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बिहार में प्रेस पर नीतीश का अघोषित सेंसर

फजल: सरकार के खिलाफ लिखने पर नौकरी जाने का डर : सरकारी भोंपू की तरह बज रहा है राज्‍य का मीडिया : बिहार में सब कुछ ठीक है। क़ानून-व्यस्था पटरी पर लौट आई है। विकास चप्पे-चप्पे पर बिखरा है और ख़ुशहाली से लोग बमबम हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूं। बिहार के अख़बार और समाचार चैनलों से जो तस्वीर उभर कर सामने आ रही है उससे तो बस यही लग रहा है कि बिहार में इन दिनों विकास की धारा बह रही है और निजाम बदलते ही बिहार की तक़दीर बदल गई है।

फजल

फजल: सरकार के खिलाफ लिखने पर नौकरी जाने का डर : सरकारी भोंपू की तरह बज रहा है राज्‍य का मीडिया : बिहार में सब कुछ ठीक है। क़ानून-व्यस्था पटरी पर लौट आई है। विकास चप्पे-चप्पे पर बिखरा है और ख़ुशहाली से लोग बमबम हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूं। बिहार के अख़बार और समाचार चैनलों से जो तस्वीर उभर कर सामने आ रही है उससे तो बस यही लग रहा है कि बिहार में इन दिनों विकास की धारा बह रही है और निजाम बदलते ही बिहार की तक़दीर बदल गई है।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जाहिर है कि इससे गदगद हैं और विकास को देखने अपने लाव-लशकर और गाजे-बाजे के साथ सल्‍तनत को देखने निकले हैं। इस विकास यात्रा का ढिढोरा भी कम पीटा नहीं जा रहा है। नीतीश को टेंट में अकेले बैठा दिखाया जा रहा है, ग्रामीणों के साथ खाना खाते उनकी तस्वीरें हर अख़बार छाप रहा है और चैनल उसे सम्मोहित हो कर दिखा रहा है। कुछ चैनलों ने तो कई-कई घंटे तक किसी प्रायोजित कार्यक्रम की तरह नीतीश की शान में क़सीदे पढ़ते हुए उनके राजशाही ठाठ को दिखाया। उन चैनलों को देखते हुए यह लग रहा था कि हम किसी समाचार चैनल पर समाचार नहीं देख रहे हैं, बल्कि राज्य सरकार का अपना कोई चैनल देख रहे हैं जो नीतीश कुमार के गुणगान में किसी तरह की कोई कंजूसी नहीं दिखाना चाहता है। उन चैनलों में या अख़बारों में यह कहीं नहीं दिखाया गया कि बिहार के उन गांवों में जहां-जहां नीतीश ने पांव धरे थे वहां इन तीन सालों में कितना और कैसा बदलाव आया।

लोकशाही के इस दौर में राजशाही का नमूना इससे पहले दूसरी सरकारों के दौर में तो नहीं ही मिला था। लालू यादव के जंगल राज के दौरान भी नहीं। विकास यात्रा पर निकले नीतीश के ठाठ किसी राजा की तरह थे। नर्तकों और कलाकारों का लाव-लशकर भी उनके साथ पटना से गया था जो रात भर उनका दिल बहलाता। किनकी फ़सलें उजड़ गईं और किनके घरों को तोड़ा गया, इसकी ख़बर कहीं नहीं थी लेकिन विकास यात्रा की तस्वीरें थीं और नीतीश की घोषणाओं का जिक्र था। ठीक वैसी ही घोषणाएं जो इन तीन सालों में नीतीश करते रहे हैं। लेकिन हैरत की बात यह है कि नीतीश अपनी विकास यात्र के दौरान योजनाओं की ही घोषणा ही करते रहे, बिहार के उन गांवों में तीन सालों में क्या कुछ विकास हुआ इसकी जनकारी उन्होंने देने की जहमत तक नहीं उठाई। दरअसल नीतीश की फ़ितरत में यह है भी नहीं। सत्ता में रहते हुए उनमें ख़ुदाई इतनी आ जाती है कि उन्हें अपने सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता है। बिहार में जाहिर है कि इन दिनों नीतीश की ख़ुदाई चल रही है और इसके लिए उन्होंने सबसे बड़े हथियार यानी मीडिया को हर तरह से ‘मैनज’ किया है। इस ‘हर तरह’ को अघोषित सेंसर के तौर पर पाठक पढ़ें तो बात ज्य़ादा साफ़ और समझ में आएगी।

