबी नहीं रही. पर माफ़ कीजिए एक महीने की भी नहीं थी. जुलाई 1983 में ज्वाइनिंग ही हुई थी. 23 नवंबर से अखबार छपना शुरू ही हुआ था. फ़रवरी, 1985 में मैं स्वतंत्र भारत, लखनऊ आ गया था. तो भी दिल्ली जाता था तो जनसत्ता भी ज़रूर जाता था. जब तक उस का दफ़्तर बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग पर था. तो तमाम पुराने साथियों से मिलने ही जाता था. जोशी जी से भी मिलता था और आलोक तोमर से भी. इन में से जब कोई लखनऊ आता तो है तो भी भेंट होती ही है. अगर वह चाहता है. जोशी जी और आलोक तोमर भी आते थे तो मुलाकात होती थी. फोन पर बात होती ही है अभी भी साथियों से. बात मुलाकात कोई रोक पाता है क्या?
आप को बताऊं कि जनसत्ता के पहले उसी दिल्ली में सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट में भी काम किया था. उस के संपादक अरविंद कुमार भी अभी जीवित हैं उन से भी भेंट-बात आज भी बदस्तूर जारी है. वह कोई 80 के हो रहे हैं और मेरे घर लखनऊ भी आ जाते हैं. मेरी किताबों की समीक्षा भी लिख देते हैं. तो क्या करेंगे आप?
रही बात जोशी जी के प्रति आप के श्रद्धा भाव की तो जोशी जी के आप नहीं, न सही मैं भक्त भी हूं. पर अंध भक्त नहीं हूं. शायद आप ने जोशी जी पर लिखा मेरा वह संस्मरण ‘हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे‘ नहीं पढा. इसी भड़ास पर है पढ़ लीजिए. आप की मोतियाबिंद भी उतर जाएगी. आप जान लीजिए कि 29 नवंबर, 2009 को इसी भड़ास पर वह संस्मरण जारी हुआ था. जिस में पूरे आदर के साथ मैं ने जोशी जी की तमाम खूबियों के बावजूद उन की तानाशाही के व्यौरे भी परोसे थे. साफ लिखा था कि वह छत देखते आते थे और फ़र्श देखते चले जाते थे. यह संस्मरण वागर्थ सहित तमाम तमाम जगहों पर छपा था. और तब हमारा दोस्त आलोक तोमर जिस के कि आप पागल प्रशंसक हैं, न सिर्फ़ जीवित था, स्वस्थ भी था. यह कहना थोड़ा हलकापन लगता है फिर भी आप की नादानी पर तरस खाते हुए बता दूं कि तब वह उस संस्मरण को पढ़ कर बोला कम रोया ज़्यादा था. फ़ोन पर. कहने लगा, ‘अरे, यह तो मुझे लिखना चाहिए था.’ आप को शायद जोशी जी को तानाशाह लिखने पर आपत्ति हो गई. बताऊं आप को कि ज़्यादातर कुर्सियों पर बैठे लोग, सफल लोग तानाशाह हो जाते हैं. प्रभाश जोशी भी उन में से एक थे.
आप को एक और घटना की याद दिलाता हूं. 1994 – 95 की बात है. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने प्रभाष जोशी को लोहिया विशिष्ट सम्मान से नवाज़ा था. तब मोती लाल बोरा उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे. राष्ट्रपति शासन के दौरान बोरा जी सर्वे सर्वा थे. मध्य प्रदेश के अनुराग में वह जोशी जी को यह सम्मान दे बैठे थे. गो कि जोशी जी इस के हकदार भी थे. उस पर कोई सवाल था भी नहीं. यह लखटकिया सम्मान लेने जोशी जी राजकीय अतिथि बन कर सपरिवार राजकीय विमान से आए थे. पर तब तक हुआ यह की बदली परिस्थितियों में मायावती मुख्यमंत्री बन गई थीं. और गांधी को शैतान की औलाद बता चुकी थीं. खैर जोशी जी आए. सम्मान-वम्मान ले कर राजकीय विमान से दिल्ली लौट गए.
