मायावती, मीडिया और नोएडा का अपशकुन

: तो क्या मायावती अगली बार फिर भी मुख्यमंत्री बन पाएंगी? : सवाल दिलचस्प है कि क्या मायावती अगली बार मुख्यमंत्री बन पाएंगी? यह सवाल उन की नोएडा यात्रा को ले कर है। अभी तक तो उत्तर प्रदेश की राजनीति में किसी भी मुख्यमंत्री के लिए नोएडा एक अपशकुन की तरह रहा है। इसे अंधविश्वास मानें या कुछ और लेकिन हुआ अभी तक यही है कि बतौर मुख्यमंत्री जो भी नोएडा गया है वह अपना मुख्यमंत्रित्व फिर दुहरा नहीं पाया है।

अमरकांतजी को मिले ज्ञानपीठ के बहाने मठाधीशों की खोज खबर

अमरकांत जी इन दिनों फिर चर्चा में हैं। ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर। अभी कुछ समय पहले भी वह चर्चा में थे। इन्हीं हथियारों से उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने पर। पर यह पुरस्कार भी उन्हें देरी से मिला था। बहुत देरी से। यह ज्ञानपीठ पुरस्कार अब की श्रीलाल शुक्ल को भी दिया गया है। उन्हों ने तो साफ कहा है कि यह पुरस्कार पा कर उन्हें हर्ष तो हुआ है पर रोमांच नहीं।

संसद में आग लगाने वाले राहत इंदौरी के शेर पर सांसद मौन क्यों?

क्या वर्तमान भारतीय संसद और उस की सर्वोच्चता, उस की गरिमा, गौरव और उस का गगन अब सचमुच खतरे में पड़ गया है? नहीं मैं सिर्फ़ आतंकवादी हमले की बात नहीं कर रहा हूं। कि जो चाहे उस पर जब चाहे वार कर सकता है। अभी बीते संसद सत्र में जिस तरह सांसदों ने अपने मुह मियां मिट्ठू बनते हुए संसद की सर्वोच्चता के भजन एक सुर में गाए थे, वह अद्भुत था।

हमको तो चलना आता है केवल सीना तान के

: भगवती चरण वर्मा की जयंती 30 अगस्‍त पर विशेष : कुछ लेखक होते हैं जो बहुत कुछ लिख जाने के बाद भी अपना पता नहीं दे पाते तो कुछ लेखक ऐसे भी होते हैं जिन की रचनाएं तुरंत उन का पता दे देती हैं। पर किसी लेखक की रचना ही अगर उस का पता बन जाए तो? किसी रचनाकार की रचना ही उस का पता हो जाए ऐसा नसीब मेरी जानकारी में दुनिया के सिर्फ़ एक ही लेखक के हिस्से में आया है। रचना है चित्रलेखा और लेखक हैं भगवती चरण वर्मा।

ध्यान रखना कांग्रेसियों, ये रामदेव नहीं, अन्ना हैं, अबकी खदेड़े तुम लोग जाओगे

दयानंद पांडेय: धृतराष्ट्र, मगध और अन्ना : आप को याद होगा कि पांडवों ने कौरवों से आखिर में सिर्फ़ पांच गांव मांगे थे जो उन्हें नहीं मिले थे। उलटे लाक्षागृह और अग्यातवास वगैरह के पैकेज के बाद युद्ध क्या भीषण युद्ध उन्हें लड़ना पडा था। अपनों से ही अपनों के खिलाफ़ युद्ध लड़ना कितना संघातिक तनाव लिए होता है, हम सब यह जानते हैं।

महिला लेखन यानी भूख की मारी चिड़िया

महिला लेखन की बिसात और ज़मीन अब बदल गई है। शर्म, संकोच और शराफ़त की जगह अब शरारत, शातिरपन और शोखी अपनी जगह बना रही है। जैसे समाज और व्यवहार बदल रहा है, औरत बदल रही है, वैसे ही महिला लेखन भी। खुलापन का आकाश और बोल्ड होने की अकुलाहट की इबारत महिला लेखन की नई बिसात और चाहत में तब्दील है। ‘आंचल में है दूध और आंखों में पानी’ की तसवीर अब बिलकुल उलट है।