सुशासन और विकास का ढोल पीटने वाले नीतीश कुमार के राज में क्या सचमुच सब कुछ ठीक है और विकास की बयार बह रही है। बिहार और खा़स कर दूर-दराज के गांवों में जाने के बाद तो यह सब बातें महाछलावा और काग़जी ही नजर आती हैं। बिहार, शेखपुरा, सिकंदरा, जमुई, लखीसराय, खगड़िया जिलों का दौरा करें तो सड़कें बद से बदतर। बिजली कब आती है पता नहीं, पीने का साफ़ पानी भी मयस्सर नहीं। पर पटना में अख़बारों में इन सब पर न तो लिखा गया और न छपा। सड़कों का टेंडर सत्ताधारी पार्टी के किन-किन सांसदों व विधायकों ने लिए और सड़कें नहीं बनीं तो इसकी वजह क्या थी। भ्रष्टाचार ऐसा की पार्टी के बड़े से लेकर छोटे नेता तक टेंडर पास कराने के लिए पैसे की मांग करते हैं। सड़कें अदालतों में ज्यादा बन रही हैं। ठेकेदारों के झगड़े अदालतें ही निपटा रही हैं। नहीं मैं ऐसा नहीं कह रहा कि पहले की सरकारों में ऐसा नहीं होता था। ख़ूब होता था। लेकिन अख़बारों या चैनलों में स्याह-सफ़ेद के इस खेल को लेकर हंगामा किया जाता रहा था। पर आज ऐसा नहीं है। भ्रष्टाचार के दलदल में डूबी नीतीश सरकार और उनकी नौकरशाही की ख़बरें अब अख़बारों में कहीं दिखाई नहीं देतीं।

नीतीश के सखा और पार्टी के महत्‍वपूर्ण नेता शंभू श्रीवास्तव ने बिहार सरकार के कामकाज को लेकर हाल में ही जो टिप्पणी की उससे नीतीश की लफ्फ़ाजी की पोल पट्टी खुल जाती है। उन्होंने पत्रकारों से बातचीत करते हुए साफ़-साफ़ कहा- नीतीश के तीन साल के शासनकाल में प्रदेश में नौकरशाही हावी है। नौकरशाही में भ्रष्टाचार के कारण ही बिहार में निवेश कम हो रहे हैं, जिससे प्रदेश का औद्योगीकरण नहीं होने से रोजगार की तलाश में यहां से लोगों का दूसरे प्रदेशों में पलायन जारी है और बिहार में उद्योग की स्थापना नहीं होने से रोजगार की तलाश में प्रदेश से पिछले बीस सालों के दौरान करीब एक चौथाई आबादी का पलायन हुआ है और इसके लिए उन्होंने वर्तमान नीतीश सरकार सहित बिहार की सभी पिछली सरकारों को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने कहा कि पिछले 15 सालों के शासन के दौरान प्रदेश में किसी भी क्षेत्र में निवेश हुआ ही नहीं, लेकिन प्रदेश की वर्तमान नीतीश सरकार के तीन सालों के शासनकाल में 92 हजार करोड़ रुपए के निवेश किए जाने को लेकर समझौते किए जा चुके हैं, पर हकीकत यह है कि उसमें से मात्र 600 करोड़ रुपए का ही अब तक निवेश हुआ है, जो बिहार जैसे बड़े प्रदेश के लिए कुछ भी नहीं है। यहां तक कि केंद्र सरकार ने वर्तमान वित्‍तीय वर्ष में बिहार में सात हजार कृषि विपणन केंद्र खोले जाने के लिए 167 करोड़ रुपए आबंटित किए थे, लेकिन प्रदेश के कृषि विभाग के सही समय पर अंकेक्षण और परियोजना रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं किए जाने से राज्य सरकार इसमें से अब तक मात्र 11 करोड़ रुपए ही उठा पाई है। यह नीतीश सरकार के शासन का सच है। यह बातें किसी विपक्ष के नेता ने नहीं कही हैं। जनता दल (एकी) के एक क़द्दावर नेता ने यह बातें कही हैं। लेकिन मीडिया ने सत्ताधारी दल के इस बड़े नेता का यह बयान भी पटना के अख़बारों में उस तरह नहीं छपा, जिस तरह कभी सुशील कुमार मोदी के बयान को नमक-मिर्च लगा कर पटना के अख़बार छापा करते थे।