उस समय तक मायावती का गांधी को शैतान की औलाद कहने का मुद्दा काफी गरमा चुका था. इस के पहले भी कांशीराम दिल्ली में एक बार गांधी समाधि पर अभद्रता कर सुर्खियां बटोर चुके थे. गांधी को शैतान की औलाद कहने पर आईजी लेबिल के एक आईपीएस अफ़सर कृपाकांत चतुर्वेदी पुलिस की सरकार द्वारा प्रकाशित एक पत्रिका में बतौर संपादक अपने नाम के आगे हरिजन लिख कर सस्पेंड हो चुके थे. खैर जोशी जी को भी मायावती का विरोध करने की सूझी. वह तब उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की गांधी समिति के सदस्य भी थे. उन्हों ने इस सदस्यता से विरोध स्वरूप इस्तीफ़ा दे दिया. अखबारों को इस बारे में सूचना भी भेज दी. तब भी मैं ने एक टिप्पणी लिखी थी, जोशी जी, हिंदी संस्थान और उन की नैतिकता. जिस में मैं ने ऐतराज जताते हुए साफ लिखा था कि जोशी जी के लिए लाख-दो लाख कोई मायने नहीं रखते. उन्हें सम्मान एक तो लेना ही नहीं था. और जो गलती से ले भी लिया तो लौटा देना चाहिए था. इस सिलसिले में मैं ने अशोक वाजपेयी से जुड़ी एक मुहिम और जनसत्ता में छपी खबरों और उस पर अशोक वाजपेयी का प्रतिवाद फिर जोशी जी, आलोक तोमर और एनके सिंह के जवाब का भी विस्तार से ज़िक्र किया था.
टिप्पणी मेरी लंबी और बहसतलब थी, जिसे एक फ़ीचर एजेंसी ने जारी किया था. और कि ढेर सारे अखबारों ने उसे छापा था. तब जोशी जी भी जीवित थे और आलोक तोमर भी. और कि इस के बाद मेरी बहुतेरी मुलाकातें जोशी जी से भी हुईं और आलोक तोमर से भी. जोशी जी मेरी उस टिप्पणी से क्षुब्ध थे. लेकिन उन्हों ने उसे कोई शब्द नहीं दिया. बस मेरे सिर पर हमेशा की तरह हाथ फेर दिया. और संयोग देखिए कि तब यह मुलाकात इसी लखनऊ में एक सेमिनार में हुई. जिस में मोतीलाल बोरा मुख्य अतिथि थे. मोहिसिना किदवई भी थीं. और कि यह सेमिनार भी उसी फ़ीचर एजेंसी ने आयोजित किया था, जिस ने जोशी जी पर मेरी लिखी टिप्पणी जारी की थी. जोशी जी मुख्य वक्ता थे. बताता चलूं कि इस फ़ीचर एजेंसी राष्ट्रीय समाचार फ़ीचर्स नेटवर्क का मैं संस्थापक संपादक हूं. और क्या- क्या बताऊं?
खैर, आप को एक और बात बताऊं कि हमारे यहां वनवासी राम की पूजा होती है, राजा राम की नहीं. जानते हैं क्यों? क्यों कि राजा राम निरंकुश था, तानाशाह भी. जो जिस सीता को रावण से छुड़ाने के लिए बानरों को साथ ले कर रावण से लड़ गया था. वही राजा बनने के बाद उसी गर्भवती सीता को वनवास दे बैठा. उस की आज तक निंदा होती है. तो जानिए कि जोशी जी ने एक सफल और मानक अखबार निकाला था सिर्फ़ इस लिए नहीं उन की जय-जय आज तक हो रही है. वह तो खैर है ही. लेकिन उस से बड़ा फ़ैक्टर यह है कि अंतिम समय तक एक तो उन्हों ने कलम नहीं छोड़ी और कि उस से भी बड़ा काम जो काम उन्हों ने किया वह यह कि पेड न्यूज़ के खिलाफ़ शंख बजाई. रणभेरी बजा दी. पूरे देश में बिगुल बजा दिया. घूम-घूम कर. लगभग एक्टिविस्ट बन गए. बिलकुल किसी जयप्रकाश नारायन की तरह, किसी विनोबा भावे की तरह. तो वह प्रभाष जोशी हो गए. बहुत बडे़ हो गए. लेकिन बतौर संपादक उन्हों ने सब कुछ के बावजूद रामनाथ गोयनका के एजेंडे पर किस खतरनाक ढंग से काम किया आप जब जानेंगे तब अंगुली दबा लेंगे. और सोचेंगे अरे, यह वही प्रभाष जोशी हैं?