अमिताभ बच्चन की सफलता और विनम्रता की मार्केटिंग

दयानंदअमिताभ बच्चन अब तो जब-तब लखनऊ आते रहते हैं। पर पहले ऐसा नहीं था। बहरहाल वह जब 1996 में एक बार लखनऊ आए थे तब मैं ने उन से एक लंबा इंटरव्यू लिया था। हिंदी फ़िल्मों में ऊट-पटांग ट्रीटमेंट पर जब बात की तो वह अपनी तरफ से कुछ कहने के बजाय हरिवंश राय बच्चन की शरण में चले गए।

मौकापरस्ती, धोखा और बेशर्मी जैसे शब्द भी राजीव शुक्ला से शर्मा जाएंगे

[caption id="attachment_20797" align="alignleft" width="122"]राजीव शुक्लाराजीव शुक्ला[/caption]: इंडिया टुडे में एक स्टोरी छपी जिसमें एक जगह लिखा था कि राजीव शुक्ला अमर सिंह से भी बडे पावर ब्रोकर हैं : सफलता का अब एक और नाम है मौकापरस्ती. पर जब राजीव शुक्ला का नाम आता है तो यह मौकापरस्ती शब्द भी शर्मा जाता है. तब और जब उसमें एक और तत्व जुड़ जाता है धोखा.

रेखा : शोख हसीना के विरह गीत

दयानंद  पांडेयपहले शोख फिर सेक्स बम से अभिनय की बढ़त बनाने वाली रेखा की शोहरत एक संजीदा अभिनेत्री के सफ़र में बदल जाएगी यह भला किसे मालूम था? सावन भादो से शुरुआत करने वाली रेखा ने जब चार दशक पहले सेल्यूलाइड की दुनिया में सर्राटा भरा था तो लोग कहते थे कि उसे शऊर नहीं. न अभिनय का न जीने का. लेकिन वह तब की तारीख थी. अब की तारीख में रेखा की कैफ़ियत बदल गई है. अभिनय का शऊर और अपने जादू का जलवा तो वह कई बरसों से जता ही रही थीं, जीने की ललक और उसे करीने से कलफ़ देने का शऊर भी उन्हें अब आ ही गया है.

प्रभाष जोशी और आलोक तोमर : एक पाठक का पत्र और दयानंद पांडेय का जवाब

यशवंत भाई और आदरणीय दयानंद जी, अच्छा लेख पर क्षमा चाहता हूं कि क्या मैं जान सकता हूं कि दयानंद जी ने कितने वक्त तक जनसत्ता में काम किया था. जहां तक मेरी जानकारी है शायद केवल एक महीने बतौर प्रूफ रीडर. हो सकता है मैं गलत हूं और चाहूंगा कि दयानंद जी इसका खंडन करें. तो पाठक ही तय करें कि कोई व्यक्ति जिसने केवल एक महीने जनसत्ता में काम किया हो. ऐसे लेख लिखे मानो वो आलोक तोमर को बचपन से जानता हो…और जनसत्ता को मानो उसी ने स्थापित कर दिया.

”आलोक को प्रभाष जोशी की तानाशाही ने मार डाला था”

दयानंद पांडेय: जोशी के अर्जुन और एकलव्‍य दोनों थे तोमर : छोटा हूं ज़िंदगी से पर मौत से बडा हूं. आलोक तोमर के निधन की खबर जब होली के दिन मिली तो सोम ठाकुर के एक गीत की यही पंक्तियां याद आ गईं. सचमुच मौत आलोक तोमर से बहुत छोटी साबित हुई. लेकिन अपना अपराधबोध भी अब साल रहा है. माफ़ करना आलोक, मैं तुम्हें देखने, मिलने नहीं आ सका. चाह कर भी.