सवाल पूछा जा सकता है कि सत्ता के बदलाव के साथ ही बिहार में अख़बारों में यह बदलाव आया है। तो जवाब है नहीं। अख़बारों में यह बदलाव आया नहीं है, लाया गया है। सत्ता संभालने के बाद बिहार में सरकार ने सबसे पहला काम मीडिया को ‘मैनेज’ किया और इसके लिए हर वह हथकंडे इस्तेमाल किए गए जो एक तानाशाह या बर्बर शासक करता है। लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में बिहार में ‘जंगलराज’ पर लगभग हर रोज कुछ न कुछ विशेष ख़बरें छपती ही रहती थीं। लालू प्रसाद यादव के पिछड़े प्रेम और अगड़े विरोध ने बिहार में पत्रकारों को उनके ख़िलाफ़ कर दिया। यह मुख़ालफ़त घोषित नहीं अघोषित थी। लालू विरोध और नीतीश प्रेम के बीच सवाल यह है कि बिहार में इस पत्रकारिता ने किस का हित साधा है और इसका किसने उपयोग किया है। लालू प्रसाद यादव के पंद्रह साल व नीतीश कुमार के तीन साल के शासनकाल के दौरान मीडिया के रवैये से इन सवालों के जवाब मिलते हैं। पिछले तीन साल के दौरान बिहार में मीडिया में विकास की धारा बह रही है और सुशासन का जादू सर चढ़ कर बोल रहा है।

ख़बरों को बनाने वाले और उसका संपादन करने वाले छोटी सी छोटी ख़बरों में भी इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि कहीं इससे नीतीश की उजली छवि पर कोई दाग़ तो नहीं लग जाएगा। लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में ऐसी बात नहीं थी। तब सुशील कुमार मोदी के बयान को भी आधार बना कर विशेष ख़बरें बना डाली जती थीं। लगभग ऐसी ख़बरें रोज़ छापी और छपवाई जातीं थीं, जिससे राजनीतिक रूप से लालू यादव का नुक़सान हो। पर हैरत की बात यह है कि नीतीश कुमार के तीन साल के शासनकाल के दौरान बिहार के अख़बारों ने एक भी ऐसी ‘विशेष ख़बर’ प्रकाशित नहीं की, जिससे नीतीश का राजनीतिक क़द कम होता हो।

हद तो यह है कि विपक्षी नेताओं तक के बयान सेंसर किए जा रहे हैं। कभी जनता दल (एकी) के प्रवक्ता रहे संजय वर्मा के अख़बारी मित्र उनसे कहते हैं कि नीतीश के ख़िलाफ़ कोई बयान मत छपने के लिए भेजिए, छाप देंगे तो नौकरी चली जाएगी। नीतीश की मानसिकता और नीतियों की वजह से संजय वर्मा ने पार्टी छोड़ दी और पिछले क़रीब एक साल से वे शंकर आजाद और विज्ञान स्वरूप के साथ मिल कर शोषित सर्वण संघर्ष समिति (एसफोर) बना कर नीतीश की कारगुजारियों और बदनीयती की जानकारी बिहार के लोगों को दे रहे हैं। एस फोर लोगों के सामने नीतीश के उस चेहरे को रखने में जुटा है जो दिखता नहीं है और जो चेहरा किसी क्रूर तानाशाह का है। पर दिक्क़त यह है कि सारे सबूत देने के बावजूद पटना के अख़बार उनके बयानों को उस तरह नहीं छापते, जिस तरह छापना चाहिए। सच तो यह है कि राजद के शासनकाल में जिस तरह ख़बरें बनाई जा रहीं थीं, नीतीश के इन तीन सालों में बिहार में ख़बरें दबाई जा रही हैं।