राशिद जी आप की बात का खूब विस्तार से जवाब दे दिया है. फिर भी कोई कसर रह गई हो तो बताइएगा, वह भी पूरी करने की कोशिश करूंगा. फ़िलहाल तो जो कौव्वा आप का कान ले गया है उस के लिए और अपने लिए भी एक शेर रख लीजिए :
दोस्तों के शहर में नफ़रतों के तीर खा कर हमने
किस-किस को पुकारा यह कहानी फिर सही.
आमीन !
दयानंद पांडेय
लखनऊ
sikander hayat
March 26, 2011 at 7:32 am
me bi joshi g ka fan ho magar unki bharat ki afim yani criket ki andh bhakti or insan k rup me sadaran sachin ka gunghan bhut hi irritating ta ye baat to sach ha ki satta or kursi barshat karti ha is motiyabimb me aadmi apni koi galti nahi dek pata
prashant kumaar
March 26, 2011 at 8:04 am
Wah kya baat hai. Dil khush kar diya sir apne. Aise gadahon ko aisa hi zabaab chahiye. Khalish DNP style mein. Jis vyakti ko lekh aur sansmaran ke bich ka firk nahi malum woh kitna gyani hoga iska andaza log laga sakte hain. Yeh vyakti egoist hai, arrogant hai, hypocrite hai. Use DNP ki taashir pata nai. Aaj zaroor pata chal gaya hoga. Han Rasheed Bahi apse ek anurodh hai. Bina soche samjhe angaron ko haath mat lagayiga. Jal jayenge.
Ameen.
snt
March 26, 2011 at 11:49 am
चुतियों की कमी नहीं गालिब,
एक ढूंढों हजार मिलते हैं,
दूर ढूंढों पास मिलते हैं,
नगद ढूंढों उधार मिलते हैं,
virendra gupta-bhopal
March 26, 2011 at 3:35 pm
shir- ji
khay hm yha sb bhul n sakte—-Tomar sir k liye
sunit
March 27, 2011 at 3:08 am
ये दयानंद पांडेय न नब्बे के दशक में और न अस्सी के दशक में लखनऊ में ठीकठाक पत्रकारों की कतार में कभी नहीं रहा। चिरकुट, पैर छुऔवा और सीनियरों के लिए पान-तंबाकू लाने वाला रहा हो और इसी वजह से उसकी सबसे जान-पहचान रही हो तो बात दीगर है। लिखता ऐसे दंभ से है जैसे पराड़कर भी इसके दर पर माथा झुकाते रहे हों। कुछ घटिया नावेल जो मेरठ मंडी वालों से भी गए गुजरे हैं, आपने भड़ास पर डाल दिए और अमिताभ ठाकुर जैसे सीधे-सादे व्यक्ति ने समर्थन कर दिया तो ये समझने लगा है कि पराड़कर, अज्ञेय और राजेंद्र यादव सब पर ये दयानंद भारी है। यशवंत जी इस तरह से मजे लेने में इस बेचारे को उस टिटहरी जैसा दंभ हो जाएगा जिसको लगता है कि आसमान उसने ही रोक रखा है। ये आपका प्लेटफार्म अब जन प्लेटफार्म है, इसमें मजे लेने के लिए दयानंद पांडेय पैदा न करें तो अच्छा रहेगा और इसके पाठकों के प्रति आभार भी।
rachit pankaj
March 27, 2011 at 3:47 am