बब्बन यादव की पिंकी बनाम लोक कवि की भोजपुरी

दयानंद पांडेयउपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (11 और अंतिम) :  जाने यह टूटना उनका भोजपुरी भाषा की बढ़ती दुर्दशा को लेकर था या एलबम, सी.डी. के बाजार में अपनी अनुपस्थिति को लेकर था यह समझ पाना खुद लोक कवि के भी वश का नहीं था। उनके वश में तो अब अपने कैंप रेजींडेंस में बढ़ती चोरी को रोक पाना भी नहीं था। बात अब पैसा, कपड़ा-लत्ता और मोबाइल तक ही नहीं रह गई थी।

पर सट्टा करने के पहले पूछते हैं कि लड़कियां कितनी होंगी

दयानंद पांडेय: असंपादित : उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (10) : मुख़्तसर में यह कि एक गांव की एक ठकुराइन भरी जवानी में विधवा हो गईं। बाल बच्चे भी नहीं थे। लेकिन जायदाद ज्यादा थी और सुंदरता भी भरपूर। उनकी पढ़ाई लिखाई हालांकि हाई स्कूल तक ही थी तो भी ससुराल और मायके में उनके बराबर पढ़ी कोई औरत उनके घर में नहीं थी। औरत तो औरत कोई पुरुष भी हाई स्कूल पास नहीं था।

मीनू मध्य प्रदेश से चल कर लखनऊ आई थी

: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (9) : कैसेट बजने लगा और लड़कियां नाचने लगीं। साथ-साथ लोक कवि भी इस डांस में छटकने-फुदकने लगे। वैसे तो लोक कवि मंचों पर भी छटकते, फुदकते, थिरकते थे, नाचते थे। यहां फष्कषर्् सिर्फ इतना भर था कि मंच पर वह खुद के गाए गाने में ही छटकते फुदकते नाचते थे। पर यहां वह दिदलेर मेंहदी के गाए ‘बोल तररर’ गाने वाले बज रहे कैसेट पर छटकते फुदकते थिरक रहे थे।

तिवारी ने ‘ठांय’ से हवा में फायर किया तो सब लड़कियां भागने लगीं

दयानंद पांडेयउपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (8) : पोलादन चला तो आया गणेश तिवारी के घर से। पर रास्ते भर उनकी नीयत थाहता रहा। सोचता रहा कि कहीं ऐसा न हो कि पइसा भी चला जाए और खेत भी न मिले। ‘माया मिली न राम’ वाला मामला न हो जाए। वह इस बात पर भी बारहा सोचता रहा कि आखि़र गणेश बाबा फौजी का जोता बोया खेत जो उसने खुद बैनामा किया है, पांच लाख रुपया नकद ले कर, कैसे उसे वापिस मिल जाएगा भला?

अब तो लखनऊ में आर्केस्ट्रा खोल लौंडियों को नचा कर कमा खा रहा

दयानंद पांडेय: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (7) : और आखि़र तब तक लोक कवि परेशान रहे, बेहद परेशान ! जब तक कि कमलेश मर नहीं गया। कमलेश बंबई में मरा तो विद्युत शवदाह गृह में फूंका गया। इसी तरह  बैंकाक में गोपाल तिवारी भी फूंका गया। लेकिन गांव में तो विद्युत शवदाह गृह नहीं था। तो जब कोइरी, बरई के परिवार वाले मरे तो लकड़ी से उन्हें फूंका जाना था।

लोक कवि के जीवन में यादवों का योगदान

दयानंद पांडेय: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (5) :  कुछ दिन बाद चेयरमैन साहब ने बाबू साहब और लोक कवि के बीच बातचीत करवानी चाही पर दोनों ही एक दूसरे से बात करने को तैयार नहीं हुए। दोनों के बीच तनाव बना रहा। फिर भी घोषित तारीख़ पर जब लोक कवि सम्मान प्राप्त करने अपने गृह नगर जा रहे थे तो एक दिन पहले लोक कवि ने बाबू साहब को भी फोन कर विनयपूर्वक चलने के लिए कहा।

ठाकुर साहब को दो तीन थप्पड़ रसीद कर बोली- ‘कुत्ते, तेरी यह हिम्मत!’

: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (4) : कल परसों में तो जैसा कि पत्रकार ने लोक कवि को आश्वासन दिया था बात नहीं बनी लेकिन बरसों भी नहीं लगे। कुछ महीने लगे। लोक कवि को इसके लिए बाकायदा आवेदन देना पड़ा। फाइलबाजी और कई गैर जरूरी औपचारिकताओं की सुरंगों, खोहों और नदियों से लोक कवि को गुजरना पड़ा।