नीतीश कुमार के शासनकाल में अगस्त में कोसी में आई बाढ़ ने गांव के गांव तबाह कर डाले। लोगों का मानना है कि पिछले एक सदी में आई यह सबसे बड़ी आपदा है। ख़ुद नीतीश ने इसे प्रलय कहा। यह बात अलग है कि नीतीश सरकार के आपदा प्रबंधन के आंकड़े इस बाढ़ को बहुत कम कर आंकता है। आपदा प्रबंधन विभाग के मुताबिक़ कुछ सौ लोग इस बाढ़ में मारे गए हैं। पर कोसी अंचल जा कर बाढ़ की विनाशलीला का पता लगता है। शंकर आजाद के साथ अभी-अभी सुपौल, मधेपुरा और अररिया के उन इलाकों में जाने का मौक़ा मिला तो तबाही को देख कर दिल परेशान हो गया। लोगों का कहना है कि बाढ़ में कम से कम पचास हजार लोग मारे गए हैं। नीतीश कुमार इन आंकड़ों को दबा रहे है ताकि सहायता को मिले 150  हजार करोड़ की रक़म का घपला किया जा सके। कोसी क्षेत्र में सुपौल से लेकर निर्मली और फिर ललितग्राम, प्रतापपुर, पिपरा, नरपतगंज उधर अररिया के बतनाहा से लेकर फारबिसगंज, बनमखी व पूर्णिया, मधेपुरा के कुमारखंड प्रखंड के रामनगर, मुरलीगंज, बभनगांवा, सुखासन व बिहारीगंज इलाक़े में बाढ़ की विभिषिका पूरी सच्चाई के साथ दिखाई देती है। खेत बालू से पटे हैं, घर तालाब बन गए हैं और इन इलाकों का संपर्क राज्य के दूसरे हिस्सों से लगभग ख़त्म है। सड़क व रेल मार्ग दोनों ही संपर्क टूट चुका है। पटरियां उखड़ी पड़ी हैं और हालत ऐसी है कि फ़िलहाल उसे बनाया भी नहीं जा सकता।

बाढ़ को लेकर नीतीश लाख सफ़ाई दें पर इतना तो साफ़ है कि राज्य सरकार की लापरवाही की वजह से कोसी का तटबंध टूटा था। पर मीडिया संवेदनहीन बना रहा। नीतीश की विकास यात्रा को प्रमुखता से प्रकाशित करने वाले अख़बार या इसका सीधा प्रसारण करने वाले समाचार चैनलों के लिए कोसी की बाढ़ कोई ख़बर नहीं है। वहां क्या हालात हैं और बाढ़ से तबाह हुए लोगों को क्या कुछ राहत मिला है या मिल रहा है उस पर एक भी खोजपरक रिपोर्ट बिहार के अख़बारों में देखने को नहीं मिली। जबकि उन गांवों को फिर से बसने में सालों लग जाएंगे। सरकारी स्तर पर कोसी के बाढ़ प्रभावित इलाकों में ऐसा कुछ नहीं किया गया है, जिसे लेकर उसकी पीठ ठोंकी जाए। पर बिहार के अख़बार ऐसा कर रहे हैं। सरकारी दावों व आंकड़ों को पहले पन्ने पर प्रमुखता से छापा जा रहा है और बाढ़ की त्रासदी को कम से कम दिखाने की कोशिश की जाती रही है। महीनों बीत जने के बाद भी किसी पत्रकार ने यह हिम्मत नहीं जुटाई कि कोसी के सच को सामने लाया जा सके।

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बिहार में सामाजिक न्याय और समाजवाद पर कभी बड़ी-बड़ी बातें कहने वाले और लालू यादव के ‘कुंनबा प्रेम’ पर पन्ने के पन्ने स्याह करने वाले किसी पत्रकार ने नीतीश कुमार के जातीय और नालंदा प्रेम को उजगर करने की जहमत नहीं उठाई। नालंदा जिला के नीतीश कुमार जाति से कुर्मी हैं और उन्होंने पार्टी के महिला व युवा अध्यक्ष पद पर अपने ही जिला के कुर्मी नेताओं को बैठाया है। किसी ने कभी कहा था कि ‘नशेमन लुट ही जाने का ग़म होता तो क्या ग़म था, यहां तो बेचने वालों ने गुलशन बेच डाला है’। नीतीश पर यह बात पूरी तरह लागू होती है। सिर्फ़ इन दो पदों पर ही वे अपनी बिरादरी और जिले के लोगों को बिठाते तो कोई बात नहीं थी। उन्होंने तो मानव संसाधन विकास मंत्री, मुख्य सचेतक विधान सभा व विधान परिषद, लोकायुक्त, वरिष्ठ उपाध्यक्ष नागरिक परिषद, मुख्यमंत्री के प्रधान व निजी सचिव, अध्यक्ष संस्कृति परिषद व राष्ट्रभाषा परिषद, पटना के जिलाधिकारी, पटना के ग्रामीण एसपी व पटना मेडिकल कॉलेज के सुपरिटेंडेंट के पदों पर अपनी बिरादरी व गृह जिला के लोगों का ला बिठाया है। थोड़ी पड़ताल की जाए तो यह सूची और भी लंबी हो सकती है पर नीतीश के इस जातीय प्रेम पर पटना के मीडिया में कोई सुगबुगाहट तक नहीं है।