yashwant ji, ye farji logon ke patr mat lagaya karen jo kisi par ghatiya aarop lagate hon. in fact ye rashid ye sunit koyi aur nahin dainik jagaran lucknow ka raju mishra hai. jise lagata hai dayanand pandey se pahale se khunnas hai. ye vinod shukla ka purana champu hai. un ki lat khata tha, un ko tel lagata tha. aaj bhi un ko bech kha raha hai. isi bhadas par harmoniyam ke hazar tukade par huye vivad men bhi vah dayanand pandey ki nekar utarane ki gidad bhabhaki de raha th. tab to khul kar samane aaya nahin. ab alok tomar ke bahane vah kabhi rashid kabhi sunit kabhi kuch ban kar gali galauj kar raha hai. aur aap hain ki bina padatal kiy gali galauj chap rahe hain. aise masalon men trp badhane ke bajaya vivek se kam lena chahiye. in rashid, in sunit ko kahiye ki ph no aur pahachan de kar mardon ki tarah bat karen, sikhandi ki tarah nahin
rachit pankaj
March 27, 2011 at 3:50 am
aur phir ye rashid koyi jawab kyon nahin dete? ye farji khel aur logon ka pagalpan ka manch na banayen. to accha hoga. ye raju mishra jaise tadiyal piyakkad ise gali galauj ka manch bana rahe. koyi tathyatmak aarop hai nahin in ke pas. aur yah pucha jana chahiye ki in farji logon ka 80 ya 90 ya ab patrakarita ya lekhan men kya yogdan hai?
ashok mishra
March 27, 2011 at 10:35 am
भाई पांडेय जी
आप भी कहां बेकार की बहस में अपना समय जाया करते हैं। कौवों का तो काम ही कांव-कांव करना है। इसको लेकर आपको परेशान होने की जरूरत भी नहीं है। किसी के सौ बार गलत कह देने से सच गलत नहीं हो जाता है। हां, आपका आलोक तोमर को लेकर लिखा गया संस्मरण अच्छा लगा। उसे मैंने फेसबुक पर पढ़ा। उसके लिए बधाई। रासफीने का जिक्र आने से कई घटनाएं और साथियों की याद ताजा हो गई।
ved vilas uniyal
March 27, 2011 at 7:34 pm
jo jansatta se gambhirta se jude bo sab chup hai, is sammanit paper main 12 saal hamne bhi gujare, kai edit likhe, articla ,news likhe , bahut pyar se rahe, bhai logon se ek binti, is akhwar ko halke discuss ka jariya na banaye, iski apni pratistha ko mahsus kare, use yaad karen, jansatta shekhi bagharne ke liye nahi, kush manak sthapit karne ke liye hai. naraj mat hona
निरंजन परिहार
March 28, 2011 at 4:37 am
मित्रो,
आप सबसे करबद्ध प्रार्थना है कृपया गंदगी ना फैलाएं। हमारे साथी य़शवंत भाई ने बड़ी मेहनत और समर्पण से हमारे लिये यह मंच बनाया है। और आप हैं कि इसे ही गंदा करने पर तुले हुए हैं। यह सच है कि वैचारिक विरोधाभास हमारी पत्रकारीय कमजोरी है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि दम गाली गलौज पर उतर आएं।
जो लोग प्रभाषजी और आलोक तोमर के मामले में लट्ठ लेकर मैदान में हैं, उनको अपनी औकात भी नाप लेनी चाहिये। हम जिन लोगों ने प्रभाषजी और आलोक तोमर के साथ काम किया है और जनसत्ता को जिया है, वे सब जानते है कि वे दोनों क्या थे और किस स्तर के थे।
फिर दयानंद पांडे ने गलत क्या लिखा है। उन्होंने जो भी लिखा है डंके की चोट पर लिखा है। उनके लिखे पर जो लोग कमेंट कर रहे हैं, उनको तो अपना नाम लिखने तक में शर्म आती है। ऐसे लोगों के मुंह से तो प्रभाषजी और आलोक तोमर का नाम शोभा नहीं देता।