लोक कवि ने सम्मान दिलाने को कहा तो पत्रकार ने डांसर की डिमांड की

: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (3) : कभी कभार तो अजब हो जाता। क्या था कि लोक कवि की टीम में कभी कदा डांसर लड़कियों की संख्या टीम में ज्यादा हो जाती और उनके मुकाबले युवा कलाकारों या संगतकर्ताओं की संख्या कम हो जाती। बाकी पुरुष संगतकर्ता या गायक अधेड़ या वृद्ध होते जिनकी दिलचस्पी गाने बजाने और हद से हद शराब तक होती।

‘एक दिन तुम बहुत बड़ी कलाकार बनोगी’ कह कर उसे बांहों में भर लिया

दयानंद पांडेय: उपन्यास – लोक कवि अब गाते नहीं (2) : चेयरमैन साहब को हालांकि लोक कवि बड़ा मान देते थे पर मिसिराइन पर अभी-अभी उनकी टिप्पणी ने उन्हें आहत कर दिया था। इस आहत भाव को धोने ही के लिए उन्होंने भरी दुपहरिया में शराब पीना शुरू कर दिया। दो कलाकार लड़कियां भी उनका साथ देने के लिए इत्तफाक से तब तक आ गईं थीं।

विनोद शुक्ला और घनश्याम पंकज जैसों के पापों को पत्रकारों की कई पीढियां भुगतेंगी

दयानंद पांडेय: ऐसे लोग सूर्य प्रताप जैसे जुझारू पत्रकारों को दलाली में पारंगत करते रहेंगे : और अब तो प्रणव राय जैसे लोग भी बरखा दत्त पैदा करने ही लगे हैं : पहले संपादक नामक संस्था के समाप्त होने का रोना रोते थे, आइए अब पत्रकारिता के ही खत्म हो जाने पर विधवा विलाप करें : आंखें भर आई हैं सूर्य प्रताप उर्फ जय प्रकाश शाही जी की तकलीफों को याद कर, उनको नमन :

बिरहा भवन से लौट कर : देख नयन भरि आइल सजनी

दयानंद पांडेयआज ही बिरहा भवन से लौटा हूं. शोक, कोहरा और धुंध में लिपटा बिरहा भवन छोड़ कर लौटा हूं. शीत में नहाता हुआ. बिरहा भवन मतलब बालेश्वर का घर. जो मऊ ज़िले के गांव चचाईपार में है. कल्पनाथ राय रोड पर. बालेश्वर की बड़ी तमन्ना थी हमें अपने बिरहा भवन ले जाने की. दिखाने की. मैं भी जाना चाहता था. पर अकसर कोई न कोई व्यवधान आ जाता. कार्यक्रम टल जाता.

शीघ्र पढ़ेंगे दनपा का उपन्यास ‘लोक कवि अब गाते नहीं’

: स्वर्गीय जय प्रकाश शाही की याद में लिखा गया है यह उपन्यास : स्वर्गीय बालेश्वर के जीवन के कई दुख-सुख हैं इसमें : ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ सिर्फ भोजपुरी भाषा, उसकी गायकी और भोजपुरी समाज के क्षरण की कथा भर नहीं है बल्कि लोक भावनाओं और भारतीय समाज के संत्रास का आइना भी है।

अपनी शर्तों पर जिए वीरेंद्र सिह

[caption id="attachment_19212" align="alignleft" width="96"]वीरेंद्र सिंह वीरेंद्र सिंह [/caption]अपनी शर्तों पर ज़िदगी जीना आसान नहीं होता. हर कोई यह ज़िंदगी जी नहीं पाता. क्योंकि इस ज़िंदगी में अंतत; टूटने के खतरे ज़्यादा होते हैं. पर वीरेंद्र सिंह जीते थे. अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जीना जानते थे वह. ताज़िदगी पत्रकारिता कर के भी वह पत्रकारों वाले ऐबों से बचे रहे. उन्होंने कभी किसी सरकार से अनुदान नहीं लिया. कभी किसी ट्रांसफ़र-पोस्टिंग के पचड़े में नहीं पडे. ‘पत्रकारिता और भ्रष्‍टाचार’ पर संपादकीय ज़रूर लिखते रहे और कई लोगों को बेपरदा करते रहे. क्योंकि वह काम और व्यवहार दोनों में कडि़यल थे. दलाली और चाटुकारिता की इस घटाटोप पत्रकारिता में ऐसे कम ही संपादक हुए हैं जिन्होंने व्यवस्था और सत्ता के आगे घुटने नहीं टेके. वीरेंद्र सिंह भी उन्हीं में से एक थे.