बिहार में पत्रकारिता का यह नया चेहरा है जो नीतीश ने गढ़ा है और उनकी सरकार इसे आकार देने में लगी है। वरना क्या कारण है कि कर्मचारियों की हड़ताल की वजह से उत्पन्न स्थिति पर अख़बारों में ख़बरें अंदर के पन्नों पर जगह पाती हैं, जबकि इस हड़ताल से बिहार में पूरा तंत्र चरमरा गया है और कामकाज ठप है। लेकिन मीडिया चुप होकर सारा तमाशा देख रही है। हड़ताल पर सरकार अपना पक्ष रखते हुए अख़बारों में विज्ञापन देती है, अगले दिन उसी विज्ञापन के आधार पर अख़बार इसे लीड ख़बर बना कर कर्मचारियों को विलेन बताने की कोशिश में जुट जाते हैं। कभी भारतीय जनता पार्टी चाल, चरित्र और चेहरा की बात करती थी। बिहार के मीडिया के संदर्भ में अब यह कहा ज सकता है कि उसका चाल, चरित्र और चेहरा इन तीन सालों में पूरी तरह बदल गया है।

बिहार में मीडिया इन दिनों भीतर व बाहरी दबावों से जूझ रहा है। बाहरी दबाव पत्रकारों का वह पुराना ‘लालू प्रेम’ है, जिसने सुशील कुमार मोदी के बयानों को आधार बना कर ‘स्पेशल स्टोरी’ बनाई। पर यह बाहरी दबाव बहुत ज़्यादा ख़तरनाक नहीं है। भीतरी दबाव नीतीश कुमार की तानाशाही है और यह ज्‍यादा ख़तरनाक है। नीतीश और उनके सलाहकारों ने बहुत ही सलीक़े से पत्रकारों को अपना मुसाहिब बनाने के लिए हर वह हथकंडा अपनाया, जो सत्ता में बने रहने के लिए जरूरी है। नीतीश के कुछ नजदीकी लोगों की बात माने तो बिहार में पत्रकारों को पालतू व भ्रष्ट बनाने के लिए बाक़ायदा मुहिम छेड़ी गई और पत्रकार इसका शिकार बन कर सरकार के क़सीदे पढ़ने लगे। सरकारी विज्ञापनों का इस्तेमाल कर प्रबंधकों को भी स्याह को सफ़ेद करने के लिए ललचाया गया। जाहिर है कि ऐसे में खोजपरक ख़बरें तो छपने से रहीं।

बिहार के कुछ पत्रकारों ने ही यह भी बताया है कि अख़बारों को भेजे गए विपक्षी दलों के बयान तक छपने से पहले मुख्यमंत्री की टेबल पर पहुंचाए जाते हैं। समाचार एजेंसियों तक में ख़ुफ़िया विभाग के अधिकारी घूमते रहते हैं कि कहीं कोई ख़बर सरकार के खि़लाफ़ तो चलाई नहीं जा रही है। यहां तक कि दिल्ली से चलाई गई ख़बरों को लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय से निर्देश आते हैं कि सरकार की नकारात्मक छवि वाली ख़बरें नहीं चलाईं जाएं। ऐसा ही निर्देश अख़बारों के दफ़्तरों तक भी पहुंचाए जाते हैं। जाहिर है कि इसके बाद दिल्ली से जारी कोई ख़बर बिहार के अख़बारों में नहीं छपती और छपती भी हैं तो सरकार की नकारात्मक छवि को गौण करने के बाद। बिहार में यह अघोषित सेंसरशिप बहुत ही सुनियोजित ढंग से लागू किया गया है और अख़बारों को अपने हित में इस्तेमाल कर उसे राज्य सरकार का भोंपू बना डाला गया है।

फै़ज अहमद फैज ने कभी कहा था कि ‘मताए लौह-ओ-क़लम छिन गया तो क्या ग़म है, कि ख़ून-ए-दिल में डुबो दी हैं उंगलियां मैंने’, पर बिहार में मीडिया पर पहले बिठा दिए गए हैं और ख़ून-ए-दिल में उंगलियां डुबोने वाला कोई नजर नहीं आ रहा है। बिहार में जगन्नाथ मिश्र के अख़बारों पर लगाए गए प्रतिबंध को काला क़ानून बताते हुए कभी देश भर के पत्रकारों ने इसका विरोध किया था, आज नीतीश कुमार के अघोषित काला क़ानून पर कहीं कोई सुनगुन तक नहीं। यह बड़ी चिंता की बात है।

लेखक फज़ल इमाम मल्लिक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं तथा जनसत्‍ता से जुड़े हुए हैं. यह लेख उनके ब्‍लॉग सनद से साभार लिया  गया है.

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0 Comments

  1. madan kumar tiwary

    January 25, 2011 at 8:44 am

    चलो एक ने तो हिम्मत की बोलने की । जब मैं बोलता हूं की नितीश तानाशाह है , तब गालियां बकते हैं चमचे । साल भर पहले से ईवीएम पर काम करता रहा , रिजल्ट आते हीं लगा , हो गया जिसका शक था । जब लिखा ईवीएम पर तो सबकी बोलती बंद हो गई । ताता लग गया नेताओं के फ़ोन का । प्रेम कुमार के पीए ने भी बातचीत में स्वीकार कर लिया । इवीएम में गडबडी को । नीतीश की चाल को समझने के लिये उनसे एक कदम आगे सोचना पडता है । एक बात कह सकता हूं , आज या कल नीतीश जेल जायेंगे । ट्रेजरी घोटाले में हीं जाते , लेकिन उच्च नयायालय के गलत कदम से बच गयें । उच्च न्यायालय ने बिना सरकार का पक्ष सुने , सीबीआई से जांच का आदेश दे डाला । ट्रेजरी घोटाला मर नही सकता । अब तो एसी डीसी बिल जमा करके यानी गलत बिल जमा करके अपने खिलाफ़ सबुत भी दे डाले । २००६ में खरीद की गई सामग्री की रसीद २०१० दस में बना कर देने का क्या अर्थ है । होटल बुक करके फ़र्जी भुगतaान के कागजात तैयार किया गया है । नीतीश की कार्य शैली अलग है । ्फ़ंड जिला में लाने के लिये प्रतिशत जमा करो , मंत्री आदेश कर देगा , योजना का पैसा आ गया तो मिल बाट कर खाओ । एक छोटा सा उदाहरण देता हूं। साढे तीन लाख के जेनेरेटर सेटो की खरीद नौ लाख में पुरे बिहार के सभी विभगो ने की है । कंपनी किमत साढे तीन लाख बताती है , अधिकारी कहते हैं नौ लाख सरकार द्वारा अप्रूवड रेट है ।

  2. Abhay Kumar

    January 25, 2011 at 11:18 am

    The relationship between Nitish Kumar & Media can be gauged from the fact that Nitish named Farchand Ahmed ( India Today)in his speech being delivered while addressing the Pasmanmda Meeting at S K Meomrial in Patna. In Bhaglapur Nitish Kumar named Binod Bandhu in his speech.In his speech Nitish make it clear that he chose this venue for his meeting on advice of Binod Badhu ( Hindustan Dainik). Nitish Kumar visited to attend Sukesh Ranjan ( IBN 7) grandmother last rites. Many times Nitish Kumar paid such visit to the media personnel.

    How many times Nitish Kumar visited to attend any function of any ordinary JD(U) activist or of the NDA. Nitish always maintained distance with the gras root worker of the Party or alliance.