चले गए बालेश्वर

[caption id="attachment_19156" align="alignleft" width="107"]स्वर्गीय बालेश्वरस्वर्गीय बालेश्वर[/caption]: स्मृति-शेष : सुधि बिसरवले बा हमार पिया निरमोहिया बनि के :  अवधी की धरती पर भोजपुरी में झंडा गाड़ गया यह लोक गायक : जैसे जाड़ा चुभ रहा है देह में वैसे ही मन में चुभ रहा है आज बालेश्वर का जाना। इस लिए भी कि वह बिलकुल मेरी आंखों के सामने ही आंखें मूंद बैठे। बताऊं कि मैं उनको जीता था, जीता हूं, और शायद जीता रहूंगा।

संडे से पढ़िए, नया उपन्यास, वे जो हारे हुए

: साफ सुथरी राजनीति और समाज का सपना देखने वाले तमाम-तमाम लोगों के नाम : भारतीय राजनीति और समाज में हो रही भारी टूट-फूट और उथल-पुथल की आह, अकुलाहट और इस की आंच का तापमान भर नहीं है, वे जो हारे हुए। ज़िंदगी की जद्दोजहद का, जिजीविषा और उसकी ललक का आकाश भी है। मूल्यों का अवमूल्यन, सिद्धांतों का तिरोहित हो जाना, इन का अंतर्द्वंद्व और इस मंथन में हारते जा रहे लोगों के त्रास का अंतहीन कंट्रास्ट और उन का वनवास भी है।

बढ़ती जा रही थीं भइया की अपमान कथाएं

: मीडिया पर केंद्रित एक नई कहानी-  ‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े’ : अंतिम भाग : भइया की अपमान कथाएं इधर बढ़ती जा रही थीं। पहले दूसरों की निरंतर अपमान कथा रचने वाले भइया, जिस तिस पर जब तब हाथ उठा देने वाले भइया, जिस तिस को गरिया देने वाले भइया अब अपने मान अपमान की फ़िक्र करने लगे थे।

दो बड़े अखबारों के तार-तार होने की कथा

: मीडिया पर केंद्रित एक नई कहानी-  ‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े‘ : भाग एक : बाज़ार, व्यवस्था और बेरोजगारी से संघर्ष कर रहे मीडिया के तमाम साथियों की कहानी : ‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े’ मतलब थके हारे मीडियाजनों के पराजित मन के असंख्य टुकड़े। मीडिया की चकमक दुनिया में कैसे तो उस का मिशनरी भाव नेस्तनाबूद हुआ और कैसे तो बाज़ार और उस की मार में घायल हो कर एक अप्रत्याशित दलदल को वह न्यौछावर हो गया, यह कथा भर ‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े’ में नहीं है।

हवाई पट्टी के हवा सिंह

: मीडिया पर कहानी : दूसरे महायुद्ध के समय बनी यह हवाई पट्टी आठ लोगों की जान की इस क़दर दुश्मन हो जाएगी, यह उसे क्या, किसी भी को नहीं मालूम था। लग रहा था कि जान अब गई कि तब गई। बस जहाज के उस जीप से टकरा जाने भर की देर थी। दोनों पायलट लगातार एक साथ गालियां और भगवान, दोनों उच्चारते जा रहे थे। सुबह का समय था। लग रहा था गांव के सारे लोग हवाई पट्टी पर ही बसने आ गए हों।

हैप्पी बर्थडे विश्वनाथजी

20 जून को 70 बरस पूरे कर रहे संगम की इस प्रतिमूर्ति के व्यक्तित्व के बारे में बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार दयानंद पांडेय : प्रयाग में संगम की सी शालीनता की स्वीकार्यता अगर किसी व्यक्ति में निहारनी हो तो विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से मिलिए। गंगा का प्रवाह, यमुना का पाट और सरस्वती का ठाट एक साथ समेटे मद्धिम-मद्धिम मुसकुराते हुए वह कई बार शिशुओं सी अबोधता बोते मिलते हैं।