  3. ganesh prasad jha

    January 25, 2011 at 12:38 pm

    नीतीश कुमार “परब्रह्म” हो गए हैं.
    फजल भाई, आपने ठीक ही लिखा है. नीतीश कुमार पिछले कुछ सालों से “परब्रह्म” हो गए हैं. बिहार की क्या बात करें, पूरे नेशनल मीडिया पर उनका सेंसर “अव्यक्त” (यानी जो दिखता नहीं है) रूप से लागू है. वे अपने खिलाफ कुछ भी देखना, पढ़ना और सुनना पसंद नहीं करते. उन्हें हरतरफ सिर्फ अपनी आभा ही दिखाई दे रही है और वे सत्ता के अपने अहंकार में मदमस्त उसी में खोए हुए हैं. यह बात ध्रुवसत्य है कि यह अहंकार नीतीश को उल्टा पड़ेगा. पर कब यह तो समय बताएगा. पर मेरा अनुमान है कि नीतीश की बिहार में यह आखिरी पारी होगी. (यहां मैं यह साफ कर दूं कि मैं लालू समर्थक कतई नहीं हूं.) इस पारी की समाप्ति तक मीडिया भी उनके इस अव्यक्त सेंसर से उबकर खिलाफ हो चुका होगा. मैं उस नीतीश कुमार से दिल्ली के उनके एमएस अपार्टमेंट में कई बार मिला हूं जो उन दिनों कभी खाली होते थे तो कभी रेल के मंत्री. पर तबके नीतीश में मैंने कभी सत्ता का अहंकार नहीं देखा था. हां, सहजता और निजतापूर्ण व्यहार जरूर देखा था. पर पटना में “दैनिक जागरण” में रहते हुए नीतीश के सत्ता-अहंकार को बहुत करीब से और लगभग हर दिन देखा और महसूसा भी. उन दिनों में सोचा करता था कि आखिर इस अच्छे-भले आदमी को अचानक क्या हो गया. मैंने देखा कि कुछेक दरबारियों को छोड़ कोई भी पत्रकार नीतीश का सामना करने में भी हिचकता था. किसी सूचना के लिए जरूरी होने पर सीधे नीतीश को फोन करने तक में यह हिचक होती थी.
    अमूमन तो बिहार के अखबारों में नीतीश सरकार के खिलाफ कभी कोई खबर छपती ही नहीं थी (और आज भी यही स्थिति है). पर कई बार देखा कि कोई खबर धोखे से भी हल्की सी भी नीतीश सरकार के खिलाफ किसी एंगल से टिल्ट हो जाती थी तो अखबार का विज्ञापन रोक दिया जाता था. और एसा मैंने कई बार होते देखा. एसा बिहार के दूसरे अखबारों के साथ भी होता था. अभी सुना कि दैनिक जागरण के ब्यूरो प्रमुख सुभाष पांडेय जी की लिखी कोई खबर नीतीश कुमार को अच्छी नहीं लगी थी इसलिए अखबार के मालिक को डांट पड़ गई और नतीजा यह हुआ कि अखबार की रीढ़ समझे जानेवाले सुभाष जी को पटना छोड़ अखबार के धनबाद संस्करण में जाने का फरमान मिल गया. मालिक भी नहीं चाहते थे कि अखबार का विज्ञापन एक दफा फिर रोक दिया जाए, सो उन्होंने तत्काल हुक्म की तामील करना ही मुनासिब समझा. इसे नीतीश का अहंकार नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे. जगन्नाथ मिश्र को भी बिहार का मुख्यमंत्री रहते हुए एक बार एसा ही अहंकार हुआ था और उन्होंने बिहार प्रेस सेंसर बिल ला दिया था. जगन्नाथ मिश्र की गति जो हुई वो तो हम सब देख ही चुके हैं. पर यह बात भी है कि तब का प्रेस कुछ और था और आज का समय कुछ और है. आज के प्रेस में “मुख्यमंत्री की रक्तस्नान कहानी” जैसी कोई सच्चाई वाली चीज छापने की हिम्मत नहीं बची है. कहेंगे तो सुनने को मिलेगा कि इस तरह की चीज अब के समय में नहीं बिकती. उस समय खबरें बिका नहीं करती थीं इसलिए एसी खबर भी छपती थी. तब वह मीडिया था जो नेताओं-मुख्यमंत्रियों के अहंकार को जला दिया करता था. आज हम अपनी वो ताकत खो चुके हैं. नीतीश के इस अव्यक्त सेंसर की काट भी हमें ही तलाशनी होगी. बिहार से न सही बिहार के बाहर से ही सही, पर पलीता तो लगाना ही पड़ेगा. और तभी जलेगा नीतीश का यह अहंकार जो इसलिए भी जरूरी है क्योंकि हम अगर मानते हैं कि नीतीश ही बिहार के तारणहार हैं तो उनका आग में तपकर बाहर निकलना भी बहुत जरूरी है. और मीडिया ही उन्हें आग में तपाकर सोने की तरह शुद्ध कर सकता है. और इसके लिए हमें अपनी खबरों में बिहार के भले के लिए नीतीश सरकार का दूसरा चेहरा जो अब तक हमारी ही वजहों से (या हमारी कमजोरी से कहें) जनता की नजरों में अव्यक्त यानी अनरिपोर्टेड रह गया है, प्रमुखता से लिखना-छापना और दिखाना होगा. हमें नीतीश कुमार की जी-हुजूरी और उनका दरबारी बनना बंद करना होगा. — गणेश प्रसाद झा.