मेरे को मास नहीं मानता, यह अच्छा है

[caption id="attachment_17405" align="alignleft" width="127"]हृदयनाथ मंगेशकरहृदयनाथ मंगेशकर[/caption]इंटरव्यू : हृदयनाथ मंगेशकर (मशहूर संगीतकार) : मास एक-एक सीढ़ी नीचे लाने लगता है : जीवन में जो भी संघर्ष किया सिर्फ ज़िंदगी चलाने के लिए किया, संगीत के लिए नहीं : आदमी को पता चलता ही नहीं, सहज हो जाना : बड़ी कला सहज ही हो जाती है, सोच कर नहीं : इतने लोगों से सीखा है कि अगर सबका गंडा बांध लेता तो हाथ भर जाता मेरा : लता मंगेशकर की सफलता से मेरा कोई संबंध नहीं है, मैं कभी उसका हाथ पकड़ कर चला ही नहीं : राज ठाकरे का निर्माण मराठियों ने नहीं, मीडिया ने किया है : अगर मेरे पिता जीवित रहते, हमारा बचपन अनाथ न होता तो हमारे परिवार में कोई भी प्ले बैक सिंगर नहीं हुआ होता, लता मंगेशकर भी नहीं : छः साल छोटी है दीदी से आशा, फिर भी आवाज़ मोटी हो गई है, दीदी की वैसी ही है जैसी पहले थी : ढाई हज़ार से अधिक बंदिशें याद हैं, इन्हें सहेज कर रख जाना चाहता हूं :

अनिल यादव, अब ऐतराज भी सुनिए

[caption id="attachment_17124" align="alignleft"]दयानंद पांडेयदयानंद पांडेय[/caption]कहानी का साजन तो उस पार था : माफ़ करिए डियर अनिल यादव क्योंकि ”…क्योंकि नगर वधुएं अखबार नहीं पढतीं” को लेकर अभी तक आप प्रार्थना सुन रहे थे, अब ऐतराज़ भी सुनिए। अव्वल तो इस विषय की स्थापना ही बसियाई हुई है। आप जानिए कि आज की नगर वधुएं अखबार ही नहीं, इंटरनेट भी बांचती हैं। यकीन न हो तो आप कुछ साइटों पर जाइए, बाकायदा उनकी प्रोफ़ाइल की भरमार है, किसिम-किसिम की फ़ोटो, व्योरे और देश, शहर सहित। डालर फूंकिए और इस नरक में कूद जाइए।

बाल श्रमिक से शब्दाचार्य तक की यात्रा

[caption id="attachment_16741" align="alignleft"]अरविंद कुमारअरविंद कुमार[/caption]पत्रकारिता और भारतीय समाज के रीयल हीरो हैं अरविन्द कुमार : हम नींव के पत्थर हैं तराशे नहीं जाते। सचमुच अरविन्द कुमार नाम की धूम हिन्दी जगत में उस तरह नहीं है जिस तरह होनी चाहिए। लेकिन काम उन्होंने कई बड़े-बड़े किए हैं। हिन्दी जगत के लोगों को उन का कृतज्ञ होना चाहिए। दरअसल अरविन्द कुमार ने हिन्दी थिसारस की रचना कर हिन्दी को जो मान दिलाया है, विश्व की श्रेष्ठ भाषाओं के समकक्ष ला कर खड़ा किया है, वह न सिर्फ़ अदभुत है बल्कि स्तुत्य भी है। कमलेश्वर उन्हें शब्दाचार्य कहते थे। 1996 में जब समान्तर कोश नाम से हिन्दी थिसारस नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया तो हिन्दी में बहुतेरे लोगों की आंखें फैल गईं। क्योंकि हिन्दी में बहुत सारे लोग थिसारस के कांसेप्ट से ही वाकिफ़ नहीं थे। और अरविन्द कुमार चर्चा में आ गए थे। इन दिनों वह फिर चर्चा में हैं। हिन्दी-अंगरेज़ी थिसारस तथा अंगरेज़ी-हिन्दी थिसारस और भारत के लिए बिलकुल अपना अंगरेज़ी थिसारस के लिए। इसे पेंग्विन ने छापा है।