  4. madan kumar tiwary

    January 25, 2011 at 1:12 pm

    अभय जी आपका कमेंट पढा । अच्छा लगा । नीतीश की तानाशाही को समझना सबके बस कि बात नही है। बिहार के मीडिया के चमचों को गाली देना जारी रखें , ये सुधरे भले नही , चमचागिरी तो कम कर हीं देंगे ।

  5. bharat sagar

    January 25, 2011 at 11:00 pm

    Bahut Khoob Mallik Bhayee !

  6. chandan

    January 26, 2011 at 5:46 am

    etv ke ek reporter ne ‘koshi ka sach’ dikhaya tha to jharkhand bhej diya gaya sukr hai naukri bach gai. . .

  7. :)

    January 27, 2011 at 6:10 am

    Hahahaha…. Andhon me kana raja wali baat hai.. dusra is se bhi bura hai… ye to yahi bol ke aaye ki hum gaye to wo aa jayega aur wo hum se bhi bura hai… Inke bhole bhale chehre pe mat jao… sab sirf kagaji kaam hua hai bihar me… Media to hamesha hi desh aur rajya ke sarkaron ki dalali ki hai… agar sarkar wale value nahi diye to sarkar ki burai karo… Indian media is just a pimp

  8. Apurv Gourav

    January 27, 2011 at 3:24 pm

    Sahi kaha aapne, main puri tereh se sehmat hu….Media ka galat tereh se istmal kia ja raha hai, Jo ki bahut hi sarm ki bat hai. Media ko Samvidhan ka chautha stambh bola jata hai.Media nispach honi chaiyea, wo bina bhed bhao ke apni abhivayakti rekh sakti hai, aur ager kuch samaj main galat ho raha hai to use ujager kerna chaiyea.

    Main Khud Lakhisarai Jila se hu, bahut kam hi aata jata hu,lakin jo khabre milti hai aur jo dekhta hu Lakhisarai jile ko bane hue 10 sal se jyada ho gaye , lakin abhi tak waha sadke aachi nahi hai, Seher k logo ko maulik suvidha uplabdh nahi hai. Gaon main ja ker dekhiyea to aur bhi chitra spast najer aayega.

    Dhanyabad. [url]http://www.apurvgourav.blogspot.com[/url]

  9. Rajesh Kumar

    January 28, 2011 at 11:41 am

    Fazal ji jab aapko kuchh nahi mila likhne ke liye to Nitish par likhne lage. Kam se kam itna to socha hota ki pichhali sarkar ne kis haal me chhoda tha is state ko. Aur aaj hum kahan hai? Aapne jo v likha hai wo kisi party vises se prabhavit lagta hai. Aaj hum apne aapko Bihari kahne me fakra mahasus karte hai sirf aur sirf Nitish ji ke badaulat. Rahi Baat gaaon jaane ki aur Vikas ka dhindhora pitne ki to mai aapko bata doon ki agar jo kaam karega to wo janta ke samne jaane me sharm mahasus nahi karega agar jo kuchh janta ke liye karega hi nahi to janta ke paas kya jaega, ghotalon se desh ya state ka vikas nahi hota hai. Uske liye majbut irade chahiye jo humare Nitish ji me hai…. Aapke likhne se uski chhavi kharab nahi ho jayegi……….

  10. rakhi

    February 5, 2011 at 3:25 pm

    nice comment.i agree media should be transparent and HONEST,dont u think that our media is now playing a role like puppet.it becomes a business and deal.

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