जीते जी मर जाना और करियर का मर जाना

दयानंद पांडेयअशोक और धर्मेंद्र के बहाने कुछ बातें : हम अभिशप्त हैं बीवी-बच्चों को लावारिस छोड़ जाने के लिए : चाहे एसपी हों या एसपी त्रिपाठी, सहयोगियों के हितों के खिलाफ अखबार मालिकानों को बुद्धि देने वाली इन प्रजातियों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है : ज़माने ने मारे हैं जवां कैसे-कैसे! धर्मेंद्र सिंह की पत्रकारिता में और अशोक उपाध्याय की जीवन में मौत मुश्किल में डालने वाली है। दोनों ही खबरें क्रिसमस क्लांत कर गईं। मैं दोनों साथियों से परिचित नहीं हूं पर दोनों की तकलीफों से खूब परिचित हूं। हालांकि पत्रकारिता में बंधुआ होने की परंपरा की यह दैनंदिन घटनाएं हैं।

गिरहकट चला रहे मीडिया, मेधावी भर रहे पानी

दयानंद पांडेयजयप्रकाश शाही अब इस दुनिया में नहीं हैं, पर तब वह टूट कर कहते थे कि यार, अगर कथकली या भरतनाट्यम भी किए होते तो दस-बीस साल में देश में नाम कमा लिए होते : प्रिय पायल जी, भड़ास4मीडिया पर आपकी दोनों चिट्ठियां पढीं। अच्छा है कि बेवकूफियों से आप का जल्दी मोहभंग हो गया। तालिबानी चाशनी में पगी ड्रेस वाली बात भी पढ़ी। ऐसी बातों से घबराइएगा नहीं। रही बात पत्रकारिता की तो आज की पत्रकारिता में कुछ नहीं धरा है। जो भी कुछ है, अब वह सिर्फ़ और सिर्फ़ भडुओं के लिए है। अब उन्हीं के लिए रह गई है पत्रकारिता। अब तो कोई गिरहकट भी अखबार या चैनल चला दे रहा है और एक से एक मेधावी, एक से एक जीनियस वहां पानी भर रहे हैं। एक मास्टर भी बेहतर है आज के किसी पत्रकार से। नौकरी के लिहाज़ से।

इस पोर्टल को अश्लीलता से मुक्त रखिए

आदरणीय यशवंत जी, आपके द्वारा संचालित भड़ास4मीडिया मात्र एक वेबसाइट नहीं है, पत्रकारिता की अपनी आवाज है. इसके सुपरहिट होने का कारण इससे मिलने वाली जानकारियां हैं. इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं. लेकिन आप ने उपन्यास ‘अपने-अपने युद्ध’ का जो अश्लील सिलसिला शुरू किया है, वो चिंताजनक है. इस पर कुछ मित्र पहले भी चिंता जता चुके हैं. और आप भी महज दयानंद पाण्डेय की टिप्पणी प्रकाशित कर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सके हैं. दयानंद जी के जवाब के बाद तो उनसे उम्मीद करना ही व्यर्थ है. साहित्य और अश्लीलता में महीन-सा फर्क होता है, जिसका भेद करना जरूरी होता है.

समग्रता में पढ़ें, अश्लील नहीं, जीवन लगेगा

[caption id="attachment_15022" align="alignleft"]दयानंद पांडेयदयानंद पांडेय[/caption]आदरणीय यशवंत जी, नमस्कार। राजमणि सिंह जी और श्वेता रश्मि जी की आपत्तियां पढीं। पढ़ कर अफ़सोस ही हुआ। साहित्य में या जीवन में क्या श्लील है और क्या अश्लील, यह बहस बहुत पुरानी है। लगता है इन मित्रों ने सेक्स जीवन को ही अश्लील मान लिया है। कृष्ण बलदेव वैद्य का विवाद अभी ठंडा भी नहीं पड़ा है, हिंदी अकादमी के शलाका सम्मान के बाबत। खैर, ऐसे तो समूचा साहित्य ही अश्लील हो जाएगा जो इस पैमाने पर चलें तो। कालिदास ने शंकर जी की पूजा में लीन पार्वती जी का वर्णन किया है। वह लिखते हैं कि पार्वती जी पूजा में लीन हैं, कि अचानक ओस की एक बूंद उन के सिर पर आ कर गिरती है। लेकिन उन के केश इतने कोमल हैं कि ओस की बूंद उनके कपोल पर आ गिरती है। और कपोल भी इतने सुकोमल हैं कि ओस की बूंद छटक कर वक्ष पर आ गिरती है। पर वक्ष इतने कठोर हैं कि ओस की बूंद टूट कर धराशाई हो जाती है।